पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली की पूर्वी सीमा पर बनी रिहाइशी कॉलोनी दिलशाद गार्डन सन अस्सी के आसपास बसनी शुरू हुई थी. दिल्ली-शाहदरा को मिला कर इसका नाम दिलशाद पड़ा. यहां डीडीए फ्लैट बने और मध्यवर्गीय लोग आ बसे. उसी समय वहां कुछ रेहड़ी-पटरी वाले सब्जी और कुछ सामान शाहदरा से लाकर बेचने लगे. नब्बे के दशक में यहां बड़ा बाजार बन गया, लेकिन उससे दोगुना बड़ा बाजार उन रेहड़ी-पटरी वालों का हो गया. उसने साप्ताहिक बाजार का स्वरूप ले लिया था. चूंकि इस इलाके में मंगलवार को बाजार-बंदी होती है, सो साप्ताहिक बाजार उसी दिन भरने लगा. आज यहां का बाजार हर गली में फैल गया है और इसकी कुल लंबाई सात किलोमीटर हो गई है.  दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हर कॉलोनी में ऐसे साप्ताहिक बाजार आज भी लोगों की जीवन रेखा बने हैं. दिल्ली में ऊंची इमारतों में पूरी तरह वातानुकूलित बाजार यानी मॉल के ठीक सामने लगने वाले इन बाजारों में कंधे छीलती भीड़ देख कर कई लोगों को हैरानी हो सकती है.
दिल्ली के डीडीए फ्लैट कालकाजी का साप्ताहिक बाजार हो या वसंत विहार जैसे संभ्रांत इलाके का बुध बाजार, करोलबाग और विकासपुरी का मंगल बाजार या फिर सुदूर भोपाल, बीकानेर या सहरसा के साप्ताहिक हाट-बाजार; जरा गंभीरता से देखें तो ये सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण हैं. दैनिक मजदूरी करने वाला हो या अफसर की बीवी या फिर खुद दुकानदार, सभी आपको यहां मिल जाएंगे. दिल्ली में जिस दिन बाजार की छुट्टी होती है, उस दिन सस्ता बाजार अपनी रौनक पर होता है. वैसे दिल्ली का सबसे पुराना साप्ताहिक बाजार ‘चोर बाजार’ के नाम से मशहूर है. पहले यह लाल किले के सामने मैदान में लगता था, फिर सुरक्षा कारणों से जामा मस्जिद से दरियागंज तक लगने लगा. यहां जूते, किताबें, ब्रांडेड कपड़े, आटो पार्टस, हार्डवेयर, रसोई के बर्तन, सभी कुछ इतनी कम कीमत पर मिल जाते हैं कि हैरानी होती है.
ऐसे साप्ताहिक बाजार पूरे देश के कस्बों, शहरों और गांवों में लगते हैं. ये एक तरह से मेले की तरह होते हैं. कम क्रय क्षमता वाले लोग, घर से कम निकलने वाली महिलाओं, नई गृहस्थी जमाने वाले युवाओं के लिए यह वरदान होते हैं. यहां छोले-भटूरे, चाट-पकौड़ी, पूड़ी-तरकारी, फल-सब्जियां, नमकीन, कपड़े, नकली जेवर, जूते-चप्पल, पर्स, मेकअप का सामान, रसोई के बर्तन, गद्दे-रजाई-चादर, चाकू-छुरी सब कुछ उपलब्ध होता है. हकीकत यह है कि ये बाजार रोजगार की तलाश में अपने घर-गांव से पलायन कर आए निम्न आय वर्ग के लोगों की जीवनरेखा होते हैं. आम बाजार से सस्ता, चर्चित ब्रांड से मिलता-जुलता सामान, छोटे, कम दाम वाले पैकेट, घर के पास और देर रात तक सजा बाजार. पहले कहा जाता था कि भारत गांवों में बसता है और उसकी अर्थव्यवस्था का आधार खेती-किसानी है, लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर में यह ‘पहचान’ बदलती-सी लग रही है. लगता है कि सारा देश बाजार बन रहा है और हमारी अर्थव्यवसथा का आधार खेत से निकल कर दुकानों पर जा रहा है. भारत की एक प्रमुख व्यावसायिक संस्था के फौरी सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा दुकानें भारत में हैं. जहां अमेरिका जैसे विकसित या सिंगापुर जैसे व्यापारिक देश में प्रति हजार आबादी पर औसतन सात दुकानें हैं, वहीं भारत में यह आंकड़ा ग्यारह है. उपभोक्ताओं की संख्या की तुलना में भारत सबसे अधिक दुकानों वाला देश बन गया है.
