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-फ़िरदौस ख़ान
आदि अदृश्य नदी सरस्वती के तट पर बसे हरित प्रदेश हरियाणा अकसर जाना होता है. बदलाव की बयार ऐसी चली है कि हर बार कुछ न कुछ नया दिखाई पड़ता है. पहले जहां खेतों में सब्ज़ियों की बहार होती थी, वहीं अब मकान बन रहे हैं. खेत सिकुड़ रहे हैं और बस्तियां फैलती जा रही हैं. दरअसल, आधुनिकता की अंधी दौड़ ने परिवेश को इतना प्रभावित किया है कि कितनी ही प्राचीन संस्कृतियां अब इतिहास का विषय बनकर रह गई हैं. परिवर्तन प्रकृति का नैसर्गिक नियम है, और यह शाश्वत सत्य भी है, लेकिन धन के बढ़ते प्रभाव ने स्वाभाविक परिवर्तन को एक नकारात्मक मोड़ दे दिया है. हालात ये हो गए हैं कि व्यक्ति पैसे को ही सब कुछ मानने लगा है. रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज उसके लिए महज़ ऐसे शब्द बनकर रह गए हैं, जिसकी उसे क़तई परवाह नहीं है. दूर देहात या गांव का नाम लेते ही ज़ेहन में जो तस्वीर उभरती थी, उसकी कल्पना मात्र से ही सुकून की अनुभूति होती थी. दूर-दूर तक लहलहाते हरे-भरे खेत, हवा के झोंकों से शाखों पर झूमते सरसों के पीले-पीले फूल, पनघट पर पानी भरती गांव की गोरियां, लोकगीतों पर थिरकती अल्ह़ड नवयुवतियां मानो गांव की समूची संस्कृति को अपने में समेटे हुए हों, लेकिन आज ऐसा नहीं है. पिछले तीन दशकों के दौरान हुए विकास ने गांव की शक्ल ही बदलकर रख दी है. गांव अब गांव न रहकर, शहर होते जा रहे हैं. गांव के शहरीकरण की प्रक्रिया में नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है. हालत यह है कि एक परिवार को देखकर पड़ौसी के परिवार का रहन-सहन बदल रहा है. पूर्वजों के बनाए घर अब घर न रहकर, शहरी कोठियों की शक्ल अख्तियार कर रहे हैं. गांवों की चौपालें अब अपना स्वरूप लगभग खो चुकी हैं. शहरी सभ्यता का सबसे ज़्यादा असर उन गांवों पर पड़ा है, जो शहर की तलहटियों के साथ लगते हैं. ये गांव न तो गांव रहे हैं और न ही पूरी तरह शहर बन पाए हैं. पहले ग्रामीण अंचलों में सांग न केवल मनोरंजन का साधन होते थे, बल्कि नैतिक शिक्षा का भी सशक्त माध्यम होते थे. प्राचीन समृद्ध लोक संस्कृति की परंपरा वाले प्रदेश हरियाणा में आज सांस्कृतिक और शैक्षणिक पिछ़डेपन के कारण लोककलाएं पार्श्व में जा रही हैं. लुप्त हो रही ग्रामीण संस्कृति को संभाल पाने की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं हुए हैं. शौर्यपूर्ण, लेकिन सादा और सहज जीवन जीने वाले हरियाणा के लोगों में आज जीवन के उच्च मूल्यों की उपेक्षा हो रही है. पैसे और ताक़त की अपसंस्कृति हर तरफ़ पनपती दिखाई देती है.

