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सिराज केसर
फाल्गुन आते ही फाल्गुनी हवा मौसम के बदलने का अहसास करा देती है। कंपकपाती ठंड से राहत लेकर आने वाला फाल्गुन मास लोगों के बीच एक नया सुख का अहसास कराता है। फाल्गुन मास से शुरू होने वाली बसंत ऋतु किसानों के खेतों में नई फसलों की सौगात देता है। पतझड़ के बाद धरती के चारों तरफ हरियाली की एक नई चुनरी ओढ़ा देता है बसंत, हर छोटे–बड़े पौधों में फूल खिला देता है बसंत, ऐसा लगता है एक नये सृजन की तैयारी लेकर आता है बसंत। ऐसे में हर कोई बसंत में अपनी जिंदगी में भी हँसी, खुशी और नयापन भर लेना चाहता हैं। इसी माहौल को भारतीय चित्त ने एक त्योहार का नाम दिया होली। जैसे बसंत प्रकृति के हर रूप में रंग बिखेर देता है। ऐसे ही होली मानव के तन-मन में रंग बिखेर देती है। जीवन को नये उल्लास से भर देती है।

होली नई फसलों का त्योहार है, प्रकृति के रंगो में सराबोर होने का त्योहार है। मूलतः होली का त्योहार प्रकृति का पर्व है। इस पर्व को भक्ति और भावना से इसीलिए जोड़ा जाता है कि ताकि प्रकृति के इस रूप से आदमी जुड़े और उसके अमूल्य धरोहरों को समझे जिनसे ही आदमी का जीवन है।

होली के इस अवसर पर, होली के दिन दिल पर पत्थर रखकर हमें दुखी मन से पानी बचाने की अपील करनी पड़ रही है। पानी की कमी से रंगो की होली की जगह खून की होली होना आये दिन सुनने और पढ़ने को मिल रही है पिछले एक साल के अंदर मध्य प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में दर्जनों लोगों की मौत पानी के कारण हुए झगड़ों में हुई। संभ्रात शहरियों ने अपने झील, तालाब को निगल डाले हैं। तालाबों को लील चुकीं ये बड़ी इमारतें बेहिसाब धरती की कोख का पानी खाली कर रही हैं। अंधाधुंध दोहन से पीने के पानी में आर्सेनिक, युरेनियम, फ्लोराइड तमाम तरह के जहर पानी जैसे अमृत तत्व में घुल चुके हैं। भावी भविष्य के समाज के जीवन में पानी का हम कौन सा रंग भरना चाहते हैं। क्या हमको यह हिसाब लगाने की जरूरत नहीं है। होली के नाम पर जल स्रोतों में सैंकड़ो टन जहरीले केमिकल हम डाल देंगें। क्या यह उन लोगों के साथ जो खरीद कर पानी नहीं पी सकते अत्याचार नहीं है। बेहिसाब पानी की बर्बादी प्रकृति के अमूल्य धरोहरों की बर्बादी हैं। सत्य यही है कि पंच तत्वों से बनी मानव जाति यदि पानी खो देगी तो अपना अस्तित्व भी खो देगी।

प्रतिदिन हम बगैर सोचे-समझे पानी का उपयोग और उपभोग करते जाते हैं। यह एक अवसर है कि हम अपने भीतर झाँकें और अपना अन्तर्मन टटोलें कि रंगों के इस शानदार त्योहार पर हम पानी की बर्बादी न करें…

बिना पानी के एक दिन गुज़ारने की कल्पना करें तो हम काँप उठेंगे। इस होली पर अपने जीवन में रंगों को उतारें जरूर, लेकिन साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हमारे आसपास की दुनिया में जलसंकट तेजी से पैर पसार रहा है। इसलिये त्योहार की मौजमस्ती में हम कुछ बातें याद रखें ताकि प्रकृति की इस अनमोल देन को अधिक से अधिक बचा सकें…

होली पर पानी बचाने हेतु कुछ नुस्खे…
• होली खेलने के लिये आवश्यकतानुसार पानी की एक निश्चित मात्रा तय कर लें, उतना पानी स्टोर कर लें फ़िर सिर्फ़ और सिर्फ़ उतने ही पानी से होली खेलें, अधिक पानी खर्च करने के लालच में न पड़ें…

• सूखे रंगों का अधिकाधिक प्रयोग करें।
• सम्भव हो तो प्राकृतिक रंगों का उपयोग करें, क्योंकि वे आसानी से साफ़ भी हो जाते हैं।
• गुब्बारों में पानी भरकर होली खेलने से बचें।
• जब होली खेलना पूरा हो जाये तभी नहाने जायें, बार-बार नहाने अथवा हाथ-मुँह धोने से पानी का अपव्यय होता है।

होली खेलने के दौरान पानी की बचत के टिप्स
• किसी अलग जगह अथवा किसी बगीचे में होली खेलें, पूरे घर में होली खेलने से घर गन्दा होगा तथा उसे धोने में अतिरिक्त पानी खर्च होगा।
• पुराने और गहरे रंगों वाले कपड़े पहनें ताकि बाद इन्हें आसानी से धोया जा सकता है।
• होली खेलने से पहले अपने बालों में तेल लगा लें, यह एक तरह से बचाव परत के रूप में काम करता है। इसकी वजह से चाहे जितना भी रंग बालों में लगा हो एक ही बार धोने पर निकल जाता है।
• इसी तरह अपनी त्वचा पर भी कोई क्रीम या लोशन लगाकर बाहर निकलें, इससे आपकी त्वचा रूखेपन और अत्यधिक बुरे रासायनिक रंगों के इस्तेमाल की वजह से खराब नहीं होगी।
• अपने नाखूनों पर भी नेलपॉलिश अवश्य कर लें ताकि रंगों और पानी से वे खराब होने से बचें और होली खेलने के बाद भी अपने पहले जैसे स्वरूप में रहें।
• मान लें कि आप बालों में तेल और त्वचा पर क्रीम लगाना भूल भी गये हों तो होली खेलने के तुरन्त बाद शावर अथवा पानी से नहाना न शुरु करें, बल्कि रंग लगी त्वचा और बालों पर थोड़ा नारियल तेल हल्के-हल्के मलें, रंग निकलना शुरु हो जायेंगे और फ़िर कम से कम पानी में ही आपका काम हो जायेगा।
• यदि आप घर के अन्दर अथवा छत पर होली खेल रहे हों, तो कोशिश करें कि फ़र्श पर एक तारपोलीन की शीट बिछा लें, जब होली के रंग का काम समाप्त हो जाये तो वह तारपोलीन आसानी से कम पानी में धोया जा सकता है, जबकि फ़र्श अथवा छत के रंग छुड़ाने में अधिक पानी और डिटर्जेण्ट लगेगा।

पानी के कम से कम उपयोग द्वारा घर की सफ़ाई हेतु टिप्स -
दिन भर होली खेलने के बाद घर-आँगन और छत की धुलाई एक बड़ा काम होता है, लेकिन हमें इस काम में कम से कम पानी का उपयोग करना चाहिये। इस हेतु निम्न सुझाव हैं -

1. दो बाल्टी पानी भर लें, एक बाल्टी में साबुन / डिटर्जेण्ट का पानी लें और दूसरी में सादा-साफ़ पानी लें।
2. दो स्पंज़ के बड़े-बड़े टुकड़े लें।
3. फ़र्श अथवा घर के जिस हिस्से में सबसे अधिक रंग लगे हों वहाँ साबुन के पानी वाले स्पंज से धीरे-धीरे साफ़ करें।
4. इसके बाद साफ़ पानी वाले स्पंज से उस जगह को साफ़ कर लें।
5. सबसे अन्त में एक बार साफ़ पानी से उस जगह को धो लें।
6. सबसे अन्त में सूखे कपड़े अथवा वाइपर से जगह को सुखा लें।

इस विधि से पानी की काफ़ी बचत होगी ही साथ ही रंग साफ़ करने में मेहनत भी कम लगेगी। अधिक गहरे रंगों को साफ़ करने के लिये वॉशिंग सोडा भी उपयोग करें यह अधिक प्रभावशाली होता है, लेकिन इसका उपयोग बहुत कम मात्रा में होना चाहिये वरना अधिक झाग की वजह से पानी अधिक भी लग सकता है। यह करते समय दस्ताने अथवा प्लास्टिक या रबर हाथों में पहनना न भूलें, क्योंकि सोडा अथवा साबुन के लिक्विड आदि हाथों की त्वचा के लिये खतरनाक हो सकते हैं।

पर्यावरण बचाने में सहयोग करें -
यह संयोग ही है कि मार्च के महीने में ही होली और विश्व जल दिवस एक साथ आ रहे हैं। समूचे विश्व और भारत के बढ़ते जलसंकट के मद्देनज़र हमें पानी बचाने के लिये एक साथ मिलकर काम करना चाहिये और होली जैसे अवसर पर पानी की बर्बादी रोकना चाहिये। इस धरती पर लगभग 6 अरब की आबादी में से एक अरब लोगों के पास पीने को भी पानी नहीं है। जब मनुष्य इतनी बड़ी आपदा से जूझ रहा हो ऐसे में हमें अपने त्योहारों को मनाते वक्त संवेदनशीलता दिखानी चाहिये। इस होली पर जितना सम्भव हो अधिक से अधिक पानी बचाने का संकल्प लें…


फ़िरदौस ख़ान
देश की नदियां दिनोदिन प्रदूषित होती जा रही हैं. जल प्रदूषण रोकने के लिए क़ानून तो बने, लेकिन उन पर अमल नहीं किया गया. मुंबई का कचरा समुद्र और कालू नदी में बहाया जा रहा है. इसी तरह दिल्ली की गंदगी यमुना, कोलकाता की हुगली और दामोदर में, चेन्नई की कुअम में, बनारस, हरिद्वार, कानपूर की गंदगी गंगा में डाली जा रही है. नतीजतन, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, गोदावरी सहित देश की 27 नदियां जल प्रदूषण की चपेट में हैं. जल प्रदूषण सेहत के लिए बेहद ख़तरनाक है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ दुनिया भर में हर साल डेढ़ करोड़ लोग प्रदूषित जल के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं. भारत में प्रति लाख पर तक़रीबन 360 लोगों की मौत हो जाती है. अस्पतालों में दाख़िल होने वाले मरीज़ों में से 50 फ़ीसद मरीज़ ऐसे होते है, जिनकी बीमारी की वजह दूषित पानी होता है. अविकसित देशों की हालत तो और भी ज़्यादा बुरी है, क्योंकि यहां 80 फ़ीसद बीमारियों का कारण दूषित पानी है. जल प्रदूषण से इंसान ही नहीं, जलीय जीव-जंतु, जलीय पादप और पशु-पक्षी भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं.
जल प्रदूषण का असर लोगों की रोज़मर्राह की ज़िन्दगी पर भी पड़ रहा है. हाल में यमुना के पानी में अचानक अमोनिया की मात्रा बढ़ने की वजह से दिल्ली के वज़ीराबाद और चंद्रावल जल शोधन संयंत्रों को बंद कर बंद करना पड़ा. इन संयंत्रों के बंद होने से 222 एमजीडी (मिलियन गैलन प्रतिदिन) पेयजल की आपूर्ति रुक गई. वज़ीराबाद जल शोधन संयंत्र की क्षमता 124 एमजीडी और चंद्रावल जल शोधन संयंत्र की क्षमता 98 एमजीडी है.
इसकी वजह से दिल्ली के एनडीएमसी सहित उत्तरी दिल्ली, उत्तर-पश्चिम दिल्ली, मध्य दिल्ली और पश्चिमी और दक्षिणी दिल्ली के कई इलाक़े प्रभावित हो गए, जिनमें चांदनी चौक, आज़ाद मार्केट, सदर बाज़ार, दरियागंज,  जामा मस्जिद, सिविल लाइंस, सुभाष पार्क, मुखर्जी नगर, शक्ति नगर, आदर्श नगर, मॉडल टॉउन, जहांगीरपुरी, वज़ीरपुर इंडस्ट्रीयल एरिया, पंजाबी बाग़, गुलाबी बागग़, हिन्दूराव, झंडेवालान, मोतिया ख़ान, पहाड़गंज, करोलबाग़, ओल्ड राजेंद्र नगर, नया बाज़ार, ईस्ट और वेस्ट पटेल नगर, मल्कागंज और वज़ीराबाद आदि शामिल हैं.

दिल्ली जल बोर्ड के मुताबिक़ पानीपत ड्रेन से प्रदूषित पानी नदी में गिरने की वजह से अमोनिया की मात्रा बढ़ गई. ग़ौरतलब है कि अमोनिया एक तीक्ष्ण गंध वाली रंगहीन गैस है. यह हवा से हल्की होती है और इसका वाष्प घनत्व 8.5 है. यह जल में अति विलेय है. अमोनिया के जलीय घोल को लिकर अमोनिया कहा जाता है. यह प्रकृति क्षारीय होती है. कई रसायनों और रासायनिक खादों को बनाने में अमोनिया का इस्तेमाल किया जाता है. बर्फ़ के कारख़ाने में शीतलक के रूप में अमोनिया का इस्तेमाल होता है. अमोनिया गैस बहुत ज़हरीली होती है. इसे सूंघने पर इंसान की जान तक जा सकती है.

इससे पहले जनवरी और 27 दिसंबर में भी यमुना में अमोनिया की मात्रा बढ़ गई थी, जिससे वज़ीराबाद और चंद्रावल जल शोधन संयंत्रों को बंद कर गया था. दिल्ली के बहुत से इलाक़े जल संकट से जूझ रहे हैं. पिछले काफ़ी अरसे से जो जल आपूर्ति की जा रही है, उसका पानी पीने के क़ाबिल नहीं है. पानी को कुछ देर रखने के बाद देखें, तो बर्तन की तली में गंदगी की एक पर्त जम जाती है. जो लोग पैसे वाले हैं, उन्होंने आरओ लगवा रखे हैं, कुछ लोग बाज़ार से पानी की बोतलें ख़रीदते हैं. जो ये सब नहीं कर सकते, वो पानी को उबालकर, छानकर इस्तेमाल कर रहे हैं. महिलाओं का कहना है कि गैस भी कोई सस्ती नहीं है. पानी गर्म करने की वजह से उनका सिलेंडर जल्द ख़त्म हो जाता है.