सवाल है कि इस आंकड़े को उपलब्धि मान कर खुश हों या अपने देश के पारंपरिक ढांचे के दरकने की चेतावनी मान कर सतर्क हो जाएं. इसी सर्वे के अगले हिस्से में बताया गया है कि भारत का मात्र दो प्रतिशत बाजार नियोजित है, शेष अट्ठानबे प्रतिशत असंगठित है और उसकी कोई पहचान नहीं है. यह असंगठित बाजार बहुत हद तक कानून सम्मत भी नहीं है. दिल्ली में सवा करोड़ की आबादी में बारह लाख दुकानें हैं! खोखे, गुमटी, रेहड़ी पर बाजार अलग है! कुल मिला कर देखें तो प्रत्येक दस आदमी पर एक दुकान है! ०
कहां से आते हैं दुकानदार
वह बनारस में रिक्शा चलाता था, फिर किसी के कहने पर दिल्ली आ गया. यहां चांदनी चौक में एक थोक के मसाले की दुकान पर रेहड़ी चलाने लगा. धीर-धीरे लाभ-हानि का कुछ गणित समझ आया, तो उसी दुकान से थोड़ा-थोड़ा मसाला लेकर बाहरी दिल्ली की कच्ची कॉलोनियों में बेचने लगा. फिर वहां हाट-बाजार भरने लगा तो उसका ठिया बन गया. अब वह सप्ताह के प्रत्येक दिन किसी न किसी बाजार में जाता है. पहले रिक्शे से माल ढोता था. अब एक पुराना स्कूटर लेकर उसे रिक्शे से जोड़ दिया है. उसकी बेटी भी अब बाजार में उसका साथ देती है.  ऐसे ही कुछ लोग करीबी गांवों से सब्जी लाते हैं, तो कुछ पिलखुवा या हरियाणा से चादर और तौलिया जैसे सामान थोक के भाव उठा लेते हैं. कइयों का संपर्क एक्सपोर्ट करने वाली इकाइयों से है. वहां का किसी नुक्स के कारण लौटाया गया माल उनके लिए हाट-बाजार का हॉट-सेल बनता है. इन बाजार वालों में कई घाटे या किसी अन्य कारणों से अपनी दुकान या बड़ा व्यापार गंवा चुके लोग भी होते हैं तो कई एक सुदूर कस्बे से अपनी किस्मत चमकाने आए लोग भी. कुल मिला कर ऐसे बाजारों में अगर ग्राहकों की बड़ी संख्या प्रवासी या पलायन से उपजी आबादी की होती है, तो विक्रेता भी इसी श्रेणी के होते हैं. ०
कई आश्रित हैं इस बाजार के
असल में सारे देश के हाट-बाजार के पीछे केवल वे नहीं होते, जो सामने फुटपाथ पर अपना सामान बेचते हैं, और भी कई लोगों की रोजी-रोटी इनसे चलती है. एक तो हर जगह बाजार लगाने की जिम्मेदारी स्थानीय निकाय यानी नगर निगम से लेकर ग्राम पंचायत तक की होती है. हर विक्रेता से उसकी पैठ या बैठकी का निश्चित शुल्क वसूला जाता है. बहुत-सी जगहों पर निकाय इसे ठेके पर उठा देते हैं और ठेकेदार के आदमी प्रत्येक दुकानदार से एक शाम की वसूली करते हैं. यह राशि पंद्रह रुपए से सौ रुपए तक होती है. बाजार के लिए लकड़ी के फट्टे या टेबल, ऊपर तिरपाल, और बैटरी से चलने वाली एलईडी लाइट की आपूर्ति करने वालों का बड़ा वर्ग पूरी तरह इन हाट बाजार पर ही निर्भर होता है. कई लोग ऐसे बाजारों के सामान के परिवहन के लिए वाहन उपलब्ध कराते हैं.  