हरियाणा विशेष रूप से ग्रामीण संस्कृति का प्रदेश रहा है. यहां के गांव प्राचीन समय से संस्कृति और सामाजिक गतिविधियों के केंद्र रहे हैं. गीता का जन्मस्थान होने का गौरव भी श्रीकृष्ण ने इसी प्रदेश को दिया, लेकिन कितने अफ़सोस की बात है कि ग्रामीण अपनी गौरवशाली संस्कृति को दरकिनार कर शहर की पाश्चात्य संस्कृति की गर्त में समा जाना चाहते हैं. ये लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में शहरों में जाते हैं और अपने साथ गांव में लेकर आते हैं नशे की आदत, जुआखोरी और ऐसी ही कई अन्य बुराइयां, जो ग्रामीण जीवन को दूषित करने पर आमादा है. नतीजा सबके सामने है, गांवों में भाईचारे की भावना ख़त्म होती जा रही है और ग्रामीण गुटबाज़ी का शिकार हो रहे हैं. लोग गांवों से निकलकर शहरों की तरफ़ भागने लगे हैं, क्योंकि उनका गांवों से मोह भंग हो रहा है. इतना ही नहीं, अब धीरे-धीरे गांव भी फार्म हाउस कल्चर की चपेट में आ रहे हैं. अपनी पहचान खो चुका धनाढ्य वर्ग अब सुकून की तलाश में दूर देहात में ज़मीन ख़रीदकर फार्म हाउसों का निर्माण करने की होड़ में लगा है.

शहर की बुराइयों को देखते हुए यह चिंता जायज़ है कि गांव की सहजता अब धीरे-धीरे मर रही है. तीज-त्योहारों पर भी गांवों में पहले वाली वह रौनक़ नहीं रही है. शहरवासियों की तरह ग्रामीण भी अब बस रस्म अदायगी ही करने लगे हैं. शहर और गांवों के बीच पुल बने मीडिया ने शहर की अच्छाइयां गांवों तक भले ही न पहुंचाई हों, पर वहां की बुराइयां गांव तक ज़रूर पहुंचा दी हैं. अंधाधुंध शहरीकरण के ख़तरे आज हर तरफ़ दिखाई दे रहे हैं. समाज का तेज़ी से विखंडन हो रहा है. समाज परिवार की लघुतम इकाई तक पहुंच गया है, यानी लोग समाज के बारे में न सोचकर सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के बारे में ही सोचते हैं. इसलिए हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि गांव सुविधाओं के मामले में कुछ-कुछ शहर बने रहें, लेकिन संस्कृति के मामले में गांव ही रहें. मगर तब तक ऐसा संभव नहीं हो सकता, जब तक विकास की हमारी अवधारणा आयातित होती रहेगी और उदारीकरण के प्रति हमारा नज़रिया नहीं बदलेगा. आज शहर पूरी तरह से पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आ चुके हैं और अब शहरों के साथ लगते गांव भी इनकी देखादेखी अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं.

विकास के अभाव में गांव स्वाभाविक रूप से आत्मनिर्भरता की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ा पाए. ऐसे में रोज़गार की तलाश में गांव के युवकों का शहर की तरफ़ पलायन शुरू होना और शहर की बुराइयों से उनका रूबरू होना, हैरत की बात नहीं है. लेकिन इस सबके बावजूद उम्मीद बरक़रार है कि वह दिन ज़रूर आएगा, जब लोग पाश्चात्य संस्कृति के मोहजाल से निकलकर अपनी संस्कृति की तरफ़ लौटेंगे. काश, वह दिन जल्द आ जाए. हम तो यही दुआ करते हैं. आमीन...


