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फ़िरदौस ख़ान
देश की एक बड़ी आबादी धीमा ज़हर खाने को मजबूर है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. हम बात कर रहे हैं भोजन के साथ लिए जा रहे उस धीमे ज़हर की, जो सिंचाई जल और कीटनाशकों के ज़रिये अनाज, सब्ज़ियों और फलों में शामिल हो चुका है. देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में आर्सेनिक सिंचाई जल के माध्यम से फ़सलों को ज़हरीला बना रहा है. यहां भू-जल से सिंचित खेतों में पैदा होने वाले धान में आर्सेनिक की इतनी मात्रा पाई गई है, जो मानव शरीर को नुक़सान पहुंचाने के लिए काफ़ी है. इतना ही नहीं, देश में नदियों के किनारे उगाई जाने वाली फ़सलों में भी ज़हरीले रसायन पाए गए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे देश की नदियां कितनी प्रदूषित हैं. कारख़ानों से निकलने वाले कचरे और शहरों की गंदगी को नदियों में बहा दिया जाता है, जिससे इनका पानी अत्यंत प्रदूषित हो गया है. इसी दूषित पानी से सींचे गए खेतों की फ़सलें कैसी होंगी, सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

दूर जाने की ज़रूरत नहीं, देश की राजधानी दिल्ली में यमुना की ही हालत देखिए. जिस देश में नदियों को मां या देवी कहकर पूजा जाता है, वहीं यह एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है. काऱखानों के रासायनिक कचरे ने इसे ज़हरीला बना दिया है. नदी के किनारे सब्ज़ियां उगाई जाती हैं, जिनमें काफ़ी मात्रा में विषैले तत्व पाए गए हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, नदियों के किनारे उगाई गई 50 फ़ीसद फ़सलों में विषैले तत्व पाए जाने की आशंका रहती है. इसके अलावा कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने भी फ़सलों को ज़हरीला बना दिया है. अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्ज़ियों में भी रसायनों के विषैले तत्व पाए गए हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं. इसके बावजूद अधिक उत्पादन के लालच में डीडीटी जैसे प्रतिबंधित कीटनाशकों का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है. अकेले हरियाणा की कृषि भूमि हर साल एक हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा के कीटनाशक निग़ल जाती है. पेस्टिसाइड्‌स ऐसे रसायन हैं, जिनका इस्तेमाल अधिक उत्पादन और फ़सलों को कीटों से बचाने के लिए किया जाता है. इनका इस्तेमाल कृषि वैज्ञानिकों की सिफ़ारिश के मुताबिक़ सही मात्रा में किया जाए, तो फ़ायदा होता है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति ख़त्म होने लगती है और इससे इंसानों के अलावा पर्यावरण को भी नुक़सान पहुंचता है. चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल से कृषि भूमि पर होने वाले असर को जांचने के लिए मिट्टी के 50 नमूने लिए. ये नमूने उन इलाक़ों से लिए गए थे, जहां कपास की फ़सल उगाई गई थी और उन पर कीटनाशकों का कई बार छिड़काव किया गया था. इसके साथ ही उन इलाक़ों के भी नमूने लिए गए, जहां कपास उगाई गई थी, लेकिन वहां कीटनाशकों का छिड़काव नहीं किया गया था. कीटनाशकों के छिड़काव वाले कपास के खेत की मिट्टी में छह प्रकार के कीटनाशकों के तत्व पाए गए, जिनमें मेटासिस्टोक्स, एंडोसल्फान, साइपरमैथरीन, क्लोरो पाइरीफास, क्वीनलफास और ट्राइजोफास शामिल हैं. मिट्टी में इन कीटनाशकों की मात्रा 0.01 से 0.1 पीपीएम पाई गई. इन कीटनाशकों का इस्तेमाल कपास को विभिन्न प्रकार के कीटों और रोगों से बचाने के लिए किया जाता है. कीटनाशकों की लगातार बढ़ती खपत से कृषि वैज्ञानिक भी हैरान और चिंतित हैं. कीटनाशकों से जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है. प्रदूषित जल से फल और सब्ज़ियों का उत्पादन तो बढ़ जाता है, लेकिन इनके हानिकारक तत्व फलों और सब्ज़ियों में समा जाते हैं. सब्ज़ियों में पाए जाने वाले कीटनाशकों और धातुओं पर भी कई शोध किए गए हैं. एक शोध के मुताबिक़, सब्ज़ियों में जहां एंडोसल्फान, एचसीएच एवं एल्ड्रिन जैसे कीटनाशक मौजूद हैं, वहीं केडमियम, सीसा, कॉपर और क्रोमियम जैसी ख़तरनाक धातुएं भी शामिल हैं. ये कीटनाशक और धातुएं शरीर को बहुत नुक़सान पहुंचाती हैं. सब्ज़ियां तो पाचन तंत्र के ज़रिए हज़म हो जाती हैं, लेकिन कीटनाशक और धातुएं शरीर के संवेदनशील अंगों में एकत्र होते रहते हैं. यही आगे चलकर गंभीर बीमारियों की वजह बनती हैं. इस प्रकार के ज़हरीले तत्व आलू, पालक, फूल गोभी, बैंगन और टमाटर में बहुतायत में पाए गए हैं. पत्ता गोभी के 27 नमूनों का परीक्षण किया गया, जिनमें 51.85 फ़ीसद कीटनाशक पाया गया. इसी तरह टमाटर के 28 नमूनों में से 46.43 फ़ीसद में कीटनाशक मिला, जबकि भिंडी के 25 नमूनों में से 32 फ़ीसद, आलू के 17 में से 23.53 फ़ीसद, पत्ता गोभी के 39 में से 28, बैंगन के 46 में से 50 फ़ीसद नमूनों में कीटनाशक पाया गया. फ़सलों में कीटनाशकों के इस्तेमाल की एक निश्चित मात्रा तय कर देनी चाहिए, जो स्वास्थ्य पर विपरीत असर न डालती हो. मगर सवाल यह भी है कि क्या किसान इस पर अमल करेंगे. 2005 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने केंद्रीय प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला के साथ मिलकर एक अध्ययन किया था. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिकी स्टैंडर्ड (सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) के मुक़ाबले पंजाब में उगाई गई फ़सलों में कीटनाशकों की मात्रा 15 से लेकर 605 गुना ज़्यादा पाई गई. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों का होना भविष्य में घातक सिद्ध होगा, क्योंकि मिट्टी के ज़हरीला होने से सर्वाधिक असर केंचुओं की तादाद पर पड़ेगा. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होगी और फ़सलों की उत्पादकता भी प्रभावित होगी. मिट्टी में कीटनाशकों के इन अवशेषों का सीधा असर फ़सलों की उत्पादकता पर पड़ेगा और साथ ही जैविक प्रक्रियाओं पर भी. उन्होंने बताया कि यूरिया खाद को पौधे सीधे तौर पर अवशोषित कर सकते हैं. इसके लिए यूरिया को नाइट्रेट में बदलने का कार्य विशेष प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है. अगर भूमि ज़हरीली हो गई तो बैक्टीरिया की तादाद प्रभावित होगी. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि रसायन अनाज, दलहन और फल-सब्ज़ियों के साथ मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं. फलों और सब्ज़ियों को अच्छी तरह से धोने से उनका ऊपरी आवरण तो स्वच्छ कर लिया जाता है, लेकिन उनमें मौजूद विषैले तत्वों को भोजन से दूर करने का कोई तरीक़ा नहीं है. इसी धीमे ज़हर से लोग कैंसर, एलर्जी, हृदय, पेट, शुगर, रक्त विकार और आंखों की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. इतना ही नहीं, पशुओं को लगाए जाने वाले ऑक्सीटॉक्सिन के इंजेक्शन से दूध भी ज़हरीला होता जा रहा है. अब तो यह इंजेक्शन फल और सब्ज़ियों के पौधों और बेलों में भी धड़ल्ले से लगाया जा रहा है. ऑक्सीटॉक्सिन के तत्व वाले दूध, फल और सब्ज़ियों से पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में बांझपन जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं. हालांकि देश में कीटनाशक की सीमा यानी मैक्सिमम ऐजिड्यू लिमिट के बारे में मानक बनाने और उनके पालन की ज़िम्मेदारी तय करने से संबंधित एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जा चुका है, लेकिन इसके बावजूद फ़सलों को ज़हरीले रसायनों से बचाने के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं की जाती. रसायन और उर्वरक राज्यमंत्री श्रीकांत कुमार जेना के मुताबिक़, अगर कीटनाशी अधिनियम, 1968 की धारा 5 के अधीन गठित पंजीकरण समिति द्वारा अनुमोदित दवाएं प्रयोग में लाई जाती हैं तो वे खाद्य सुरक्षा के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करती हैं. कीटनाशकों का पंजीकरण उत्पादों की जैव प्रभाविकता, रसायन एवं मानव जाति के लिए सुरक्षा आदि के संबंध में दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुरूप वृहद आंकड़ों के मूल्यांकन के बाद किया जाता है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार स्वीकार कर चुके हैं कि कई देशों में प्रतिबंधित 67 कीटनाशकों की भारत में बिक्री होती है और इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से फ़सलों के लिए होता है. उन्होंने बताया कि कैल्शियम सायनायड समेत 27 कीटनाशकों के भारत में उत्पादन, आयात और इस्तेमाल पर पाबंदी है. निकोटिन सल्फेट और केप्टाफोल का भारत में इस्तेमाल तो प्रतिबंधित है, लेकिन उत्पादकों को निर्यात के लिए उत्पादन करने की अनुमति है. चार क़िस्मों के कीटनाशकों का आयात, उत्पादन और इस्तेमाल बंद है, जबकि सात कीटनाशकों को बाज़ार से हटाया गया है. इंडोसल्फान समेत 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल की अनुमति तो है, लेकिन कई पाबंदियां भी लगी हैं.
ग़ौरतलब है कि भारत में क्लोरडैन, एंड्रिन, हेप्टाक्लोर और इथाइल पैराथीओन पर प्रतिबंध है. कीटनाशकों के उत्पादन में भारत एशिया में दूसरे और विश्व में 12वें स्थान पर है. देश में 2006-07 के दौरान 74 अरब रुपये क़ीमत के कीटनाशकों का उत्पादन हुआ. इनमें से क़रीब 29 अरब रुपये के कीटनाशकों का निर्यात किया गया. ख़ास बात यह भी है कि भारत डीडीटी और बीएचसी जैसे कई देशों में प्रतिबंधित कीटनाशकों का सबसे बड़ा उत्पादक भी है. यहां भी इनका खूब इस्तेमाल किया जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, डेल्टिरन, ईपीएन और फास्वेल आदि कीटनाशक बेहद ज़हरीले और नुक़सानदेह हैं. पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी में बिक रही सब्ज़ियों में प्रतिबंधित कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर सरकार को फलों और सब्ज़ियों की जांच करने का आदेश दिया है. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार से कहा कि शहर में बिक रही सब्ज़ियों की जांच अधिकृत प्रयोगशालाओं में कराई जाए. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने आदेश में कहा कि हम जांच के ज़रिये यह जानना चाहते हैं कि सब्ज़ियों में कीटनाशकों का इस्तेमाल किस मात्रा में हो रहा है और ये सब्ज़ियां बेचने लायक़ हैं या नहीं. अदालत ने यह भी कहा कि यह जांच इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट की प्रयोगशाला या दूसरी प्रयोगशालाओं में की जाए. ये प्रयोगशालाएं नेशनल एक्रेडेशन बोर्ड फोर टेस्टिंग से अधिकृत होनी चाहिए. यह आदेश कोर्ट ने कंज्यूमर वॉयस की उस रिपोर्ट पर संज्ञान लेते हुए दिया है, जिसमें कहा गया है कि भारत में फलों और सब्ज़ियों में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मानकों के मुक़ाबले 750 गुना ज़्यादा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि क्लोरडैन के इस्तेमाल से आदमी नपुंसक हो सकता है. इसके अलावा इससे खू़न की कमी और ब्लड कैंसर जैसी बीमारी भी हो सकती है. यह बच्चों में कैंसर का सबब बन सकता है. एंड्रिन के इस्तेमाल से सिरदर्द, सुस्ती और उल्टी जैसी शिकायतें हो सकती हैं. हेप्टाक्लोर से लीवर ख़राब हो सकता है और इससे प्रजनन क्षमता पर विपरीत असर पड़ सकता है. इसी तरह इथाइल और पैराथीओन से पेट दर्द, उल्टी और डायरिया की शिकायत हो सकती है. केयर रेटिंग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के समुचित प्रयोग से उत्पादकता में सुधार आ सकता है. इससे खाद्य सुरक्षा में भी मदद मिलेगी. देश में हर साल कीटों के कारण क़रीब 18 फ़ीसद फ़सल बर्बाद हो जाती है यानी इससे हर साल क़रीब 90 हज़ार करोड़ रुपये की फ़सल को नुक़सान पहुंचता है. भारत में कुल 40 हज़ार कीटों की पहचान की गई है, जिनमें से एक हज़ार कीट फ़सलों के लिए फ़ायदेमंद हैं, 50 कीट कभी कभार ही गंभीर नुक़सान पहुंचाते हैं, जबकि 70 कीट ऐसे हैं, जो फ़सलों के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि फ़सलों के नुक़सान को देखते हुए कीटनाशकों का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है. देश में जुलाई से नवंबर के दौरान 70 फ़ीसद कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इन दिनों फ़सलों को कीटों से ज़्यादा ख़तरा होता है. भारतीय खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों का अवशेष 20 फ़ीसद है, जबकि विश्व स्तर पर यह 2 फ़ीसद तक होता है. इसके अलावा देश में सिर्फ़ 49 फ़ीसद खाद्य उत्पाद ऐसे हैं, जिनमें कीटनाशकों के अवशेष नहीं मिलते, जबकि वैश्विक औसत 80 फ़ीसद है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के इस्तेमाल के तरीक़े और मात्रा के बारे में जागरूकता की कमी है.

ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि पिछले तीन दशकों से कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर समीक्षा तक नहीं की गई. बाज़ार में प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री भी बदस्तूर जारी है. हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारें कीटनाशकों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करती हैं. किसानों को अनुशंसित मात्रा में कीटनाशकों की पंजीकृत गुणवत्ता के प्रयोग, अपेक्षित सावधानियां बरतने और निर्देशों का पालन करने की सलाह दी जाती है. यह सच है कि मौजूदा दौर में कीटनाशकों पर पूरी तरह पाबंदी लगाना मुमकिन नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इस्तेमाल सही समय पर और सही मात्रा में किया जाए.


चेहरे के दाग़-धब्बे कम करने के लिए महंगा इलाज करने और महंगे तरीक़े अपनाने की ज़रूरत नहीं है. बिना मेहनत किए भी दाग़-धब्बों को कम किया जा सकता है. दाग़-धब्बे कम करने के कुछ आसान घरेलू तरीक़े पेश हैं, जिन्हें आज़मा कर दाग़-धब्बों को कम किया जा सकता है.
ऐलो वेरा जेल 
ऐलो वेरा जेल के पत्ते को लंबा काटकर शीशे की प्याली में जेल निकाल लें. फिर इसे दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगाएं. आधा घंटे बाद पानी से धो लें.
नींबू का रस
शीशे की प्याली में नींबू का रस निचोड़ लें.  फिर इसमें रूई का गोला भिगोकर दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगाएं. नींबू को काटकर सीधे भी लगाया जा सकता है. एक घंटे बाद पानी से धो लें. ध्यान रहे कि नींबू का रस लगाने के बाद धूप में न जाएं.
नींबू में जो एसकॉर्बिक एसिड (ascorbic acid) या विटामिन सी होता है, जो वह एन्टी-ऑक्सिडेंट्स के रूप में काम करते हैं और त्वचा में दाग़-धब्बों को दूर करने में मदद करते हैं.
दूध
रात को सोने से पहले रूई के गोले को दूध में भिगोकर दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगा लें. रात भर यूं ही छोड़ दें. अगले दिन सुबह गुनगुने गर्म पानी से धो लें.
दूध में लैक्टिक एसिड होता है, जो दाग़-धब्बों को दूर करने में बहुत मदद करता है.
दही
एक कटोरी में दही लें और उसमें आधा नींबू का रस डालकर पेस्ट बना लें. इस पेस्ट को दाग़-धब्बे पर लगाएं. फिर सूखने के बाद गुनगुने पानी से धो लें.
दही में भी लैक्टिक एसिड होता है, जो ब्लीचिंग एजेन्ट का काम करता है.
संतरा
एक कटोरी में दो बड़े चम्मच संतरे का रस लें और उसमें एक चुटकी हल्दी डालकर अच्छी तरह से मिला लें. इस पेस्ट को रात को सोने से पहले चेहरे पर अच्छी तरह से लगा लें और अगली सुबह गुनगुने गर्म पानी से धो लें.
नींबू की तरह ही संतरे के रस में भी ब्लीचिंग का गुण होता है, जो दाग़-धब्बों को दूर करने में मदद करता है.
शहद
शहद को दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगाएं.
एक कटोरी में ज़रूरत के अनुसार नींबू का रस या ऑलिव ऑयल लें. उसमें थोड़ा शहद डालकर पेस्ट बना लें. उसके बाद पेस्ट को चेहरे पर लगाएं. 
ज़रूरत के हिसाब से बादाम को भिगोकर पीस लें. उसमें एक छोटा चम्मच नींबू का रस और दूध डालें. उसके बाद थोड़ा-सा शहद डालकर अच्छी तरह से पेस्ट बना लें. पेस्ट को चेहरे पर लगाकर सूखने का बाद पानी से धो लें.

शहद त्वचा की मृत कोशिकाओं (dead cells) को निकालकर रौनक़ लाने में मदद करता है. शहद में एन्जाइम होता है, जो वह त्वचा को मुलायम और आकर्षक बनाने में भी बहुत मदद करता है. अगर आपकी त्वचा संवेदनशील है, तो पहले हाथ पर इसका इस्तेमाल करके देख लें. उसके बाद ही चेहरे पर लगाएं.

ग़ौरतलब है कि इन घरेलू तरीक़ों को कम से कम एक महीना तक लगातार इस्तेमाल करने के बाद ही नतीजा नज़र में आएगा.



फ़िरदौस ख़ान
भारत दवाओं का एक ब़डा बाज़ार है. यहां बिकने वाली तक़रीबन 60 हज़ार ब्रांडेड दवाओं में महज़ कुछ ही जीवनरक्षक हैं. बाक़ी दवाओं में ग़ैर ज़रूरी और प्रतिबंधित भी शामिल होती हैं. ये दवाएं विकल्प के तौर पर या फिर प्रभावी दवाओं के साथ मरीज़ों को ग़ैर जरूरी रूप से दी जाती हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से जिन दवाओं पर अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित लगा हुआ है, उन्हें भारत में खुलेआम बेचा जा रहा है. समिति ने कहा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के कई अधिकारियों के बीच मिलीभगत है. इसलिए कई दवाओं की जांच किए बिना उन्हें मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी जा रही है. इनकी वजह से आए दिन लोगों की मौत हो रही है. तीन विवादस्पद दवाएं पीफ्लोकेसील, होम्पलोकेसीन और स्परफ्लोकेसीन के तो दस्ताव़ेज तक ग़ायब हैं. स्थायी समिति के सदस्य डॉ. संजय जायसवाल का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे पर हमने सरकार को स्थायी समिति की ओर से पत्र लिखकर दवा परीक्षण और घटिया दवाओं की बिक्री को अनदेखा करने पर सख्त ऐतराज़ जताया है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रतिबंधित दवाओं में शरीर को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्व होते हैं. इसलिए विकसित देश इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा देते हैं. ऐसे में दवा कंपनियां ग़रीब और विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर वहां अपनी प्रतिबंधित दवाओं के लिए बाज़ार तैयार करती हैं. इन दवाओं का परीक्षण भी इन्हीं देशों में किया जाता है. अंतराष्ट्रीय क्लीनिकल परीक्षण और शोध का बाज़ार तक़रीबन 20 अरब डॉलर का है. भारत में यह बाज़ार तक़रीब दो अरब डॉलर का है और दिनोदिन इसमें त़ेजी से ब़ढोत्तरी हो रही है. ज़्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन ये देश अपने देश के लोगों पर दवाओं का परीक्षण न करके ग़रीब और विकासशील देशों के लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. इनमें एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और अफ्रीकी देश शामिल हैं.

हालांकि क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणा-पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इस घोषणा-पत्र में छह बार संशोधन भी किए गए. घोषणा-पत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुना़फे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो. दवाओं का परीक्षण दबाव और लालच देकर नहीं कराया जाए, लेकिन इस पर असरदार तरीक़े से अमल नहीं किया जा रहा है. साल 2008 से 2011 के बीच भारत में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 2031 लोगों की मौत हुई है. 2008 में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 288 लोगों की जान जान चुकी है, जबकि 2009 में 637 लोगों, 2010 में 668 लोगों और 2011 में 438 लोगों की मौत हुई थी. हाल में मध्य प्रदेश में भोपाल गैस हादसे के पीडि़तों और इंदौर में कई मरीज़ों पर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा था. एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर कर मध्य प्रदेश समेत देश भर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के आरोप लगाए हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के प्रतिनिधियों द्वारा ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात सामने आई थी कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में 2004 से 2008 के बीच विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 279 मरीज़ों पर दवाओं का परीक्षण किया गया है. इनमें से 13 मरीज़ों की दवा परीक्षण के बाद बीमारी बढ़ने से मौत हो गई. मरने वालों में से 12 गैस पीड़ित थे. देश भर में दवा परीक्षण के दौरान में चार साल में 2031 लोगों मौत हुई है. इनमें से केवल 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है, जबकि बाक़ी लोगों के परिवार वाले आज तक इंसा़फ की राह देख रहे हैं.
दरअसल, हमारे देश की लचर क़ानून व्यवस्था का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता कंपनियां ग़रीब मरीज़ों को मुफ्त में इलाज कराने का झांसा देकर उन पर दवा परीक्षण करती हैं. ग़रीब लोग ठगे जाने पर इनके खिला़फ आवाज़ भी नहीं उठा पाते. पिछले दिनों तक़रीबन 13 हज़ार दवाओं के परीक्षण भारत में किए गए. भारत प्रतिबंधित दवाओं का भी ब़डा बाज़ार है. विदेशों में प्रतिबंधित एक्शन 500, निमेसूलाइड और एनालजिन जैसी दवाएं भारत में ज़्यादा बिकने वाली दवाओं में शामिल हैं. फिनलैंड, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों ने निमेसूलाइड के जिगर पर हानिकारक प्रभाव की रिपोर्टों के मद्देनज़र इस पर पाबंदी लगाई हुई है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में भी यह दवा प्रतिबंधित है. इसके अलावा दवाओं के साइड इफेक्ट से भी लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अनेक दवाएं ऐसी हैं जो फायदे की बजाय नुक़सान ज़्यादा पहुंचाती हैं. कुछ दवाएं रिएक्शन करने पर जानलेवा तक साबित हो जाती हैं, जबकि कुछ दवाएं मीठे ज़हर का काम करती हैं. क़ब्ज़ की दवा से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. सर्दी, खांसी, ज़ुकाम, सरदर्द और नींद न आने के लिए ली जाने वाली एस्प्रीन में सालि सिलेट नामक रसायन होता है, जो श्रवण केंद्रीय के ज्ञान तंतु पर विपरीत प्रभाव डालता है. कुनेन का अधिक सेवन कर लेने पर व्यक्ति बहरा हो सकता है. ये दवाएं एक तरह से नशे का काम करती हैं. नियमित रूप से एक ही दवा का इस्तेमाल करते रहने से दवा का असर कम होता जाता है और व्यक्ति दवा की मात्रा में बढ़ोतरी करने लगता है. दवाओं में अल्कोहल का भी अधिक प्रयोग किया जाता है, जो फेफड़ों को नुक़सान पहुंचाती है.