इसके अलावा बहुत-सा धन ऐसा भी इन बाजारों के जरिए जेबों तक घूमता है, जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं होता, जैसे कि पुलिस का हफ्ता, सफाई वाले को अतिरिक्त पैसा देना और कई जगह स्थानीय रंगदारी भी. हाट-बाजार में दुकान लगाने वालों का अभी तक कभी कोई सर्वेक्षण हुआ नहीं, लेकिन अनुमान है कि दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, गुरुग्राम में लगने वाले कोई तीन सौ से अधिक बाजारों में पैंतीस से चालीस हजार दुकानदार हैं. पूरे देश में यह संख्या लाखों में होगी. इसके बावजूद न तो इनको कोई स्वास्थ्य सुविधा मिली है और न ही बैंक से कर्ज या ऐसी कोई बीमा की सुविधा.
यह पूरा काम बेहद जोखिम का है, बरसात हो गई तो बाजार नहीं लगेगा, कभी-कभी त्योहारों के पहले जब पुलिस के पास कोई संवेदनशील सूचना होती है तो भी बाजार नहीं लगता. ऐसे दुकानदारों का वैसे तो पूरा सप्ताह ही एक बाजार से दूसरे बाजार में अपना ठीया जमाने, ग्राहक को बुलाने में बीतता है, थोड़ा भी समय मिला तो उन्हें खुद बाजार जाकर अपनी दुकान के लिए थोक व्यापारी से माल लेना होता है. पिछले दिनों पांच सौ और हजार के नोट बंद होने के दौरान उत्पन्न नगदी के संकट के चलते ऐसे बाजारों का हाल बुरा हो गया था. यह अरबों रुपए महीने की नगद अर्थव्यवस्था है. यहां न तो पेटीएम या कार्ड स्वाईप मशीन का चलन है, न यहां जीएसटी की चर्चा होती है. पटरी बाजारों ने नए बसते शहर देखे, चमकते मॉल का आगमन देखा, घरों में खुलती दुकानें देखीं, कई तरह के विरोध सहे, लेकिन सप्ताह के किसी तयशुदा दिन सड़क के किनारे, भयंकर ट्राफिक के बीच भारी चिल्लपों वाले बाजार की रौनक कभी कम नहीं हुई. ०
कराची का क्लिफ्टन बाजार
पाकिस्तान में कराची के लोगों का असल चेहरा देखना हो, तो क्लिफ्टन समुद्र तट पर हर रविवार और मंगलवार को भरने वाला हाट-बाजार जरूर देखना होगा. क्लिफ्टन के समुद्री तट की रेत पर कई किलोमीटर के इलाके में भारतीय साप्ताहिक हाट-बाजार से कई गुना बड़ा बाजार. कोई दस हजार कारों की पार्किंग, लगभग पांच हजार दुकानदार और साठ से अस्सी हजार लोग, एक साथ बाजार करते हुए. यहां जूते से लेकर ऊनी कपड़ों तक, रसोई के बर्तन, इलेक्ट्रॉनिक सामान, सजावट के हस्तशिल्प, किताबें, सीडी, खानपान सब कुछ एक ही जगह मिल जाता है. बाजार के एक सिरे पर बकायदा ‘प्राथमिक उपचार’ का स्टाल है. कहीं कोई पुलिस या सुरक्षाकर्मी नहीं दिखता. बाजार में कई हिंदू महिलाएं सिर पर मांग और ंिबंदी के साथ दिख जाती हैं.
