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फ़िरदौस ख़ान
ये कहानी है दिल्ली के ’शहज़ादे’ और हिसार की ’शहज़ादी’ की. उनकी मुहब्बत की... गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शाह तुगलक़ ने अपनी महबूबा के रहने के लिए किया था...यह किसी भी महबूब का अपनी महबूबा को परिस्तान में बसाने का ख़्वाब ही हो सकता था और जब गूजरी महल की तामीर की गई होगी...तब इसकी बनावट, इसकी नक्क़ाशी और इसकी ख़ूबसूरती को देखकर ख़ुद वह भी इस पर मोहित हुए बिना न रह सका होगा...

हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है. गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है. ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका. हिसार का गूजरी महल 1354 में फ़िरोज़शाह तुग़लक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया. गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है. इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था. ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फिरोज़शाह तुग़लक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है.

गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक ने क़िला बनवाया. यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया. क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं. दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़शाह तुग़लक का महल बताई जाती है. इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है. अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था. गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी.

सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है. हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते. यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है. फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे. शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे. उस वक़्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे. दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था. उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी. चारों तरफ़ घना जंगल था. गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था. आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी. इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी. डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे. डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था.

एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा. उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा, तो उस पर मोहित हो गया. गूजर कन्या भी शहज़ादा फ़िरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया. फ़िरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंज़ूरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती. फ़िरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा.

1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना. फ़िरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था. सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया. उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, क़िलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की. उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए. उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे.

दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़शाह तुग़लक ने महल हिसार इलाक़े में महल बनवाने की योजना बनाई. महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों. यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया. बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी. दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी. तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था.

किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई. दिल्ली के कोटला फ़िरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं. तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि हिसार को फ़िरोज़शाह तुग़लक के वक़्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फ़िरोज़ा नामक क़िला बनवाया था. 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'. इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था. अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है. इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-

सुनने की फुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं...

फ़िरदौस ख़ान
सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है... हमारे पीर की ख़ानकाह में बसंत पंचमी मनाई गई... बसंत का साफ़ा बांधे मुरीदों ने बसंत के गीत गाए... हमने भी अपने पीर को मुबारकबाद दी...

बसंत पंचमी के दिन मज़ारों पीली चादरें चढ़ाई जाती हैं, पीले फूल चढ़ाए जाते हैं... क़व्वाल पीले साफ़े बांधकर हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीत गाते हैं...
कहा जाता है कि यह रिवायत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने शुरू की थी... हुआ यूं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) को अपने भांजे सैयद नूह की मौत से बहुत सदमा पहुंचा और वह उदास रहने लगे. हज़रत अमीर ख़ुसरो से अपने पीर की ये हालत देखी न गई... वह उन्हें ख़ुश करने के जतन करने लगे... एक बार हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे... उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पास हिन्दू श्रद्धालु नाच-गा रहे हैं... ये देखकर हज़रत अमीर ख़ुसरो को बहुत अच्छा लगा... उन्होंने इस बारे में मालूमात की कि तो श्रद्धालुओं ने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वे लोग देवी सरस्वती पर पीले फूल चढ़ाने जा रहे हैं, ताकि देवी ख़ुश हो जाए...
इस पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने सोचा कि वह भी अपने औलिया को पीले फूल देकर ख़ुश करेंगे... फिर क्या था. उन्होंने पीले फूलों के गुच्छे बनाए और नाचते-गाते हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) के पास पहुंच गए... अपने मुरीद को इस तरह देखकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई... तब से हज़रत अमीर ख़ुसरो बसंत पंचमी मनाने लगे..

फ़िरदौस ख़ान
भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है. इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है. यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने की क़गार पर है.

कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है. कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी. कहानी 'सिंहासन बत्तीसी' में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है. सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ. आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुंच चुकी है. इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है. वहां कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है.

भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फ़रहाद की कथाएं ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं. रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफ़ी बदलाव आ गया है. अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ़्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है.

छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़ों, रंग-बिरंगे कपड़ों पर गोटे और बारीक काम से बनी कठपुतलियां हर किसी को मुग्ध कर लेती हैं. कठपुतली के खेल में हर प्रांत के मुताबिक़ भाषा, पहनावा व क्षेत्र की संपूर्ण लोक संस्कृति को अपने में समेटे रहते हैं. राजा-रजवाड़ों के संरक्षण में फली-फूली इस लोककला का अंग्रेजी शासनकाल में विकास रुक गया. चूंकि इस कला को जीवित रखने वाले कलाकार नट, भाट, जोगी समाज के दलित वर्ग के थे, इसलिए समाज का तथाकथित उच्च कुलीन वर्ग इसे हेय दृष्टि से देखता था.

महाराष्ट्र को कठपुतली की जन्मभूमि माना जाता है, लेकिन सिनेमा के आगमन के साथ वहां भी इस पारंपरिक लोककला को क्षति पहुंची. बच्चे भी अब कठपुतली का तमाशा देखने की बजाय ड्राइंग रूम में बैठकर टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. कठपुतली को अपने इशारों पर नचाकर लोगों का मनोरंजन करने वाले कलाकर इस कला के क़द्रदानों की घटती संख्या के कारण अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर हैं. अनके परिवार ऐसे हैं, जो खेल न दिखाकर सिर्फ़ कठपुतली बनाकर ही अपना गुज़र-बसर कर रहे हैं. देश में इस कला के चाहने वालों की तादाद लगातार घट रही है, लेकिन विदेशी लोगों में यह लोकप्रिय हो रही है. पर्यटक सजावटी चीज़ों, स्मृति और उपहार के रूप में कठपुतलियां भी यहां से ले जाते हैं, मगर इन बेची जाने वाली कठपुतलियों का फ़ायदा बड़े-बड़े शोरूम के विक्रेता ही उठाते हैं. बिचौलिये भी माल को इधर से उधर करके चांदी कूट रहे हैं, जबकि इनको बनाने वाले कलाकर दो जून की रोटी को भी मोहताज हैं.

कठपुतली व अन्य इसी तरह की चीज़ें बेचने का काम करने वाले बीकानेर निवासी राजा का कहना है कि जीविकोपार्जन के लिए कठपुतली कलाकारों को गांव-क़स्बों से पलायन करना पड़ रहा है. कलाकरों ने नाच-गाना और ढोल बजाने का काम शुरू कर लिया है. रोज़गार की तलाश ने ही कठपुतली कलाकरों की नई पीढ़ी को इससे विमुख किया है. जन उपेक्षा व उचित संरक्षण के अभाव में नई पीढ़ी इस लोक कला से उतनी नहीं जुड़ पा रही है जितनी ज़रूरत है. उनके परिवार के सदस्य आज भी अन्य किसी व्यवसाय की बजाय कठपुतली बनाना पसंद करते हैं. वह कहते हैं कि कठपुतली से उनके पूर्वजों की यादें जुड़ी हुई हैं. उन्हें इस बात का मलाल है कि प्राचीन भारतीय संसकृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के तमाम दावों के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.

पुरानी फ़िल्मों और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में कठपुतलियों का अहम किरदार रहा है, मगर वक़्त के साथ-साथ कठपुतलियों का वजूद ख़त्म होता जा रहा है. इन विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बात यह है कि कठपुतली कला को समर्पित कलाकारों ने उत्साह नहीं खोया है. भविष्य को लेकर इनकी आंखों में इंद्रधनुषी सपने सजे हैं. इन्हें उम्मीद है कि आज न सही तो कल लोककलाओं को समाज में इनकी खोयी हुई जगह फिर से मिल जाएगी और अपनी अतीत की विरासत को लेकर नई पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटेगी.


डॉ. मोहम्मद आल अहमद                     
सन् 1857 का भयावह काल  वास्तव में भारतीय राष्ट्र की अनगिनत क़ुर्बानियों व बलिदानों की दास्तान है .एक ऐसी दास्तान जिसका आरम्भ बहादुर शाह ज़फ़र के व्यक्तित्व से हुआ -वे कमज़ोर लेकिन पवित्र हाथ-जिन पर देश की जनता ने आस्था रखी, उन पर यकीन रखा जिसकी वजह से ही हम आज हिन्दुस्तान को आज़ाद देख रहे है, वह निश्चित ही हमारे 90 सालों के लम्बे संघर्षों का नतीजा है. इस लम्बी लड़ाई में बहादुर शाह ज़फ़र से लेकर हर उस स्वतंत्रता सेनानी के लिए श्रद्धा से सर झुक जाता है , जिसने देश को स्वराज दिलाने में भूमिका निभाई.

