कपिल सिब्बल, मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार
देश का मानव संसाधन विकास
मंत्री होने के नाते यह सुनिश्चित
करना मेरार् कत्ताव्य और दायित्व है कि हमारे बच्चे, मेरे मंत्रालय द्वारा शुरू किये जा रहे महत्वाकांक्षी शिक्षा सुधार कार्यक्रम के केंद्र
में रहें। राष्ट्र के रूप में हम इस समय सामूहिक रूप से कुछ ऐतिहासिक कदम उठाने जा रहे हैं जिससे हमारे बच्चे सशक्त बनेंगे और फिर उससे समूचा राष्ट्र सशक्त
बनेगा। भविष्य की मेरी जो परिकल्पना
है वह पूर्णतया बाल केन्द्रित शिक्षा प्रणाली की ही है। हम अतीत
में ही नहीं बने रह सकते। हमें अपने आपको विश्वभर में हो रहे परिवर्तनों की प्रक्रिया
के साथ कदम मिला कर चलना होगा। हमें
अतीत से
कुछ सबक लेकर उस पर वर्तमान का निर्माण करना है और हमारी वर्तमान
पीढ़ी के साथ-साथ भावी अजन्मी पीढ़ी के भविष्य के लिए सुनहरे अवसरों
का सृजन करना होगा। यहां,
तत्कालीन शिक्षा मंत्री एम.सी.छागला द्वारा 1964 में दिया गया दूरदर्शी और सारगर्भित बयान को स्मरण
करना समीचीन होगा जिसमें उन्होंने कहा था ''हमारे संविधान निर्माताओं का इरादा हमें टूटे-फूटे कमरे देकर उसमें छात्रों को भरकर अप्रशिक्षित शिक्षकों से ऐसी जगह घटिया पाठय पुस्तकों की पढ़ाई करवाना नहीं था, जहां खेल के मैदान नहीं हों, और हम कहें कि हमने
धारा
45 का अनुपालन कर लिया है और प्राथमिक शिक्षा का विस्तार हो रहा है। उनका इरादा तो यह था कि 6 से
14 वर्ष तक के बच्चों को वास्तविक शिक्षा दी जानी चाहिए।''
शिक्षा
का अधिकार विधेयक जब पारित हुआ था, तब यह उल्लास पर मनाया
जा रहा था, कि आखिरकार स्वतंत्रता के 62 वर्षों बाद हमने संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त
कर लिया है। परन्तु मेरा विचार है कि कानून बनाना
तो आसान है, परंतु उस पर अमल करना
आसान नहीं होता। यात्रा का कठिन भाग यहीं
से शुरू होता है। विधेयक पर समर्पित भावना से अमल करना, हमारे लिए एक चुनौती होगी। विधेयक
जब पारित हुआ था, बहुत सारी शंकाएं व्यक्त की जा रही थीं कि वह कैसे काम करेगा? सीसीई (सतत एवं समग्र मूल्यांकन) कैसे काम कर रहा है। सीबीएसई
(केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड) ने 10वीं की परीक्षा ऐच्छिक कर दी है और दसवीं
बोर्ड के परिणाम इस वर्ष
पिछले वर्ष की तुलना में बेहतर
रहे।
शिक्षा
के अधिकार विधेयक पर पूरी ईमानदारी और समर्पित
भावना से अमल करना एक ऐसा कार्य है, जिसके लिए हम कृतसंकल्प हैं। जो पूर्वानुमान
लगाया गया है,
उसके अनुसार 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों
के लिए इस विधेयक पर अमल करने के लिए 15 खरब रूपए की जरूरत होगी। अनुमान है कि 6 खरब रूपए
की कमी पड़ेगी। इस भारी चुनौती का सामना देश को सामूहिक रूप से करना है। सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) का शिक्षा के अधिकार
विधेयक के साथ तालमेल बिठाना, जाहिर है, हमारी प्राथमिकता
होगी।
बच्चे
किसी देश के लिए उसके सबसे
बहुमूल्य संसाधन होते हैं और यह सुनिश्चित करना हमारा दायित्व
है कि हमारे बच्चों को वे सभी अवसर मिलें
जो उन्हें अपने शारीरिक और बौध्दिक विकास के लिए चाहिए। इसे सुनिश्चित करने के
लिए,
हमें हमारी शिक्षा प्रणाली की वास्तविकता पर नजर डालनी
होगी। बच्चे को
क्या शिक्षा दी जानी चाहिए? ज्ञान की प्यासी और नए विचारों की भूखी दुनिया में कामयाब बनाने के लिए हमें अपने बच्चों को किस तरह तैयार करना चाहिए? हम अपनी परीक्षा प्रणाली