जगदीश्वर चतुर्वेदी
आदिवासी समस्या राष्ट्रीय समस्या है। भारत की राजनीति में आदिवासियों को दरकिनार करके कोई राजनीतिक दल नहीं रह सकता। एक जमाना था आदिवासी हाशिए पर थे लेकिन आज केन्द्र में हैं। आदिवासियों की राजनीति के केन्द्र में आने के पीछे प्रधान कारण है आदिवासी क्षेत्रों में कारपोरेट घरानों का प्रवेश और आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता। आदिवासियों के प्रति वामपंथी दलों का रूख
कांग्रेस और भाजपा के रुख से बुनियादी तौर पर भिन्न है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों को कभी भी आदिवासी बनाए रखने, वे जैसे हैं वैसा बनाए रखने की कोशिश नहीं की है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों को साम्राज्यवादी विचारकों द्वारा दी गयी घृणित पहचान से मुक्त किया है। उन्हें मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दी है। यह कार्य उनके मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए किया है। आदिवासियों को वे
सभी सुविधा और सुरक्षा मिले जो देश के बाकी नागरिकों को मिलती हैं। आदिवासियों का समूचा सांस्कृतिक तानाबाना और जीवनशैली वे जैसा चाहें रखें,राज्य की उसमें किसी भी किस्म के हस्तक्षेप की भूमिका नहीं होगी,इस प्रक्रिया में भारत के संविधान में संभावित रूप में जितना भी संभव है उसे आदवासियों तक पहुँचाने में वामपंथियों की बड़ी भूमिका रही है। आदिवासियों को आतंकी या हथियारबंद
करके उनके लिए लोकतांत्रिक स्पेस तैयार नहीं किया जा सकता। लोकतांत्रिक स्पेस तैयार करने के लिए आदिवासियों के बीच लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक कानूनों क पालन और प्रचार-प्रसार पर जोर देना होगा। आदिवासियों के लिए लोकतंत्र में जगह तब ही मिलेगी जब उन्होंने लोकतांत्रिक ढ़ंग से लोकतान्त्रिक समस्याओं पर गोलबंद किया है। लोकतंत्र की बृहत्तर प्रक्रिया का उन्हें
हिस्सा बनाया जाए। आदिवासियों के लिए बंदूक की नोंक पर लाई गई राजनीति आपराधिक कर्म को बढ़ावा देगी। उन्हें अपराधी बनायेगी। साम्राज्यवादी विचारकों के आदिवासियों को अपराधी की कोटि में रखा। इन दिनों आदिवासियों को तरह-तरह के बहानों से मिलिटेंट बनाने,जुझारू बनाने,हथियारबंद करने,पृथकतावादी बनाने,सर्वतंत्र-स्वतंत्र बनाने के जितने भी प्रयास उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर
छत्तीसगढ़-लालगढ़ तक चल रहे हैं ,वे सभी आदिवासियों को अपराधकर्म में ठेल रहे हैं। अंतर यह है कि उसके ऊपर राजनीति का मुखौटा लगा हुआ है। आदिवासी को मनुष्य बनाने की बजाय मिलिटेंट बनाना सामाजिक-राजनीतिक अपराध है।
हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में ही उग्रवाद क्यों पनपा है ? कांग्रेस के नेताओं और भारत सरकार के गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् के पास उग्रवाद की समस्या का एक ही समाधान है वह है आदिवासी इलाकों में विकास और पुलिस कार्रवाई। इसी एक्शन प्लान पर ही सारा मीडिया और कारपोरेट जोर दे रहा है। इस एक्शन प्लान को आदिवासी समस्या के लिए रामबाण दवा कहा जा रहा है। केन्द्र
