सुरेश प्रकाश अवस्थी
बाघों की ताजा गिनती के जो समाचार मिले हैं वे निश्चय ही प्रकृति प्रेमियों के लिये सुखद हवा के झोंके की तरह आए हैं। मार्च 2011 के अंतिम सप्ताह में वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश की उपस्थिति में जारी की गई बाघों की ताजा गणना के अनुसार पिछले चार वर्षों में देश में बाघों की संख्या में बारह प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक ऐसे समय में जब बाघों की कम होती जा रही संख्या को लेकर विश्व भर में चिन्ता जतायी जा रही है, यह खबर निश्चय ही बहुत सुखद और प्रशंसनीय है। वर्ष 2006 की गिनती में 1411 बाघ पाए गए थे, जबकि इस बार (2010 में) हुई गिनती में 1706 बाघों का पता चला है। सबसे अधिक वृद्धि दक्षिण भारत के तमिलनाडु , कर्नाटक और केरल राज्यों में फैले नगर होल-वाय नाड़- मुदुमुलाई वन क्षेत्र में हुई है। इस क्षेत्र में 382 बाघ पाए गए हैं, जो कि पिछली गिनती की तुलना में 36 प्रतिशत अधिक है। उत्तराखंड, महाराष्ट्र और असम में भी बाघों का परिवार बढ़ा है, जबकि मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में बाघों की संख्या में कमी आई है। मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध कान्हा बाघ अभयारण्य में बाघों की संख्या में आई कमी से सभी पर्यावरण प्रेमी हतप्रभ है। मध्यप्रदेश के ही बाघवगढ़ में बाघों की संख्या में कुछ और बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इसके अलावा कॉरबेट और रणथम्मौर के राष्ट्रीय पार्कों में भी बाघों की तादाद बढ़ी है। भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून द्वारा जुटाए गए और केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों में वृद्धि का एक सुखद पहलू यह भी है कि पिछली बार पश्चिम बंगाल के सुन्दर वन में जहां बाघों की गिनती नहीं हो सकी थी, यह आंकड़े वास्वविकता के नजदीक होंगे।   भारतीय वन्यजीव संस्थान के वाई.वी.झाला ने रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए बताया कि बाघों की गिनती के लिए जो प्रणाली अपनायी गई वह 2006 की गणना की तुलना में अधिक वैज्ञानिक और विश्वसनीय थी। करीब नौ करोड़ रुपये के खर्च से करीब पाँच लाख कर्मचारियों और अन्य लोगों ने एक वर्ष के कड़े परिश्रम से ये आंकड़े जुटाए हैं। वन्य प्रेमियों ने इस कार्य में सराहनीय योगदान दिया है। इस बार बाघों के पंजों के निशान और वनवासियों के अनुमान पर आधारित गणना-पद्धति के स्थान पर कैमरा ट्रैपिंग और उपग्रह चित्रों की सहायता से गिनती की गई, जिसे वन्य विशेषज्ञ अधिक विश्वसनीय बता रहे हैं। दिसंबर 2009 से दिसम्बर 2010 के बीच हुई इस गणना के दौरान तीन चरणों में बाघों की संख्या का अनुमान लगाया गया। पहले चरण में मानक परिपाटी के अनुसार प्रशिक्षित कर्मचारियों ने अपने - अपने निर्धारित इलाकों में मैदानी आंकड़े इकट्ठा किये। दूसरे चरण में, उपग्रह के माध्यम से जुटाए आंकड़ों और चित्रों के अनुसार बाघों के अधिवास और विचरण क्षेत्रों में स्थिति का विश्लेषण किया गया और तीसरे चरण में कैमरा ट्रैपिंग का उपयोग किया गया। बाघ विशेषज्ञ श्री के उल्लास कारंथ द्वारा विकसित कैमरा ट्रैपिंग वन्यप्राणियों की पहचान की प्राथमिक पद्धति मानी जाती है। वर्ष 2010 में हुई गणना में 550 बाघों की पहचान उनकी धारियों के विशिष्ट रूप और आकार के आधार पर की गई। सुन्दर वन में जहां पहली बार बाघों की गिनती की गयी, वहां 250 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में 5 बाघों  गले में इरीडियम उपग्रह के पट्टे डालकर कैमरा ट्रैपिंग की गई। बाघों की संख्या में वृद्धि से स्पष्ट है कि बाघों को बचाने के प्रयास  निरर्थक नहीं रहे हैं। दिन प्रतिदिन बाघों की संख्या कम होने की आशंका के विपरीत ताजा गिनती से स्पष्ट होता है कि बाघों के संरक्षण के सरकारी प्रयास काफी हद तक सफल रहे हैं। सरकार के संरक्षण-उपायों के साथ- साथ अधिक जागरूकता और पर्यावरण तथा वन्यजीव प्रेमियों के नैतिक दबाव ने भी अपना असर दिखाया है। पिछले वर्ष नवम्बर में  रूस में बाघों के बारे में हुए एक शिखर सम्मेलन में भारत में बाघों के संरक्षण के लिए किये जा रहे प्रयासों की सराहना की गई है, परन्तु कानूनी प्रतिबंध के बावजूद अवैध शिकार का जारी रहना, बाघों की संख्या में वृद्धि के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बाघ की बड़ी कीमत उसे संकट के मुंह में धकेल रही है। चीन जैसे देशों में बाघ के शरीर का लगभग हर भाग का कथित तौर पर यौनवर्धक दवाओँ के निर्माण में उपयोग होता है, जिसके अच्छे खासे पैसे मिलते हैं। इसलिए तमाम प्रतिबंधों के बावजूद बाघ का शिकार बंद नहीं हो पा रहा है। इसके लिए जहां कुछ सीमा तक वनकर्मियों की लापरवाही और उदासीनता जिम्मेदार है, वहीं यह भी सच है कि उनके पास संसाधनों का अभाव रहता है। उनके हथियार और उपकरण भी शिकारियों की तुलना में साधारण और प्रभावहीन होते हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार तीस प्रतिशत बाघ संरक्षित अभयारण्यों से बाहर रह रहे हैं, जो आसानी से शिकारियों के शिकार बन जाते हैं।