यमुना में अमोनिया का स्तर बढ़ने पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल (एनजीटी) ने दिल्ली जल बोर्ड को फटकार लगाते हुए जवाब तलब किया था. एक रिपोर्ट के आधार पर ग्रीन बेंच ने दिल्ली जल बोर्ड से पूछा था कि अमोनिया स्तर बढ़ने के मामले पर आपका पक्ष क्या है? इस संबंध में अभी तक आपने क्या किया? बोर्ड के वकील इन सवालों का संतोषजनक जवाब न दे सके. इसके बाद बेंच ने पर्यावरण मंत्रालय, जल संसाधन मंत्रालय और दिल्ली जल बोर्ड के आला अधिकारियों को तलब किया था.  बेंच ने इस मामले में निर्मल यमुना पुनरुद्धार योजना-2017 के चेयरमैन एवं दिल्ली जल बोर्ड के सीईओ को भी तलब किया था. क़ाबिले-ग़ौर है कि निर्मल यमुना पुनरुद्धार योजना के लिए बनाई गई प्रधान समिति में पर्यावरण मंत्रालय के सचिव, जल संसाधन मंत्रालय के संयुक्त सचिव, दिल्ली के मुख्य सचिव, डीडीए के वाइस चेयरमैन, दिल्ली नगर निगमों के कमिश्नर्स, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के राज्य सचिव को शामिल किया गया था. पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि यमुना में अमोनिया का स्तर 2 से 2.5 पार्ट्स प्रति मिलियन (पीपीएम) पाया गया है. इसके बाद दिल्ली जल मंत्री कपिल मिश्रा ने केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती को पत्र लिखकर बताया था कि अगर अमोनिया की मात्रा 0.5 पीपीएम या उससे ज़्यादा हुई, तो यह पानी सेहत के लिए काफ़ी नुक़सानदएह हो सकता है. अगर उच्च अमोनिया युक्त पानी में शोधन के लिए क्लोरीन मिलाया जाए, तो यह कैंसर पैदा कर सकता है.

एनजीटी ने बीते साल दिल्ली सरकार और संबंधित प्राधिकरणों से यमुना के शोधन मामले में एसटीपी, सीईटीपी के लिए ख़र्च की गई रक़म का हिसाब मांगा था. वहीं दिल्ली जल बोर्ड ने बताया था कि उसका सालाना बजट 1400 करोड़ रुपये का है. यमुना की सफ़ाई के तमाम सरकारी दावों के बावजूद यह नदी एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है. कुछ ही दिनों बाद गर्मी का मौसम शुरू हो जाएगा. दिल्ली को ज़्यादा पानी की ज़रूरत होगी. अगर यही हाल रहा, तो एक प्रदूषित यमुना लोगों के गले कैसे तर कर पाएगी.


नई दिल्ली. देश में सफ़ाई अभियान को लेकर शहरी विकास मंत्रालय ने देश के विभिन्न शहरों की स्वच्छता को लेकर स्वच्छता रैंकिंग की फ़ेहरिस्त जारी की है. देश के सबसे साफ़-सुथरे शहरों में कर्नाटक का मैसूर अव्वल है, जबकिश के सबसे गंदे शहरों में झारखंद का धनबाद सबसे आगे हैं. देशभर में पिछले माह किए गये प्रमुख 73 शहरों के स्वच्छता सर्वेक्षण के परिदृश्य में कर्नाटक का मैसूर शहर सबसे स्वच्छ शहर की श्रेणी पर जबकि झारखंड का धनबाद शहर सबसे निचले पायदान पर है.

शहरी विकास मंत्री एम.वैंकेया नायडू ने आज देशभर में पिछले माह किए गये प्रमुख 73 शहरों के स्वच्छता सर्वेक्षण-2016 की रिपोर्ट जारी की. इस सर्वेक्षण के लिए 10 लाख से ज़्यादा की आबादी के 53 शहरों और इससे अधिक की आबादी न रखने वाली 22 राजधानियों का चयन किया गया था. नोयडा और कोलकाता ने अगले दौर के सर्वेक्षण में शामिल होने की इच्छा जताई है. स्वच्छता और सफ़ाई के संबंध में प्रमुख 10 शहरों की श्रेणी में– मैसूर, चंडीगढ़, तिरूचनापल्ली (तमिलनाडु), नई दिल्ली नगरपालिका परिषद, विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश), सूरत और राजकोट (गुजरात) गंगटोक (सिक्किम) और पिंपरी छिंदवाड़ और ग्रेटर मुंबई (महाराष्ट्र)  शामिल हैं. इस साल के सर्वेक्षण में 10 प्रमुख स्वच्छ शहरों में स्थान बनाते हुए विशाखापत्तनम (आंध्रप्रदेश), सूरत, राजकोट (गुजरात) और गंगटोक (सिक्किम) ने अपनी श्रेणियों में सुधार किया है.
      निचले पायदान के 10 शहरों में कल्याण डोम्बीवली (महाराष्ट्र 64वीं श्रेणी), जमशेदपुर (झारखंड), जमशेदपुर (झारखंड), वाराणसी, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), रायपुर (छत्तीसगढ़), मेरठ (उत्तर प्रदेश), पटना (बिहार), र्इटानगर (अरुणाचल प्रदेश), आसनसोलन (पश्चिम बंगाल) और धनबाद (झारखंड) 73वीं श्रेणी पर हैं.
 स्वच्छता के लिए पिछला सर्वेक्षण एक लाख और इससे अधिक की आबादी वाले 476 शहरों में साल 2014 में किया गया था. इस सर्वेक्षण को प्रधानमंत्री के पिछले साल अक्टूबर में शुरू किए गए स्वच्छ भारत अभियान से पूर्व किया गया था. इन शहरों के 2014 के सर्वेक्षण के परिणाम स्वच्छ भारत अभियान के घटकों जैसे शौचालयों का निर्माण, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन अैर व्यक्तिगत निगरानी और व्यापक मानदंडों के संबंध में उनके प्रदर्शन पर आधारित थे. इससे स्वच्छ भारत अभियान के प्रभाव के आकलन के लिए दोनों सर्वेक्षणों के परिणामों की तुलना करने में मदद मिली.
इस साल के सर्वेक्षण के परिणामों के साथ आगे भी तुलना करने के लिए 2014 में अपनी श्रेणियों में पहुंचे अंकों के आधार पर 73 शहरों के सर्वेक्षण में उनको इस बार भी श्रेणियां प्रदान की गईं. दो सर्वेक्षणों के अंकों और श्रेणियों की तुलना के आधार पर वैकेया नायडू ने कहा कि स्वच्छ भारत अभियान ने स्वच्छता में सुधार, नागरिकों और स्थानीय शहरी निकायों के नज़रिये में ज़मीनी स्तर पर सुधार की दिशा में बढ़ाए गये प्रयासों के संदर्भ में शहरी क्षेत्रों में सकारात्मक प्रभाव बनाया है. स्वच्छता की ओर प्रगति के मामले में शहर विभिन्न स्तरों पर हैं और एक दूसरे से बेहतर बनने की होड़ में आगे निकलने के लिए एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा जारी है. कुल मिलाकर दक्षिण और पश्चिम के शहरों ने बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन देश के अन्य क्षेत्रों ख़ासतौर पर उत्तर में पारंपरिक प्रमुखों तक पहुंचने की शुरूआत कर रहे हैं. पूर्व और उत्तर के कुछ क्षेत्रों में धीमी गति पर चल रहे चिन्हित शहरों के लिए प्रयासों को बढ़ाने की ज़रूरत है. प्रमुखों के तौर पर शहरों की श्रेणीकरण, महत्वाकांक्षी प्रमुख, अपने प्रयासों को गति देने की इच्छा रखने वाले और धीमी गति से आगे बढ़ रहे शहरों के बीच एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा.  सर्वेक्षण के निष्कर्षों को सार्वजनिक कर देने के फलस्वरूप शहरों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और ज़्यादा बढ़ जाएगी, क्योंकि जिस चीज़ को भी मापा जाता है, उसे बाक़ायदा किया जाता है और प्रतिस्पर्धा किसी को भी बेहतर प्रयास करने के लिए प्रेरित करती है. स्वच्छ सर्वेक्षण-2016 व्‍यापक, प्रोफेशनल, साक्ष्य आ‍धारित और सहभागितापूर्ण था.

उन्होंने कहा कि जिन 73 शहरों में सर्वेक्षण किया गया, उनमें से 32 शहरों की रैंकिंग में पिछले सर्वेक्षण के मुक़ाबले सुधार देखने को मिला है. इनमें उत्तर भारत के 17 शहर, पश्चिमी भारत के 6 शहर, दक्षिण भारत के 5 शहर और पूर्वी एवं पूर्वोत्तर भारत के 2-2 शहर शामिल हैं. इससे यह साबित हो जाता है कि उत्तर भारत के शहर अब साफ़-सफ़ाई के लिए कहीं ज़्यादा प्रयास कर रहे हैं और शीर्ष स्वच्छ शहरों में शामिल दक्षिण एवं पश्चिमी भारत के शहरों के वर्चस्व को नये शहर चुनौती दे रहे हैं.
 इन 32 शहरों में शामिल जिन शीर्ष 10 शहरों ने साल 2016 के सर्वेक्षण में अपनी रैंकिंग में काफ़ी ज़्यादा सुधार किया है, उनमें इलाहाबाद (रैंकिंग में 45 पायदानों का सुधार), नागपुर (40 पायदानों का सुधार), विशाखापत्तनम (39 पायदानों का सुधार), ग्वालियर (34 पायदानों का सुधार), भुवनेश्वर (32 पायदानों का सुधार), हैदराबाद (31 पायदानों का सुधार), गुड़गांव (29 पायदानों का सुधार), विजयवाड़ा (23 पायदानों का सुधार) और लखनऊ (23 पायदानों का सुधार) शामिल हैं.
 राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी) दिल्ली में नगरपालिका निकायों के बीच नई दिल्ली नगरपालिका परिषद की रैंकिंग साल 2014 के सातवें पायदान से सुधर कर साल 2016 में चौथे पायदान पर पहुंच गई. इसी तरह दक्षिणी दिल्ली नगर निगम की रैंकिंग 47वें पायदान से सुधर कर 39वें पायदान पर और उत्तरी दिल्ली नगर‍ निगम की रैंकिंग 47वें स्थान से सुधर कर 43वें स्थान पर आ गई है, जबकि पूर्वी दिल्ली नगर निगम की रैंकिंग साल 2014 के 47वें पायदान से फिसल कर साल 2016 में 52वें पायदान पर आ गई है.
साल 2016 में जिन शीर्ष 10 शहरों की रैंकिंग काफ़ी नीचे आई है, उनमें जमशेदपुर, कोच्चि, शिलांग, चेन्नई, गुवाहाटी, आसनसोल, बेंगलुरू, रांची, कल्याण-डोम्बीवली और नासिक शामिल हैं. जहां एक ओर जमशेदपुर की रैंकिंग इस साल 53 पायदान नीचे आ गई है, वहीं नासिक की रैंकिंग 23 पायदान फिसल गई है.
अपनी रैंकिंग में बहुत ज़्यादा सुधार करने वाले शीर्ष शहरों में से चार शहर उत्तर भारत के हैं, जबकि अपनी रैंकिंग में बेहद कमी दर्शाने वाले शीर्ष 10 शहरों में से कोई भी शहर उत्तर भारत का नहीं है.
      साफ़-सफ़ाई की ओर अपने प्रयासों और ज़मीनी हालत में सुधार करने के दौरान साल 2016 में कुल मिलाकर 33 शहरों की रैंकिंग पिछले सर्वेक्षण के मुक़ाबले घट गई है. सर्वेक्षण  में शामिल उत्तर भारत के 28 शहरों में से 11 शहर, दक्षिण भारत के 15 शहरों में से 8 शहर, पश्चिमी भारत के 15 शहरों में से 7 शहर, पूर्वी भारत के 7 शहरों में से 5 शहर और पूर्वोत्तर क्षेत्र के 8 शहरों में से 2 शहर अपनी रैंकिंग में गिरावट दर्शाने वाले इन 33 शहरों में शामिल हैं.
      स्वच्छ सर्वेक्षण-2016 के लिए अपनाए गए तरीक़ों का ज़िक्र करते हुए नायडू ने सूचित किया कि 73 शहरों के प्रयासों के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए तय किए गए कुल 2,000 अंकों में से 60 फ़ीसद अंक ठोस कचरे के प्रबंधन से संबंधित पैमानों के लिए तय किए गए थे, जबकि शौचालय निर्माण के लिए 21 फ़ीसद अंक और शहर स्तरीय स्वच्छता रणनीति तथा व्यवहार परिवर्तन संबंधी संचार के लिए 5-5 फ़ीसद अंक तय किए गए थे.
      यह सर्वेक्षण करने वाली भारतीय गुणवत्ता परिषद ने हर शहर में 42 स्थानों का दौरा करने के लिए 3-3 प्रशिक्षित सर्वेक्षकों की 25 टीमें तैनात की थीं, जिन्होंने  प्रमुख क्षेत्रों जैसे कि रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, धार्मिक स्थलों, प्रमुख बाज़ार स्थलों, झुग्गियों एवं शौचालय परिसरों समेत नियोजित एवं ग़ैर-नियोजित आवासीय क्षेत्रों को कवर किया. सर्वेक्षण में शामिल टीमों ने साक्ष्य के तौर पर अपने दौरे वाले स्थानों की भौगोलिक जानकारी संबंधी कुल 3,066 तस्वीरें लीं और उन्हें वेबसाइट पर अपलोड किया गया.
    उन्होंने कहा कि सभी 73 शहरों को अग्रिम तौर पर काफ़ी पहले ही विस्तृत रूप  से जानकारी दे दी गई थी, ताकि साफ़-सफ़ाई में बेहतरी के साथ-साथ सर्वेक्षण वाली टीमों द्वारा सत्यापन के लिए अपने प्रयासों के दस्तावेई प्रमाण पेश किए जा सकें. एक लाख से भी ज़्यादा नागरिकों ने संबंधित शहरों में साफ़-सफ़ाई पर अपने फ़ीडबैक पेश किए, जिससे साल 2016 में किया गया सर्वेक्षण साक्ष्य  आधारित और सहभागितापूर्ण साबित हुआ है.    