आज़ादी की ख्वाहिश एक ऐसी ख्वाहिश थी जिससे बेरुख़ी, एहसान फ़रामोशी और अवज्ञा ने जन्म दिया. इस भावना के विपरीत अंग्रेजों ने इसे ग़दर का नाम दिया था.

अठारहवीं सदी के मध्य से ही राजाओं और नवाबों की ताक़त छिननी शुरू हो गयी थी, उनकी सत्ता और सम्मान दोनों खत्म होते जा रहे थे, बहुत सारे दरबारों में रेजिडेंट तैनात कर दिए गए थे. मुक़ामी हाकिमों की आज़ादी घटती जा रही थी, उनकी फौजों को मुअत्तल कर दिया गया था, उनके राजस्व वसूली के अधिकार व इलाके एक-एक करके छीने जा रहे थे .

बहुत सारे मुक़ामी हाकिमों ने अपनी भलाई व रियासत की हिफाज़त के लिए कम्पनी के साथ बातचीत भी की .रानी लक्ष्मी बाई चाहती थी कि कम्पनी उनके पति की मृत्यु के उपरान्त उनके दत्तक पुत्र को राजा मान ले. पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने भी कम्पनी से गुज़ारिश  की थी कि उनके पिता को जो पेंशन मिलती थी वह उनकी मौत के बाद उन्हें मिलने लगे, लेकिन कंपनी ने ये सारी गुज़ारिशें ठुकरा दीं. झाँसी की रानी बहुत ही दृढ़ निश्चयी और साहसी महिला थीं उनके लिए क्या खूब किसी शायर ने कहा है-

बड़ी ही शान से की हुक्मरानी . न दुश्मन से दबी झाँसी की रानी ..

फिरंगी नाम ही से कांपते थे    . थी ऐसी शेरनी झाँसी की रानी   ..

कम्पनी ने मुग़लों की हुकूमत को ख़त्म करने का भी पूरा इंतज़ाम कर लिया था. कम्पनी के द्वारा जो सिक्के जारी किये गए उनपर मुग़ल बादशाह का नाम हटा दिया गया, 1849 में गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने ऐलान किया कि बहादुर शाह ज़फ़र की मृत्यु के पश्चात उनके परिवार को लाल किले से बाहर करके दिल्ली में किसी दूसरे जगह पर बसाया जाएगा 1856 में गवर्नर जनरल कैनिंग ने फैसला किया कि बहादुर शाह ज़फ़र अंतिम मुग़ल बादशाह होंगें, उनके मरणोपरांत उनके किसी भी वंशज को बादशाह नहीं माना जाएगा , उन्हें सिर्फ राजकुमार ही माना जाएगा .

31 जनवरी 1857 को मंगल पाण्डेय जो बैरकपुर में अंग्रेज़ी सेना की 34वीं इन्फेंट्री के एक सिपाही थे, को एक सफाईकर्मी द्वारा कारतूस में चर्बी होने की बात पहली बार मालूम हुई .हिन्दुस्तान के उत्तरी भागों में 1857 में ऐसी ही हालत पैदा होगयी थी . प्लासी युद्ध में विजय के 100 साल बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक भारी मुख़ालिफ़त से जूझना पड़ रहा था ,1857 में शुरू हुई इस बग़ावत ने हिंदुस्तान में कम्पनी का वजूद ख़तरे में डाल दिया था. मेरठ से शुरू करके सिपाहियों ने कई जगह बग़ावत की ,समाज के विभिन्न वर्गों के लोग बग़ावती तेवरों के साथ कम्पनी के खिलाफ उठ खड़े हुए.कुछ लोगों द्वारा यह भी माना जाता है कि उन्नीसवीं शताब्दी में उपनिवेशवाद के विरुद्ध दुनिया भर में यह सबसे बड़ा हथियार बन्द आन्दोलन था.

28 फ़रवरी 1857 को 19वीं रेजिमेंट के कमांडर माइकल द्वारा सैनिकों  को परेड के लिए हुक्म दिया गया मगर  सिपाहियों ने इनकार कर दिया .

29 मार्च 1857 को मंगल पाण्डेय ने लेफ्टिनेंट बाग एवं लेफ्टिनेंट जनरल ह्यूसन को गोली मारी .8 अप्रैल 1857 को बैरकपुर में सैनिक न्यायालय द्वारा सज़ा सुनाये जाने  के बाद मंगल पाण्डेय को फांसी दी गयी. मेरठ में तैनात दूसरे भारतीय सिपाहियों के तेवर बहुत ज़बरदस्त रहे.