अधिकांश दवाएं शरीर के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे ये शरीर में घुलमिल कर खाद्य पदार्थों की भांति पच नहीं पाती हैं. नतीजतन, ये शरीर में एकत्रित होकर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. दवाओं में जड़ी-बूटियों के अलावा खनिज लोहा, चांदी, सोना, हीरा, पारा, गंधक, अभ्रक, मूंगा, मोती और संखिया आदि का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही कई दवाओं में अफ़ीम, जानवरों का रक्त और चर्बी आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है. सर्लें तथा एंटीबायोटिक दवाओं के लंबे समय तक सेवन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. चिकित्सकों का कहना है कि मेक्साफार्म, प्लेक्वान, एमीक्लीन, क्लोरोक्लीन और नियोक्लीन आदि दवाएं बहुत ख़तरनाक हैं. इनके ज़्यादा सेवन से जिगर और तिल्ली बढ़ जाती है, स्नायु दर्द होता है, आंखों की रोशनी कम हो सकती है, लकवा मार सकता है और कभी-कभी मौत भी हो सकती है. दर्द, जलन और बुख़ार के लिए दी जाने वाली ऑक्सीफेन, बूटाजोन, एंटीजेसिक, एमीडीजोन, प्लेयर, बूटा प्रॉक्सीवोन, जेक्रिल, मायगेसिक, ऑसलजीन, हैडरिल, जोलांडिन और प्लेसीडीन आदि दवाएं भी ख़तरनाक हैं. ये ख़ून में कई क़िस्म के विकार उत्पन्न करती हैं. ये दवाएं स़फेद रक्त कणों को ख़त्म कर देती हैं. इनसे अल्सर हो जाता है तथा साथ ही जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं. एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली दवा इफेविरेंज से नींद नहीं आना, पेट दर्द और चक्कर आने लगते हैं. नेविरापिन से खून की कमी हो जाती है, आंख में धुंधलापन, मुंह का अल्सर आदि रोग हो जाते हैं. मिर्गी के लिए दी जाने वाली फेनिटोइन और कार्बेमेजीपिन से मुंह में छाले और खाने की नली में जख्म हो जाते हैं. डायबिटीज के लिए दिए जाने वाले इंसुलिन से खुजली की शिकायत हो जाती है. कैंसर के लिए दी जाने वाली पेक्लीटेक्सिल से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं और कीमोथैरेपी की दवा साइक्लोसपोरिन से शरीर में खून की कमी हो जाती है और त्वचा भी संक्रमित होती है. चमड़ी के संक्रमण के लिए दी जाने वाली एजीथ्रोमाइसिन से पेट संबंधी समस्या पैदा हो जाती है. एलर्जी के लिए दी जाने वाली स्रिटेजीन से शरीर में ददोड़े प़ड जाते हैं. मेक्लिजीन से डायरिया हो जाता है. एंटीबायोटिक सेफट्राइजोन और एम्पीसिलीन से सांस की नली में सूजन आ जाती है. नॉरफ्लोक्सेसिन और ओफ्लोक्सेसिन से खुजली हो जाती है. टीबी के लिए दी जाने वाली इथेमबूटोल से आंखों की नसों में कमज़ोरी आ जाती है. मानसिक रोगी को दी जाने वाली हेलोपेरीडॉल से शरीर में अकड़न, जोड़ों में दर्द और बेहोशी की समस्या पैदा हो जाती है. इसी तरह दर्द निवारक दवा आईब्रूफेन, एस्प्रिन, पैरासिटामॉल से शरीर में सूजन आ जाती है. एक र्फार्मास्टि के मुताबिक़, स्टीरॉयड और एनाबॉलिक्स जैसे डेकाडयराबोलिन, ट्राइएनर्जिक आदि दवाएं पौष्टिक आहार कहकर बेची जाती हैं, जबकि प्रयोगों ने यह साबित कर दिया है कि इनसे बच्चों की हड्डियों का विकास रुक जाता है. इनके सेवन से लड़कियों में मर्दानापन आ जाता है. उनका मासिक धर्म अनियमित या बहुत कम हो जाता है. उनके चेहरे पर दा़ढीनुमा बाल उगने लगते हैं और कई बार उनकी आवाज़ में भारीपन भी आ जाता है. जलनशोथ आदि से बचने के लिए दी जाने वाली चाइमारोल तथा खांसी रोकने के लिए दी जाने वाली बेनाड्रिल, एविल, केडिस्टिन, साइनोरिल, कोरेक्स, डाइलोसिन और एस्कोल्ड आदि दवाएं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. इसी तरह एंसिफैड्रिल आदि का मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है. एक चिकित्सक के मुताबिक़, दवाओं के दुष्प्रभाव का सबसे बड़ा कारण बिना शारीरिक परीक्षण किए हुए दी जाने वाली दवाओं की निर्धारित मात्रा से अधिक ख़ुराक है. अनेक चिकित्सक अपनी दवाओं का जल्दी प्रभाव दिखाने के लिए प्राइमरी की बजाय थर्ड जेनेरेशन दे देते हैं, जो अक्सर कामयाब तो हो जाती हैं, लेकिन दूसरे असर छोड़ जाती हैं. दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं, जिनसे अन्य बीमारियां पैदा हो जाती हैं. जयपुर के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज के एडवर्स ड्रग रिएक्शन मॉनिटरिंग सेंटर (एएमसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले डे़ढ साल में 40 दवाओं के साइड से 445 मरीज़ प्रभावित हुए हैं. इनमें गंभीर बीमारियां एचआईवी, कैंसर, डायबिटीज और टीबी से लेकर बु़खार और एलर्जी के लिए दी जाने वाली दवाएं शामिल हैं. मरीज़ों ने ये दवाएं लेने के बाद पेट दर्द, सरदर्द, एनीमिया, बु़खार, त्वचा संक्रमण और सूजन आदि की शिकायतें कीं.

स्वास्थय विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टर को चाहिए कि वे दवा के बारे में मरीज़ को ठीक से समझाएं, मरीज़ की उम्र और उसके वज़न के हिसाब से दवा लिखे तथा दवा का कोई भी दुष्प्रभाव होने पर फौरन डॉक्टर को सूचित करे. मरीज़ों को चाहिए कि वे हमेशा डॉक्टर की सलाह से ही पर्ची पर दवा लें, अप्रशिक्षित लोगों और दवा विक्रेताओं के कहने पर किसी भी दवा का इस्तेमाल न करें. सरकार को भी चाहिए कि वह डॉक्टरों को सेंटर पर सूचना देने के लिए पाबंद करे, अस्पतालों में पोस्टर, बैनर और कार्यशालाओं के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करे. किसी भी दवा के दुष्प्रभाव मिलने पर उन्हें प्रतिबंधित करने की स़िफारिश की जाती है. किसी भी अस्पताल या सेंटर से दवा से दुष्प्रभाव और नुक़सान की रिपोर्ट को सीडी एससीओ नई दिल्ली को भेजा जाता है. यहां पर पूरे देश के सभी राज्यों से रिपोर्टें आती हैं. इसके बाद विशेषज्ञों की ड्रग टेक्नीकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) और ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी के सदस्यों द्वारा इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के बाद इसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को उस दवा की रिपोर्ट भेजी जाती है. इसके बाद केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेकर ग़ज़ट नोटिफिकेशन करते हैं. देश में पहले ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है. केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है. ऐसे में मरीज़ों के साथ खिलवा़ड किया जाना बेहद गंभीर और चिंता का विषय है. देश भर के सरकारी अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की कमी है. डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं. आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं. अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है. न तो पर्याप्त संख्या में नए स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं और न मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं. इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती. स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है. चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं. उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं. घटिया स्तर की दवाएं मुहैया कराए जाने के भी आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं नौ दिन चले अढाई कोस नामक कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आती हैं. हालांकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दवाओं को मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया में अनियमितता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तीन सदस्यीय समिति क्लीनिकल परीक्षण के बिना नई दवाओं को दी गई मंज़ूरी की वैज्ञानिक और वैधानिक आधार पर जांच करने के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. वह मंज़ूरी प्रक्रिया में प्रणालीगत सुधार के लिए सुझाव पेश करेगी और दवा नियंत्रक कार्यालय की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए भी सुझाव देगी.

स्वस्थ नागरिक किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं. हमें इस बात को समझना होगा. देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के साथ-साथ प्रतिबंधित दवाओं पर सख्ती से रोक लगाने और ग़ैर क़ानूनी रूप से मरीज़ों पर किए जा रहे दवा परीक्षणों पर भी रोक लगानी होगी. इसके अलावा दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा. इसके कई फ़ायदे हैं, पहला लोगों को रोजगार मिलेगा, दूसरा मरीज़ों को वाजिब क़ीमत में दवाएं मिल सकेंगी और तीसरा फायदा यह है कि मरीज़ विदेशी दवाओं के रूप में ज़हर खाने से बच जाएंगे.

इलाज से परहेज़ बेहतर है
लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति काफ़ी सचेत रहने की ज़रूरत है, वरना एक बीमारी का इलाज कराते-कराते वे किसी दूसरी बीमारी का शिकार हो जाएंगे. शरीर में स्वयं रोगों से मुक्ति पाने की क्षमता है. बीमारी प्रकृति के साधारण नियमों के उल्लंघन की सूचना मात्र है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने से बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करने तथा पौष्टिक भोजन लेने से मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहता है. यही सेहत की निशानी है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल का कहना है कि स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी है कि लोग अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें जैसे अपना ब्लड कोलेस्ट्रॉल 160 एमजी प्रतिशत से कम रखें. कोलेस्ट्ररॉल में एक प्रतिशत की भी कमी करने से हार्ट अटैक में दो फ़ीसदी कमी होती है. अनियंत्रित मधुमेह और उच्च रक्तचाप से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए इन पर क़ाबू रखें. कम खाएं, ज़्यादा चलें. नियमित व्यायाम करना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. सोया के उत्पाद स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. खुराक में इन्हें ज़रूर लिया जाना चाहिए. जूस की जगह फल का सेवन करना बेहतर होता है. ब्राउन राइस पॉलिश्ड राइस से और स़फेद चीनी की जगह गुड़ लेना कहीं अच्छा माना जाता है. फाइबर से भरपूर खुराक लें. शराब पीकर कभी भी गाड़ी न चलाएं. गर्भवती महिलाएं तो शराब बिल्कुल न पिएं. इससे होने वाले बच्चे को नुक़सान होता है. साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की जांच ज़रूर करवाएं. ज़्यादा नमक से परहेज़ करें.


सरफ़राज़ ख़ान
सर्दी का महीना सबसे ज्यादा शराब सेवन वाला होता है. सीमित मात्रा में शराब लेने को समझना बेहद जरूरी है. 
हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ स्वस्थ मध्यम उम्र की महिलाएं एक दिन में दो ड्रिंक ले सकती हैं, जिसमें उनकी दिल की धड़कन के असामान्य होने का खतरा नहीं रहता, इसे एट्रियल फाइब्रिलेषन कहते हैं, लेकिन तीन ड्रिंक से ज्यादा लेने से यह खतरा बढ़ जाता है. एट्रियल फाइब्रिलेशन आज की एक आम बीमारी है. यह बीमारी 80 साल तक की उम्र वालों में करीब एक फीसद में पाई  जाती है, उनमें कई महत्वपूर्ण लक्षण दिखाई देते हैं. एट्रियल फाइब्रिलेशन जो कि हार्ट के दो ऊपरी चैंबर होते हैं और इससे धड़कन असामान्य हो जाती है और यह सामान्य से तेज धड़कने लगता है. रक्त एट्रिया में जमा हो सकता है जिसकी वजह से थक्का बन सकता है और यह मस्तिष्क में आर्टरी के ब्लॉक होने पर स्ट्रोक का कारण बन सकता है.
बहुत ज्यादा शराब के सेवन से एट्रियल फाइब्रिलेशन के गड़बड़ाने का खतरा बढ़ जाता है. हार्वर्ड के अध्यन में जिसमें 35,000 महिलाओं को शामिल किया गया जो 45 से अधिक उम्र की थीं, इन सभी में अध्ययन की शुरुआत में किसी में भी एट्रियल फाइब्रिलेशन की समस्या नहीं थी. 12.4 सालों तक किये गए अध्ययन में पाया गया कि जिन महिलाओं ने औसतन रोजाना एक ड्रिंक या इससे कम ली, उनमें एट्रियल फाइब्रिलेशन का खतरा 1.9 फीसद बनिस्बत उनके जिन्होंने रोजाना एक से दो ड्रिंक लिया उनमें यह खतरा 1. 8 फीसद दर्ज किया गया, और यही खतरा जिन्होंने रोजाना दो से तीन ड्रिंक लिये उनमें 2.9 फीसदी पाया गया. जो एक दिन में तीन ड्रिंक लेते हैं, उनमें एट्रियल फाइब्रिलेशन का खतरा 40 से 50 फीसद बढ़ जाता है. एक दिन में छह से अधिक ड्रिंक लेने पर अकस्मात मौत भी हो सकती है. एक घंटे के अंदर पांच से अधिक ड्रिंक लेने पर अचानक मौत या हार्ट अटैक हो सकता है.


सरफ़राज़ ख़ान

धूम्रपान से न सिर्फ हृदयाघात, लकवा और रक्तचाप के बढ़ने का खतरा बढ़ता है बल्कि इससे नपुंसकता का खतरा भी  बढ़ सकता है. जो पुरुष एक दिन में 20 सिगरेट पीते हैं उनमें से 40 फीसद से ज्यादा इरेक्टाइल डिसफंक्शन के शिकार होते हैं बनिस्बत धूम्रपान न करने वालों के.

हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ धूम्रपान में पायी जाने वाली निकोटीन से विभिन्न अंगों में रक्त की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न होती है. टोबाको कंट्रॊल जर्नल में प्रकाशित पुरुषों  में के अध्ययन के मुताबिक 16-59 साल वाले पुरुषों में इरेक्टाइल डिस्फंक्शन का खतरा लगभग दो गुना होता है बनिस्बत उन लोगों के जो धूम्रपान नहीं करते हैं. धूम्रपान के अलावा, बहुत ज्यादा शराब पीना और वियाग्रा जैसी दवाओं का दुरुपयोग भी पुरुषों के यौन स्वास्थ को प्रभावित कर सकता है. सर्दी के दिनों में इससे मधुमेह, रक्तचाप भी अनियंत्रित हो सकते हैं. जबरदस्त ठंड के दौरान अवसाद की समस्या भी हो सकती है. जो लोग धूम्रपान को छोड़ना चाहते हैं, उनके लिए सर्दी का मौसम सबसे बढ़िया समय होता है.