फ़िरदौस ख़ान
प्लास्टिक कचरा पर्यावरण के लिए एक गंभीर संकट बना हुआ है. हर परिवार हर साल क़रीब तीन-4 किलो प्लास्टिक थैलों का इस्तेमाल करता है. बाद में यही प्लास्टिक के थैले कूड़े के रूप में पर्यावरण के लिए मुसीबत बनते हैं. पिछले साल देश में 29 लाख टन प्लास्टिक कचरा था, जिसमें से करीब 15 लाख टन कचरा सिर्फ़ प्लास्टिक का ही था. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में हर साल 30-40 लाख टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है. इसमें से क़रीब आधा यानी 20 लाख टन प्लास्टिक रिसाइक्लिंग के लिए मुहैया होता है. हालांकि हर साल क़रीब साढ़े सात लाख टन कूड़े की रिसाइक्लिंग की जाती है. कूड़े की रिसाइक्लिंग को उद्योग को दर्जा हासिल है और सालाना क़रीब 25 अरब रुपये का कारोबार है. देश में प्लास्टिक का रसाइक्लिंग करने वाली छोटी-बड़ी 20 हज़ार इकाइयां हैं.

देश के करीब 10 लाख प्लास्टिक संग्रह के काम में लगे हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी बड़ी तादाद में शामिल हैं. इन महिलाओं और बच्चों को कूड़े से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए देखा जा सकता है. ये लोग अपने स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर कूड़ा बीनते हैं इसके बावजूद इन्हें वाजिब मेहनताना तक नहीं मिल पाता. हालांकि इस धंधे में बिचौलिये (कबाड़ी) चांदी कूटते हैं.

केन्द्र सरकार ने भी प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का आकलन कराया है. इसके लिए कई समितियां और कार्यबल गठित किए गए हैं. दरअसल, प्लास्टिक थैलों के इस्तेमाल से होने वाली समस्याएं ज़्यादातर कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों की वजह से पैदा हुई हैं. प्लास्टिक का यह कचरा नालियों और सीवरेज व्यवस्था को ठप कर देता है. इतना ही नहीं नदियों में भी इनकी वजह से बहाव पर असर पड़ता है और पानी के दूषित होने से मछलियों की मौत तक हो जाती है. इतना ही नहीं कूड़े के ढेर पर पड़ी प्लास्टिक की थैलियों को खाकर आवारा पशुओं की भी बड़ी तादाद में मौतें हो रही हैं.

रि-साइकिल किए गए या रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं जो जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषैला बन सकता है. जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं. उनमें रिसाइक्लिंग के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से वायु प्रदूषण फैलता है. प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता. इसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है. इसके अलावा प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिए और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे भी अमूमन स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि प्लास्टिक मूल रूप से नुकसानदायक नहीं होता, लेकिन प्लास्टिक के थैले अनेक हानिकारक रंगों/रंजक और अन्य तमाम प्रकार के अकार्बनिक रसायनों को मिलाकर बनाए जाते हैं. रंग और रंजक एक प्रकार के औद्योगिक उत्पाद होते हैं जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक थैलों को चमकीला रंग देने के लिए किया जाता है. इनमें से कुछ रसायन कैंसर को जन्म दे सकते हैं और कुछ खाद्य पदार्थों को विषैला बनाने में सक्षम होते हैं. रंजक पदार्थों में  कैडमियम जैसी जो धातुएं होती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कैडमियम के इस्तेमाल से उल्टियां हो सकती हैं और दिल का आकार बढ़ सकता है. लम्बे समय तक जस्ता के इस्तेमाल से मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होने लगता है.

हालांकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रि-साइकिंल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर ऐंड यूसेज रूल्सए 1999 जारी किया था. इसे 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1968 के तहत संशोधित किया गया है, ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन सही तरीके से किया जा सके. भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की है. मगर इसके बावजूद हालात वही 'ढाक के तीन पात' वाले ही हैं.

प्लास्टिक के कचरे से निपटने के लिए अनेक राज्यों ने तुलनात्मक दृष्टि से मोटे थैलों का उपाय सुझाया है. ठोस कचरे की धारा में इस प्रकार के थैलों का प्रवाह काफी हद तक कम हो सकेगा, क्योंकि कचरा बीनने वाले रिसाइकिलिंग के लिए उनको अन्य कचरे से अलग कर देंगे. अगर प्लास्टिक थैलियों की मोटाई बढ़ा दी जाए तो इससे वे थोड़े महंगे हो जाएंगे और उनके इस्तेमाल में कुछ कमी आएगी.

जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम व पश्चिम बंगाल ने पर्यटन केन्द्रों पर प्लास्टिक थैलियों और बोतलों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है. हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक कानून के तहत प्रदेश में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है. इतना ही नहीं हिमाचल प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) के सहयोग से नमूने के तौर पर शिमला के बाहरी हिस्से में प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल से तीन सड़कों का निर्माण किया है. इस कामयाबी से उत्साहित हिमाचल सरकार ने अब सड़क निर्माण में प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल करने का फैसला किया है.

एक सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक राज्य में 'पॉलीथिन हटाओ, पर्यावरण बचाओ' मुहिम के तहत करीब 1381 क्विंटल प्लास्टिक कचरा जुटाया गया है. पूरे प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल राज्य में प्लास्टिक-कोलतार मिश्रित सड़क के निर्माण्ा में किया जाएगा. यह कचरा 138 किलोमीटर सड़क के निर्माण के लिए काफी है. अगर मिश्रण में 15 प्रतिशत प्लास्टिक मिलाया जाए तो इससे कोलतार की इतनी ही मात्रा की बचत होगी और इससे प्रति किलोमीटर सड़क निर्माण में 35 से 40 हजार रुपये की बचत होगी.

मध्य प्रदेश में प्लास्टिक के कचरे को सीमेंट फैक्ट्रियों में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने की कवायद जारी है. बताया जा रहा है कि विभिन्न प्रयोगों और परीक्षणों में पाया गया है कि रिसाइकिल न होने वाला प्लास्टिक कचरा एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर नष्ट हो जाता है. अधिक तापमान होने की वजह से इससे विषैली गैसें भी नहीं निकलतीं और यह कोयले से भी ज्यादा ऊर्जा पैदा करता है. हालांकि अभी इस पर अमल नहीं हो पाया है, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि इसका नतीजा क्या होगा.

अन्य राज्यों को भी हिमाचल प्रदेश से प्रेरणा लेकर प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल सड़क निर्माण आदि में करना चाहिए. प्लास्टिक के कचरे की समस्या से निजात पाने के लिए ज़रूरी है कि प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट से बने थैलों का इस्तेमाल ज़्यादा से ज़्यादा किया जाए. साथ ही प्लास्टिक कचरे का समुचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए. जैविक दृष्टि से घुलनशील प्लास्टिक के विकास के लिए अनुसंधान कार्य जारी है और उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही वैज्ञानिकों को इसमें कामयाबी ज़रूर मिलेगी.



अम्बरीश कुमार
उत्तर प्रदेश में बहराइच जिले के कतरनिया घाट से करीब दस कोस दूर एक नदी है, जो नेपाल से आती है- गेरुआ. आगे जाकर यह नेपाल से ही आई एक अन्य नदी कौडियाला से मिलकर दो धाराओं में बंट जाती है. बाद में ये घाघरा के नाम से जानी जाती हैं और कुछ दूरी तक इसका पानी बहुत साफ भी रहता है.

इसी से कुछ दूरी पर सरयू नदी भी है. इन दोनों नदियों का पानी इस अंचल में बहुत साफ नजर आता है. खासकर गेरुआ नदी का पानी. बहुत से लोगों को इस बात पर हैरत हो सकती है कि इस नदी के उद्गम के आसपास अब भी नदी का पानी लोग सीधे पीते हैं. जरवल रोड के करीब घाघरा घाट पर इस नदी का करीब एक किलोमीटर  चौड़ा पाट इसका असली रूप भी दिखाता है. यहां तक यह नदी बहुत स्वच्छ नजर आती है. इसका पानी चूंकि पेट की बीमारियों के लिए बहुत फायदेमंद माना जाता है, इसलिए लोग सीधे इसे पीते हैं.

अपने उद्गम स्थल से लेकर आगे तक गेरुआ नदी सिर्फ जंगल के बीच से गुजरती है और किसी भी शहर से इसका कोई वास्ता नहीं पड़ता. यही वजह है कि इस नदी में किसी शहर का कोई नाला नहीं गिरता, और वनक्षेत्र से गुजरने की वजह से बहुत-सी जड़ी बूटियां इसके पानी में गिरकर इसे और समृद्ध करती है. एक गौर करने वाली बात यह भी है कि इस नदी में मछली के शिकार पर रोक है, क्योंकि इसमें बड़ी संख्या में मगरमच्छ और घडि़याल रहते है. वन्य जीव अभयारण्य के बीच से निकलने की वजह से इस पर अभयारण्य के नियम-कायदे भी लागू हैं. इस नदी में डॉल्फिन से लेकर रोहू, टेंगन, भाकुर और महाशीर जैसी मछलियां पाई जाती हैं, जिनका शिकार घडि़याल और मगरमच्छ से लेकर बड़े परिंदे करते हैं. नदी का पानी पारदर्शी है और ऊपर से देखने पर हरा नजर आता है. इसकी स्वच्छता का आलम यह है कि इसे नाव से पार करने वाले लोग बोतल में इसका पानी भरकर पीते हैं.

नदी से कुछ किलोमीटर बाद ही नेपाल का बर्दिया जिला शुरू हो जाता है. इसलिए नदी पर आवाजाही बनी रहती है. हर कोई इस नदी को देखकर देश की दूसरी नदियों से तुलना करना नहीं भूलता. जैसे, लखनऊ  से गुजरने वाली गोमती नदी का पानी बुरी तरह जहरीला हो चुका है और इसे लेकर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल भी कई बार चेतावनी दे चुका है. बावजूद इसके सीतापुर में चीनी मिलों का जहरीला कचरा इसमें डाला जा रहा है, तो बाराबंकी में बूचड़खानों का कचरा इसमें मिलता है.
ऐसे में, करीब 150 किलोमीटर दूर गेरुआ नदी को देखने से एक असली नदी की कल्पना की जा सकती है. जाहिर है, जो भी नदी किसी शहर से बची रही, वह आज भी जिंदा है. देश में दूसरा उदाहरण चंबल नदी का है, जिसका पानी आज भी साफ है. गौर से देखें, तो यह कहानी दरअसल नदियों की नहीं है, बल्कि उन तमाम शहरों की है, जो अपने आसपास से गुजरने वाली नदियों को जिंदा रहने लायक नहीं छोड़ते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


लाल बिहारी लाल
दिल्ली. आज दिल्ली विश्व में टोकियो के बाद सर्वाधिक प्रदूषित शहर है. सन 2014 में टोकियो की आबादी 3.80 करोड़ थी, जबकि दिल्ली की 2.5 करोड़ आबादी थी. बढ़ती हुई आबादी के दर को देख के कहा जा सकता है कि सन 2030 तक दिल्ली दूसरे नंबर पर ही प्रदूशित शहरों की श्रेणी में रहेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) एंव यूरोपियन यूनियन ने पी.एम. 2.5 प्रदूषण का स्तर प्रतिघन मीटर 25 माइक्रोग्राम निर्धारित किया है, जबकि अमेरिका इससे भी कड़ा यह स्तर
12 माइक्रोग्राम निर्धारित किया है. दिल्ली में यह स्तर सामान्यतः 317 है कभी कभार इससे ज्यादा भी हो जाता है.  यह स्तर अमेरिका से लगभग 30 गुना और विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानको से 15 गुना ज्यादा है. इससे कैंसर,दिल की
बीमारियां, अस्थमा एवं अन्य घातक बिमारियां होने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है.  भारी यातायात,स्थानीय उद्योग,थर्मल पावर प्लांट एवं झूग्गियों में कोयले पर खाना बनाना दिल्ली में वायू प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने में काफी योगदान करते है. अतः दिल्ली की जनता प्रदूषण से काफी बेहाल है. आज जरूरत है कि इससे निजात
के लिए कुछ किया जाए.

भारत की भूमी दुनिया के 2.4 प्रतिशत जबकि आबादी लगभग 18 प्रतिशत है. इस तरह प्रति ब्यक्ति संसाधनों पर अन्य देशों की वनिस्पत काफी दबाव है, जिससे तेजी से शहरीकरण एवं औद्योदिकरण हो रहा है. सन 1947 में वर्ष 2002
तक पानी की उपलब्धता 70 प्रतिशत घटकर 1822 घनमीटर प्रति व्यक्ति रह गया है. अगर इसी तरह संसाधनों का दोहन तेजी से होता रहा तो मावव जल के बिना मछली की तरह तड़प-तड़प कर जान दे देगा. भारत में वनों का औसत भौगोलिक
क्षेत्रफल 18.34 प्रतिशत है, जो कि 33 प्रतिशत के मनदंड से काफी कम है. इसमें भी 50 प्रतिशत म.प्र.(20.7) और पूर्वोत्तर के राज्यो में (25.7) प्रतिशत है बाकी  के राज्य वन के मामले में काफी निर्धन है. वन की कमी से जलवायु परिवर्तन हो
रहा है. अभी तामिलनाड्ड़ू जल गांडव से ग्रस्त है.