सरकार ने इस दिशा में कदम उठाते हुए कुछ घोषणाएं भी की हैं। लेकिन यह प्लान बुनियादी तौर पर अयथार्थपरक है। इस प्लान में आदिवासियों का उनकी जमीन से उच्छेद रोकना, उनके क्षेत्र के संसाधनों का स्वामित्व,विस्थापन और उनके पीढ़ियों के जमीन के स्वामित्व की बहाली की योजना या कार्यक्रम गायब है। मनमोहन-चिदम्बरम् बाबू जिस तरह का लिकास करना चाहते हैं उसमें आदिवासियों का विस्थापन
अनिवार्य है। समस्या यहां पर है कि क्या केन्द्र सरकार विकास का मॉडल बदलना चाहती है ? जी नहीं, केन्द्र सरकार विकास का नव्य-उदार मॉडल जारी रखना चाहती है। आदिवासियों की उनकी जमीन से बेदखली जारी रखना चाहती है, ऐसे में आदिवासियों के सड़कें,स्कूल-कॉलेज,रोजगार के सपने देकर शांत नहीं किया जा सकता। विकास के मनमोहन मॉडल में विस्थापन अनिवार्य और अपरिहार्य है। ऐसी अवस्था में
आदिवासियों के बीच में विकास और पुलिस एक्शन का प्लॉन पिटेगा। आदिवासियों का प्रतिवाद बढ़ेगा। दूसरी बात यह कि विस्थापन का विकल्प मुआवजा नहीं है। मुआवजा ज्यादा हो या कम इससे भी आदिवासियों का गुस्सा शांत होने वाला नहीं है। इस प्रसंग में सबसे बुनियादी परिवर्तन यह करना होगा कि आदिवासियों के इलाकों पर उनका ही स्वामित्व रहे। क्रेन्द्र या राज्य सरकार का आदिवासियों की जमीनऔर जंगल पर स्वामित्व संवैधानिक तौर पर खत्म करना होगा। 
आदिवासियों के सामने इस समय दो तरह की चुनौतियां हैं, पहली चुनौती है आदिवासियों के प्रति उपेक्षा और विस्थापन से रक्षा करने की और उसके विकल्प के रूप में परंपरागत संस्थाओं और आदिवासी एकजुटता को बनाए रखने की। दूसरी चुनौती है नयी परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बदलने और लदनुरूप अपने संस्कारों,आदतों और कानूनों में बदलाव लाने की। आदिवासियों पर कोई भी परिवर्तन यदि बाहर
से थोपा जाएगा तो वे प्ररोध करेंगे। आदिवासियों का प्रतिरोध स्वाभाविक है। वे किसी भी चीज को स्वयं लागू करना चाहते हैं। यदि केन्द्र सरकार उनके ऊपर विकास को थोपने की कोशिश करेगी तो उसमें अंततः असफलता ही हाथ लगेगी। आदिवासी अस्मिता की धुरी है स्व-संस्कृति प्रेम, आत्मनिर्णय और आत्म-सम्मान में विश्वास।


अतुल कुमार तिवारी
स्वच्छता जीवन की बुनियादी आवश्यकता है।ग्रामीण क्षेत्रों में सदियों से सुनिश्चित स्वच्छता सुविधायें मुहैया कराने के इरादे से ग्रामीण विकास मंत्रालय का पेयजल आपूर्ति एवं स्वच्छता विभाग सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) चला रहा है। इस अभियान का उद्देश्य ग्रामवासियों की खुले में शौच जाने की आदत में बदलाव लाना है। सरकार का लक्ष्य है कि २०१० तक शौच का यह तरीका पूरे तौर पर बंद हो जाए और लोग शौचालय का प्रयोग करें।
 रणनीति -
टीएससी के अंतर्गत सहभागिता और मांग आधारित दृष्टिकोण अपनाया जाता है। पूरे जिले को इकाई मानते हुए ग्राम पंचायतों और स्थानीय लोगों को इसमें शामिल किया जाता है। रणनीति यह है कि कार्यक्रम का नेतृत्व समुदाय के लोगों को ही सौंपा जाए तथा कार्यक्रम को जनकेन्द्रित बनाया जाए इसमें व्यक्तिगत स्वच्छता और व्यवहार में परिवर्तन पर ही विशेष जोर दिया जाता है। टीएससी में संपूर्ण स्वच्छता की सामूहिक उपलब्धि पर बल देने वाले सामुदायिक नेतृत्व के दृष्टिकोण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस कार्यक्रम की प्रमुख विशेषताओं में स्वच्छता के बारे में