जो रटकर याद करने की शक्ति की ही परीक्षा लेती है,
को कैसे सुधारें? हमारी शिक्षा प्रणाली यह क्यों भूल जाती
है कि समझभरी स्मृति बौध्दिक विकास और रचानात्मक दृष्टि के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण
होती है। हम अपनी पाठय पुस्तकों का पुनर्लेखन किस प्रकार
करें और किस प्रकार अपनी
शिक्षण पध्दति में परिवर्तन लाएं कि श्री छागला के वक्तव्य को कम से कम अब तो प्रासंगिक साबित किया
जा सके। जहां तक मेरा प्रश्न है, मेरी संकल्पना एक ऐसी शिक्षा प्रणाली
की है जिसमें बच्चे की रचनात्मक सहजवृत्तिा को तराशा जा सके और उसे अपने नज़रिए
से दुनिया को समझने के लिए तैयार किया जा सके ताकि उसका
सही बौध्दिक विकास हो सके और वह एक प्रबुध्द नागरिक बन सके। यह एक ऐसा निवेश है, जो हमें अभी ही करना होगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भावी
पीढ़ी के लिये हम विरासत
में समृध्द सामाजिक पूंजी छोड़कर जा रहे है, न कि सूना भविष्य।
मेरे
मंत्रालय ने इस परिकल्पना को यथार्थ
में बदलने के लिए अनेक कदम उठाए हैं।
हमने अपने लिए सुधार की एक महत्वाकांक्षी कार्यसूची बनाई है। विस्तार, समावेश और उत्कृष्टता इस सुधार कार्यसूची के तीन ऐसे सिध्दांत हैं जिनसे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य
शिक्षा का वचन देने के बाद मानव संसाधन
विकास मंत्रालय ने बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा की विषय सामग्री और सार तत्व
सुधारने की जिम्मेदारी अपने उपर ले ली है। पाठयक्रमों में असमानता को समाप्त करने
के लिए जरूरी है कि सभी जगह मुख्य पाठयक्रम एक जैसा हो, ताकि विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं
के लिए तमाम बोर्डों को अलग-अलग पाठयक्रम न लागू
करने पड़े। विद्यालय शिक्षा बोर्डों की परिषद (सीओबीएसई) ने विज्ञान
और गणित विषयों में इस तरह की व्यवस्था
पहले से ही लागू कर दी है। केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (सीएबीई) ने 19 जून 2010 को अपनी
बैठक में 2011-12 के शिक्षा स्तर से देश के सभी उच्चतर माध्यमिक
बोर्ड़ों द्वारा विज्ञान और गणित विषयों में एक जैसा करिकुलम मुख्य
पाठयक्रम लागू करने के प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया है। वाणिज्य के लिए भी एक समान मुख्य पाठयक्रम तैयार करने का
अनुमोदन भी इसी बैठक में किया जा चुका है।
इससे
उन आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के बच्चों को अवसर मिलेगा जिन्हें वर्तमान में कोचिंग की सुविधा सुलभ नहीं
है और जो प्रवेश परीक्षाओं
की मौजूदा प्रणाली में आगे नहीं निकल पाते। यदि आप के यहां समान
मुख्य पाठयक्रम होगा,
तो सभी राज्यों में एक ही कसौटी पर न सही तो कम से कम एक जैसी
कसौटी पर
शैक्षणिक प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जा सकेगा।
परन्तु इससे यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए
कि समान पाठयक्रम तैयार करने का प्रयास किसी प्रकार
से विभिन्न बोर्डों की स्वायत्ताता को समाप्त करने की कोई कोशिश है। यह तो गुणवत्ता को लोकव्यापी बनाने का प्रयास
है।
एक और मसला है जिसको
हल करने की जरूरत है। आज एक छात्र बारहवीं के बाद 15-20 परीक्षओं में बैठता है और फिर यह अटकलें लगाता रहता है कि इन सबके