प्रदूषण के मामले में केन्द्र एवं राज्य सरकारें नियम तो बना रखा है पर इस पर सख्ती से अमल नहीं हो पाता है. यही कारण है की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण का ग्राफ काफी तेजी से बढ़ा है। यहा पर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था काफी लचर
है. आम आदमी की नई सरकार बनी थी तो लोगो ने सोचा की काफी सुधार होगा पर यह सरकार पिछली सरकार से भी फिसड्डी साबित हुई। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश जस्टीश टी.एस. ठाकुर के फटकार पर दिल्ली सरकार ने फौरी तौर पर
गाड़ियो के ओड एंव इभेन नंबर एक-एक दिन चलाने के प्रस्ताव पर बिचार कर रही है, पर यह स्थायी समाधान नही हो सकता है. इसलिए जरूरी है कि दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए और नियमों पर सख्ती से
अमल हो तथा लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक किया जाए. जब राजनीतिज्ञों को वोट की राजनीति से बाहर आकर ही देशहित एवं समाजहित में कुछ किया जाए, तभी देशवासियो एवं दिल्ली वासियों का भला हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिसंबर 2015 को केन्द्र एवं राच्य सरकार को सुझाव के साथ तलब किया है. देखें जनप्रतिनिधि जनता के हितों की रक्षा के लिए क्या ठोस  कदम उठाते हैं.
(लेखक-पर्यावरणप्रेमी और लाल कला मंच के सचिव हैं)

कल्पना पालखीवाला
देखने में सर्वत्र परिचित, सर्वव्यापी एवं कभी ज्यादा संख्या में दिखाई पड़ने वाली घरेलू गौरैया, अब एक रहस्यमय पक्षी बन गई है और पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ होती जा रही है. फुर्तीली और चहलकदमी करने वाली घरेलू गौरैया को हमेशा शरदकालीन एवं शीतकालीन फसलों के दौरान, खेत-खलिहानों में अनेक छोटे-छोटे पक्षियों के साथ फुदकते देखा गया है, लेकिन अब तो कई सप्ताह इन्हें बिना देखे ही निकल जाते हैं. कई बड़े शहरों से तो ये गायब ही हो गई हैं, लेकिन छोटे शहरों और गांवों में अभी भी इन्हें देखा जा सकता है.

पिछले कुछ वर्षों में, भारत के साथ-साथ विश्व के मानचित्र पर भी गौरैया की संख्या में भारी कमी देखी गई है. यूरोप के बड़े हिस्से में कभी सामान्य रूप से दिखाई पड़ने वाली इन चिड़ियों की संख्या अब घट रही है. नीदरलैंड में तो घरेलू गौरैया को अब दुलर्भ प्रजाति के वर्ग में रखा जाता है. नीदरलैंड में इनकी घटती संख्या के कारण इन्हें रेड लिस्ट में रखा गया है. इसकी आबादी में ऐसी ही कमी ब्रिटेन में भी दर्ज की गई है. फ्रांसीसी पक्षीविज्ञानी ने पेरिस एवं अन्य शहरों में गौरैया की संख्या में तेजी से गिरावट की रूप रेखा तैयार की है. इससे ज्यादा गिरावट जर्मनी, चेक गणराज्य, बैल्जियम, इटली तथा फिनलैंड के शहरी इलाकों में देखी गई.

इतिहास
ऐसा समझा जाता है कि भूमध्य क्षेत्र घरेलू गौरैया का उद्गम स्थल है और सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह यूरोप भर में पहुंच गई. मानव संपर्क में रहने की अपनी विशेषता के कारण गौरैया ने अटलांटिक से लेकर अमेरिका तक का सफर कर डाला. 1850 में, ग्रीन ईंच वर्म नामक कीट न्यूयार्क के सेंट्रल पार्क में पौधों को नुकसान पहुंचा रहे थे. चूंकि ब्रिटेन में घरेलू गौरैया का प्रमुख भोजन ग्रीन वर्म ही हैं, ऐसा विचार किया गया कि अगर गौरैया को न्यूयार्क सिटी लाया गया तो सैंट्रल पार्क की कीट समस्या हल हो जाएगी. कुछ लोगों ने यह भी सोचा कि गौरैया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को भी समाप्त करने में सहायक होगी.

गौरैया से प्रथम परिचय 1851 में अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीटयूट ने कराया था. गौरैया की आठ जोड़ियों को आरंभ में यहां से छोड़ा गया, लेकिन इनमें से कोई भी जलवायु परिवर्तन के कारण बच नहीं पाई, लेकिन बार-बार के प्रयासों से अंतत: चिड़िया ने अपने को ठंडे मौसम के अनुकूल बना लिया और इनकी संख्या बढ़ने लगी. घोड़ों को खिलाने के लिए बिखेरे गए दाने तथा लोगों द्वारा तैयार किए गए कृत्रिम घोंसले गौरैया के लिए काफी समय तक मददगार साबित हुए. गौरेयों ने लोगों का विश्व के कई हिस्सों में जैसे - उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड तक सफलतापूर्वक पीछा किया.

भोजन
घरेलू गौरैया एक बुध्दिमान चिड़िया है, जिसने घोंसला स्थल, भोजन तथा आश्रय परिस्थितियों में अपने को उनके अनुकूल बनाया है जैसे. अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई.

गौरैया बहुत ही सामाजिक पक्षी है और ज्यादातर पूरे वर्ष झुंड में उड़ती है. एक झुंड 1.5-2 मील की दूरी तय करता है, लेकिन अगर भोजन तलाश करने की बात हो, तो यह ज्यादा दूरी भी तय कर सकती है. गौरैया का प्रमुख आहार अनाज के दाने, जमीन में बिखरे दाने तथा पशु आहार है. अगर अनाज उपलब्ध न हो तो यह अन्य आहार से भी अपना पेट भर लेती है. ऐसे में ये खर-पतवार तथा खासकर प्रजनन मौसम के दौरान कीटों को भी खा लेती है. घरेलू गौरैया की परजीवी प्रकृति साफ देखी जा सकती है, क्योंकि ये घरों से बाहर फेंके गए कूड़े करकट में भी अपना आहार ढूंढ लेती है. बसंत के मौसम में, फूलों की (खासकर पीले रंग के) क्रोकूसेस, प्राइमरोजेस तथा एकोनाइट्ज फूलों की प्रजातियां घरेलू गौरैया को ज्यादा आकर्षित करती हैं. ये तितलियों का भी शिकार करती हैं.

आवास
घरेलू गौरैया साधारणत: भवनों की ओर आराम करने, घोंसला बनाने तथा आश्रय खोजने के लिए आकर्षित होती है. ये अपना घोंसला बनाने के लिए मानव-निर्मित एकांत स्थानों या दरारों को तलाश करती हैं. घोंसला बनाने के लिए इनके अन्य स्थल हैं अलगनी का खुला हुआ किनारा, बरामदा, बगीचा इत्यादि. गौरैया अपना घर मानव आवास के निकट ही बनाती हैं.

वर्गीकरण
घरेलू गौरैया विश्व के पुराने गौरैया परिवार पासेराडेई की सदस्य है. कुछ लोग इसे वीवर फिंच परिवार से संबंधित मानते हैं. इनकी कई भौगोलिक प्रजातियों का नामकरण हुआ है और उन्हें आकार एवं रंग के आधार पर अलग किया गया है. पश्चिमी प्रदेशों में इनका रंग धूसर एवं पूर्वी इलाकों में ये सफेद रंगों में मिलती हैं. नर गौरैया को उसके सीने के रंग से पहचाना जा सकता है. पश्चिमी गोलार्ध की चिड़िया उष्णकटिबंधी दक्षिण एशियाई चिड़िया की तुलना में बड़ी होती है.

भारत के, हिन्दी भाषी क्षेत्रों में यह गौरैया के नाम से लोकप्रिय है. तमिलनाडु तथा केरल में यह कूरूवी के नाम से जानी जाती है. तेलगू भाषा में इसे पिच्चूका कहते हैं. कन्नड़ भाषा में गुब्बाच्ची तथा गुजरात के लोग इसे चकली कहते हैं. मराठी इसे चिमानी बुलाते हैं. पंजाब में इसे चिड़ी के नाम से जाना जाता है, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी तथा ओड़िशा में घरचटिया कहते हैं. उर्दू भाषा में इसे चिड़िया तथा सिंधी भाषा में इसे झिरकी कहा जाता है.

रूप-रेखा
यह 14 से 16 से.मी. लम्बी चिड़िया है जिसके पंख का फैलाव 19-25 से.मी. होता है. यह एक छोटी, चहचहाने वाली चिड़िया है जिसका वजन 26 से 32 ग्राम होता है. नर गौरैया का सिर, गाल तथा अंदर का भाग धूसर होता है तथा गला, सीने के ऊपर, चोंच एवं आंखों के बीच का भाग काला होता है. गर्मी में इनकी चोंच का रंग नीला-काला तथा पैर भूरे रंग का हो जाता है. सर्दी में पक्षति का रंग मंदा होकर फीका पीला हो जाता है तथा चोंच पीले भूरे रंग की. मादा के सिर या गले पर काला रंग नहीं होता और सिर के ऊपर भूरे रंग की धारी होती है. गौरैया की सामान्य पहचान उस छोटी सी चंचल प्रकृति की चिड़िया से है जो हल्के धातु रंग की होती है तथा चीं चीं करती हुई यहां से वहां फुदकती रहती है. छोटी होते हुए भी यह चिड़िया लम्बी उड़ान भरती है . इसके एक त्रऽतु में कम से कम तीन बच्चे होते हैं.

प्रजनन
इनके घोंसले भवनों की सूराखों या चट्टानों में, घर या नदी के किनारे, समुद्र तट या झाड़ियों में, आलों या प्रवेश द्वारों जैसे विभिन्न स्थानों पर होते हैं. इनके घोंसले घास के तिनकों से बने होते हैं और इनमें पंख भरे होते हैं.

घरेलू गौरैया अन्य चिड़ियों के घोंसले हड़पने में भी बहुत आक्रामक होती है. गौरैया ज्यादातर किसी दूसरी चिड़िया द्वारा तैयार किए गए घोंसले को जबरदस्ती हड़प जाती हैं या कभी-कभी इस्तेमाल हो रहे घोंसले के ऊपर ही अपना घोंसला बना लेती हैं. इनके अंडे अलग-अलग आकार और पहचान के होते हैं. अंडे को मादा गौरैया सेती है. गौरैया की अंडा सेने की अवधि 10-12 दिनों की होती है जो सभी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि में सबसे छोटी है. इसकी प्रजनन सफलता उम्र के साथ बढ़ती है और यह प्रजनन समय में परिवर्तन लाती है, बड़ी चिड़िया ऋतु से पहले अंडा देती है.

कमी का कारण
गौरैया की संख्या में आकस्मिक कमी के विभिन्न कारण हैं, जिनमें से सबसे चौकाने वाला कारण है सीसा रहित पेट्रोल का उपयोग, जिसके जलने पर मिथाइल नाइट्रेट नामक यौगिक तैयार होता है. यह यौगिक छोटे जन्तुओं के लिए काफी जहरीला है. अन्य कारण हैं पनपते खर-पतवार की कमी या गौरैया को खुला आमंत्रण देने वाले ऐसे खुले भवनों की कमी जहां वह अपने घोंसले बनाया करती थी. पक्षीविज्ञानी एवं वन्यप्राणी विशेषज्ञों का यह मानना है कि आधुनिक युग में पक्के मकान, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोज्य-पदार्थ स्त्रोतों की उपलब्धता में कमी इत्यादि प्रमुख विभिन्न कारक हैं जो इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं.

भारतीय कुलंग एवं आर्दभूमि कार्यसमूह के केएस गोपी सुन्दर ने कहा कि यह सच है कि पिछले कुछ सालों से घरेलू चिड़िया की संख्या में कमी जरूर आ रही है. इसके लिए उन्होंने अनेक कारण बताये हैं. किसानों द्वारा फसलों पर कीटनाशकों के छिड़काव के कारण कीट मर जाते हैं जिनके ऊपर ये निर्भर हैं. कोयंबटूर स्थित सलीम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक विज्ञान केन्द्र के डा. वीएस विजयन के अनुसार यद्यपि अभी पृथ्वी के दो-तिहाई हिस्से की उड़ने वाली प्राजतियों का पता लगाया जाना बाकी है, फिर भी ये बड़ी ही विडंबना है की बात है कि जो प्रजाति कभी बहुलता में यहां थी, कम हो रही है. जीवनशैली तथा इमारतों के आधुनिक रूप से आये परिवर्तन ने पक्षियों के आवासों तथा खाद्य स्रोतों को बर्बाद कर दिया है . खत्म होते बगीचे भी इसके लिए जिम्मेदार हैं.

आज के घर के बाहर चिड़ियों का झाडियों की डाली पर उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता है. हम महादेवी वर्मा की कहानी गौरेया को याद कर सकते हैं जिसमें गौरया उनके हाथ से दाना खाती है, उनके कंधों पर उछलती फिरती है और उनके साथ लुक्का-छिप्पी खेलती है. आज हर कोई चाहता है कि गौरेया महादेवी वर्मा की कहानी में सिमटकर न रह जाए बल्कि वह एक बार फिर हमारे शहरों में पहले की तरह वापस आ जाए.