अरुण कुमार पानीबाबा 
ऋतुचर्या के अनुसार शिशिर को हेमंत का विस्तार माना गया है. ठेठ  सर्दी के दो महीनों में शरीर की वैसी ही कफकारक प्रवृत्ति बनी रहती है जैसी कि दीवाली  के बाद नजला, खांसी होने लगती है. मध्य फरवरी यानी वसंत के आगमन तक यह ध्यान जरूरी है कि जो कुछ खाएं वह कफनाशक हो, गरमाई देने वाला हो, भूख-प्यास यानी जठराग्नि को सुरक्षित बनाये रखने वाला हो वर्ना वसंत और गर्मी के दौरान संचित कफ नये-नये रोग विकार गले लगा लेगा. इस मौसम में शाम की दावत में बहुत एहतियात जरूरी है.
नवंबर से फरवरी अंत तक यदि शाम की दावत चार-पांच बजे से शुरू नहीं है और स्वागत शाम आठ बजे ही शुरू होना है तो तमाम चटर-पटर व्यंजनों, जिन्हें आजकल स्नैक्स  वगैरह कहते हैं, को सिरे से नकार दीजिए. मेहमान का आते ही गर्मा-गरम सूप या रस पपड़म  से स्वागत कीजिए और पहला स्टॉल ताजे हलवे का लगाइए. चाहे जो हलवा हो गाजर, मूंग दाल, शकरकंदी, बादाम या आटा बेसन का, ढाक के हरे पत्ते पर ही परोसिये, ताकि पत्ता हथेली पर रखते ही हथेली से हृदय तक गरमाई का अहसास हो जाये.
गर्मा गरम सूप/रसम और हलवे से पहले, एक जरूरी बात- मेहमान के पंडाल में घुसते ही पहली व्यवस्स्था निवाए पानी से हाथ धुलवाने और स्वच्छ नैपकिन से पोंछने की होनी चाहिए. यह कदापि न भूलिए कि हलवे से चावल तक भारतीय भोजन का वाद अंगुलियां चाट कर खाने में ही हैं. िफर हमारी व्यंजन सूची में तो हाथ से खाने के अलावा दूसरा उपाय ही नहीं.
रात्रि में शुरू और अंत की मिठाई के अलावा सिर्फ चार स्टॉल लगवाइए. पहला स्टॉल दक्षिण भारतीय आप्पम, इडियाप्पम और डोसा साथ में सब्जी का कुर्मा, अवियल, सांभर, दो तीन तरह की चटनियां और नारियल दूध. यह बात सही है कि तीनों व्यंजनों मेंे चावल की प्रधानता है. पर बनाने की विधि में जितना नीरा-ताड़ रस और दाना मेथी और उड़द के प्रयोग करते हैं और सहज खमीर उठाते हैं उससे चावल की प्रवृत्ति सम हो जाती है. िफर कुर्मा तो खसखस और गर्म मसालों से ही सुवािसत होता है. विशेषकर छोटी बड़ी लौंग. अवियल का दही भी पानी मिला कर छाैंका जाता है आर्र पर्याप्त  मात्रा में. नारियल कस पीस कर मिलाते हैं. एक बात और स्पष्ट कर दें कि देर रात इडली बड़ा परोसना बेतुकी बात है. दूसरा स्टाॅल परंपरागत पूड़ी, बेड़मी, खस्ता कचौरी का होना चाहिए. तयशुदा मीठा कद्दू, रसे के रपटवा आलू और मेथी की चटनी या मेथी-आंवले की सब्जी बस उससे अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं. परोसदारी के लिए ढाक के दोने और सादी सपाट पत्तल ही उपयुक्त है.
प्रमुख आकर्षण और लगभग नया सुझाव तीसरा स्टॉल है-  कच्ची हल्दी की विशिष्ट सब्जी और सरल सादा मारवाड़ी फुल्का. इसमें आधे फाल्गुन तक (होली से पंद्रह िदन पहले तक) पंद्रह िदन वसंत के भी जोड़ लीजिए. इन ढाई महीनों में पौष से लेकर मध्य फाल्गुन तक शुद्ध गौघृत में बनी हल्दी लहसुन या हल्दी खसखस में बनी सब्जी से बेहतर न कोई व्यंजन/ पकवान है, न सर्दी से बचने की औषधि, न सिद्ध वाजीकरण रसायन और न अन्य कोई शाही दावत. नुस्स्खे से पहले यह स्पष्ट कर दें कि मारवाड़ी फुल्का, दोनों परत इकसार, बिलकुल बिना काली चित्ती, लेकिन तोड़ने चबाने में कुरकुरा हो.
हल्दी की सब्जी बनाना जान लीजिए और फरवरी तक न्यूनतम चार बार अधिकतम आठ बार इसका प्रयोग कर लीजिये - बुजुर्गों को सर्दी से राहत मिल  जायेगी, बच्चों और युवजन के अंगों में तेल पानी लग जायेगा - जोड़ खुल जायेंगे, ठंडी हवा का झोंका  अच्छा लगने लगेगा.सामग्री- सवा सेर गौघृत, सवा सेर पंच मेवा (पाव भर किशमिश, बादाम, काजू, मखाना और छुआरा), ढाई सेर गाय के दूध का घर जमाया दही, पाव भर बीज झड़ी सुर्ख लाल मिर्च, पाव भर सूखा साबूत धनिया, आधा पाव सेंधा नमक, सेर पर कच्ची हल्दी, सेर भर लहसुन (जो लहसुन से परहेज करते हों वह  पाव खसखस, पाव मगज, पाव बादाम का मसाला बना लें).
तैयारी­- बादाम भिगो  कर छील लें (उबाल कर नहीं), हल्दी अच्छी तरह धोकर छीलें, लहसुन छील कर धो लें, मिर्च और धनिया धोकर भीगो  दें- यह पांचों चीज सिल पर महीन पीसनी चाहिए या दक्षिणी गोल  पत्थर में. नयी तरह के दो-तीन पत्त्थर वाले ग्राइंडर में भी पिसाई ठीक हो जाती है. छुआरों की धो िभगोकर कतरन कटेंगी. मखाने पोछ सुखाकर दो टुकड़ों में काटने चाहिए. किशमिश, काजू धोकर फरहरे कर लें.एक सेर हल्दी की सब्जी के लिए दस -बारह सेर अंदाज की कड़ाही या भारी भगोना  होना चाहिए. बर्तन या तो कच्चे या पक्के लोहे के, या भरत के या पीतल के कलईदार यह जो आजकल प्रेशर कुकर वाला सफेद मेटल चल पड़ा है- इसके बिलकुल नहीं.
विधि- कड़ाही चढ़ाकर उसमें आधा सेर घी चढ़ाएं- पहले लहसुन या खसखस-मगज की चटनी भूने. गुलाबी हो जाये तो उसमें मिर्च का घोल डालें, मिर्च घी छोड़ दें तब धनिया, वह भी भुन जाये तब दही डालकर भुनाई करें. जाला पड़ जायये तो हल्दी और बादाम की पिट्ठी डाल दें. बीच ­बीच में जरूरत के हिसाब से घी की मात्रा बढ़ाते रहें. लेकिन पाव भर घी मेवा छौंकने के लिए अवश्य बचा लें. जब हल्दी और बादाम की पिट्ठी भी सिंक जायें तो अंदाज से सेर सवा सेर पानी लगाकर छुआरों की कतरनें डाल कर ढंक दें- मंदी आंच पर कम से कम घंटा भर धीमा-धीमा खदबदाने दें. सब्जी तैयार है­ बस बचे पाव घी को छोटे भगोने में पकाएं उसमें काजू और मखानों को हल्का गुलाबी भूनकर किशमिश भी फुला लें. यह तड़का लगाते ही सब्जी परोसने के लिए तैयार है. तैयार माल लगभग आठ सेर बैठेगा जो अस्सी से सौ खाने वालों के लिए पर्याप्त होगा.
(शुक्रवार से साभार) 


डॉ. सौरभ मालवीय
आधुनिक जीवन शैली और दोषपूर्ण खान-पान के चलते विश्वभर में हर साल लाखों लोग केंसर जैसे बीमारी की चपेट में आ रहे है और असमय ही काल कवलित हो जाते है, विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के बाकी देशों के मुक़ाबले भारत में केंसर रोग से प्रभावितों की दर कम होने के बावजूद यहाँ 15 प्रतिशत लोग केंसर के शिकार होकर अपनी जान गवा देते है. डब्लू एच्चों की ताज़ा सूची के मुताबिक 172 देशों की सूची में भारत का स्थान 155वां हैं. सूची के मुताबिक भारत उन देशों में शामिल है जहां केंसर से होने वाली मौत की दरें सर्वाधिक कम है. फिलहाल भारत में यह प्रतिलाख 70.23 व्यक्ति है. डेन्मार्क जैसे यूरोपीय देशों में यह संख्या दुनिया में सर्वाधिक है यहाँ केंसर प्रभावितों  की दर प्रतिलाख 338.1 व्यक्ति है. भारत में हर साल केंसर के 11 लाख नए मामले सामने आरहे है वर्तमान में कुल 24 लाख लोग इस बीमारी के शिकार है. राष्ट्रीय केंसर संस्थान के एक प्रतिवेदन के अनुसार देश मे हर साल इस बीमारी से 70 हजार लोगों की मृत्यु हो जाती है इनमें से 80 प्रतिशत लोगो के मौत का कारण बीमारी के प्रति उदासीन रवैया है. उन्हें इलाज़ के लिए डॉक्टर के पास तब लेजाते है जब स्थिति लगभग नियंत्रण से बेकाबू हो जाती है, केंसर संस्थान की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल सामने आरहे साढ़े बारह लाख नए रोगियों में से लगभग सात लाख महिलाएं होती है. प्रतिवर्ष लगभग इनमें से आधी लगभग साढ़े तीन लाख महिलावों की, यानि आधी की मौत हो जाती है जो आधी आबादी के हिसाब से काफी चिंता जनक है . इनमें से भी 90 प्रतिशत की मृत्यु का कारण रोग के प्रति बरते जाने वाली अगंभीरता है ये महिलाएं डॉक्टर के पास तभी जाती है जब बीमारी अनियंत्रण की स्थिति में पहुच जाती है या बेहद गंभीर स्थिति में पहुच जाती है. ऐसी स्थिति में यह बीमारी लगभग लाइलाज हो चुकी होती है.

भारतवासियों के लिए यह बात सकून देने वाली हो सकती है की जागरूकता के अभाव के बावजूद भारत में यूरोपीय देशों के मुक़ाबले केंसर नमक इस बीमारी के विस्तार की दर धीमी है देश और दुनिया मे नित्य प्रतिदिन तकनीकी के विकास के बाद भी दुनिया में केंसर से मरने वालों की संख्या में कोई कमी नही आरही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन से प्राप्त आकड़ों के अनुसार सन 2007 में केंसर से विश्व भर में 79 लाख लोग मौत के शिकार हुये थे इस दर मे वर्ष 2030 तक 45 प्रतिशत बढ़ोतरी हो कर लगभग एक करोण 15 लाख हो जाने का अनुमान है वही इस दौरान केंसर के नए मामले वर्ष 2007 तक एक करोण तेरह लाख सामने आए थे जिसके वर्ष 2030 तक बढ़ कर एक करोड़ पचपन लाख हो जाने का अनुमान है.

केंसर जैसी जानलेवा बीमारी के अधिकाधिक विस्तार के पीछे मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली और खान-पान की बुरी लत का विशेष योगदान है. आधुनिक जीवन शैली का आदमी पूरी तरह से आराम पसंद है, व्यायाम उसकी दिनचर्या से लगभग बाहर हो चुका है. वह किसी न किसी मादक पदार्थ के सेवन का आदि है जो व्यक्ति किसी प्रकार का धूम्रपान नहीं करता वह कम से कम चाय या काफी या दोनों के सेवन का आदि जरूर है. एक कप काफी या चाय में लगभग चार हजार से अधिक घातक तत्व पाये जाते है तंबाकू,शराब और सिगरेट सरीखे मादक पदार्थों के सेवन से केंसर नामक इस महामारी का तेजी से विस्तार होता है. इसके अलावा मोटापा को चलते भी इस बीमारी का तेजी से विस्तार हो रहा है. वैसे तो मोटापा को सारी बीमारियों की जड़ कहा जाता है, आकड़ों पर गौर करे तो केंसर से होने वाली मौतों में 22 प्रतिशत मौत के मामले तंबाकू के सेवन के कारण हो रहे है जबकि शराब के सेवन के कारण 33 लाख लोग इस बीमारी के शिकार हो रहे है वही मोटापा के चलते 2 लाख 74 हजार लोग केंसर की चपेट में आ रहे है इसके अलावा खराब खान पान के चलते इसके चपेट में आने वालों का प्रतिशत 30 है .