बाद भी उसे किसी में कामयाबी मिलेगी या नहीं। मेरा विचार
है कि बारहवीं कक्षा के बाद सभी छात्रों के लिए एक जैसी
सामान्य प्रवेश परीक्षा होनी चाहिए। यह सामान्य परीक्षा बच्चे की सामान्य जागरूकता
और रुझान को परखने में काम आएगी। बारहवीं की बोर्ड परीक्षा से जहां विद्यार्थी
के विषय ज्ञान का पता चलेगा, वहीं यह परीक्षा उसकी अनछुई बुध्दिमानी और रुझान का पता लगाएगी। बोर्ड की परीक्षा में प्राप्त अंकों से तुलना के लिए एक तार्किक समीकरण की विधि तैयार की
जा सकती है। इससे छात्र को एक के बाद एक परीक्षा में बैठने
की आवश्यकता नहीं रहेगी। दोनों परीक्षाओं के सम्मिलित अंकों पर आधारित अखिल भारतीय प्रावीण्य (मैरिट) सूची तैयार करने के बारे में भी विचार किया जा सकता है। फिर यह योग्यता ही तय करेगी कि
बच्चे को आगे की पढ़ाई
के लिए कहां जाना है। यह योग्यता वास्तविक योग्यता होगी।
परीक्षा
का तनाव कम करने के लिए मंत्रालय केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा संचालित अखिल भारतीय पूर्व मेडिकल परीक्षा (एआईपीएमटी) और अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (एआईईईई) के परस्पर विलय के बारे में विचार कर रहा है। इसका तर्क सरल-सा है- दोनों परीक्षाओं में भौतिक और रसायन शास्त्र के विषय तो सामान्य होते है, जबकि चिकित्सा
पाठयक्रम के इच्छुक छात्रों को जीवविज्ञान की और इंजीनियरिंग विधा के इच्छुक छात्रों को गणित की अतिरिक्त परीक्षा देनी
होती है। परन्तु यदि कोई छात्र दोनों ही परीक्षाओं में बैठना चाहता
है तो उसे अलग-अलग प्रवेश परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है, और उसे भौतिकी एवं रसायन विज्ञान की परीक्षाएं दो बार देनी
होती हैं। इस
तरह की परीक्षा अनावश्यक है और तनाव पूर्व भी। दोनों परीक्षाओं के विलय से यह समस्या हल हो जाएगी। मेरा मंत्रालय
शीघ्र ही इस प्रस्ताव पर बातचीत
की प्रक्रिया शुरू करेगा।
कोई भी देश सिर्फ डॉक्टर
या सिर्फ इंजीनियर ही पैदा करना गवारा
नहीं कर
सकता,
या सिर्फ इंजीनियर। सहायक चिकित्सा कर्मियों और मानचित्रकारों के बगैर डॉक्टर और इंजीनियर कुछ खास नहीं कर सकते। इसी प्रकार 'मुंशियों' और पेशकारों और अन्य अदालती सहायकों
के बगैर वकील भी कुछ ज्यादा नहीं
कर सकते। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई) में शिक्षा को वृत्तिासाधन के योग्य बनाने
का जो लक्ष्य रखा गया है, उसे पूरा नहीं किया जा सकेगा। न तो मुख्यधारा की शिक्षा के साथ इसका एकीकरण हो सका है और ना ही इस पर उचित रूप से जोर दिया जा सका है। हमें
व्यावसायिक शिक्षा पर एक राष्ट्रीय ढांचे की सख्त जरूरत है ताकि प्रत्येक व्यवसाय के मानदंडों की पहचान की जा सके और उनकी कसौटी तय की जा सके। देश के विद्यालयों में 22 करोड़ बच्चे हैं।
समग्र भर्ती अनुपात (जीईआर) बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने के बाद भी 16 करोड़ बच्चे
ऐसे रह जाएंगे जिन्हें न तो पारंपरिक शिक्षा मिल रही होगी और
न ही व्यावसायिक उच्च शिक्षा। हमें
इस बात पर विचार करना होगा
कि व्यावसायिक शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति तैयार कर किस प्रकार हम उनकी प्रतिभा और वृध्दि को तराश
सकेंगे। मैं स्कूलों के लिए एक राष्ट्रीय
आकलन एवं मूल्यांकन संस्थान स्थापित करना चाहता हूँ जो कि आकलन और मूल्यांकन में मदद चाहने वाले स्कूली बोर्डों की परामर्शदात्री संस्था के रूप में काम करेगा। इसकी सलाह बाध्यकारी नहीं होनी, परंतु वैश्विक मानकों के अनुसार संस्थाओं (और डिप्लोमा)