फ़िरदौस ख़ान
शहज़ादी को गूलर से बहुत प्यार था. उनके बंगले के पीछे तीन बड़े-बड़े गूलर के पेड़ थे. वे इतने घने थे कि उसकी शाखें दूर-दूर तक फैली थी. स्कूल से आकर वह अपने छोटे भाइयों और अपनी सहेलियों के साथ गूलर के पेड़ के नीचे घंटों खेलती. उसकी दादी उसे डांटते हुए कहतीं, भरी दोपहरी में पेड़ के नीचे नहीं खेलते. पेड़ पर असरात (जिन्नात) होते हैं और वह बच्चों को गूलर के पेड़ पर असरात होने की तरह-तरह की कहानियां सुनाया करतीं. लेकिन बच्चे थे कि लाख ख़ौफ़नाक कहानियां सुनने के बाद भी डरने का नाम नहीं लेते थे. दोपहरी में जैसे ही दादी जान ज़ुहर (दोपहर) की नमाज़ पढ़ कर सो जातीं, बच्चे गूलर के पेड़ के नीचे इकट्ठे हो जाते और फिर घंटों खेलते रहते. उनकी देखा-देखी आस-पड़ौस के बच्चे भी आ जाते.
जब गूलर का मौसम आता और गूलर के पेड़ लाल फलों से लद जाते तो, शहज़ादी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता. स्कूल में वह सबको बताती कि उनके गूलर के पेड़ फलों से भर गए हैं और वह सबको घर आकर गूलर खाने की दावत देती. उसकी सहेलियां घर आतीं और बच्चे गूलर के पेड़ पर चढ़कर गूलर तोड़ते. दादी जान देख लेतीं, तो खू़ब डांटती और कहतीं, गूलर की लकड़ी कमज़ोर होती है. ज़रा से बोझ से टूट जाती है.  ख़ैर, बच्चों ने पेड़ पर चढ़ना छोड़ दिया. चढ़ते भी तो नीचे तने के पास मोटी शाख़ों पर ही रहते. कोई भी ज़्यादा ऊपर नहीं चढ़ता. एक बार शहज़ादी का भाई गूलर पर चलने की कोशिश कर रहा था, और दादी आ गईं. डर की वजह से वह घबरा गया और नीचे गिर गया. उसके हाथ की एक हड्डी पर चोट आई. महीनों प्लास्तर चढ़ा रहा. इस हादसे के बाद बच्चों ने गूलर पर चढ़ना छोड़ दिया. बच्चे एक पतले बांस की मदद से गूलर तोड़ने लगे. वक़्त बदलता रहा और एक दिन उसके घर वालों ने वह बंगला बेच दिया. शहज़ादी जब कभी उस तरफ़ से गुज़रती, तो गूलर के पेड़ को नज़र भर के देख लेती. कुछ दिन बाद बंगले के नये मालिक ने गूलर के तीनों पेड़ कटवा दिए. शहज़ादी को पता चला, तो उसे बहुत दुख हुआ. उसे लगा मानो बचपन के साथी बिछड़ गए. बरसों तक या यूं कहें कि गूलर के पेड़ उसकी यादों में बस गए थे. शहज़ादी बड़ी हुई और दिल्ली में नौकरी करने लगी. एक दिन वह हज़रत शाह फ़रहाद के मज़ार पर गई. वहां उसने गूलर का पेड़ देखा. यह गूलर का पेड़ उतना घना नहीं था, जितने घने उसके बंगले में लगे पेड़ थे. पेड़ की शाख़ें काट दी गई थीं, शायद इसलिए क्योंकि आसपास बहुत से घर थे. पेड़ पर पके गूलर लगे थे और ज़मीन पर कुएं के पास भी कुछ गूलर पड़े थे. शहज़ादी ने गूलर उठाया, उसे धोया और खा लिया. मानो ये गूलर न होकर जन्नत की कोई नेमत हों. वह अकसर जुमेरात को दरगाह पर जाती और गूलर को देख कर ख़ुश होती. इस बार काफ़ी दिनों बाद उसका मज़ार पर जाना हुआ, लेकिन इस बार उसे गूलर का पेड़ नहीं मिला, क्योंकि उसे काट दिया गया था. शहज़ादी को बहुत दुख हुआ. अब वह उस मज़ार पर नहीं जाती, क्योंकि उसे गूलर याद आ जाता. किसी पेड़ का कटना उसे बहुत तकलीफ़ देता है. वह सोचती है कि काश कभी उसके पास एक ऐसा घर हो, जिसमें बड़ा सा आंगन हो और वह उसमें गूलर का पेड़ लगाए. उसका अपना गूलर का पेड़. उसे उम्मीद है कि कभी तो वह वक़्त आएगा, जब उसकी यादों में बसे गूलर के पेड़ उसके आंगन में मुस्कराएंगे.

मनीष वैद्य
देवास (मध्य प्रदेश). घूंघट में रहने वाली महिलाओं ने जिले के कन्नौद ब्लाक के गांव ‘पानपाट’ की तस्वीर ही बदल दी है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया है कि – कमजोर व अबला समझी जाने वाली महिलाएं यदि ठान लें तो कुछ भी कर सकती हैं। उन्हीं के अथक परिश्रम का परिणाम है कि आज पानपाट का मनोवैज्ञानिक, आर्थिक व सामाजिक स्वरुप ही बदल गया है। जो अन्य गांवों के लिए प्रेरणादायक साबित हो रहा है।

पानपाट गांव का 35 वर्षीय युवक ऊदल कभी अपने गांव के पानी संकट को भुला नहीं पाएगा। पानी की कमी के चलते गांव वाले दो-दो, तीन-तीन किमी दूर से बैलगाड़ियों पर ड्रम बांध कर लाते हैं। एक दिन ड्रम उतारते समय पानी से भरा लोहे का (200 लीटर वाला) ड्रम उसके पैर पर गिर गया और उसका दाहिना पैर काटना पड़ा। ऊदल अपाहिज हो गया। हर साल गर्मियों में गांव का पानी संकट उसके जख्म हरे कर जाता। मध्यप्रदेश के अन्य कई गांवों की तरह यह गांव भी आजादी के पहले से ही पानी का संकट साल दर साल भोगने को अभिशप्त है। यहां सरकारी भाषा में कहें तो डार्क जोन (यानी जलस्तर बहुत नीचे) है, हर साल गर्मियों में परिवहन से यहां पानी भेजा जाता है। ताकि यहां के लोग और मवेशी जिन्दा रह सकें। औरतें दो-दो तीन-तीन किमी दूर से सिर पर घड़े उठाकर लाती है। जिन घरों में बैलगाड़ियां हैं, वहां एक जोड़ी बैल हर साल गर्मियों में ड्रम खींच-खींचकर ‘डोबा’ (बिना काम का, थका हुआ बैल) हो जाते है। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। नेता और अफसर भी पानी की जगह आश्वासन पिलाकर चले जाते पर समस्या जस की तस बनी रही।

इस समस्या का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता था औरतों को। आखिर वे ही तो परिवार की रीढ़ हैं। आखिर एक दिन वे खुद उठीं और बदलने चल दीं अपने गांव की किस्मत को गांव के तमाम मर्दों ने उनकी हंसी उड़ाई ‘आखर जो काम सरकार इत्ता साल में नी करी सकी उके ई घाघरा पल्टन करने चली है’ पर साल भर से भी कम समय में ही वे लोग दांतो तले उंगली दबा रहें हैं। इस कथित घाघरा पल्टन ने ही उनके गांव की दशा और दिशा बदल दी है। यह कोई कपोल कल्पित कहानी या अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि हकीकत है। देवास जिले के कन्नौद ब्लॉक के गांव पानपाट की।

इन औरतों के बीच काम करने पहुंची स्वंयसेवी संस्था ‘विभावरी’ ने उनमें वो आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति पैदा की कि सदियों से पर्दानशीन मानी जाने वाली ये बंजारा औरतें दहलीजों से निकलकर गेती-फावड़ा उठाकर तालाब खोदने में जुट गईं। दो महीनें मे ही तैयार हो गया इनका तालाब। जैसे-जैसे तालाब का आकार बढ़ता गया इनका उत्साह और हौंसला बढ़ता गया। उन्हें खुशी है कि अब इस गांव में पानी के लिए कोई अपाहिज नहीं होगा और कोई बहन-बेटी पानी के लिए भटकेगी नहीं। सत्तर वर्षीय दादी रेशमीबाई खुद आगे बढ़ीं और फिर तो देखते ही देखते पूरे गांव की औरतें पानी की बात पर एकजुट हो गईं। उन्होंने पानी रोकने की तकनीकें सीखी, समझी और गुनी। पठारी क्षेत्र और नीचे काली चट्टान होने से पानी रोकना या भूजल स्तर बढ़ाना इतना आसान नहीं था। पर ‘पर जहां चाह-वहा राह’ की तर्ज पर विभावरी को राजीव गांधी जलग्रहण मिशन से सहायता मिली।

बात पड़ोसी गांव तक भी पहुंची और वहां की औरतें भी उत्साहित हो उठीं- इस बीमारी की जड़सली (दवाई) पाने के लिए। यहां से शुरुआत हुई पानी आंदोलन की। अनपढ़ और गंवई समझी जाने वाली इन औरतों ने पड़ोसी गांवों की औरतों का दर्द भी समझा। गांव का पानी गांव में ही रोकने के गुर सीखाने निकलीं ये औरतें। बैसाख की तेज गर्मी, चरख धूप और शरीर से चूते पसीने की फिक्र से दूर। नाम दिया जलयात्रा। 20 से 25 मई 2001 तक यह जलयात्रा भाटबड़ली, झिरन्या, टिपरास, नरायणपुरा, निमनपुर, गोला, बांई, जगवाड़, फतहुर जैसे गांवो से गुजरी उद्देश्य यही था कि-जो मंत्र उन्होंने अपनाया वह दूसरे गांव के लोग भी करें।

जलयात्रा के बाद तो इस क्षेत्र में पानी आंदोलन एक सशक्त जन आन्दोलन की तरह उभरा अब तो मर्दों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर चलना तय कर लिया। आज क्षेत्र में सेकड़ों जल संरचनाएं दिखाई देती हैं। इससे भविष्य में यह क्षेत्र पानी की जद्दोजहद से दो-चार नहीं होगा। पानी को लेकर शुरु हुआ यह आंदोलन अब पानी से आगे बढ़कर क्षेत्र की समाजार्थिक स्थिति में बदलाव जैसे मुद्दों को भी छू रहा है क्षेत्र में सफाई, स्वास्थ्य, कुरीतियों से निपटने, शिक्षा, पंचायती संस्थाओं में भागीदारी, छोटी बचत व स्वरोजगार से अपनी व पारिवारिक आमदनी बढ़ाने जैसे मुद्दे भी इन औरतों के एजेंडो में शामिल हैं।

पिछले एक साल में यहां इन्होंने तालाब, निजी खेतों में तलईयां, गेबियन स्ट्रक्चर, मैशनरी चेकडेम, लूज बोल्डर श्रृंखलाबद्ध चेकडेम व मेड़बंदी जैसी कई संरचनाएं बनाई हैं। पर इससे महत्वपूर्ण देखने वाली बात यह कि – यहां के समाज में इन सबसे एक विशेष प्रकार का विश्वास और जागरुकता आई। अब ये लोग अपने अधिकारों को लेने के लिए लड़ना सीख गए हैं। ये अब नेताओं और अफसरों के सामने घिघियाते नहीं हैं, बल्कि नजर उठाकर नम्रता के साथ बात करते हैं।

नारायणपुरा में 5वीं कक्षा पास शारदा बाई गांव की ही ड्राप ऑउट 12 बालिकाओं को पढ़ा रही है। इन गांवो में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। निस्तारी पानी के लिए 56 सोख्ता गडढ़े व लगभग दो दर्जन घूड़ों में नाडेप तरीके से खाद बनाई जा रही है। क्षेत्र के युवकों को रोजगारमूलक गतिविधियों से जोड़ा जा रहा है तथा किशोरों, औरतों के लिए लायब्रेरी बनाई गई है। क्षेत्र में लगातार स्वास्थ्य फॉलोअप शिविर लग रहे हैं। इन गांवो के लगभग ढ़ाई सौ साल के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि खुद यहां कि औरतों ने यहां की तस्वीर बदल दी है। इन गांवो में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व आर्थिक बदलाव को आसानी से देखा, समझा जा सकता है। ‘विभावरी’ के सुनील चतूर्वेदी इस पूरे आंदोलन से खासे उत्साहित हैं। वे कहते हैं “एक अनजान धरती पर नकारात्मक माहौल में काम करना आसान नहीं था। व्यवस्था के प्रति पुराना अविश्वास और नेताओं के आश्वासन ने यहां के ग्रामीणों को निराश कर दिया था। पर क्षेत्र की महिलाओं ने हमारे काम को आगे बढ़ाया”। क्षेत्र की औरतों के बीच जुनूनी आत्मविश्वास जगाने वाली विभावरी की एक दुबली-पतली लड़की को देख कर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वह लड़की है जिसने इन औरतों की जिन्दगी के मायने बदल दिये। सोनल कहती हैं। “गांव में तालाब निर्माण काकाम ही सामाजिक समरूपता का माध्यम बना। मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया मैंने तो सिर्फ उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराया।

झिरन्या के बाबूलाल कहते हैं हम तो इन्हें भी रुपया खाने वाले सरकारी आदमी समझते थे पर इन्होंने तो हमारी सात पुश्तें (पीढ़ियां) तारने जैसे काम कर दिया। काली बाई बताती हैं कि अब उनके काम को सामाजिक मान्यता मिल गई है। देवास, इन्दौर भोपाल तक के लोग उनके काम को देखने व बात करने आ रहे हैं। इससे बड़ी खुशी की बात हमारे लिए क्या हो सकती है?

फ़िरदौस ख़ान
दुनियाभर में हर्बल पदार्थों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका में 33 फीसदी लोग हर्बल पद्धति में विश्वास करते हैं। अमेरिका में आयुर्वेद विश्वविद्यालय खुल रहे हैं और जर्मनी, जापान, आस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, नीदरलैंड, रूस और इटली में भी आयुर्वेद पीठ स्थापित हो रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में 62 अरब अमेरिकी डालर के मूल्यों के हर्बल पदार्थों की मांग है और यह मांग वर्ष 2050 तक पांच ट्रिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंचने की उम्मीद है। एक अनुमान के मुताबिक चीन द्वारा सलाना करीब 22 हजार करोड़ रुपए के औषधीय पौधों पर आधारित पदार्थों का निर्यात किया जा रहा है. रसायन और उर्वरक मंत्रालय में राज्यमंत्री श्रीकांत जेना के मुताबिक भारतीय उद्योग मानीटरिंग केन्द्र, नवंबर 2009 के अनुसार 2009-10 के दौरान औषधों की बिक्री में 8.7 प्रतिशत वृध्दि की आशा है। 2007-08 के दौरान औषध बाजार का कुल बाजार आकार 78610 करोड़ रुपए था। भावी वर्षों के लिए बाजार के आकार का कोई आधिकारिक प्राक्कलन नहीं किया गया है। लेकिन, चिंता की बात यह है कि औषधीय पौधों की बढ़ती मांग के कारण इनका अत्यधिक दोहन हो रहा है, जिसके चलते हालत यह हो गई है कि औषधीय पौधों की अनेक प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं।