लोगों को प्रेरित करने हेतु सूचना, शिक्षा एवं संप्रेषण (आईईसी) पर जोर, बीपीएल परिवारों / गरीबों और विकलांगों को इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहन राशि और प्रोद्योगिकी के विभिन्न विकल्पों में से किसी को भी अपनाने की छूट शामिल है। इसके अलावा ग्राम स्तर पर पैदा होने वाली मांग को पूरा करने के लिए आवश्यक व्यवस्था को बनाए रखना भी इसी कार्यक्रम का जरुरी हिस्सा है। संपूर्ण स्वच्छता अभियान के क्षेत्र में श्रेष्ठ उपलब्धियों के लिए निर्मल ग्राम पुरस्कार (एनजीपी) के रुप में नकद राशि प्रोत्साहन स्वरूप दी जाती है।
घटक
लोगों को घरों में शौचालय के निर्माण के लिए केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा क्रमश: 1500 रूपए और 700 रूपये की राशि दी जाती है। यह प्रोत्साहन राशि बीपीएल परिवारों के उन्हीं लोगों को दी जाती है,जो अपने घरों में शौचालय का निर्माण कर उनका इस्तेमाल भी करते हैं।गरीबी रेखा से ऊपर वाले परिवारों को अपने ही खर्च से या ऋण लेकर शौचालय बनवाने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। ये ऋण स्वयं सहायता समूह (एसएचजी),बैंक अथवा सहकारी संस्थाओं से लिया जा सकता है। विद्यालयों और आंगनवाड़ी शौचालयों के निर्माण के लिए केंद्र और राज्य सरकारें 70 और 30 के अनुपात में खर्च वहन करती हैं। सामुदायिक प्रसाधन सुविधाओं के निर्माण (स्वच्छता संबंधी) सामग्रियों के उत्पादन केंद्रों को सहायता,स्वच्छता संबंधी ग्रामीण विक्रय केंद्रों और ठोस एवं तरल कचरा प्रबंधन भी संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम के महत्वपूर्ण घटक हैं।
क्रियान्वयन
अभिनव रणनीतिओं के फलस्वरूप ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का प्रसार 1981 के 1 प्रतिशत से बढ़कर इस वित्त वर्ष में 67 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत जो प्रगति हुई है वह इस प्रकार है :  वर्तमान में 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 607 ग्रामीण जिलों में टीएससी को लागू किया जा रहा है। स्वच्छता कार्यक्रम का विस्तार 2001 में 22 प्रतिशत से बढ़कर सितंबर 2010 में 67 प्रतिशत तक पहुंच गया है।
 भौतिक प्रगति
 कार्यक्रम के अंतर्गत सितंबर 2010 तक 7.07 करोड़ व्यक्तिगत घरों में शौचालय, 10.32 लाख शाला शौचालय, 3.46 लाख आंगनवाड़ी शौचालय बनाए गए हैं। इसके अतिरिक्त महिलाओं के लिए अलग से 19502 प्रसाधन केंद्रों का निर्माण किया गया है। इनमें 3.81 करोड़ बीपीएल परिवार सम्मिलित हैं।
व्यक्तिगत घरेलू शौचालय ( आई.एच.एच.एल) का निर्माण
इस मद में दादर एवं नागर हवेली, पुड्डूचेरी, मणिपुर, जम्मू एवं कश्मीर, बिहार, असम, नगालैंड, मेघालय, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और उत्तराखंड का प्रदर्शन 50 प्रतिशत  के राष्ट्रीय औसत से नीचे रहा है। सिक्किम और केरल में सभी घरों में शौचालय निर्माण हो चुका है। इस प्रकार इनका प्रदर्शन 100 प्रतिशत रहा है, जो कि सराहनीय कहा जाएगा। जहां तक शालाओं में  शौचालयों के निर्माण का प्रश्न है, मेघालय, जम्मू एवं कश्मीर, बिहार,हिमाचल प्रदेश,पश्चिम बंगाल,गोवा,नगालैंड,मध्य प्रदेश,उत्तराखंड,त्रिपुरा,तमिलनाडु और मणिपुर का प्रदर्शन राष्ट्रीय स्तर से नीचे है।