            एक और जहां, बाघों की संख्या में हुई वृद्दि से कुछ संतोष हो रहा है, वहीं उनके रिहायशी इलाकों और विचरण क्षेत्रों को संकुचित होते देखकर चिंता भी होती है। चार वर्ष पूर्व की गणना के अनुसार जहां 1411 बाघों के विचरण के लिये 93,600 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र उपलब्ध था, वहीं अब उनका क्षेत्र घट कर 72,800 वर्ग किलोमीटर रह गया है, जबकि बाघों की संख्या बढ़ कर 1706 हो गई है। इस प्रकार बाघों के विचरण क्षेत्र में करीब 20 हजार वर्ग किलोमीटर की कमी आयी है। जब बाघ बचाने की बात की जाती है तो केवल यही अर्थ नहीं होता कि इस शाही पशु की प्रजाति को केवल आने वाली संतति के लिए ही बचाया जाना है। इसका अर्थ यह भी होता है कि उसके क्षेत्र को भी तमाम वन संपदा और जैव-प्रजातियों के साथ बचाया जाए। यानी बाघ बचाना, जंगल बचाना, अपना पर्यावरण बचाना है। एक प्रकार से यह मानवीय अस्तित्व को निरापद रखने का अनुष्ठान है। इसलिए यह आवश्यक है कि बाघों को बचाने के लिये निर्धारित एक लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को भी बाघ संरक्षण परियोजना में शामिल किया जाना चाहिए। इसके बिना यह अनुष्ठान अपूर्ण ही रहेगा।
            कृषि, खनन, आवासीय परियोजनाओं जैसी आर्थिक गतिविधियों के विस्तार के कारण बाघों के इलाके में इंसान का अतिक्रमण हो रहा है और उनके विचरण का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। जनसंख्या में वृद्धि के दबाव के कारण इसे रोकना संभव नहीं हो पा रहा है। बाघों के विचरण क्षेत्र का आकार कम होते जाने के कारण वे आबादी वाले क्षेत्रों में घुस जाते हैं, जहां उन्हें नरभक्षी बताकर मार दिया जाता है। इसलिये बाघों की गिनती के ताजा आंकड़े भले ही संतोष देते है, परन्तु इससे निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता एक और बड़ी समस्या देश के 39 अभयारण्यों में रह रहे करीब 50 हजार परिवार बाघों के अस्तिव के लिए संकट बन गए है सरकार ने उन्हें बाहर बसाने के कई प्रस्ताव रखे हैं ,परन्तु वे अपने को वनवासी बताकर वनों से हटने के लिए तैयार नहीं हैं उनकी बात भी सही है उनकी आजीविका वनों पर ही आश्रित है सरकार ने उन्हें दस-दस लाख रुपये देने का प्रस्ताव भी किया है, मकान भी बना कर देने की बात कही है, परन्तु वे वनों का प्राकृतिक वातावरण छोड़ने को तैयार नहीं इसलिए बाघों के संरक्षण के अभियान को सफल बनाने के लिए पर्यावरण और विकास में संतुलन स्थापित करना महत्वपूर्ण है पर्यावरण, खनन, विकास और जनसंख्या वृद्धि से उत्पन् समस्याओं के बीच सामंजस् बिठाना चुनौती पूर्ण काम है। जब तक इस बारे में जागरूकता नहीं आती, तब तक बाघों के भविष्य को लेकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता, परन्तु ताजा आंकड़ों से यह संदेश तो मिलता ही है कि संकल्प पक्का हो तो जटिल चुनौतियों से भी निपटा जा सकता है।

0 Comments

    Post a Comment








    मौसम

    Subscribe via email

    Enter your email address:

    Delivered by FeedBurner

    Search

    कैमरे की नज़र से...

    Loading...

    इरफ़ान का कार्टून कोना

    इरफ़ान का कार्टून कोना
    To visit more irfan's cartoons click on the cartoon

    .

    .

    ई-अख़बार

    ई-अख़बार

    .

    .

    राहुल गांधी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं?

    Blog

    • Firdaus's Diary
      इक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुंचती है... - मेरे महबूब... मुझे हर उस शय से मुहब्बत है, जो तुम से वाबस्ता है... हमेशा से मुझे सफ़ेद रंग अच्छा लगता है... बाद में जाना कि ऐसा क्यों था...तुम्हें जब भी द...
    • मेरी डायरी
      राहुल को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं... - *हिन्दुस्तान का शहज़ादा* *फ़िरदौस ख़ान* कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के लिए देशवासियों की पहली पसंद हैं. सीएनएन-आईबीएन और सीएनबीसी-टीवी ...