कई किलोमीटर तक फैले बाजार में किसी भी तरह के वाहन का प्रेवश नहीं होता. बाजार में कम उम्र के पठान लड़के बड़ी-सी टोकरी लिए जगह-जगह खड़े मिल जाते हैं, जो खरीदारों का सामान कार तक पहुंचाते हैं. एक अनुशासित और मिश्र संस्कृति के कराची की अनूठी मिसाल है यह बाजार! यहां भी हिंदी फिल्मों के संगीत की सीडी की दर्जन-भर दुकानें दिखती हैं. यहां के हिंदी फिल्मों के बाजार का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि हाट में नई से नई बालीवुड फिल्म की सीडी आराम से साठ पाकिस्तानी रुपए, यानी भारतीय रुपए में चालीस से भी कम में खरीदी जा सकती है! वहां सब्जी बेचने वाले अधिकांश हिंदू होते हैं, जोकि मलेर या लालुखेत जैसी बस्तियों में रहते हैं.
वे नहीं चाहते साप्ताहिक बाजार
दिल्ली से सटे गाजियाबाद का नवयुग मार्केट वहां के कनाट प्लेस की तरह है. यह बाजार पहले मंगलवार को बंद रहता था, सो पिछले चालीस सालों से यहां उसी दिन बाजार भरने लगा. फिर स्थानीय व्यापारियों के कहने पर बाजार रविवार को लगने लगा. इसमें कोई पांच हजार रेहड़ी-पटरी वाले आते हैं. पिछले कुछ महीनों से साप्ताहिक बाजार के मसले पर व्यापारियों और पटरी दुकानदारों में खींचतान चल रही है. नाराज व्यापारियों का कहना है कि नवयुग मार्केट के साप्ताहिक बाजार में नब्बे प्रतिशत दुकानदार देवबंद, सहारनपुर, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, हापुड़, दिल्ली, सीलमपुर आदि क्षेत्रों से आते हैं, जिनकी कोई पहचान नहीं है. नवयुग मार्केट में ढाई सौ शोरूम और चार सौ दुकानें हैं. करीब डेढ़ हजार परिवार इस अवैध पैठ के चलते रविवार को दिन भर घरों में बंधक बन कर रह जाते हैं.
यह मामला अकेले गाजियाबाद का नहीं है. देश के अलग-अलग हिस्सों से समय-समय पर इन बाजारों को बंद करने की मांग उठती रहती है. इसके पीछे गिनाए जाने वाले कारण लगभग एक जैसे होते हैं:
० बाजार के कारण यातायात ठप्प हो जाता है और इलाके के रहवासी अपने घर में बंधक हो जाते हैं.
० ऐसे बाजारों में गिरहकटी होती है, अपराधी आते हैं.
० ये बाजार गंदगी फैलाते हैं और इसके चलते आवार पशु यहां आ जाते हैं.
मगर असलियत दूसरी है. ऐसे बाजारों को बंद कराने के पीछे स्थानीय व्यापारियों के कारण दीगर होते हैं:
० बाजार से कम कीमत पर सामान मिलने से हर सप्ताह घर का सामान खरीदने वाले लोग उनकी दुकानों पर न जाकर हाट-बाजार का इंतजार करते हैं.
० हाट-बाजार में मिलने वाली सस्ती चीजों और मोलभाव की आदत के कारण ग्राहक अक्सर उनकी दुकान पर भी मोलभाव करते हैं.