की कसौटी निर्धारित करने में मदद करेगा। एक अंतर मंत्रालय समूह के बारे में भी विचार किया जा रहा है, जो कि इस तरह के राष्ट्रीय फ्रेमवर्क के लिए दिशानिर्देश तैयार करेगा। इसमें राज्यों
के प्रतिनिधि भी शामिल किए जाएंगे।
मेरा मंत्रालय उपयोगिता यानी मूल्य (वैल्यू) शिक्षा के लिए पाठयक्रम का ढांचा
तैयार करने के काम में लगा हैं। परीक्षाएं तो केवल उच्चतर शिक्षा
का प्रवेशद्वार भर होती हैं जबकि
मूल्य अथवा उपयोगिताएं शाश्वत होती हैं और जीवन भर मार्गदर्शन
करती हैं। सूखा-सूखा ज्ञान ठूंसने की बजाए नैतिकता और मूल्य सामाजिक पूंजी के सृजन में बड़ी भूमिका निभाते हैं। मूल्य आधारित शिक्षा का समावेश संपूर्ण शिक्षा
पध्दति में इस प्रकार किया जाना
चाहिए कि केवल प्रतिभा का उत्पादन ही न हो बल्कि
ऐसे भले और पराचिंतक इंसानों का भी निर्माण हो जो समाज और राष्ट्र के प्रति
अपना दायित्व समझते हों। यह सब प्रारंभिक दौर में ही शुरू किया जाना
चाहिए ताकि कच्ची उम्र में ही बच्चों के मन में छाप छोड़ी जा सके और नैतिकता
और सदाचरण के बारीक निशानों के सांचों में उन्हें ढाला जा सकें। वे सार्वजनिक
और निजी जीवन में आचरण के सिध्दांतों का उल्लंघन नहीं
कर सकें अथवा उन आदेशों का अनुसरण
करें,
जिन्हें प्रसिध्द दार्शनिक इमेनुएल कांट कैटेगॉरिकल इम्परेटिव (सुस्पष्ट आदेश) कहा करते थे।
यह मेरा दृढ़ विश्वास
है कि जब शिक्षकों पर ध्यान
दिया जाता है, छात्रों को सबसे अधिक लाभ मिलता है। देश के 60 लाख शिक्षकों के लिए बीमा और आवासीय योजनायें शुरू करने के लिए हम सक्रिय
रूप से काम कर रहे हैं। परंतु यह वित्तीय अनुमोदन पर निर्भर करेगा। यह योजना मेरे मंत्रालय
के उस प्रयास का ही एक भाग है जो शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए छात्रों को दी जाने वाली सुविधाओं
से जुड़ा है।
यह शिक्षा प्रणाली को बाल-विषयक बनाने के हमारे प्रयासों का ही एक अंश है। बीमा
योजनाओं में केन्द्र, राज्यों और शिक्षकों-सभी को वित्तीय
अंशदान करना होगा। जहां तक आवासीय योजनाओं की बात है, मैं सोचता हूं कि इसका संचालन केन्द्रीय
स्तर पर तो होगा, परंतु इसमें
केन्द्र और राज्यों के वित्तीय
योगदान की आवश्यकता नहीं होगी।
स्वास्थ्य और जीवन बीमा योजनाओं
के बारे में प्रस्ताव है कि, व्यक्तिगत स्तर की बीमा योजनाओं अथवा राज्य स्तर की योजनाओं के मुकाबले
इसकी प्रीमियम की दर कम रखी जाए।
उच्चतर शिक्षा का क्षेत्र भी महत्वपूर्ण
सुधारों के कगार पर खड़ा है। मेरा मंत्रालय उच्च शिक्षा के लिए एक ऐसी सर्वव्यापी संस्था का ढांचा तैयार करने
की प्रक्रिया में है जो देश में उच्च शिक्षा की नीति और योजना
बनाने का काम करेगी। उच्च
शिक्षा में सुधारों की कार्यसूची में विश्व-विद्यालयों को अपने
पाठयक्रम तैयार करने, पाठयक्रमों का आदान-प्रदान अनुसंधानोन्मुख विश्वविद्यालय आदि के बारे में पूर्णस्वायत्ताता देना
शामिल है। प्रस्तावित राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान आयोग का उद्देश्य मौजूदा नियामक
निकायों द्वारा अब तक इस्तेमाल किए जा रहे अधिकारों का विक्रेन्द्रीकरण कर विश्वविद्यालयों की स्वायत्ताता
को प्रोत्साहित करना है। इसके अलावा, शिक्षा का विखंडन रोकना, अंतर्विधायी शोध और ज्ञान के सृजन को प्रोत्साहित
करना,