ये सभी आकड़े वर्ष 2012 के आधार पर संकलित किए गए है वर्ष 2016 के आधार पर इसका विश्लेषण किया जाएगा तो संभव है यह स्थिति और भयावह हो इसके अलावा इस बीमारी के बढ्ने के कारणों में केमिकल युक्त और मिलावटी खाद्य पदार्थों की कम घातक भूमिका नही है खान पान की वस्तुओं में रासायनिक तत्वों का उपयोग आज एक वृहद समस्या का रूप ले चुका है, एक अनुमान के मुताबिक भारत में 42 प्रतिशत पुरुष और 18 प्रतिशत महिलाएं तंबाकू के सेवन के कारण केंसर का शिकार हो कर अपनी जान गवा चुके है. वही पूर्व के आकड़ों पर ध्यान दिया जाए तो वर्ष 1990 के मुक़ाबले वर्तमान में प्रोस्टेड केंसर के मामले में 22 प्रतिशत और महिलावों में सरवाईकाल केंसर के मामले में 2प्रतिशत और वेस्ट केंसर के मामले में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.

ऐसा नही है की इस बीमारी से बचा नही जासके आधुनिक जीवन शैली और खान-पान में मामूली सुधार कर आसानी से इसकी चपेट में आने से बचा जा सकता है . बीमारी का शुरू में पता चल जाए और समय रहते लोग इसका उपचार शुरू करा दे तो आसानी से बचाव संभव है.

शहनाज़ हुसैन
सौंदर्य तन और मन दोनों के स्वागस्य्ी   का आईना है. मेरा यह मानना है कि अच्छा स्वास्थ्य तथा बाहरी सौन्दर्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. यदि आप हर तरह से स्वस्थ नहीं है तो आपकी सुन्दरता में निखार कभी नहीं आ सकता. आकर्षक त्वचा, काले चमकीले बाल तथा छरहरा बदन केवल स्वस्थ होने से ही हासिल किया जा सकते हैं. मैंने समग्र स्वास्थ्य, आर्युवेदिक सिद्धान्तों को योग के माध्यम से ही प्रोत्साहित किया है. इस समग्र सौंदर्य की अनोखी अवधारणा को विश्वभर में सराहा गया. मेरे विचार में वर्तमान आधुनिक जीवनशैली में समग्र स्वास्थ्य तथा सौंदर्य को प्राप्त करने के लिए योग बहुत प्रसांगिक है. वास्तव में योग मेरे व्यक्तिगत जीवन का अभिन्न अंग है तथा मैंने इसके असंख्य लाभ प्राप्त किए है.
सुन्दर त्वचा तथा चमकीले बालों के लिए प्राणायाम योग का महत्वकपूर्ण अंग है. इससे तनाव कम होता है तथा रक्त में आक्सीजन का संचार बढ़ता है. जिससे रक्त संचार में सुधार होता है. उत्ता नासन, उत्क.टासन, शीर्षासन, हलासन तथा सूर्य नमस्कार आन्तरिक तथा बाहरी सौंदर्य को निखारने में अहम भूमिका अदा करते है.
योगासन करने से व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक दोनों रूप से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है. योग से न केवल मांसपेशियां सुदृढ़ होती है बल्कि शरीर में प्राणशक्ति बढ़ती है तथा आन्तरिक अंगों में दृढ़ता आती है तथा नाड़ी तन्त्र को संतुलन मिलता है. योग मानसिक तनाव से मुक्ति प्रदान करता है तथा मानसिक एकाग्रता प्रदान करता है.
योग  प्राचीनकाल की भारतीय विद्या है तथा योग सन्तुलित व्यक्तित्व प्राप्त करने तथा बुढ़ापे को रोकने का प्रभावी उपाय माना जाता है. योग से सांसों पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है तथा योगक्रिया के दौरान सांसों को छोड़ने तथा सांसो को खींचने की विस्तृत वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई जाती है जिससे शरीर में प्राण वायु का संचार होता है. इससे शारीरिक तथा मानसिक आनन्द की अनुभूति प्राप्त होती है. यह सौंदर्य के लिए अति आवश्यक है क्योंकि आनन्द का अहसास ही शारीरिक सौंदर्य का अनिवार्य हिस्सा  है.
योग से रक्त संचार में सुधार आता है जिसकी वजह से त्वचा के बाहरी हिस्से तक रक्त संचार में बढोत्त री  होती है तथा यह त्वचा की सुन्दरता के लिए काफी अहम भूमिका अदा करता है क्योंकि इससे त्वचा को पर्याप्त पोषाहार प्राप्त होता हैं. इससे त्वचा में विषैले पदार्थो को बाहर निकालने में भी मदद मिलती है. इससे त्वचा में रंगत आती है, आक्सीजन का संचार होता है, सुन्दर आभा का संचार होता है, तथा त्वचा में यौवनपन बना रहता है तथा त्वचा अनेक रोगों से मुक्त रहती है. यही प्रक्रिया बालों पर भी लागू होती है.

जहां तक बाहरी रूपरेखा का प्रश्न है, छरहरे बदन से आप काफी युवा दिख सकते हैं तथा लम्बे समय तक यौवन बनाए रख सकते हैं. योग से शरीर के प्रत्येक टिशू को आक्सीजन की आपूर्ति होती है जिससे स्वास्थय तथा सुन्दरता की राहें खुद ही खुल जाती है. यह बात जान लेना जरूरी है कि यदि आपके जीवन में शारीरिक सक्रियता की कमी है तो आप बुढ़ापे को आमंत्रण दे रहे हैं.

यौगिक आसनों से रीढ़ की हड्डी तथा जोड़ों को लचीला तथा कोमल बनाया जा सकता है. इससे शरीर सुदृढ़ तथा फुर्तीला बनता है, मांसपेशिया सुदृढ़ होती है, रक्त संचार में सुधार होता है, शरीर में उत्साह तथा प्राणशक्ति का संचार होता है तथा बाहरी सौंदर्य तथा अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा मिलता है.
सौंदर्य से जुड़ी अनेक समस्याऐं तनाव की वजह से उत्पन्न होती है. योग से तनाव कम होता है तथा शरीर शान्तमय स्थिति में आ जाता है, जिससे तनाव की वजह से होने वाले रोग जैसे बालों का झड़ना, मुंहासे, गंजापन तथा बालों में रूसी की समस्या से स्थाई निजात मिल जाता है. योग आसन को अपनी दैनिक दिनचर्या में शामिल करने वाले  योगसाधकों पर किए गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि योग साधको के व्यक्तित्व, व्यवहार, भावनात्मक स्थायित्व, आत्मविश्वास में सकारात्मक बदलाव देखने में मिलता है. योग का मस्तिष्के, भावनाओं तथा मनोदशा एवं चितवृत्ति पर सीधा प्रभाव पड़ता है. वास्तव में योग नियमित रूप से तनाव को कम करता है तथा आपकी त्वचा में आभा लाता है. योग से आप तत्काल यौवन को ताजगी तथा बेहतर मूड का अहसास करेगें.
 (लेखिका पदमश्री सम्मायनित, ख्याति प्राप्त सौंदर्य विशेषज्ञ हैं)

पेरिस. गरमा-गरम चाय, कॊफ़ी, सूप या हॉट चॉकलेट के शौक़ीन लोगों के लिए एक बुरी ख़बर है. हॉट बेवरेजेस की वजह से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी हो सकती है. संयुक्त राष्ट्र की कैंसर एजेंसी और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह ख़ुलासा किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इस अलर्ट में उस कॉफ़ी को शामिल नहीं किया गया है, जो सामान्य तापमान पर पी जाती है.
इंटर नेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर के निर्देशक क्रिस्टोफर वाइल्ड ने कहा कि रिसर्च के नतीजों से पता चला कि अगर आप बहुत गर्म पेय पदार्थ पीते है,. तो आपको भोजन पदार्थ वाली नली का कैंसर हो सकता है. इसकी वजह शरीर के सामान्य तापमान से ज़्यादा गर्म पेय पदार्थ का लेना है. तक़रीबन एक हज़ार वैज्ञानिकों के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकला है.
कुछ ऐसे तथ्य सामने आए हैं कि अगर पेय पदार्थों को 65 डिग्री से ज़्यादा गर्म हॉट बेवरेज अगर कोई लेता है, तो उसे भोजन की नली में कैंसर की आशंका बढ़ जाती है. हालांकि यह रिसर्च भारत में नहीं की गई है, लेकिन चीन, ईरान, टर्की और दक्षिण अमेरिका में किया गया, जहां चाय व अन्य पेय पदार्थ गर्म पीने का चलन है. वैसे भारत में ज़्यादा गर्म पेय के शौक़ीनों की कमी नहीं है.


फ़िरदौस ख़ान
शुगर एक ऐसा मर्ज़ है, जिससे व्यक्ति की ज़िंदगी बहुत बुरी तरह प्रभावित हो जाती है... वह अपनी पसंद की मिठाइयां, फल, आलू, अरबी और कई तरह की दूसरी चीज़ें नहीं खा पाता... इसके साथ ही उसे तरह-तरह की दवाएं भी खानी पड़ती हैं... दवा कोई भी नहीं खाना चाहता, जिसे मजबूरन खानी पड़ती हैं, इससे उसका ज़ायक़ा ख़राब हो जाता है... इससे व्यक्ति और ज़्यादा परेशान हो जाता है... पिछले कई दिनों से हम शुगर के रूहानी और घरेलू इलाज के बारे में अध्ययन कर रहे हैं... हमने शुगर के कई मरीज़ों से बात की. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे, जो महंगे से महंगा इलाज कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ... कई ऐसे लोग भी मिले, जिन्होंने घरेलू इलाज किया और बेहतर महसूस कर रहे हैं...शुगर के मरीज़ डॊक्टरों से दवा तो लेते ही हैं... लेकिन हम आपको ऐसे इलाज के बारे में बताएंगे, जिससे मरीज़ को दवा की ज़रूरत ही नहीं रहती...

पहला इलाज है जामुन... 
जी हां, जामुन शुगर का सबसे बेहतरीन इलाज है... अमूमन सभी पद्धतियों की शुगर की दवाएं जामुन से बनाई जाती हैं... बरसात के मौसम में जामुन ख़ूब आती हैं. इस मौसम में दरख़्त जामुन से लदे रहते हैं... जब तक मौसम रहे, शुगर के मरीज़ ज़्यादा से ज़्यादा जामुन खाएं... साथ ही जामुन की गुठलियों को धोकर, सुखाकर रख लें... क्योंकि जब जामुन का मौसम न रहे, तब इन गुठलियों को पीसकर सुबह ख़ाली पेट एक छोटा चम्मच इसका चूर्ण फांक लें... जामुन की चार-पांच पत्तियां सुबह और शाम खाने से भी शुगर कंट्रोल में रहती है... जामुन के पत्ते सालभर आसानी से मिल जाते हैं... जिन लोगों के घरों के आसपास जामुन के पेड़ न हों, तो वे जामुन के पत्ते मंगा कर उन्हें धोकर सुखा लें. फिर इन्हें पीस लें और इस्तेमाल करें...

दूसरा इलाज है नीम... 
नीम की सात-आठ हरी मुलायम पत्तियां सुबह ख़ाली पेट चबाने से शुगर कंट्रोल में रहती है... ध्यान रहे कि नीम की पत्तियां खाने के दस-पंद्रह मिनट बाद नाश्ता ज़रूर कर लें... नीम की पत्तियां आसानी से मिल जाती हैं...

तीसरा इलाज है अमरूद... 
 रात में अमरूद के दो-तीन पत्तों को धोकर कूट लें... फिर कांच या चीनी मिट्टी के बर्तन में भिगोकर रख दें...ध्यान रहे कि बर्तन धातु का न हो... सुबह ख़ाली पेट इसे पीने से शुगर कंट्रोल में रहती हैं...

ये तीनों इलाज ऐसे हैं, जो आसानी से मुहैया हैं. शुगर का कोई भी मरीज़ इन्हें अपनाकर राहत पा सकता है... इन तीनों में से कोई भी इलाज करने के एक माह के बाद शुगर का टेस्ट करा लेने से मालूम हो जाएगा कि इससे कितना फ़ायदा हुआ है...
इनके अलावा शुगर के और भी घरेलू इलाज हैं... उनके बारे में फिर लिखेंगे...

सरफ़राज़ ख़ान
नई दिल्ली. भीषण गर्मी के कारण देश में हीट स्ट्रोक के मामलों में इज़ाफ़ा हो रहा है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने गर्मी में मरीजों द्वारा की जाने वाली गलतियों और प्रबंध के बारे में दिशा-निर्देश जारी किए हैं.

हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ हीट स्ट्रोक दो तरह के होते हैं. पहला, वे जो युवा काफ़ी समय तक गर्मी के दौरान मेहनत वाले काम में संलिप्त होते हैं, हीट स्ट्रोक के षिकार होते हैं. हालांकि नॉन एक्जरशनल हीट स्ट्रोक कम सक्रिय रहने वाले वृध्दों या ऐसे लोगों पर अधिक असर डालती है जो बीमार होते हैं या कम उम्र वाले बच्चों में होती हैं.

अगर इस पर समय पर ध्यान नहीं दिया जाए तो सैकड़ों लोग 72 घंटों में जान गंवा सकते हैं. अगर उपचार में देरी हुई तो मृत्यु की संभावना 80 फ़ीसद तक होती है, इसमें भी दस फ़ीसद की कमी की जा सकती है अगर संभावित गलतियों से बचा जाए व जल्द ज़रूरी उपाय कर लिए जाएं.