औषधीय पौधों के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिए नवम्बर, 2000 में केन्द्र सरकार ने स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत मेडिसनल प्लांट बोर्ड का गठन किया था। इस बोर्ड ने भारतीय जलवायु के मद्देनजर 32 प्रकार के ऐसे औषधीय पौधों की सूची बनाई है, जिनकी खेती करके किसान ज्यादा आमदनी हासिल कर सकते हैं। इस प्रकार इन औषधीय पौधें की एक ओर उपलब्धता बढ़ेगी तो दूसरी ओर उनके लुप्त होने का खतरा भी नहीं रहेगा। बढ़ती आबादी और घटती कृषि भूमि ने किसानों की हालत को बद से बदतर कर दिया है। लेकिन, ऐसी हालत में जड़ी-बूटी आधारित कृषि किसानों के लिए आजीविका कमाने का एक नया रास्ता खोलती है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय बाजार में आंवला, अश्वगंधा, सैना, कुरु, सफेद मूसली, ईसबगोल, अशोक, अतीस, जटामांसी, बनककड़ी, महामेदा, तुलसी, ब्राहमी, हरड़, बेहड़ा, चंदन, धीकवर, कालामेधा, गिलोय, ज्वाटे, मरूआ, सदाबहार, हरश्रृंगार, घृतकुमारी, पत्थरचट्टा, नागदौन, शंखपुष्पी, शतावर, हल्दी, सर्पगंधा, विल्व, पुदीना, अकरकरा, सुदर्शन, पुर्नवादि, भृंगराज, लहसुन, काला जीरा और गुलदाऊदी की बहुत मांग है।
भारत में हरियाणा एक ऐसा राज्य है जहां सरकार औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने पर खास जोर दे रही है। राज्य में शामलात भूमि पर औषधीय पौधे लगाए जा रहे हैं। इससे पंचायत की आमदनी में बढ़ोतरी होने के साथ-साथ किसानों को औषधीय पौधों की खेती की ओर आकर्षित करने में भी मदद मिलेगी। राज्य के यमुनानगर जिले के चूहड़पुर में चौधारी देवीलाल हर्बल पार्क स्थापित किया गया है। इसका उद्धाटन तत्कालीन राष्टपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने किया था।
काबिले गौर है कि डा. कलाम ने भी अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन में औषधीय पौधों का बगीचा तैयार करवाया था। हरियाणा में परंपरागत नगदी फसलों की खेती करने वाले किसानों का रुझान अब औषधीय पौधों की खेती की तरफ बढ़ रहा है। कैथल जिले के गांव चंदाना निवासी कुशलपाल सिरोही अन्य फसलों के साथ-साथ औषधीय पौधों की खेती भी करते हैं। इस समय उनके खेत में लेमन ग्रास, गुलाब, तुलसी, अश्वगंधा, सर्पगंधा, धतूरा, करकरा और शंखपुष्पी जैसे अनेक औषधीय पौधे लगे हैं। उनका कहना है कि औषधीय पौधे ज्यादा आमदनी देते हैं। गुलाब का असली अर्क तीन से चार लाख रुपए प्रति लीटर बिकता है।

आयुर्वेद की पढ़ाई कर रहे यमुनानगर जिले के गांव रुलेसर निवासी इरशाद अहमद ने अपने खेत में रुद्राक्ष, चंदन और दारूहरिद्रा के अनेक पौधे लगाए हैं। खास बात यह है कि जहां रूद्राक्ष के वृक्ष चार साल के बाद फल देना शुरू करते हैं, वहीं उनके पौधे महज ढाई साल के कम अरसे में ही फलों से लद गए हैं। इरशाद अहमद के मुताबिक रूद्राक्ष के पौधों को पालने के लिए उन्होंने देसी पद्धति का इस्तेमाल किया है। उन्होंने गोबर और घरेलू जैविक खाद को पौधों की जड़ों में डाला और गोमूत्र से इनकी सिंचाई की। दीमक व अन्य हानिकारक कीटों से निपटने के लिए उन्होंने पौधों पर हींग मिले पानी का छिड़काव किया।

रूद्राक्ष व्यापारी राजेश त्रिपाठी कहते हैं कि रूद्राक्ष एक फल की गुठली है। फल की गुठली को साफ करने के बाद इसे पालिश किया जाता है, तभी यह धारण करने योग्य बनता है। गले का हार या अन्य अलंकरण बनाने के लिए इन पर रंग किया जाता है। आमतौर पर रूद्राक्ष का आकार 1.3 से.मी. तक होता है। ये गोल या अंडाकार होते हैं। इनकी कीमत इनके मुखों के आधार पर तय होती है। अमूमन रूद्राक्ष एक से 21 मुख तक का होता है। लेकिन 1, 18, 19, 20, और 21 मुख के रूद्राक्ष कम ही मिलते हैं। असली रूद्राक्ष की कीमत हजारों से लेकर लाखों रूपए तक आंकी जाती है। इनमें सबसे ज्यादा कीमती रूद्राक्ष एक मुख वाला होता है।

रूद्राक्ष की बढ़ती मांग के चलते आजकल बाजार में नकली रूद्राक्षों की भी भरमार है। नकली रूद्राक्ष लकड़ी के बनाए जाते हैं। इनकी पहचान यह है कि ये पानी में तैरते हैं, जबकि असली रूद्राक्ष पानी में डूब जाता है। गौरतलब है कि भारतीय संस्कृति से रूद्राक्ष का गहरा संबंध है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी इसे बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। यहां के समाज में मान्यता है कि रूद्राक्ष धारण करने से अनेक प्रकार की बीमारियों से निजात पाई जा सकती है। रूद्राक्ष के प्राकृतिक वृक्ष उत्तर-पूर्वी भारत और पश्चिमी तटों पर पाए जाते हैं। नेपाल में इसके वृक्षों की संख्या सबसे ज्यादा है। ये मध्यम आकार के होते हैं। मई और जून के महीने में इस पर सफेद फूल लगते हैं और सितम्बर से नवम्बर के बीच फल पकते हैं। अब मैदानी इलाकों में भी इसे उगाया जाने लगा है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि औषधीय पौधों की खेती कर किसान प्रति एकड़ दो से ढाई लाख रुपए सालाना अर्जित कर सकते हैं। बस, जरूरत है किसानों को थोड़ा-सा जागरूक करने की। इसमें कृषि विभाग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गांवों में कार्यशालाएं आयोजित कर किसानों को औषधीय पौधों की खेती की जानकारी दी जा सकती है। उन्हें बीज व पौधे आदि उपलब्ध कराने के अलावा पौधों की समुचित देखभाल का तरीका बताया जाना चाहिए। लेकिन इस सबसे जरूरी यह है कि किसानों की फसल को सही दामों पर बेचने की व्यवस्था करवाई जाए।


मनोहर कुमार जोशी
राजस्थान के मेवाड़ अंचल में सोलहवीं शताब्दी में तत्कालीन महाराणा राजसिंह ने भीषण अकाल, पेयजल की आपूर्ति, नगर के सौन्दर्यकरण एवं रोजगार को ध्यान में रखकर राजसमन्द झील का निर्माण कराया था. चार मील लम्बी, डेढ मील चौड़ी एवं 45 फुट गहरी तथा पौने चार हजार एमसीएफटी जल भराव क्षमता वाली यह झील बाद में स्थानीय लोगों की जीवन रेखा बन गई. लेकिन पिछले तीन दशक में मार्बल खनन एवं प्रसंस्करण उद्योग के कचरे ने झील के जलागम क्षेत्र को अवरूद्ध कर दिया. नतीजतन यह जलाशय लगभग सूख गया. इस स्थिति में कुछ  बुद्धिजीवियों ने झील की सफाई एवं गोमती नदी के जल प्रवाह में अवरोध हटाने का बीड़ा उठाया, जो अभियान बनकर सामने आया और सामूहिक प्रयास से झील में फिर से पानी आया तथा नदी में भी जल बहने लगा. इसके लिये अभियान के सूत्रधार श्री दिनेश श्रीमाली को हाल ही केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने दिल्ली में राष्ट्रीय भूमि जल संवर्द्धन पुरस्कार से सम्मानित किया. श्री श्रीमाली ने इस सम्मान को झील एवं गोमती नदी संरक्षण में लगे प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान बताया है.
झील की सफाई में अहम भूमिका अदा करने वाले श्रीमाली किसान. मज़दूर और आम आदमी के लिये प्रेरणा श्रोत बन गये हैं. राजस्थान के राजसमन्द जि़ले के मजां गांव में 12 दिसम्बर 1965 में जन्मे दिनेश श्रीमाली कहते हैं, मुझे अपने नाना स्वतंत्रता सेनानी ओंकारलाल से संस्कार विरासत में मिले . इन्ही संस्कारों ने विश्व प्रसिद्ध राजसमंद झील और गोमती नदी के जलग्रहण क्षेत्र में हुये खनन के विरोध में 1989 में वैचारिक जन जागरूकता में सक्रिय भागीदारी अदा करने की शक्ति प्रदान की.
उन्होंने कहा कि स्थानीय समाचार पत्रों में लेख प्रकाशित होने पर मुझे खदान मालिकों एवं उनके लोगों से धमकियां भी कम नहीं मिली, लेकिन मैंने इसकी परवाह किये बिना  अभियान चालू रखा. 1991 और 1992 में लिखे लेखों का असर सामने आया और तत्कालीन जि़ला कलैक्टर ने मामले की गंभीरता को देख मार्बल अपशिष्ट एवं स्लरी निस्तार के लिये पहली बारी डम्पिंग यार्ड निर्धारित किये. इस बीच सांस्कृतिक एवं साहित्यिक रंगमंचों के माध्यम से तथा पत्र-पत्रिकाओं और समूह चर्चा कर जनमानस तैयार करने का अभियान भी जारी रखा. आखिर बीसवीं सदी का अंतिम दशक व्यावहारिक आंदोलन बना.
वर्ष 2000 में ऐतिहासिक राजसमंद झील अपने निर्माण के 324 साल बाद पूरी सूख गई. मार्बल खनन एवं प्रसंस्करण से निकलने वाली स्लरी ने पारिस्थितिकी तंत्र को बुरी तरह से प्रभावित किया. जमीन बंजर होने से पशुपालकों के लिये चारे तक का संकट पैदा हो गया. हमने गायत्री परिवार के साथ मिल कर झील की गाद निकाली गई और सफाई अभियान चलाया गया, जिसमें नगर के सभी लोगों ने श्रमदान किया . इसमें किसानों ने भी पूरी भागीदारी निभायी. झील से निकली गाद काश्तकारों के लिये खाद के रूप में काम आयी.
      आंदोलन के दौरान झील जलागम क्षेत्र का जायजा लेने प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं राजस्थान की रजत बूंदें जैसे उत्कृष्ट लेख देने वाले अनुपम मिश्र, सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय, मेघा पाटकर, डा. महेश भट्ट सहित अनेक नामचीन हस्तियां यहां आई और हमारे अभियान को अपना नैतिक समर्थन प्रदान किया . बाद में ज़िला प्रशासन भी जागरूक हुआ . ऑपरेशन भागीरथ के तहत वर्ष 2004 से 2006 तक झील एवं नदी के जलागम क्षेत्र में सफाई कर अपशिष्ट हटाये एवं जलमार्ग ठीक किये . इस कार्य में सभी का भरपूर सहयोग मिला . वह कहते हैं आखिर हमारी मेहनत रंग लाई और बारह साल बाद गोमती नदी में पानी बहा. राजसमंद झील जो पूरी तरह सूख चुकी थी, उसमें में भी 2006 में 19 फुट पानी आया . इससे क्षेत्र के 70 से 80 गांव खेती से जुड़ गये . नदी. झील तालाब में पानी रहने से भूमिगत जल का स्तर भी नीचे गिरने से बचा रहा . हमारे अभियान में जून 2006 सबसे सुखद रहा .
       बचे अवरोधों को हटाने के लिये 2009 से 2011 के दरमियान हमने फिर अभियान चलाया और जलागम क्षेत्र की बंद पुलियाओं को खोला गया . कई पक्के चैम्बर एवं नाली बना जलप्रवाह झील की ओर मोडे़ गये. इस अभियान में मुझे फिर अग्रिम पंक्ति में रहने का अवसर मिला . गोमती नदी की सफाई के बाद खनन अपशिष्ट वापस नदी के जल प्रवाह में न डालें, इसके लिये आस-पास के गांवों में ग्रामीण चौपालें की गई तथा स्थानीय लोगों को चौकसी की जिम्मेदारी सौंपी गई. उन्होंने कहा हमें अब तक 60 से 65 प्रतिशत सफलता मिली है, लेकिन सृजन और विनाश का दौर लगातार जारी है तथा रहेगा, इसलिये हमें हरदम सजग रहना पडे़गा, ताकि जल की खेती सही दिशा में होती रहे .