अंग्रेजों को इन घटनाओं की उम्मीद नहीं थी. उन्हें लगता था कि कारतूसों के मुद्दे पर पैदा हुई उथल-पुथल व नाराज़गी कुछ वक़्त के बाद शांत हो जायेगी ,लेकिन जब बहादुर शाह ज़फ़र ने बग़ावत को अपना सक्रिय समर्थन दे दिया तो हालत बदलने में देर नहीं लगी , रातों रात अंग्रेज़ों का तख़्त हिलने लगा.

31 मई 1857 को सैनिकों ने विद्रोह की शुरुआत करना तय किया गया था,  जिसमें 4 जून 1857 को लखनऊ में बग़ावत , 5 जून 1857 को कानपुर में बग़ावत और 12 जून 1857 को बिहार में बग़ावत की शुरुआत को तेज़ करना तय किया गया था. एक के बाद एक  रेजिमेंट में सिपाहियों ने बग़ावत शुरू कर दी और वे दिल्ली , कानपुर व लखनऊ जैसी ख़ास जगहों पर दूसरी टुकड़ियों का साथ देने निकल पड़े. उनको देखकर कस्बों और गाँवों के लोग भी बग़ावत के रास्ते पर आगे बढ़ने लगे और वे मुक़ामी नेताओं , ज़मींदारों, मुखियाओं के पीछे एकजुट हो गए.

स्वर्गीय पेशवा बाज़ीराव के दत्तक पुत्र नाना साहेब बिठूर में रहते थे और 4 जुलाई 1857 को नाना साहेब की मदद से दो सिपाही रेजिमेंट्स ने  कानपुर के शस्त्रागार और बन्दीगृह पर क़ब्ज़ा कर लिया और बन्दियों को आज़ाद कराया, कानपुर में बहुत से अंग्रेज़ मारे गए . उधर दिल्ली में गोरों ने कश्मीरी दरवाज़े को तोप से उड़ा दिया और नगर में दाखिल हुए, बहादुर शाह ज़फ़र और उनके दो बेटों को क़ैद कर लिया गया .दोनों शहज़ादों को लिबास उतार कर दिल्ली दरवाज़े के सामने भीड़ के समक्ष गोली मारकर उनके सिर धड़ से अलग करके एक ट्रे में ढककर बहादुर शाह ज़फ़र को पेश करने के बाद अंग्रेज अफसर हडसन ने कहा था ‘यह कम्पनी की तरफ़ से आपको एक नायाब भेंट है.’ इस पर बहादुर शाह ज़फ़र ने कहा कि देश को आज़ाद कराने के लिए देश-प्रेमी और उनकी आने वाली नस्लें अपना ख़ून बहाने से रुकने वाली नहीं हैं, यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा, जब तक हमारा मुल्क आज़ाद नहीं हो जाता. इसी हडसन को मुग़ल शहजादों का क़ातिल क़रार देते हुए 10 मार्च 1858 को हज़रत बाग़(हज़रत गंज) में बेगम हज़रत महल के जाबांज़ सिपाहियों ने उसका सिर धड़ से अलग करके महान देशभक्त और स्वतन्त्रता सेनानी व शहीदों के खून का बदला लिया था .

1857 के इस स्वतंत्रता संग्राम  में अंग्रेजों ने कामयाबी तो हासिल कर ली थी,लेकिन उनको एक ज़बरदस्त झटके की अनुभूति हो गयी थी और यह एहसास हो गया था कि अब वे ज़्यादा दिनों तक हिंदुस्तान में नहीं रह पाएंगे , क्योंकि सभी धर्म मिलकर देश की स्वतंत्रता के लिए एक साथ खड़े थे .
(लेखक  इग्नू-सेंटर(लखनऊ) हिन्दी विभाग में  असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)


सरफ़राज़ ख़ान
स्टार न्यूज़ एजेंसी की संपादक फ़िरदौस एवं युवा पत्रकार फ़िरदौस ख़ान ने वंदे मातरम का पंजाबी में अनुवाद किया है. वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है. इसकी रचना बंकिमचंद्र चटर्जी ने की थी. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और वरिष्ठ साहित्यकार मदनलाल वर्मा क्रांत ने वंदे हिन्दी में अनुवाद किया था. भाजपा नेता आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया. गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में हैं. राष्ट्रकवि रबींद्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया था. भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है. इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा कर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेंड है.

वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ
ਤੂੰ ਭਰੀ ਹੈ ਮਿੱਠੇ ਪਾਣੀ ਨਾਲ਼
ਫਲ ਫੁੱਲਾਂ ਦੀ ਮਹਿਕ ਸੁਹਾਣੀ ਨਾਲ਼
ਦੱਖਣ ਦੀਆਂ ਸਰਦ ਹਵਾਵਾਂ ਨਾਲ਼
ਫ਼ਸਲਾਂ ਦੀਆਂ ਸੋਹਣੀਆਂ ਫ਼ਿਜ਼ਾਵਾਂ ਨਾਲ਼
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ…

ਤੇਰੀਆਂ ਰਾਤਾਂ ਚਾਨਣ ਭਰੀਆਂ ਨੇ
ਤੇਰੀ ਰੌਣਕ ਪੈਲ਼ੀਆਂ ਹਰੀਆਂ ਨੇ
ਤੇਰਾ ਪਿਆਰ ਭਿੱਜਿਆ ਹਾਸਾ ਹੈ
ਤੇਰੀ ਬੋਲੀ ਜਿਵੇਂ ਪਤਾਸ਼ਾ ਹੈ
ਤੇਰੀ ਗੋਦ 'ਚ ਮੇਰਾ ਦਿਲਾਸਾ ਹੈ
ਤੇਰੇ ਪੈਰੀਂ ਸੁਰਗ ਦਾ ਵਾਸਾ ਹੈ
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ…
-ਫ਼ਿਰਦੌਸ ਖ਼ਾਨ

मातरम का पंजाबी अनुवाद (देवनागरी में)
मां तैनूं सलाम
तूं भरी है मिठ्ठे पाणी नाल
फल फुल्लां दी महिक सुहाणी नाल
दक्खण दीआं सरद हवावां नाल
फ़सलां दीआं सोहणिआं फ़िज़ावां नाल
मां तैनूं सलाम...

तेरीआं रातां चानण भरीआं ने
तेरी रौणक पैलीआं हरीआं ने
तेरा पिआर भिजिआ हासा है
तेरी बोली जिवें पताशा है
तेरी गोद ’च मेरा दिलासा है
तरी पैरीं सुरग दा वासा है
मां तैनूं सलाम...
-फ़िरदौस ख़ान

वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद (रोमन में)
Ma tainu salam
Tu bhri hain mithe pani naal
Phal phulaan di mahik suhaani naal
Dakhan dian sard hawawaan naal
Faslan dian sohnia fizawan naal
Ma tainu salam...

Tarian raatan chanan bharian ne
Teri raunak faslan harian ne
Tera pyaar bhijia hasa hai
Teri boli jiven patasha hai
Teri god 'ch mera dilaasa hai
Tere pairin surg da vasa hai
Ma tainu salam...
-Firdaus Khan

फ़िरदौस ख़ान का परिचय
फ़िरदौस ख़ान पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. वह कई भाषाओं की जानकार हैं. उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दीं. उन्होंने अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का सम्पादन भी किया. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर उनके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की है. वह देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फीचर्स एजेंसी के लिए लिखती रही हैं. प्रभात प्रकाशन समूह से उनकी 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नाम से एक किताब भी प्रकाशित हो चुकी है.  इसके अलावा वह डिस्कवरी चैनल सहित अन्य टेलीविज़न चैनलों के लिए स्क्रिप्ट लेखन भी करती हैं. उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. इसके अलावा कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी वह शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली. उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रशियन अदब (साहित्य) में उनकी ख़ास दिलचस्पी है. वह मासिक पैग़ामे-मादरे-वतन की भी संपादक रही हैं. फ़िलहाल वह स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं. 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' नाम से उनके दो न्यूज़ पॊर्टल भी हैं.


फ़िरदौस ख़ान
भारत विभिन्न संस्कृतियों का देश है. हर संस्कृति की अपनी-अपनी परंपराएं और अपने रीति-रिवाज हैं. यहां अमूमन सभी त्योहारों और मांगलिक कार्यों में पूरी आस्था के साथ परंपराओं और रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है. यहां जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक संस्कार होते हैं. इन्हीं में से एक संस्कार है पाणिग्रहण. हिंदू धर्म में इसे सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना जाता है. पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है. हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच सात जन्मों का रिश्ता माना जाता है. मंत्रोच्चारण के बीच अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर स्त्री-पुरुष तन और मन से एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं. भारतीय विवाह ख़ास होते हैं, क्योंकि इनमें ढेर सारे रीति-रिवाज होते हैं. ये रस्में विवाह से पहले शुरू हो जाती हैं और विवाह के बाद तक चलती हैं. ये परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं और इनके बिना विवाह पूर्ण नहीं होते, वह चाहे सगाई की रस्म हो, हल्दी- मेहंदी की रस्म हो या फिर दुल्हन की मुंह दिखाई की रस्म. हर परंपरा का अपना अलग महत्व है, अपनी अलग गरिमा और पहचान है. ये रस्में ही तो हैं, जो विवाह को और भी ज़्यादा यादगार बना देती हैं. छोटी-छोटी रस्में यादों में हमेशा के लिए बस जाती हैं.