बीमारी का पता न लगा पाना : यह रेक्टल तापमान है जो कि एग्जिलरी या ओरल तापमान से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है. व्यक्ति को हीट स्ट्रोक हो सकता है जिसमें उपचार न करा पाने की वजह रेक्टल तापमान ना लेना हो सकता है. हीट स्ट्रोक की स्थिति तब होती है जब तापमान 41 डिग्री सेंटीग्रेड (106 डिग्री फारेनहाइट) से अधिक हो और पसीना न आए.

हीट स्ट्रोक को हीट एग्जाशन समझने की भूल : दोनों में फर्क यह है कि हीट स्ट्रोक के दौरान मरीज को पसीना नहीं आता.

धीरे-धीरे तापमान कम होना : उपचार के तौर पर तापमान में कमी का लक्ष्य कम से कम 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति मिनट कम करते हुए करीब 39 डिग्री सेंटीग्रेड (102 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुंचाना होता है.
39 डिग्री से परे लगातार ठंड में रहना : हाइपोथर्मिया से बचाव के लिए 39 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान से कम के वातावरण में रहना चाहिए.

एंटी फीवर दवाएं देना : एंटी फीवर दवाएं पैरासीटामॉल, एस्प्रिन और नॉन स्टीरायॅडल एंटी इन्फ्लेमैटरी की कोई भूमिका नहीं होती. यह दवाएं अगर मरीज लीवर, ब्लड और गुर्दे की समस्या से ग्रसित है, तो नुकसानदायक साबित हो सकती हैं. इनकी वजह से रक्तस्राव भी हो सकता है.

बार-बार तापमान की जांच न करना : व्यक्ति को चाहिए कि वह लगातार रेक्टल तापमान को जांच करता रहे.

एक बार तापमान गिरने के बाद बुखार की जांच न करना : हीट स्ट्रोक के बाद कुछ दिनों तक बुखार रह सकता है. इसलिए जरूरी है कि इस दौरान लगातार शरीर के तापमान की जांच करते रहें.

कपड़े न उतारना : मरीज के सारे कपड़े उतार देने चाहिए, ताकि इवेपोरेशन से तापमान में कमी की जा सके.

सीज़र में फिनाइटॉइन देना : हीट स्ट्रोक में सीजर को काबू करने के लिए फिनाइटॉइन असरकारी नहीं होती.

तापमान को कम करने के लिए क्लोरप्रोमौजीन देना : पहले यह मुख्य उपचार के तौर पर इस्तेमाल होती थी, लेकिन अब इससे परहेज किया जाता है क्योंकि इससे सीजर की आशंका बढ़ जाती है.

मरीज़ के लिए खुद से एंटी कोलीनेर्जिक एंव एंटी हिस्टेमिनिक दवाए लेना : इस मौसम में खुद से एंटी एलर्जी और नाक बहने जैसी समस्याओं में दवाएं लेना हानिकारक साबित हो सकता है. इससे गर्मी का संतुलन गड़बड़ाने के साथ ही जल्द हाइपोथर्मिया भी हो सकता है.

हृदय रोगियों का सावधानी न बरतना : बूढ़े हृदय रोगियों में कार्डियोवैस्कुलर दवाएं जैसे- बीटा ब्लॉकर्स, कैल्शियम चैनल ब्लॉकर्स और डयूरेटिक्स हाइपरथर्मिया को बढ़ा सकता है.

मरीज़ द्वारा ली गई ड्रग्स के बारे में न बताना : कोकीन और एम्फेटामाइन्स जैसी ड्रग्स लेने पर मेटाबॉलिज्म बढ़ने से अधिक गर्मी हो सकती है. ऐसी स्थिति में हीट स्ट्रोक कहीं ज़्यादा घातक साबित हो सकता है.

हल्के तापमान को नज़र अंदाज़ करना : हर व्यक्ति को यह याद रखना चाहिए कि उच्च तापमान तभी आता है जब हल्के बुखार को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है. अगले कुछ दिनों तक अचानक बुखार को स्ट्रोक ही माना जाना चाहिए जब तक कि कुछ और साबित न हो जाए.

ज़्यादा तरल पदार्थ न देना : याद रखें कि ऐसे में आंतरिक अंग जलने की स्थिति में होते हैं और यह आग सिर्फ़ फीवर के साथ ही निकल सकती है. ऐसे मरीज़ों को चाहिए कि वे आंतरिक अंगों को ठंडक पहुंचाने के लिए अधिक से अधिक तरल पदार्थों का सेवन करें.

सिर्फ़ सिर को ठंडा करना : मरीज़ों को बहते हुए नल के नीचे बैठाकर नहलाना चाहिए ना कि सिर्फ पानी लेकर हाथ या सिर को ठंडक पहुंचाएं. आइस मसाज से परहेज़ करना चाहिए, क्योंकि इससे आंतरिक तापमान में कोई कमी नहीं आती.


सरफ़राज़ ख़ान

65 साल ऊपर की उम्र वाली महिलाओं को अपनी सेहत का अतिरिक्त धयान रखना चाहिए. इन महिलाओं को हार्ट अटैक और लकवा से बचाव के लिए एस्पिरिन की हल्की डोज नियमित रूप से लेनी चाहिए.
हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ महिलाओं को कई बातों का धयान रखना चाहिए, जैसे सभी महिलाएं रोजाना कम से कम 30 मिनट तक व्यायाम करें, लेकिन जो महिलाएं वज़न पर काबू रखना चाहती हैं, उन्हें 60 से 90 मिनट तक हफ्ते के ज्यादातर दिन का सातों दिन मध्यम किस्म की एक्सरसाइज करनी चाहिए.
  • फलों, अनाज व फाइबर युक्त भोजन जिसमें अल्कोहल और सोडियम की मात्रा कम हो वह दिल की सेहत के लिए अच्छा होता है. कम मात्रा में खाएं.  
  • प्रतिदिन ली जाने वाली कुल कैलोरी में सैचुरेटेड फैट की मात्रा सात पर्सेंट से कम होनी चाहिए.  
  • महिलाओं को दिल की बीमारियों से बचाव के लिए एनडीएल (खराब) कोलेस्ट्रॉल 70 मिग्रा से कम रखना चाहिए.  
  • 65 से ऊपर की महिलाओं को हार्ट अटैक और स्ट्रोक से बचाव के लिए डॉक्टर की सलाह से नियमित रूप से ऐस्पिरिन लेनी चाहिए, क्योंकि इसमें इन दोनों स्थितियों से बचाव की क्षमता होती है.  
  • 65 साल से कम उम्र की महिलाओं को नियमित रूप से ऐस्पिरिन नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि इस उम्र में इससे सिर्फ स्ट्रोक से बचाव के उदाहरण मिलते हैं.  
  • हाई रिस्क ग्रुप वाली महिलाओं में ऐस्पिरिन की अधाकतम डोज 325 एमजी प्रति दिन है.  
  • हृदय बीमारी से बचाव के लिए हार्मोन रीप्लेसमेंट थेरेपी, चुनिंदा एस्ट्रोजेन रीसेप्टर मॉडयूलेटर या एंटीऑक्सीडेंट सप्लीमेंट्स जैसे विटामिन सी और ई नहीं लेने चाहिए.
  • हृदय रोगों से बचाव के लिए फोलिक एसिड का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.  
  • महिलाओं को हफ्ते में कम से कम दो बार ऑयली फिश या ओमेगा-3 फैटी एसिड वाली कोई अन्य चीज जरूर खानी चाहिए. 
  • महिलाओं को धूम्रपान छोड़ देना चाहिए और इसके बाद दोबारा लत न पड़े इसके लिए काउंसलिंग और निकोटीन रिप्लेसमेंट थेरपी की मदद भी लेनी चाहिए.


सरफ़राज़ ख़ान
नई दिल्ली. हीट स्ट्रोक के बढ़ने और गर्मी से होने वाली अन्य समस्याएं सिर्फ तापमान पर निर्भर नहीं होती बल्कि उनका सम्बंध आद्रता यानी ह्यूमिडिटी से होता है.

हार्ट केयर फाउंडेशन  ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ 44 डिग्री सेंटीग्रेट या 110 डिग्री फारेनहाइट से अधिक तापमान पर जब आपका लगातार सूर्य की रौशनी से साबका हो, तो हीट स्ट्रोक हो सकता है. 40 फीसद की आद्रता के साथ 110 डिग्री फारेनहाइट में 130 डिग्री फारेनहाइट का अहसास होता है और इसे हाई रिस्क रेड जोन के रूप में वर्गीकृत किया गया है.

जब समान तापमान पर आद्रता 30 से 40 फीसद के बीच होती है तब लोग सन स्ट्रोक, हीट स्ट्रोक और हीट एग्जाशन के शिकार होते हैं. फिर भी हीट स्ट्रोक लम्बे समय तक धूप में रहने या शारीरिक काम करने पर भी हो सकता है.

जब तक तापमान 85 डिग्री फारेनहाइट से कम नहीं हो जाता, तब तक ही क्रैम्प, हीट एग्जाशन और हीट स्ट्रोक से निजात मिलने में कमी नहीं आएगी. ऐसी स्थिति में सिर्फ थकान संभव है जो कि लम्बे समय तक खुले में रहने या शारीरिक गतिविधियों में भाग लेने से होती है.

डॉ. अग्रवाल ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति गमी से जुड़ी समस्या का षिकार होता है, तो उसे तरल पदार्थ (जिसमें नींबू पानी नमक के साथ शामिल है) 4 से 8 लीटर तक दिया जाना चाहिए। हीट स्ट्रोक और हीट एग्जाशन में मुख्य फर्क यह है कि हीट स्ट्रोक में पसीना नहीं आता. उच्च तापमान के साथ ही पसीना आने की स्थिति में व्यक्ति को आपातकालीन में दाखिल किया जाना चाहिए, ताकि उसके आंतरिक अंगों को झुलसने से बचाया जा सके.