सभी विश्वविद्यालयों-केन्द्रीय अथवा राज्यों-के लिए सिध्दांत आधारित वित्त
पोषण के जरिए समान अवसर
प्रदान करना और निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रतिनिधित्व के माध्यम से राज्यों
को राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्माण में भागीदारी के लिए अधिकार प्रदान करना भी प्रस्तावित आयोग के दायरे
में आएगा।
पठन-पाठन की संपूर्ण प्रक्रिया के बारे
में एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने के बारे में विचार
किया जा रहा है। मैं भारतीय विश्वविद्यालयों के विदेशी विश्वविद्यालयों अथवा कार्पोरेट
क्षेत्र के साथ सहयोग के बारे में भी खुले मन से विचार करने को तैयार हूं। रचनात्मक
विचारों के आदान-प्रदान और साझे संसाधनों के बगैर, राजसी
एकान्तवास की मौजूदा स्थिति से न तो शिक्षा का भला होने वाला है और न ही उद्योग का। कार्पोरेट जगत की शिक्षा में रुचि
बढ़ती जा रही हैं, क्योंकि उन्हें
प्रशिक्षित जनशक्ति चाहिए। विदेशी शिक्षा संस्थाओं को अनुमति देने के बारे में एक विधेयक संसद में पेश किया जा चुका है। छात्रों
को भ्रष्ट तत्वों के शोषण से बचाने
के लिए भी एक विधेयक संसद
में प्रस्तुत किया जा चुका है। इसी प्रकार, शिक्षा से संबंधित मुकदमेबाजी चाहे वह कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच हो, छात्रों और संस्थान के बीच हो या फिर नियामक
निकाय और संस्था के बीच हो, उन से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर और राज्यों के स्तर पर शिक्षा-न्यायाधीकरण गठित करने के बारे में एक विधेयक पर संसद
में विचार हो रहा है।
शिक्षा के उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए मैं शीघ्र
ही एक सर्वथा नया विचार
पेश करने जा रहा हूं। यह शैक्षणिक प्रमाणपत्रों को निष्प्रभावी बनाने से संबंधित
है। मेरा मंत्रालय शैक्षणिक अभिलेखों और पुरस्कारों के आधारभूत राष्ट्रीय
इलेक्ट्रोनिक आंकड़ाकोष के गठन और संधारण के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय शैक्षणिक निक्षेपागार (डिपाजिट) विधेयक, 2010, तैयार करने के काम में लगा है। इसके लिए केन्द्र या राज्य सरकार को कोई खर्च नहीं करना होगा। प्रस्तावित विधेयक के तहत एक प्राधिकृत
निक्षेपागार बनाया जाएगा। सभी शिक्षा संस्थानों-विश्वविद्यालयों उच्च शिक्षा संस्थाओं, सीबीएसई और राज्यों को शिक्षा
मंडलों परिषदों को अपने छात्रों को दिए जाने वाले प्रमाण पत्र पुरस्कार (डिग्रियां आदि) इस निक्षेपागार में जमा कराना
अनिवार्य होगा। सभी संस्थायें और इच्छुक अभ्यर्थी, निक्षेपागार में सुरक्षित
रखे इन अभिलेखों का ऑनलाइन
सत्यापन कर सकेंगे और आवश्यकता
होने पर वहीं से बड़े सलीके से उसकी प्रति निकाल
भी सकेंगे। इस सारी प्रक्रिया के दौरान
पूरी गोपनीयता, विश्वास और प्रामाणिकता बनी रहेगी। इस प्रस्ताव के अमल में आ जाने के बाद जहां फर्जी
डिग्रियों की समस्या से छुटकारा
मिल जाएगा, वहीं खोने या नष्ट होने वाली
असली डिग्रियों, प्रमाणपत्रों की भी कोई समस्या
नहीं रहेगी। ये सब गुजरे जमाने
की बात हो जाएगी।
देश को आज ऐसी पठन-पाठन पध्दति की आवश्यकता है जो ज्ञान-विज्ञान को वर्तमान सीमाओं से परे जाकर अब तक अज्ञात ज्ञान के नए क्षितिजों की खोज कर सके, ताकि नए विचारों और सोच की भावना पनप सके, और जिससे देश ज्ञानयुक्त, नवाचार संपन्न वैश्विक मंच के शिखर पर विराजमान हो सके।