विवाह से जुड़ी एक अहम रस्म है हल्दी लगाना. विवाह से पहले दुल्हन और दूल्हा हो सुहागिनें हल्दी यानी उबटन लगाती हैं. दुल्हन को उबटन लगाने के लिए दूल्हा के घर से महिलाएं आती हैं. इस उबटन में बेसन, हल्दी, चंदन, केसर और खु़शबू वाला तेल मिलाया जाता है. आजकल तो बाज़ार में तैयार उबटन मिलते हैं. बस उसमें तेल मिलाना होता है. उबटन से दूल्हा और दुल्हन की त्वचा कोमल हो जाती है और रंग भी निखर जाता है. इस रस्म के वक़्त दुल्हन को पीले कपड़े पहनाये जाते हैं और उसे फूलों के गहनों से सजाया जाता है. इसी तरह दुल्हन के घर की महिलाएं दूल्हे को हल्दी लगाने के लिए उसके घर जाती हैं. इस रस्म के बाद दूल्हा और दुल्हन के एक-दूसरे से मिलने पर रोक लग जाती है और यह पाबंदी विवाह तक रहती बनी है. विवाह से एक दिन पहले दूल्हा और दुल्हन को मेहंदी लगाई जाती है. दुल्हन को दूल्हा के घर से आई हुई मेहंदी लगती है. महिलाएं रतजगा करती हैं. रातभर संगीत की महफ़िल सजती है, जिसमें नाच-गाना शामिल होता है. इस दौरान सजी-धजी महिलाएं अपने-अपने हुनर का प्रदर्शन करती हैं. इसी तरह दूल्हा के हाथ पर भी शगुन के तौर पर मेहंदी लगाई जाती है. इस दौरान दूल्हे के घर भी जश्न का माहौल होता है. दूल्हे के दोस्त ख़ूब नाच-गाना करते हैं. अगले दिन शुभ मुहूर्त में मंत्रोच्चारण के बीच स्त्री-पुरुष विवाह के पवित्र बंधन में बंध जाते हैं. वर-वधू अपने बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं. वर-वधू के नाते-रिश्तेदार और मित्र विवाह में शामिल होते हैं. विवाह समारोह के दौरान अनेक छोटी-छोटी रस्में होती हैं. लड़की हमेशा के लिए अपने मायके से जा रही होती है, इसलिए माहौल थोड़ा गंभीर होता है, लेकिन जीजा-सालियों की हंसी-ठिठोली माहौल को ख़ुशनुमा बना देती हैं. वर-वधू का द्वार सालियां व बहनें रोकती हैं. फिर दूल्हे द्वारा उन्हें नेग दिया जाता है. विवाह के बाद दुल्हन की मुंह दिखाई की रस्म होती है, जिसमें ससुराल की महिलाएं दुल्हन का घूंघट खोलकर उसका चेहरा देखती हैं और उसे नेग देती हैं.