एम. एल. धर
                जम्मू और कश्मीर की आर्द्र भूमि में सर्दी के महीनों में रहने के बाद करीब दस लाख प्रवासी पक्षी अपने महाद्वीपों की ओर चले गए। ये आर्र्द्र भूमि मध्यवर्ती एशियन उड़ान मार्ग में पड़ती है जहां सर्दी में प्रवासी पक्षी आते हैं। ऐसी आर्द्र भूमि परिवेश तथा जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण है।
      जैव विविधता को बनाये रखने, जल संरक्षण तथा जल की उपलब्धता के लिए आर्द्र भूमि आवश्यक है। जम्मू और कश्मीर के लोगों की आर्थिक गतिविधियों में आर्द्र भूमि महत्वपूर्ण  भूमिका निभाती है। राज्य की बड़ी आर्द्र भूमि, वुलार लेक का ही मामला लें, जो घाटी में महत्वपूर्ण परिवेश का निर्माण करती है तथा जैव विविधता को सहारा देती है। जल का बड़ा जलाशय, वनस्पति का भंडार होने के अलावा ये प्रवासी पक्षियों को सर्दियों में शरण देता है। इससे घाटी में रहने वाले हजारों लोगों का जीवन यापन होता है तथा घाटी में कुल  मछली पालन का साठ प्रतिशत इससे प्राप्त होता है। इसके अलावा इसके जल से अन्य उत्पादों का भी संरक्षण किया जाता है।
      राज्य में 29 आर्र्द भूमि हैं, कश्मीर में 16, जम्मू में आठ तथा लद्दाख में पांच। पक्षियों की करीब 106 प्रजातियां इन आर्द्र भूमियों में आश्रय लेती हैं इनमें से स्थानीय पक्षियों की 25 प्रजातियां समय-समय पर आती जाती रहती हैं।
      इन आर्द्र भूमियों का महत्व इस लिए भी बढ़ जाता है कि ये प्रवासी पक्षियों को अभय शरण स्थल प्रदान करते हैं। इनमें से कुछ पक्षियों की प्रजातियां पहले ही खतरे में पड़ चुकी हैं। जम्मू और कश्मीर आर्द्र भूमि के सर्वे के अनुसार सफेद-आखों वाले बतख राज्य में सात आर्द्र भूमियों में तथा जम्मू में दो आइबिस पक्षियों यानी इन दो विलुप्ती के करीब प्रजातियों को देखा गया। सर्वेक्षण से यह भी पता जला है कि खतरे मे पड़ी दो प्रजातियों अर्थात् काली गर्दन वाले सारस तथा सारस क्रेन लद्दाख में आर्द्र भूमि में तथा जम्मू क्षेत्र में घराना आर्द्र भूमि में देखे गए।
      मनुष्यों के लोभ तथा बढ़ती जनसंख्या के कारण ऐसी कई आर्द्र भूमियां सिकुड़ रही हैं। "कश्मीर घाटी में 600 छोटी तथा बड़ी आर्द्र भूमियां हुआ करती थीं। अब केवल 10 से 15 आर्द्र भूमि बची हैं तथा वे भी खत्म होने के करीब हैं।" ऐसा सेन्टर फार एनवायरमेंटल ला के वरिष्ठ कर्मी ने कहा।
      जम्मू के बड़े शुष्क क्षेत्र में जिसमें रामगढ़ क्षेत्र में नागा आर्द्र भूमि रिजर्व (1.21 स्केयर कि.मी.) तथा अबदुलियन क्षेत्र में संगराल आर्द्र भूमि रिजर्व (0.68 स्केयर कि.मी.) में स्थिति बेहतर नहीं हैं और ये पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी हैं जबकि कईयों का आकार काफी घट गया है।
      नांगा गांव के सरपंच ने बताया कि अब इस क्षेत्र में प्रवासी पक्षी नहीं आते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 25 साल पहले यहां काफी आर्द्र भूमि थी। यहां बड़ा तालाब था जो कि अब पूरी तरह से सूख गया है। बड़े-बूढ़ों ने बताया कि सर्दियों में प्रवासी पक्षियों के झुंड आया करते थे किंतु समय के साथ-साथ स्थानीय लोगों ने भूमि का उपयोग खेती के लिए करना शुरू कर दिया तथा प्रवासी पक्षियों ने बढ़ती गतिविधियां देख आना बंद कर दिया।

      मनुष्य और प्रकृति के बीच का तनाव इस उजाड़ परिदृश्य के लिए जिम्मेदार है। स्थानीय लोगों का यह मत रहा है कि पक्षियों के आने से वे फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए वे इनके खिलाफ हैं।
            इन जल निकायों को 1981 में संरक्षित आर्द्र भूमि घोषित किए जाने के बावजूद बचाया नहीं जा सका। पर्यावरण पर्यटन के रूप में उभरे घराना आर्द्र भूमि के आसपास के गांव वाले पक्षियों को उड़ा दिया करते थे, लेकिन 2003 से स्थिति में सुधार हुआ है। वन्य जीव विभाग ने भी स्थानीय लोगों को समझाया बुझाया कि वे पक्षियों के आगमन को बाधित न करें। जम्मू के एक वन्य जीव संरक्षक ने बताया कि गांव वालों की तरफ से अधिकतम सहयोग पाने के लिए वन्य विभाग लगातार कोशिश करता रहा है। इसके तहत विभाग ने उन किसानों को हर्जाना देने की भी शुरूआत की जिनके फसल को नुकसान पहुंचता है। इन सभी उपायों का अंतिम उद्देश्य  आर्द्र भूमि को बचाना रहा है जो तेजी से बर्बाद हो रहे हैं।
      विशेषज्ञों का कहना है कि पेड़ों की बेरोक-टोक कटाई से मृदा क्षरण एवं बारिश के साथ मिट्टी का बहाव, जल निकायों के आसपास मानव अतिक्रमण और संबंधित विभागों की उदासीन रवैया एवं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से आर्द्र भूमि का क्षरण और संकुचन हो रहा है। उन्होंने बेमिना आवासीय कालोनी का उदाहरण देते हुए कहा कि 19वीं शताब्दी के समापन तक श्रीनगर में यह एक अद्भूत आर्द्र भूमि हुआ करती थी। विशेषज्ञों ने बताया कि इस दिशा में लापरवाही जारी रही। उन्होंने रख अरथ आर्द्र भूमि का उदाहरण भी दिया, जिसे डल झील में रह रहे लोगों के पुनर्वास के लिए भरा जा रहा है।
      व्यक्तिगत स्तर पर सिर्फ लोग ही नहीं बल्कि नियामक स्तर पर सरकार भी आर्द्र भूमि के मामले में दखल देती रही है। उन्होंने भूमि के इस्तेमाल का तरीका न सिर्फ आर्द्र भूमि के अंदर बदला बल्कि जल ग्रहण में भी बदला। व्यक्तिगत और सरकारी स्तर पर दावें की प्रक्रिया भी जारी रही, इससे आर्द्र भूमि सिकुड़ती चली गई और आर्द्र भूमि का पर्यावरण भी बदल गया। जब पर्यावरण बदला, तो आवास भी बदला। केन्द्रीय आर्द्र भूमि नियामक प्राधिकरण के सदस्य ए आर युसूफ ने बताया कि इसका पक्षियों पर भी असर पड़ा जिनकी ये आर्द्र भूमि खास आवास हुआ करते थे।
      राज्य के दो प्रमुख आर्द्र भूमि वुलर झील और मिरगुंड अपने वास्तविक विस्तार से सिकुड़ कर अब क्रमश 58.71 वर्ग किलोमीटर और 1.5 वर्ग किलोमीटर रह गया है। प्रोफेसर युसूफ ने बताया कि वुलर झील को कभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली हुई थी लेकिन 1950, 1960 और 1970 के दशक में सरकारी प्राधिकरणों ने इस जल निकाय के चारों ओर बांध बना दिए और झील के एक बड़े क्षेत्र पर दावा करते हुए विली (बेंत की तरह पतली लचकदार डाली वाला पेड़) की रोपाई शुरू की। लोगों ने भी आर्द्र भूमि के इलाके में धान की खेती शुरू कर दी।
      कश्मीर की प्राकृतिक छटा में आकर्षण का विशेष केन्द्र बिन्दु रही डल झील भी मनुष्यों की लालच और अनदेखी का शिकार बनी। यह भी तेजी से सिकुड़ते हुए 75 वर्ग किलोमीटर के विस्तार से हट कर महज 12 वर्ग किलोमीटर तक में रह गया है जबकि एक अन्य आर्द्र भूमि हैगम भी अपनी वास्तविक विस्तार से घटकर आधा 7.25 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सिकुड़ गया है। अन्य आर्द्र भूमि भी इसी तरह सिकुड़ रही हैं।
      आर्द्र भूमि पर इस तरह के मंडराते खतरे देख केन्द्र और राज्य सरकार सुधार की दिशा में कदम बढ़ाने को मजबूर हुई। राज्य सरकार ने जल निकायों को उनकी पर्यावरणीय और आर्थिक महत्व को देखते हुए उनके संरक्षण के लिए केन्द्र सरकार के साथ कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि राज्य में पर्यटन को बचाए रखने और आर्थिक संसाधनों को बचाए रखने के लिए जल निकायों का संरक्षण, वन्य संपदा और जैव विविधता का संरक्षण समय की मांग है।
      वूलर झील के विशिष्ट जलीय और सामाजिक-आर्थिक महत्व को महसूस करते हुए केन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे अपने आर्द्र भूमि कार्यक्रम में 1986 में राष्ट्रीय महत्व की आर्द्र भूमि के रुप में शामिल किया। इसके बाद 1990 में रामसर समझौते के तहत इसे राष्ट्रीय महत्व की आर्द्र भूमि के रुप में नामित किया गया। वूलर और होकेरसर के अलावा जम्मू-कश्मीर में तीन अन्य आर्द्र भूमि – लद्दाख में सोमोरिरि और जम्मू क्षेत्र में मनसर तथा सूरिनसर झील के संरक्षण के लिए इन्हें रामसर समझौते के तहत सूचीबद्ध किया गया है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इसके आस-पास निर्माण, और उद्योगों की स्थापना पर रोक लगाकर तथा उद्योग और इंसानी बस्तियों द्वारा किसी प्रकार के अपशिष्ट को फेंकने अथवा उत्प्रवाही के निस्सरण को वर्जित कर इसे संरक्षित स्थल के रुप में सूचीबद्ध किया है। इस संबंध में देश भर में संरक्षण के लिए आर्द्र भूमि की पहचान के अलावा विस्तृत नियमावली के क्रियान्वयन और समीक्षा के लिए 12 सदस्यीय केन्द्रीय आर्द्र भूमि नियामक प्राधिकरण की भी स्थापना की गई।

      राज्य सरकार भी जल निकायों को बचाने की कोशिश में लगी रही है, जिन्हें मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ‘विरासत के प्रतिरुप’ के रुप में संबोधित किया और इनके संरक्षण के लिए प्रदेश की जनता भी चिंतित है। इन झीलों की समस्याओँ के संदर्भ में हाल के वर्षों में बहुत सी रिपोर्टे और कार्य योजना प्रकाश में आई है।

      स्थिति के महत्व के मद्देनज़र राज्य सरकार ने झील और जलमार्ग विकास प्राधिकरण (एलएडब्ल्यूडीए), वूलर मनसबल विकास प्राधिकरण (डब्ल्यूएमडीए) आदि प्राधिकरणों की स्थापना की है ताकि झीलों की सफाई और उनका संरक्षण किया जा सके। जैसा कि एलएडब्ल्यूडीए मुख्य तौर पर डल झील को पुनः स्थापित करने और डब्ल्यूएमडीए मनसबल झील के संरक्षण में तत्पर है इसलिए राज्य सरकार ने वूलर झील को पुनर्जीवित करने के लिए वूलर विकास प्राधिकरण के गठन का निर्णय किया।

      इन सभी प्रयासों के सार्थक परिणाम प्राप्त होंगे बशर्ते इसे लोगों का सक्रिय योगदान मिले। मनसबल झील के संरक्षण में यह महत्वपूर्ण कारक रहा था। बड़े पैमाने पर जागरुकता फैलाने की आवश्यकता है और इस प्रक्रिया में विस्थापित हुए लोगों की समस्याओं के बारे में अधिकारियों को संवेदनशील होना होगा। आधिकारिक प्रयासों की सहायता के लिए गैर सरकारी संगठनों और मीडिया द्वारा सौहार्दपूर्ण जन आंदोलन की भी आवश्यकता है। यह एक लंबा और मुश्किल सफर हो सकता है किंतु स्वस्थ पर्यावरण

 सुनिश्चित करने तथा स्थानीय आबादी के आर्थिक हितों की रक्षा के लिए ‘विरासत की इन प्रतिमाओं’ को बचाने के रास्ते पर चलना होगा।




-मनीष देसाई
यूनेस्‍को विश्‍व धरोहर समिति ने 1 जुलाई को भारत के वेस्‍टर्न घाट को विश्‍व धरोहर स्‍थल की फेहरिस्‍त में शामिल किया। रूस के सेंट पीटरस्बर्ग में  विश्‍व धरोहर समिति के 36 वें सत्र में यह फैसला लिया गया। वेस्‍टर्न घाट भूदृश्‍य के कुल 39 स्‍थल उस क्षेत्र का हिस्‍सा हैं जिसे विश्‍व धरोहर की फेहरिस्‍त में जगह दी गई है। इसमें 20 स्‍थलों के साथ केरल सबसे ऊपर है उसके बाद कर्नाटक (10 स्‍थल), तमिलनाडु (5 स्‍थल) और महाराष्‍ट्र (4 स्‍थल) है।
 महाराष्‍ट्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में वेस्‍टर्न घाट विश्‍व धरोहर क्‍लस्‍टर की सूची:
महाराष्‍ट्र


कास पठार  
कोयना वन्‍यजीव अभयारण्‍य
चंदोली राष्‍ट्रीय उद्यान 
रधानागरी वन्‍यजीव अभयारण्‍य   


कर्नाटक     


ब्रह्मगिरी वन्‍यजीव अभयारण्‍य   
तालाकावेरी वन्‍यजीव अभयारण्‍य
पदिनालक्‍नाड रिज़र्व फोरेस्‍ट
केर्ती रिजर्व फोरेस्‍ट
अरालम वन्‍य जीव अभयारण्‍य
कुद्रेमुख राष्‍ट्रीय उद्यान

बलाहल्‍ली रिजर्व फोरेस्‍ट


केरल तमिलनाडु   


कालक्‍कड बाघ रिजर्व
शेंदुरने वन्‍य जीव अभयारण्‍य
नेय्यर वन्‍य जीव अभयारण्‍य
पेपरा वन्‍य जीव अभयारण्‍य
कुलाथुपुझा रेंज     
पलोड रेंज
पेरियर बाघ रिजर्व 
रन्‍नी वन डिवीजन     
कोन्‍नी वन डिवीजन
अचांकोविल वन डिवीजन     
श्रीविलिपुत्‍तुर वन्‍य जीव   
तिरूनेलवेली उत्‍तर वन डिवीजन     
ईराविकुलम राष्‍ट्रीय उद्यान
ग्रास पर्वतीय राष्‍ट्रीय उद्यान
कर्यान शोला राष्‍ट्रीय उद्यान
परांभिकुलम वन्‍य जीव अभयारण्‍य
मंकुलम रेंज 
चिन्‍नार वन्‍य जीव अभयारण्‍य
मन्‍नावन शोला     
साइलेंट वेली राष्‍ट्रीय उद्यान
न्‍यू अमरांबलम रिजर्व फोरेस्‍ट
मुकुर्ती राष्‍ट्रीय उद्यान

कालीकावु रेंज
अट्टापडी रिजर्व फोरेस्‍ट
पुष्‍पगिरी वन्‍य जीव अभयारण्‍य




      पर्यावरणविद् जहां खुश हैं कि लगातार अंतरराष्‍ट्रीय समीक्षा से निहित स्‍वार्थों द्वारा वन संपदा के दुरूपयोग को रोका जा सकेगा वहीं राज्‍य सरकारों ने इस पर नपी-तुली प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त की है। संशयवादियों को लगता है कि इससे पारिस्थितिकीय तंत्र को नुकसान पहुंचाने वाली परियोजनाओं जिसे वेस्‍टर्न घाट में लागू कर दिया गया है या प्रस्‍तावित हैं, उन पर अधिक असर नहीं पड़ेगा।