मार्च 2011 तक सभी शालाओं और आंगनवाड़ी केन्द्रों में शौचालयों का निर्माण :
शालाओं में 13,14,636 शौचालयों के निर्माण के लक्ष्य के विरुद्ध 10,32,703(78.55 प्रतिशत) शौचालयों का निर्माण हो चुका है। समस् राज्यों ने सभी शालाओं और आंगनवाड़ी केन्द्रों में मार्च 2011 तक शौचालयों के निर्माण का संकल्प व्यक्त किया है। टी..सी के तहत निर्धारित लक्ष्य को मिजोरम और सिक्किम ने पहले ही पूरा कर लिया है। बजट आबंटन जो 2002-03 में 165 करोड़ रूपए था, उसे बढ़ाकर2010-11 में 15 अरब 80 करोड़ रूपए कर दिया गया।
वित्तीय प्रगति
टी.एस.सी के अंतर्गत कुल वित्तीय प्रावधान 1 खरब 96 अरब 26 करोड़ 43 लाख रुपये का है। इससे जुड़ी परियोजनाओं में केंद्र का अंश 1 खरब 22 अरब 73 करोड़ 81 लाख रुपये का है, जबकि राज्यों और हित ग्राहियों का हिस्सा क्रमश: 52 अरब 5 करोड़ 79 लाख और 21 अरब 46 करोड़ 83 लाख रुपये का है। केंद्र अब तक 58 अरब 70 करोड़ रुपये 61 लाख रुपये जारी कर चुका है, जिसमें से 47अरब 30 करोड़ 28 लाख रुपये इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर खर्च किये जा चुके हैं।
केंद्र द्वारा जारी राशि के विरुद्ध पंजाब, दादरा एवं नगर हवेली, मणिपुर, असम,आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओड़ीशा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, त्रिपुरा, बिहार, झारखंड, मेघालय, पश्चिम बंगाल और जम्मू एवं कश्मीर का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत से कम रहा है।
निर्मल ग्राम पुरस्कार
1999 में टीएससी के आरंभ होने के बाद निर्मल ग्राम सुधार के अंतर्गत जो प्रोत्साहन राशि दी जाती है उससे ग्रामीण क्षेत्र में स्वच्छता संबंधी कार्यक्रम में तेजी आई है। 2001 से 2004 के बीच औसत वृद्धि 3 प्रतिशत वार्षिक की रही है। परंतु 2004 में निर्मल ग्राम पुरस्कार की शुरुआत  के बाद इस कार्यक्रम में सात से आठ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि हो रही है।
सीमायें
 कुछ राज्यों में स्वच्छता को प्राथमिकता नहीं देना, कुछ राज्यों द्वारा अपना हिस्सा जारी नहीं करना, ग्राम स्तर पर पारस्परिक संप्रेषण पर जोर नहीं देना, निचले स्तर पर अपर्याप्त क्षमता विकास, कुछ परिवारों अथवा परिवार के सदस्यों के बीच व्यवहारजन्य परिवर्तन का अभाव, छात्रों की संख्या के अनुपात में शालाओं में शौचालयों और मूत्रालयों का अभाव और ठोस तथा तरल कचरा प्रबंधन पर अधिक बल देना इस कार्यक्रम में अनुभव की जाने वाली कुछ समस्यायें हैं।
 चुनौतियां
 आशा है कि 11 वीं योजना के अंत तक करीब 2.4 करोड़ और घरों में भी स्वच्छता संबंधी सुविधायें उपलब्ध करा दी जाएंगी। प्रतिवर्ष लगभग 1.2 करोड़ ग्रामीण घरों में स्वास्थ्य सुविधायें मुहैया करायी जा रही हैं। इस प्रकार 11 वीं योजना के अंत तक 3.18 करोड़ ग्रामीण परिवारों में स्वच्छता संबंधी सुविधायें मुहैया कराने की जरुरत होगी। कार्यक्रम का जो वर्तमान उद्देश्य है उसके लिए इन सभी शेष 3.18 करोड़ परिवारों में 12 वीं योजना के दौरान स्वच्छता सुविधायें उपलब्ध करानी होंगी। बगैर स्वास्थ्य सुविधा वाले नए परिवारों की पहचान अथवा बीपीएल की परिभाषा में भविष्य में यदि कोई परिवर्तन होता है तो उससे कार्यक्रम की रूपरेखा में भी बदलाव हो सकता है।