ख़ास बात यह भी है कि विवाह की रस्मों में जिन चीज़ों का इस्तेमाल किया जाता है, उनका भी विशेष महत्व होता है, जैसे हल्दी, बेसन, केसर, घी, नारियल, पान, दूध, दही, पानी आदि. विवाह में चावल का भी ख़ूब काम आता है. चावल को शुद्ध और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है. नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद देने के लिए उनके ऊपर चावल छिड़का जाता है. मान्यता है कि चावल शुद्ध होने की वजह से नकारात्मक चीज़ों को दूर भगाता है, इसलिए विवाह के दौरान दूल्हा प्रज्जवलित अग्नि में चावल भी डालता है. कुलदेवी को भी चावल अर्पित किया जाता है. विवाह के बाद विदाई के वक़्त दुल्हन अपने हाथों में चावल भरकर सिर के पीछे की ओर फेंकती है. फिर दुल्हन ससुराल पहुंचकर चावल से भरे कलश को अपने पैरों से गिराकर घर में दाख़िल होती है. इन दोनों रस्मों के ज़रिये दुल्हन यह दुआ करती है कि उसके मायके और ससुराल दोनों में ख़ुशहाली हमेशा बनी रहे. इसी तरह धार्मिक रीति-रिवाजों में पान और सुपारी का भी इस्तेमाल किया जाता है. सुपारी को देवी का प्रतीक माना जाता है, जबकि पान ताज़गी और समृद्धि का प्रतीक है. पान को दूल्हा और दुल्हन के सिर पर लगाया जाता है. दूल्हे के परिवार का स्वागत भी पान से किया जाता है. विवाह की कई रस्मों में पान काम आता है. नारियल भी समृद्धि का प्रतीक माना जाता है. मेहमानों को धन्यवाद के प्रतीक के रूप में पान के साथ नारियल भी दिया जाता है. विवाह के विभिन्न रीति-रिवाजों में पानी का भी ख़ूब इस्तेमाल होता है. पानी शुद्ध नदियों का प्रतीक है. यह जीवन का आधार है. इसके अलावा आम, केला, नीम और तुलसी के पत्तों का इस्तेमाल भी विवाह के विभिन्न रीति-रिवाजों में किया जाता है. इनके पत्ते शुद्धता के प्रतीक हैं. जब दुल्हन गृह-प्रवेश करती है, तो उस वक़्त गुड़ खिलाकर उसका स्वागत किया जाता है, ताकि रिश्तों में हमेशा मिठास बनी रहे. घी को पवित्र माना जाता है और विवाह की रस्मों के दौरान इसका भी ख़ूब इस्तेमाल होता है. विवाह के बाद की कई रस्मों में दही का इस्तेमाल भी होता है. कई रस्मों में दूध भी उपयोग में आता है.