लिवर को हिंदी में जिगर कहा जाता है. यह शरीर की सबसे महत्वपूर्ण और बड़ी ग्रंथी है. यह पेट के दाहिनी ओर नीचे की तरफ होता है. लिवर शरीर की बहुत सी क्रियाओं को नियंत्रित करता है. लिवर खराब होने पर शरीर की कार्य करने की क्षमता न के बराबर हो जाती है और लिवर डैमेज का सही समय पर इलाज कराना भी जरूरी होता है नहीं तो यह गंभीर समस्या बन सकती है. गलत आदतों की वजह से लीवर खराब होने की आशंका सबसे ज्यादा होती है. जैसे शराब का अधिक सेवन करना, धूम्रपान अधिक करना, खट्टा ज्यादा खाना, अधिक नमक सेवन आदि. सबसे पहले लिवर खराब होने के लक्षणों को जानना जरूरी है. जिससे समय रहते आपको पता रहे और इलाज सही समय पर हो सके.
लिवर को खराब करने वाले महत्वपूर्ण कारण
1. दूषित मांस खाना, गंदा पानी पीना, मिर्च मसालेदार और चटपटे खाने का अधिक सेवन करना.
2. पीने वाले पानी में क्लोरीन की मात्रा का अधिक होना.
3. शरीर में विटामिन बी की कमी होना.
4. एंटीबायोटिक दवाईयों का अधिक मात्रा में सेवन करना.
5. घर की सफाई पर उचित ध्यान न देना.
6. मलेरिया, टायफायड से पीडित होना.
7. रंग लगी हुई मिठाइयों और डिं्रक का प्रयोग करना.
8. सौंदर्य वाले कास्मेटिक्स का अधिक इस्तेमाल करना.
9. चाय, काफी, जंक फूड आदि का प्रयोग अधिक करना.
लिवर खराब होने से शरीर पर ये लक्षण दिखाई देने लगते हैं.
1. लिवर वाली जगह पर दबाने से दर्द होना.
2. छाती में जलन और भारीपन का होना.
3. भूख न लगने की समस्या, बदहजमी होना, पेट में गैस बनना.
4. शरीर में आलसपन और कमजोरी का होना.
5.लीवर बड़ा हो जाता है तो पेट में सूजन आने लगती है , जिसको आप अक्सर मोटापा समझने की भूल कर बैठते हैं.
6. मुंह का स्वाद खराब होना आदि
प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा लिवर को ठीक करने के उपाय. इन उपायों के द्वारा लिवर के सभी तरह के कार्य पूर्ण रूप से सही कार्य करने लगते हैं. लिवर को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है टाॅक्सिंस वायरस. इसलिए लिवर का उपचार करने से पहले रोगी का खून साफ होना जरूरी है ताकी लिवर पर जमें दूषित दोष नष्ट हो सके और लीवर का भार कम हो सके. इसलिए रोगी को अतरिक्त विश्राम की जरूरत होती है.
प्राकृतिक चिकित्सा कैसे करें?
सुबह उठकर खुली हवा में गहरी सांसे ले. प्रातःकाल उठकर कुछ कदम पैदल चलें और चलते चलते ही खुली हवा की गहरी सांसे लें. आपको लाभ मिलेगा.
सप्ताह में सरसों की तेल की मालिश पूरे शरीर में करें. मिट्टी का लेप सप्ताह में एक बार पूरे शरीर पर जरूर लगाएं. आप सप्ताह में एक बार वाष्प का स्नान भी लें. सन बाथ भी आप कर सकते हो.
आहार चिकित्सा
लिवर संबंधी बीमारी को दूर करने में आहार चिकित्सा भी जरूरी है. यानि क्या खाएं और कितनी मात्रा में खायें यह जानना भी जरूरी हैं. लिवर की बीमारी से परेशान रोगीयों के लिए ये आहार महत्वपूर्ण होते हैं.
लिवर की बीमारी में जूस का सेवन महत्वपूर्ण माना जाता है. लिवर के रोगी को नारियल पानी, शुद्ध गन्ने का रस, या फिर मूली का जूस अपने आहार में शामिल करना चाहिए. पालक, तोरई, लौकी, शलजम, गाजर, पेठा का भी जूस आप ले सकते हो.
दिन में 3 से 4 बार आप नींबू पानी का सेवन करें. सब्जियों का सूप पीएं, अमरूद, तरबूज, नाशपाती, मौसमी, अनार, सेब, पपीता, आलूबुखारा आदि फलों का सेवन करें.
सब्जियों में पालक, बथुआ, घीया, टिंडा, तोरई, शलजम, अंवला आदि का सेवन अपने भोजन में अधिक से अधिक से करें. सलाद, अंकुरित दाल को भी अधिक से अधिक लें. भाप में पके हुए या फिर उबले हुए पदार्थ का सेवन करें.
लिवर की बीमारी को दूर करने के लिए आप इन चीजों का सेवन अधिक से अधिक करें.
जामुन लिवर की बीमारी को दूर करने में सहायक होता है. प्रतिदिन 100 ग्राम तक जामुन का सेवन करें. सेब का सेवन करने से भी लिवर को ताकत मिलती है. सेब का सेवन भी अधिक से अधिक करें. गाजर का सूप भी लिवर की बीमारियों को दूर करने में सहायक होता है. यदि लिवर में सूजन है तो खरबूजे का प्रयोग अधिक से अधिक करें. पपीता भी लिवर को शक्ति देता है.
आंवला विटामिन सी के स्रोतों में से एक है और इसका सेवन करने से लीवर बेहतर तरीके से कम करने लगता है . लीवर के स्वास्थ्य के लिए आपको दिन में 4-5 कच्चे आंवले खाने चाहिए. एक शोध साबित किया है कि आंवला में लीवर को सुरक्षित रखने वाले सभी तत्व मौजूद हैं.
लीवर की बीमारियों के इलाज के लिए मुलेठी एक कारगर वैदिक औषधि है . मुलेठी की जड़ को पीसकर पाउडर बनाकर इसे उबलते पानी में डालें. फिर ठंड़ा होने पर साफ कपड़े से छान लें. इस चाय रुपी पानी को दिन में एक या दो बार पिएं.
पालक और गाजर का रस का मिश्रण लीवर सिरोसिस के लिए काफी फायदेमंद घरेलू उपाय है. गाजर के रस और पालक का रस को बराबर भाग में मिलाकर पिएं. लीवर को ठीक रखने के लिए इस प्राकृतिक रस को रोजाना कम से कम एक बार जरूर पिएं
सेब और पत्तेदार सब्जियों में मौजूद पेक्टिन पाचन तंत्र में जमे विष से लीवर की रक्षा करता है.
कैसे करें लिवर का बचाव
लिवर (Liver)  का बचाव करने के लिए आपको बस इन आसान कामों को करना है और पूरे नियम से करना है. क्योंकि लिवर शरीर का महत्वपूर्ण हिस्सा है इसलिए आपको अपने जीवनशैली में थोड़ा सा परिवर्तन लाना होगा. ताकि आप लिवर की बीमारी से बच सकें.

जब भी आप सुबह उठें तो 3 से 4 गिलास पानी का सेवन जरूर करें. उसके बाद आप पार्क में टहलें. दिन में हो सके तो 2 से 3 बार नींबू पानी का सेवन करें. लिवर को स्वस्थ रखने के लिए शारीरिक काम भी करते रहें. कभी भी भोजन करते समय पानी का सेवन न करें और खाने के 1 घंटे बाद ही पानी का सेवन करें. चाय, काफी आदि से दूर रहें. किसी भी तरह के नशीली चीजों का सेवन न करें. तले हुए खाने से दूर ही रहें. साथ ही जंक फूड, पैकेज्ड खाने का सेवन न करें.

अनुलोम विलोम प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम को प्रातः जरूर करें. इन सभी बातों को ध्यान में यदि आप रखेगें तो आप लिवर की बीमारी से बचे रहेगें.

लीवर से विषैले पदार्थों को बाहर निकालने के लिए सेब के सिरके का इस्तेमाल करें. खाना खाने से पहले सेब का सिरका पीने से चर्बी कम होती है. एक चम्मच सेब का सिरका एक गिलास पानी में मिलाएं और इसमें एक चम्मच शहद भी मिलाएं. इस मिश्रण को दिन में दो या तीन बार तक पींए.
आंवला भी लिवर की बीमारी को ठीक करता है. इसलिए लिवर को स्वस्थ रखने के लिए दिन में 4 से 5 कच्चे आंवले खाने चाहिए.
साभार


वज़न कम करने के लिए महंगा इलाज करने और महंगे तरीक़े अपनाने की ज़रूरत नहीं है. बिना मेहनत किए भी वज़न कम किया जा सकता है. वज़न कम करने के कुछ आसान घरेलू तरीक़े पेश हैं, जिन्हें आज़मा कर वज़न कम किया जा सकता है.
गर्म पानी के साथ शहद
रोज़ाना सुबह ख़ाली पेट गर्म पानी के साथ शहद पीने से वज़न घटने लगता है. 
नींबू पानी
रोज़ाना सुबह ख़ाली पेट नींबू पानी पीने से भी वज़न तेज़ी से कम होने लगता है. सर्दियों में जिन्हें ठंड या साइनस की परेशानी है, वे पानी को गुनगुना करके उसमें नींबू डालकर ‌पी सकते हैं.
टमाटर-दही का शेक
एक कप टमाटर के रस में एक कप दही (फ़ैट फ्री), आधा चम्मच नींबू का रस, बारीक कटा अदरक, काली मिर्च व स्वादानुसार नमक मिलाकर ब्लेंड कर लें. रोज़ाना सुबह ख़ाली पेट एक गिलास इस शेक को पीने से वज़न कम हो जाता है.
ख़ूब पानी पिएं
दिन में आठ से नौ गिलास पानी पीने से भी वज़न कम करने में मदद मिलती है. कई शोधों में माना गया है कि दिन में आठ से नौ गिलास पानी से 200 से 250 कैलोरी बर्न होती है. 
ग्रीन टी
युनिवर्सिटी ऑफ़ मैरीलैंड मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं ने अपने शोध में माना है कि ग्रीन टी में विशेष प्रकार के पोलीफेनॉल्स पाए जाते हैं, जिससे शरीर में फ़ैट्स को बर्न करने में मदद मिलती है.
करौंदे का रस
करौंदे का रस भी वज़न घटाने में बहुत फ़ायदेमंद है. इससे शरीर का मेटाबॉलिज़्म ठीक रहता है और फ़ैट्स कम करने में आसानी होती है.
धनिया और नींबू का रस
रोज़ाना सुबह ख़ाली पेट हरे धनिये और नींबू का रस पीने से वज़न तेज़ी से घटने लगता है. 
सामग्री : 60 ग्राम हरा धनिया (मसला हुआ), 1 नींबू, 4 गिलास पानी. एक बर्तन में नींबू को दो हिस्सों में काटकर निचोड़ें. उसमें मसला हुआ धनिया और पानी मिला लें. इसे अच्छी तरह से मिला लें. इसे ख़ाली पेट लगातार पांच दिन तक लें. इससे जूस को 5 दिन तक लगातार खाली पेट लेने से आप तक़रीबन 5 किलो वज़न कम कर सकते हैं.


फ़िरदौस ख़ान
देश की नदियां दिनोदिन प्रदूषित होती जा रही हैं. जल प्रदूषण रोकने के लिए क़ानून तो बने, लेकिन उन पर अमल नहीं किया गया. मुंबई का कचरा समुद्र और कालू नदी में बहाया जा रहा है. इसी तरह दिल्ली की गंदगी यमुना, कोलकाता की हुगली और दामोदर में, चेन्नई की कुअम में, बनारस, हरिद्वार, कानपूर की गंदगी गंगा में डाली जा रही है. नतीजतन, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, गोदावरी सहित देश की 27 नदियां जल प्रदूषण की चपेट में हैं. जल प्रदूषण सेहत के लिए बेहद ख़तरनाक है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ दुनिया भर में हर साल डेढ़ करोड़ लोग प्रदूषित जल के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं. भारत में प्रति लाख पर तक़रीबन 360 लोगों की मौत हो जाती है. अस्पतालों में दाख़िल होने वाले मरीज़ों में से 50 फ़ीसद मरीज़ ऐसे होते है, जिनकी बीमारी की वजह दूषित पानी होता है. अविकसित देशों की हालत तो और भी ज़्यादा बुरी है, क्योंकि यहां 80 फ़ीसद बीमारियों का कारण दूषित पानी है. जल प्रदूषण से इंसान ही नहीं, जलीय जीव-जंतु, जलीय पादप और पशु-पक्षी भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं.
जल प्रदूषण का असर लोगों की रोज़मर्राह की ज़िन्दगी पर भी पड़ रहा है. हाल में यमुना के पानी में अचानक अमोनिया की मात्रा बढ़ने की वजह से दिल्ली के वज़ीराबाद और चंद्रावल जल शोधन संयंत्रों को बंद कर बंद करना पड़ा. इन संयंत्रों के बंद होने से 222 एमजीडी (मिलियन गैलन प्रतिदिन) पेयजल की आपूर्ति रुक गई. वज़ीराबाद जल शोधन संयंत्र की क्षमता 124 एमजीडी और चंद्रावल जल शोधन संयंत्र की क्षमता 98 एमजीडी है.
इसकी वजह से दिल्ली के एनडीएमसी सहित उत्तरी दिल्ली, उत्तर-पश्चिम दिल्ली, मध्य दिल्ली और पश्चिमी और दक्षिणी दिल्ली के कई इलाक़े प्रभावित हो गए, जिनमें चांदनी चौक, आज़ाद मार्केट, सदर बाज़ार, दरियागंज,  जामा मस्जिद, सिविल लाइंस, सुभाष पार्क, मुखर्जी नगर, शक्ति नगर, आदर्श नगर, मॉडल टॉउन, जहांगीरपुरी, वज़ीरपुर इंडस्ट्रीयल एरिया, पंजाबी बाग़, गुलाबी बागग़, हिन्दूराव, झंडेवालान, मोतिया ख़ान, पहाड़गंज, करोलबाग़, ओल्ड राजेंद्र नगर, नया बाज़ार, ईस्ट और वेस्ट पटेल नगर, मल्कागंज और वज़ीराबाद आदि शामिल हैं.

दिल्ली जल बोर्ड के मुताबिक़ पानीपत ड्रेन से प्रदूषित पानी नदी में गिरने की वजह से अमोनिया की मात्रा बढ़ गई. ग़ौरतलब है कि अमोनिया एक तीक्ष्ण गंध वाली रंगहीन गैस है. यह हवा से हल्की होती है और इसका वाष्प घनत्व 8.5 है. यह जल में अति विलेय है. अमोनिया के जलीय घोल को लिकर अमोनिया कहा जाता है. यह प्रकृति क्षारीय होती है. कई रसायनों और रासायनिक खादों को बनाने में अमोनिया का इस्तेमाल किया जाता है. बर्फ़ के कारख़ाने में शीतलक के रूप में अमोनिया का इस्तेमाल होता है. अमोनिया गैस बहुत ज़हरीली होती है. इसे सूंघने पर इंसान की जान तक जा सकती है.

इससे पहले जनवरी और 27 दिसंबर में भी यमुना में अमोनिया की मात्रा बढ़ गई थी, जिससे वज़ीराबाद और चंद्रावल जल शोधन संयंत्रों को बंद कर गया था. दिल्ली के बहुत से इलाक़े जल संकट से जूझ रहे हैं. पिछले काफ़ी अरसे से जो जल आपूर्ति की जा रही है, उसका पानी पीने के क़ाबिल नहीं है. पानी को कुछ देर रखने के बाद देखें, तो बर्तन की तली में गंदगी की एक पर्त जम जाती है. जो लोग पैसे वाले हैं, उन्होंने आरओ लगवा रखे हैं, कुछ लोग बाज़ार से पानी की बोतलें ख़रीदते हैं. जो ये सब नहीं कर सकते, वो पानी को उबालकर, छानकर इस्तेमाल कर रहे हैं. महिलाओं का कहना है कि गैस भी कोई सस्ती नहीं है. पानी गर्म करने की वजह से उनका सिलेंडर जल्द ख़त्म हो जाता है.