० कई बार साप्ताहिक बाजारों से उगाही करने वाले गिरोहों के आपसी टकराव होते हैं और इसी के चलते वे बाजार को बंद कराने की साजिश रचते हैं. ०
बस्तर का हाट
बस्तर अक्सर तभी चर्चा में आता है, जब वहां कुछ खून बहता है, लेकिन वहां बारूद की गंध के अलावा बहुत कुछ है. उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है अपनी परंपराओं, जीवनशैली और सभ्यता को सहेज कर रखने का जीवट और कला. बस्तर का क्षेत्रफल केरल राज्य से अधिक है और यहां के घने जंगलों में आदिवासियों के छोटे-छोटे करीब साढ़े तीन हजार गांव हैं. हर पांच-छह गांव के मध्य एक हाट होता है, जहां लोग अपनी जरूरत की वस्तुएं खरीद-बेच सकते हैं. बस्तर में लगने वाले इन हाटों में यहां की संस्कृति, खानपान और रहन-सहन के तौर-तरीकों को बेहद करीब से जानने-समझने का मौका मिलता है. यहां के बाजारों में रोजमर्रा की चीजें, कपड़े, स्थानीय आभूषण, चींटी की चटनी, सल्फी और पारंपरिक मुर्गा लड़ाई देख सकते हैं, जो बस्तर को खास बनाते हैं. बस्तर के आदिवासियों का जीवन कुछ दशक पहले तक पूरी तरह जंगलों पर निर्भर था, महुआ, इमली, बोंडा, चिरौंजी की गुठली जैसे उत्पाद लेकर वे साप्ताहिक बाजार में जाते, वहां से नमक जैसी जरूरी चीजें उसके बदले में ले लेते. नक्सलियों के बढ़ते असर पर रोकथाम के लिए आंचलिक क्षेत्रों तक सुरक्षा बल तैनात किए गए. ये सुरक्षाकर्मी भी इन्हीं हाट-बाजार में अपनी जरूरत का सामान लेने जाने लगे. नक्सलियों ने वहां घात लगा कर कई बार सुरक्षाकर्मियों पर हमले किए. उसके बाद वहां के बाजार सिमटने लगे.
बस्तर के घनघोर जंगलों के बीच बीजापुर जिला मुख्यालय से लगभग पचास किलोमीटर दूर बासागुड़ा के आदिवासी जानते नहीं थे कि वे जिस चिरौंजी को औने-पौने दाम में बचेते रहे हैं, वह उन्हें मालामाल कर सकती है. चिरौंजी की पैदावार के लिए मशहूर बासागुड़ा के लोग अब तक बिचौलियों के शोषण का शिकार थे, जिन्हें जिला प्रशासन ने नई राह दिखाते हुए उनके भविष्य को संवारने का अवसर प्रदान किया है. यहां की औरतों के स्वसहायता समूह ने साप्ताहिक बाजार के जरिए अपने इलाके की तकदीर बदल दी. बासागुड़ा साप्ताहिक बाजार में आदिवासी नमक के बदले बहुत कम दर पर चिरौंजी बेचा करते थे. इस प्रथा के चलते यहां के आदिवासियों को अपनी वनोपज का वाजिब दाम कभी नहीं मिल पाया. अब राज्य सरकार के प्रयास से चिरौंजी की गुठली साप्ताहिक बाजार में पचास से सौ रुपए की दर से कोचियों और लघु वनोपज समिति द्वारा खरीदी जा रही है. यहां सालाना दो सौ क्विंटल से ज्यादा चिरौंजी गुठली की आवक होती है. इस आवक को देखते हुए ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाने के मकसद से जिला प्रशासन ने बासागुड़ा में डेढ़ लाख रुपए स्वीकृत कर चार चिरौंजी मिलिंग मशीनें स्थापित कराई. हीरापुर में चिरौंजी प्रसंस्करण केंद्र स्थापित किया गया, जहां साप्ताहिक बाजार से चिरौंजी की गुठली क्रय कर मिलिंग शुरू की गई. ०


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