अस्‍वीकृति के बाद पहचान
      वेस्‍टर्न घाट को काफी मशक्‍कत के बाद विश्‍व धरोहर की सूची में रखा गया है। पिछले साल विश्‍व धरोहर के 35वें सत्र में 39 स्‍थलों समेत वेस्‍टर्न घाट के विश्‍व धरोहर के प्रस्‍ताव को नामंज़ूर कर दिया गया था। इस साल प्रस्‍ताव पर फिर से विचार करने के लिए उसे दोबारा सौंपा गया तब भी यह नामंज़ूर किए जाने के कगार पर था। अंतरराष्‍ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने भारत को सुझाव दिया कि उसे प्रस्‍ताव की समीक्षा तथा उसमें सुधार करके वनों को संरक्षित करने के लिए प्रस्‍तावित स्‍थलों की सीमाओं को नए सिरे से परिभाषित करना चाहिए। सेंट पीटरस्बर्ग में भारतीय शिष्‍टमंडल ने हालांकि विश्‍व धरोहर समिति को भारत के प्रस्‍ताव की खूबियों के बारे में समझाने की कोशिश की तथा इस मुद्दे पर समिति के 21 सदस्‍यों के साथ चर्चा भी की। भारत की कोशिश रंग लाई तथा रूस के शिष्‍टमंडल ने प्रस्‍ताव को आगे बढ़ाया जिसे एशिया और अफ्रीका के कई देशों का समर्थन मिला।

वेस्‍टर्न घाट की महत्‍ता
      वेस्‍टर्न घाट हिमालय से भी पुराना तथा जैव-विविधता का खज़ाना है। इसे वन‍स्‍पतियों और जीव-जंतुओ को संरक्षित करने वाले 8 वैश्विक स्‍थानों में से एक के रूप में मान्‍यता दी गई है। वेस्‍टर्न घाट गुजरात के डेंग से शुरू होकर महाराष्‍ट्र, गोवा, कर्नाटक के मलनाड क्षेत्र, केरल और तमिलनाडु के पहाड़ी मैदानों से गुज़रते हुए कन्‍याकुमारी के नजदीक समाप्‍त होता है।

  घाट में फिलहाल 5000 से ज़यादा पौधे तथा 140 स्‍तनपायी हैं जिसमें से 16 स्‍थानिक यानी केवल उसी क्षेत्रों में पए जाने वाले हैं। वेस्‍टर्न घाट में पाए जाने वाले 179 उभयचर प्रजातियों में से 138 केवल इसी क्षेत्र में ही पाईं जाती हैं। इसमें 508 पक्षियों की प्रजातियां हैं जिसमें से केवल 16 इस क्षेत्र में पाईं जाती हैं।
   वेस्‍टर्न घाट को पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से काफी संवेदनशील क्षेत्र के रूप में देखा जा रहा है जिसमें करीब 56 प्रजातियां लुप्‍त होने के कगार पर हैं। पर्यावास बदलने, अधिक दोहन होने, प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन ऐसे प्रमुख कारण जिससे जैव-विविधता को नुकसान पहुंच रहा है।

     वेस्‍टर्न घाट की पारिस्थितिकी के संरक्षण की आयवश्‍कता से इंकार नहीं किया जा सकता।

यूनेस्‍को का अधिदेश
     यूनेस्‍कों ने वेस्‍टर्न घाट के जैव-विवधता के संरक्षण में उसके वर्तमान प्रयासों की सराहना की लेकिन स्‍पष्‍ट रूप से काफी कुछ किए जाने पर भी ज़ोर दिया। विश्‍व धरोहर समिति ने भारत सरकार को पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल की सिफारिशों पर विचार करने का सुझाव दिया है। इन स्‍थलों के अधिक संरक्षण के लिए समिति ने सरकार से बफर ज़ोन को मज़बूत करने को भी कहा है। समान रूप से लाभ सुनिश्चित करने के लिए संयुक्‍त राष्‍ट्र का यह संगठन सामुदायिक भागीदारी के जरिए सहभागिता प्रशासन दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चा‍हता है। पैनल ने कहा है कि स्‍थानीय लोगों की सहमति के बगैर क्षेत्र में कोई औद्योगिक गतिविधि नहीं होनी चाहिए।  
     पर्यावरण और वन मंत्रालय ने जाने-माने पर्यावरण विशेषज्ञ प्रोफेसर माधव गाडगिल की अध्‍यक्षता में फरवरी 2010 में वेस्‍टर्न घाटों के पर्यावरण विशेषज्ञ पैनल का गठन किया था। पैनल ने क्षेत्र में पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील अनेक भागों की पहचान की और सिफारिश की कि इन हिस्‍सों को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया जाए । अपनी सिफारिशों में पैनल ने कर्नाटक के गुंडिया, केरल की अथीरापल्‍ली जल परियोजनाओं को रद्द करने और गोवा के पर्यावरण की दृष्टि से अत्‍यन्‍त संवेदनशील इलाकों में खनन कार्यों को 2016 तक धीरे-धीरे खत्‍म करने का आह्वान किया । इसने यह भी सुझाव दिया कि वैधानिक प्राधिकरण के रूप में वेस्‍टर्न घाट पर्यावरण प्राधिकरण ( डब्‍ल्‍यू जी ई ए ) की स्‍थापना की जाए जिसे पर्यावरण और वन मंत्रालय नियुक्‍त करे। इसे पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अनुछेद तीन के अंतर्गत शक्तियां प्राप्‍त हों। 24 सदस्‍यीय इस समूह में पर्यावरण विद, वैज्ञानिक, सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि, आदिवासी समूह केन्‍द्रीय पर्यावरण मंत्रालय, योजना आयोग, राष्‍ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण, केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी और राज्‍य सरकार के प्रतिनिधि इसके सदस्‍य के रूप में शामिल होंगे।
      कर्नाटक और केरल सरकारों ने अपने-अपने क्षेत्रों में जल परियोजनाओं को समाप्‍त करने की सिफारिश का विरोध किया है। कर्नाटक सरकार वेस्‍टर्न टों को विश्‍व धरोहर का नाम देने का विरोध कर रही है, उसका कहना है कि इन क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले स्‍थानों को विकसित करने में नियंत्रक बाधाएं आ सकती हैं। वेस्‍टर्न घाटों को संरक्षित करने के संबंध में गोवा के सुस्‍त रवैये के परिणामस्‍वरूप उसे 39 की सूची में कोई जगह नहीं मिली। महाराष्‍ट्र सरकार ने वेस्‍टर्न घाटों को विश्‍व धरोहर का दर्जा दिये जाने का स्‍वागत किया है। लेकिन कुछ प्रमुख क्षेत्रों को छोड़कर खनन और उद्योगों पर पूर्ण प्रतिबंध लागू नहीं करने के राज्‍य के वर्तमान रवैये में बदलाव नहीं आयेगा। राज्‍य ने हांलाकि वेस्‍टर्न घाट के गांवों में हरित र्इंधन आंदोलन को प्रोत्साहित किया है। उसने बायोगैस पर 75 प्रतिशत सब्सिडी और कम दूध देने वाले ऐसे मवेशी जो खुले में घास चरने की बजाय चारे पर निर्भर हैं उनके लिये भी 50 प्रतिशत सब्सिडी की व्‍यवस्‍था की है।

यूनेस्‍को विश्‍व धरोहर स्थल का प्रभाव
विश्‍व धरोहर के दर्जे  से इन स्‍थानों में और इनके आस-पास के इलाकों में विकास पर परेशानी आ सकती है क्‍योंकि यूनेस्‍को ने प्राकृतिक विश्‍व धरोहर स्‍थलों के आस-पास अतिरिक्‍त बफर जोन बनाने की व्‍यवस्‍था की है और चुने हुए 39 क्रमिक स्‍थलों के संरक्षण के लिये एक प्राधिकरण रखा है। संरक्षणकर्ताओं को डर है कि पर्यावरण पर्यटन की चाह में इन संवेदनशील इलाकों की तरफ लोगों की भीड़ जायेगी। कर्नाटक में  कुद्रेमुख वन्‍य जन्‍तु फाउंडेशन से जुड़े एक कार्यकर्ता का कहना है ‘’ इससे वेस्‍टर्न घाट में व्‍यावसायिक गतिविधियां, सड़कें, निर्माण, बिजली की लाइनें, और अन्‍य बुनियादी सुविधाओं के लिये निर्माण गतिविधियां–शुरू हो जायेंगी । जिससे इस हरे-भरे क्षेत्र और प्राकृतिक वास को संरक्षित करने के उद्देश्‍य पर असर पड़ेगा ।
      वेस्‍टर्न घाट विशेषज्ञ डॉक्‍टर माधव गा‍डगिल ने यूनेस्‍को की घोषणा का स्‍वागत किया। उन्‍होंने कहा कि इससे 2002 के जैविक विविधता जैसे अधिनियमों को मजबूती मिलेगी जिससे पंचायत जैसे स्‍थानीय संगठन संरक्षण के लिये उचित कदम उठा सकेंगे। संरक्षण के प्रयासों की सफलता और निरन्‍तर विकास का पता लगाने में स्‍थानीय लोगों की भागीदारी महत्‍वपूर्ण होगी।
      पांच राज्‍यों से लगे वेस्‍टर्न घाट में लाखों आदिवासियों ने अपने घर बनाए हैं। नीलगिरी के थोडा, बी आर हिल्‍स के सोलीदास, बेथनगाड़ी के मालेकुदिया, उत्‍तर कन्‍नड़ के हल्‍लाकी वोक्‍कल, कुमता के सिद्धि, वेनाद के पनिया, मालाबार के कटटूनयाकन और गोवा और महाराष्‍ट्र के अनेक अन्‍य आदिवासी इनमें शामिल हैं । जैव विविधता के संरक्षण की योजना 2001-16 में कहा गया है ‘’ आदिवासी समुदाय जैव विविधता का हिस्‍सा हैं और राज्‍य सरकारों को उन्‍हें उनके प्राकृतिक माहौल से बाहर नहीं निकालना चाहिए बल्कि‍ उन्‍हें लोकतांत्रिक दृष्टि से अधिकार सम्‍पन्‍न बनाना चाहिए और उन्‍हें सरकारी सुविधाएं देनी चाहिए।
      वेस्‍टर्न घाट के अधिकतर हिस्‍सों में विकास में लोगों की भागीदारी हितकर है। देश के क्षेत्र में साक्षरता और पर्यावरण संबंधी जागरूकता का स्‍तर बहुत अधिक है। लोकतांत्रिक संस्‍थाएं भी मजबूत हैं और क्षमता निर्माण और पंयायती राज संस्‍थानों को मजबूत बनाने में केरल सबसे आगे है। गोवा ने हाल ही में भूमि के इस्‍तेमाल की नीतियों के बारे में फैसला लेने के लिये ग्राम सभाओं से जानकारी लेने संबंधी काफी दिलचस्‍प कार्य, क्षेत्रीय योजना 2021 को पूरा किया। वेर्स्‍टन घाट देश का एक ऐसा उपयुक्‍त क्षेत्र है जिसका समग्र और पर्यावरण के अनुकूल विकास हो सकता है।


वेस्‍टर्न घाट से संबंधित कुछ तथ्‍य
-डॉ. के. परमेश्‍वरन


·        वेस्‍टर्न घाट एक पर्वतीय श्रृंखला है, जो भारत के पश्चिमी किनारे पर स्थित है।
·        दक्‍कनी पठार के पश्चिमी किनारे के साथ-साथ यह पर्वतीय श्रृंखला उत्‍तर से दक्षिण की तरफ 1600 किलोमीटर लम्‍बी है।
·        यह विश्‍व में जैविकीय विवधता के लिए बहुत महत्‍वपूर्ण है और इसका विश्‍व में 8वां नंबर है।
·        यह गुजरात और महाराष्‍ट्र की सीमा से शुरू होती है और महाराष्‍ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल से होते हुए कन्‍याकुमारी में समाप्‍त हो जाती है।
·        इन पहाडि़यों का कुल क्षेत्र 160,000 वर्ग किलोमीटर है।
·        इसकी औसत उंचाई लगभग 1200 मीटर (3900 फीट) है।
·        इस क्षेत्र में फूलों की पांच हजार से ज्‍यादा प्रजातियां, 139 स्‍तनपायी प्रजातियां, 508 चिडि़यों की प्रजातियां और 179 उभयचर प्रजातियां पाई जाती हैं।
·        ऐसी जानकारी प्राप्‍त हुई है कि वेस्‍टर्न घाट में कम से कम 84 उभयचर प्रजातियां और 16 चिडि़यों की प्रजातियां और सात स्‍तनपायी और 1600 फूलों की प्रजातियां पाई जाती हैं, जो विश्‍व में और कहीं नहीं हैं।
·        वेस्‍टर्न घाट में सरकार द्वारा घोषित कई संरक्षित क्षेत्र हैं। इनमें दो जैव संरक्षित क्षेत्र और 13 राष्‍ट्रीय पार्क हैं।
·        वेस्‍टर्न घाट में स्थित नीलागिरी बायोस्फियर रिजर्व का क्षेत्र 5500 वर्ग किलोमीटर है, जहां सदा हरे-भरे रहने वाले और मैदानी पेड़ों के वन मौजूद हैं।
·        केरल का साइलेंट वैली राष्‍ट्रीय पार्क वेस्‍टर्न घाट का हिस्‍सा है। यह भारत का ऐसा अंतिम उष्‍णकटिबंधीय हरित वन है, जहां अभी तक किसी ने प्रवेश नहीं किया है।
·        अगस्‍त, 2011 में वेस्‍टर्न घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल ने पूरे वेस्‍टर्न घाट को पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया है। पैनल ने इसके विभिन्‍न क्षेत्रों को तीन स्‍तर पर संवेदनशील बताया है।
·        2012 में यूनेस्‍को ने वेस्‍टर्न घाट क्षेत्र के 39 स्‍थानों को विश्‍व धरोहर स्‍थल घोषित किया है।


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