यमुना में अमोनिया का स्तर बढ़ने पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल (एनजीटी) ने दिल्ली जल बोर्ड को फटकार लगाते हुए जवाब तलब किया था. एक रिपोर्ट के आधार पर ग्रीन बेंच ने दिल्ली जल बोर्ड से पूछा था कि अमोनिया स्तर बढ़ने के मामले पर आपका पक्ष क्या है? इस संबंध में अभी तक आपने क्या किया? बोर्ड के वकील इन सवालों का संतोषजनक जवाब न दे सके. इसके बाद बेंच ने पर्यावरण मंत्रालय, जल संसाधन मंत्रालय और दिल्ली जल बोर्ड के आला अधिकारियों को तलब किया था.  बेंच ने इस मामले में निर्मल यमुना पुनरुद्धार योजना-2017 के चेयरमैन एवं दिल्ली जल बोर्ड के सीईओ को भी तलब किया था. क़ाबिले-ग़ौर है कि निर्मल यमुना पुनरुद्धार योजना के लिए बनाई गई प्रधान समिति में पर्यावरण मंत्रालय के सचिव, जल संसाधन मंत्रालय के संयुक्त सचिव, दिल्ली के मुख्य सचिव, डीडीए के वाइस चेयरमैन, दिल्ली नगर निगमों के कमिश्नर्स, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के राज्य सचिव को शामिल किया गया था. पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि यमुना में अमोनिया का स्तर 2 से 2.5 पार्ट्स प्रति मिलियन (पीपीएम) पाया गया है. इसके बाद दिल्ली जल मंत्री कपिल मिश्रा ने केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती को पत्र लिखकर बताया था कि अगर अमोनिया की मात्रा 0.5 पीपीएम या उससे ज़्यादा हुई, तो यह पानी सेहत के लिए काफ़ी नुक़सानदएह हो सकता है. अगर उच्च अमोनिया युक्त पानी में शोधन के लिए क्लोरीन मिलाया जाए, तो यह कैंसर पैदा कर सकता है.

एनजीटी ने बीते साल दिल्ली सरकार और संबंधित प्राधिकरणों से यमुना के शोधन मामले में एसटीपी, सीईटीपी के लिए ख़र्च की गई रक़म का हिसाब मांगा था. वहीं दिल्ली जल बोर्ड ने बताया था कि उसका सालाना बजट 1400 करोड़ रुपये का है. यमुना की सफ़ाई के तमाम सरकारी दावों के बावजूद यह नदी एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है. कुछ ही दिनों बाद गर्मी का मौसम शुरू हो जाएगा. दिल्ली को ज़्यादा पानी की ज़रूरत होगी. अगर यही हाल रहा, तो एक प्रदूषित यमुना लोगों के गले कैसे तर कर पाएगी.


फ़िरदौस ख़ान
रात में कुछ देर के लिए बिजली चले जाए, तो लोग बेहाल हो जाते हैं. रौशनी के लिए वे क्या कुछ नहीं करते. रौशनी के बिना ज़िन्दगी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता है. लेकिन इस दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने कभी रौशनी नहीं देखी, वे नहीं जानते कि रौशनी होती कैसी है या रौशनी किस चीज़ को कहते हैं.
महाराष्ट्र के वर्धा शहर के रहने वाले सुरेश मूलचंद चौधरी ने कभी उजाला नहीं देखा. वह जन्मजात नेत्रहीन हैं.  क़रीब 56 साल के सुरेश संगीत शिक्षक हैं. उनके माता-पिता की आंखें बिल्कुल सही थीं. उनकी दो बहनें और चार भाई भी ठीक हैं. वह बताते हैं कि नेत्रहीनता की वजह से उन्हें बहुत ही परेशानियों का सामना करना पड़े. हालांकि उनके माता-पिता और भाई-बहनों ने उनका बहुत साथ दिया, लेकिन इसके बावजूद वह अकसर ख़ुद को अलग-थलग महसूस करते थे.
उन्होंने संगीत को अपनी ज़िन्दगी बना लिया और फिर इसी में खो गए. उन्होंने संगीत में विशारद की उपाधि हासिल की. उनका विवाह हुआ. उनकी पत्नी ने उन्हें ज़िन्दगी की हर ख़ुशी देने की कोशिश की. एक तरह से वही उनकी आंखें बन गई और वह अपनी पत्नी की आंखों से ही दुनिया देखने लगे. साल 1997 में उनकी पत्नी का निधन हो गया और एक बार फिर से वह अकेले हो गए. वह घर में ही एक संगीत विद्यालय चला रहे हैं. वह बताते हैं कि वह अपनी पोती और अपने विद्यार्थियों के साथ बहुत ख़ुश रहते हैं. उन्होंने संगीत का जो ज्ञान पाया है, उसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने के काम में लगे हुए हैं. इससे उन्हें जहां कुछ आमदनी हो जाती है, वहीं दिली सुकून भी हासिल होता है.
वह बताते हैं कि उन्हें आंखें मिल रही थीं, लेकिन चिकित्सकों ने कहा कि वह जन्मजात नेत्रहीन हैं, इसलिए उन्हें किसी और की आंखें नहीं लगाई जा सकतीं. वह ईश्वर का शुक्र अदा करते हुए कहते हैं कि उनके बच्चे नेत्रहीन नहीं हैं. नेत्रहीन लोगों से वह यही कहना चाहते हैं कि वे अपने मन की आंखों से दुनिया को देखें.

दुनियाभर में तक़रीबन पांच करोड़ लोग नेत्रहीन हैं. भारत में नेत्रहीनों की तादाद सवा करोड़ के आसपास है, जबकि 80 लाख लोग ऐसे हैं, जिनकी एक आंख ठीक है और दूसरी आंख से वह नहीं देख पाते. कई करोड़ लोग नेत्र संबंधी बीमारियों से पीड़ित हैं. देश में क़रीब 60 फ़ीसद मामलों में मोतियाबिंद इसके लिए ज़िम्मेदार है, 20 फ़ीसद मामलों में बिम्ब में कमी और 6 फ़ीसद मामलों में कालामोतिया नेत्रहीनता की अहम वजह है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ‘विज़न 2020 पहल’ में मोतिया और बाल नेत्र रोग को नेत्रहीनता का प्रमुख कारण माना है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि दान में मिली 30 फ़ीसद आंखों की नेत्रहीनों को लगाई जाती हैं, जबकि बाक़ी 70 फ़ीसद आंखें बेकार चली जाती हैं. इसकी वजह यह है कि गंभीर बीमारियों के शिकार लोगों की आंखें किसी दूसरे नेत्रहीन व्यक्ति को नहीं लगाई जा सकतीं. राष्ट्रीय अंधता नियंत्रण कार्यक्रम (एनपीसीबी) की 2012-13 की रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2012-13 में केवल 4,417 कार्निया उपलब्ध थे, जबकि हर साल तक़रीबन 80 हज़ार से एक लाख के बीच लोगों को इनकी ज़रूरत होती है.  चिकित्सकों का कहना है कि आज के दौर में एक व्यक्ति की दो आंखों से 6 लोगों की आंखों की रौशनी लौटाई जा सकती है. एक आंख के अलग-अलग हिस्सों को तीन लोगों की आंखों में इस्तेमाल कर सकते हैं. कॉर्निया आंख की पुतली के ऊपर शीशे की तरह की एक परत होती है. कॉर्निया आंख में संक्रमण, चोट लगने और बचपन में पोषण की कमी की वजह से क्षतिग्रस्त हो सकती है. कॉर्निया के क्षतिग्रस्त होने से जिसकी आंखों की रौशनी चली जाती है, उसे कॉर्निया प्रत्यारोपण के बाद रौशनी लौटाई जा सकती है.

देश में नेत्रदान को प्रोत्साहित करने के लिए मुहिम चलाई जा रही है, ताकि मृतकों की आंखें उन लोगों को लगाई जा सकें, जो किसी भी वजह से अपनी आंखों की रौशनी खो चुके हैं. हालांकि मुहिम कुछ  हद तक कामयाब भी हो रही है और लोग अपनी आंखें दान भी कर रहे हैं. लेकिन इस मुहिम को उतनी कामयाबी नहीं मिल पा रही है, जितनी मिलनी चाहिए. इसकी सबसे बड़ी वजह रूढ़िवादिता और अंधविश्वास है. कुछ लोगों का मानना है कि आंखें दान करना गुनाह है. जब वे अपनी क़ब्रों से उठाए जाएंगे, तो वे अंधे उठेंगे. इसलिए वे आंखें या अन्य अंग दान करने के ख़िलाफ़ हैं. भावनात्मक कारणों से भी लोग आंखें दान नहीं करते. वे नहीं चाहते कि उनके परिजन की आंखें निकाली जाएं.
ऐसे मामले भी सामने आते हैं, जिनमें अमुक व्यक्ति ने तो अपनी आंखें दान कर दी थीं, लेकिन मरणोपरांत उसके परिजन नेत्रदान के लिए तैयार नहीं होते. कई मामलों में परिवार वाले अंगदान केंद्रों को इस बारे में कोई जानकारी मुहैया नहीं कराते. अंग दान के मामले में सबसे पहला काम डोनर कार्ड पर हस्ताक्षर करना है. इस कार्ड में दान कर्ता का नाम और पता लिखा होता है. यह कार्ड इस बात का गवाह है कि व्यक्ति अपना अंग दान करना चाहता है. यह भी ज़रूरी है कि अंगदान की इच्छा के बारे में व्यक्ति अपने परिवार के लोगों और अपने मित्रों को इसकी जानकारी दे, वरना उसकी मौत के बाद उसकी अंगदान की इच्छा पूरी नहीं हो पाएगी. ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है, ताकि व्यक्ति की मौत के बाद परिवार के सदस्य अंगदान केंद्र को सूचना दे सकें और अंगदान की सहमति भी दे सकें. दरअसल, परिवार की मंज़ूरी मिलने के बाद ही अंग दान के फ़ैसले को आख़िरी माना जाता है.

ग़ौरतलब है कि केंद्र सरकार ने साल 1976 में नेत्रहीनता को नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया था. इसका मक़सद कुल आबादी की 0.3  फ़ीसद की व्यापकता दर हासिल करना था. नेत्रहीनता को नियंत्रित करने के लिए, देश भर में ज़िला स्तर पर अंधता नियंत्रण संस्थाओं को भी स्थापित किया गया और कई ग़ैर सरकारी संगठन भी भारत में अंधता नियंत्रण के लिए अहम किरदार निभा रहे हैं. इससे मोतियाबिंद का ऑपरेशन करने, स्कूली बच्चों की आंखों का परीक्षण करने और दान में दी गई आंखों को इकट्ठा करने के मामले में कामयाबी मिली है.

चिकित्सकों के मुताबिक़ आंखों को दुष्प्रभावित करने वाले कई प्रमुख रोग हैं, जैसे मोतियाबिंद, ग्लूकोमा, आयु संबंधित मैक्यूलर ह्रास, भेंगापन, अलग हो गया रेटिना, निकट दृष्टि और दीर्घ दृष्टि.  चूंकि आंखें हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं, इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि इन्हें स्वस्थ और रोग मुक्त रखने के लिए सावधानियां बरती जाएं. मसलन, अगर आप कोई ध्यान लगाने वाला क्रियाकलाप कर रहे हों यथा पढ़ाई सिलाई या कंप्यूटर पर काम, तो आधे घंटे के अंतरालों पर अपनी आंखों को कुछ देर के लिए आराम दें. अपनी आंखें बंद करने, अपने काम से हट कर देखने या आकाश में टकटकी लगाने से आंखों का तनाव कम किया जा सकता है. आंखों को हथेलियों से ढक लेने से भी थकी हुई आंखों को आराम मिलता है. पढ़ते वक़्त या कंप्यूटर की स्क्रीन पर देखते वक़्त बार-बार आंखें मिचकाने से भी आंखों पर ज़्यादा ज़ोर नहीं पड़ता. सूरज की तेज़ रौशनी, धुएं, धूल और आंखों को नुक़सान पहुंचाने वाली अन्य चीज़ों से दूर रहकर भी आंखों को सही रखा जा सकता है.

देशभर में समय-समय पर आंखों की जांच और आंखों के ऒपरेशन के लिए शिविर लगाए जाते हैं. ऐसे शिविरों में ग़लत ऒपरेशन से लोगों की बची-खुची रौशनी भी ख़त्म हो जाने के मामले सामने आते रहते हैं. इसलिए बेहतर है कि आप इन शिविरों में आंखों की जांच भले ही करा लें, लेकिन ऒपरेशन किसी अस्पताल में चिकित्सक से ही कराना चाहिए.

बहरहाल, अंधता निवारण के लिए अभी बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है. आंखों की सही देखभाल से जहां आंखों की बीमारियों से बचा जा सकता है, वहीं आंखें दान करने से उन लोगों की ज़िन्दगी में फिर से उजाला किया जा सकता है, जो किसी भी वजह से अपनी आंखों की रौशनी खो चुके हैं.


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