कठिन क्षेत्र
बाढ़ प्रभावित तटीय, पर्वतीय और मरुस्थली क्षेत्रों में समस्या के समाधान के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके लिए उपयुक्त और कम खर्चीली प्रौद्योगिकियों का विकास करना होगा। लोगों को तैयार करने के लिए विश्वसनीय तौर तरीके अपनाने होंगे।
ठोस एवं तरल कचरा प्रबंधन ( एसएलडब्ल्यूएम)
जैविक और अजैविक कचरे के संग्रहण और निस्तारण के लिए संस्थागत व्यवस्था कायम करना होगा। इसके लिए ग्राम पंचायतों को प्रेरित करने की आवश्यकता है।
व्यक्तिगत स्वच्छता प्रबंधन
शालाओं और आंगनवाड़ी केन्द्रों में चल रहे स्वच्छता संबंधी कार्यक्रम में हाथ की धुलाई को एक अभिन्न हिस्से के रूप में शामिल किया गया है। ग्रामीण महिलाओं और किशोरियों में मासिक धर्म के समय स्वच्छता पर भी विशेष जोर दिया जा रहा है।
पर्यावरण स्वच्छता
एक बार जब व्यवहार जन्य परिवर्तन के लिए किये जा रहे प्रयास सफल हो जायेंगे,तो पर्यावरण की स्वच्छता पर ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण हो जाएगा। पानी की बचत के लिए और पर्यावरण अनुकूल साधनों से स्वच्छता सुविधाओं के अभावों को दूर करने के वास्ते शीघ्र ही प्रयास शुरू करने होंगे।
विकलांग हितैषी शौचालय
संपूर्ण स्वच्छता अभियान ( टीएससी) में विकलांग व्यक्तियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ग्रामीण क्षेत्रों की संस्थाओं में कम से कम ऐसा शौचालय मुहैया कराना जरुरी है जिसे विकलांग व्यक्ति भी आसानी से इस्तेमाल कर सके।
स्वच्छता कार्यक्रम के एकीकरण ( कंवर्जेंस) हेतु विशेष क्षेत्र
रेलवे और राजमार्ग जैसे क्षेत्रों में स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण मुहैया कराने के लिए टी.एस.सी से अन्य कार्यक्रमों को जोड़ने की आवश्यकता है। पर्यटक एवं धार्मिक स्थलों और साप्ताहिक हाट / बाजारों में भोजन और पारिवेशिक स्वच्छता पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
इसे देखते हुए ग्रामीण विकास मंत्रालय के पेयजल आपूर्ति और स्वच्छता विभाग ने कार्यक्रम पर मजबूती से अमल करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। इनमें टी.एस.सी के अंतर्गत लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में राज्यों की प्रगति की नियमित समीक्षा और दिशानिर्देशों का पुनरीक्षण कर निर्मल ग्राम पुरस्कार को सुदृढ़ बनाना है ताकि चयन प्रक्रिया को और अधिक विश्वसनीय तथा पारदर्शी बनाया जा सके। कार्यक्रम को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए जो प्रयास किये जा रहे हैं उनमें कार्यक्रम क्रियान्वयन हेतु आईईसी और एचआरडी की समीक्षा, परिवेश की स्वच्छता पर राष्ट्रीय कार्यशाला और प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन कर स्वच्छता प्रौद्योगिकी विकल्पों को टी.एस.सी से जोड़ना, ठोस और तरल कचरा प्रबंधन जैसी अगली पीढ़ी की स्वच्छता गतिविधियों को चलाने की राज्यों की क्षमता को सुदृढ़ बनाना शामिल है।
 आशा है कि नए उपायों और प्रयासों से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता के लिए बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिलेगी।


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