 दरअसल, इन परंपराओं और रीति-रिवाजों के बिना विवाह की खु़शी अधूरी है. ये रस्में माहौल में ख़ुशियों के रंग भर देती हैं. विदेशी भी इन रस्मों के आकर्षण में बंधे यहां विवाह करने के लिए चले आते हैं. ऐसे बहुत से उदाहरण हैं. 23 अक्टूबर, 2010 को ब्रिटिश हास्य अभिनेता रसेल ब्रांड और गायिका कैटी पेरी ने रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान के नज़दीक वैदिक रीति-रिवाज से विवाह किया था. इससे पहले मार्च 2007 में अभिनेत्री लिज हर्ले और व्यापारी अरुण नायर ने जोधपुर में पारंपरिक भारतीय पद्धति से विवाह किया था. हाल में 31 दिसंबर, 2013 को आगरा में फ्रांसीसी जोड़े ने वैदिक रीति से विवाह किया. फ्रांस के रहने वाले जेन क्लाउड और उनकी महिला मित्र नथालिया भारत भ्रमण पर आए थे. दोनों 30 दिसंबर को आगरा पहुंचे. वह ताजमहल देखने गए और शहंशाह शाहजहां और उनकी बेगम मुमताज़ की मोहब्बत की दास्तान सुनकर मुग्ध हो गए. इस प्रेमकथा से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भारतीय रीति-रिवाज से विवाह करने का फ़ैसला कर लिया. जेन क्लाउड और नथालिया दूल्हा, दुल्हन के लिबास में सज-संवर कर कैलादेवी मंदिर में पहुंचे. जेन क्लाउड ने नथालिया को मंगलसूत्र पहनाया और अग्नि के सात फेरे लिए. विवाहित जोड़े का कहना है कि वे भारत की संस्कृति से बहुत प्रभावित हैं. यहां आकर उन्हें पता चला कि भारत में वैदिक रीति से विवाह को सात जन्मों का बंधन माना जाता है. यहां रिश्तों की मिठास और रीति-रिवाजों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया, इसीलिए उन्होंने वैदिक रीति से विवाह किया. इससे पहले 25 दिसंबर, 2013 को मध्य प्रदेश के इंदौर में तीन विदेशी जोड़ों ने हिंदू रीति-रिवाजों के साथ विवाह किया. सभी वर-वधू भारतीय परिधानों में सजे-धजे थे. दूल्हों ने शेरवानी पहनी और साफ़ा बांधा. दुल्हनों ने लाल साड़ी पहनी और खु़द को पारंपरिक गहनों से सजाया. मंडप भी सजा और मंत्रोच्चारण के बीच सात फेरे लेकर वे विवाह के पवित्र बंधन में बंध गए. मैक्सिको की मारिया फ्लांडेज कैस्टिलो ने मैक्सिको के ही डेमियन उगाल्डे को वरमाला पहनाई. इंग्लैंड की लूसी हॉवेल ने आयरलैंड के डर्मोट ग्रीन को वरमाला पहनाई और स्पेन की मेंचू हर्नाडेज ने इंग्लैंड के ओलिवर एलिस को वरमाला पहनाकर हमेशा के लिए अपना बना लिया. इससे क़रीब एक माह पहले 19 नवंबर, 2013 को रूस के सेंट पीर्ट्सबर्ग से आए तीन जोड़ों ने उत्तराखंड के कनखल में वैदिक रीति से विवाह किया. ततियाना शूबेएकोव अपने मंगेतर ऑटोमोबाइल इंजीनियर सरनोव के साथ सात फेरे लिए. उनका कहना है कि उनकी दादी का विवाह धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने कराया था और मां का विवाह प्रख्यात योगाचार्य बीकेएस आयंगर ने संपन्न कराया था. वह भी अपनी दादी और मां की तरह वैदिक रीति-रिवाज के साथ विवाह करना चाहती थीं, इसलिए भारत आईं. प्रोफेसर मैक्सीम ने अपनी मंगेतर येकटरीना से विवाह किया. मैक्सीम और येकटरीना का मानना है कि उनकी शादीशुदा ज़िंदगी ख़ुशहाल रहेगी. उनका कहना है कि भारत ऐसा अद्भुत देश है, जहां एक बार पाणिग्रहण संस्कार हो जाने के बाद जोड़ो को मौत ही जुदा करती है. आना कालीनीना का विवाह उनके मंगेतर व्यापारी अलेक्जेंडर के साथ संपन्न हुआ. आना कालीनीना और उनके मंगेतर अलेक्जेंडर भी वैदिक रीति-रिवाज के साथ विवाह करके बहुत ख़ुश हैं. तीन जोड़ों के विवाह को संपन्न कराने में चार भाषाएं इस्तेमाल की गई थीं. मंत्र संस्कृत में पढ़े गए और उनका अर्थ पंडितजी ने हिंदी में बताया. बाद में इसका अंग्रेजी अनुवाद किया गया, जबकि एक रूसी दुभाषिये ने जोड़ों को रूसी भाषा में मंत्रों का अर्थ समझाया. ये तीनों जोड़े वास्तु सीखने के लिए हरिद्वार आते रहे हैं, इसलिए इस इलाक़े उन्हें लगाव हो गया है. वे कहते हैं कि विवाह के बाद इस जगह से उनका रिश्ता अब और भी गहरा हो गया है.

 इसी तरह 11 मार्च, 2012 को वाराणसी में एक विदेशी जोड़े ने वैदिक रीति से विवाह किया. वाराणसी के कबीरचौरा स्थित एक लॊन में यह विवाह संपन्न हुआ. पेशे से पत्रकार अमेरिका (वाशिंगटन प्रांत) के सिएटल शहर निवासी डोरिक जानसन घोड़ी पर सवार होकर विवाह स्थल पर पहुंचे, जहां सिएटल की एक कंपनी में सीईओ शैरी डांटोनियो लाल जोड़े में सजी उनका का इंतजार कर रही थी. इस मंडप में सरोद वादक विकास महाराज के पुत्र बालम महाराज और वधू सुहाना मिश्रा का विवाह हुआ था. इसी विवाह मंडप में विदेशी युगल ने भी फेरे लिए. विदेशी युगल ने विकास महाराज से हिंदू रीति से विवाह की इच्छा जताई थी. डोरिक के माता-पिता के रूप में भी रस्में विकास महाराज और उनकी पत्नी ने ही निभाईं. 7 मार्च, 2009 में राजस्थान के पुष्कर में स्विट्जरलैंड के पहले से ही शादीशुदा जोड़े ने अपने रिश्ते को और भी मज़बूत करने के लिए वैदिक रीति से विवाह किया. स्विट्जरलैंड निवासी विनसेंट और उसकी पत्नी किकि ने पुष्कर के रावणा राजपूत समाज के चारभुजा मंदिर में वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच अग्नि के समक्ष सात फेरे लगाए और एक दूसरे को वरमाला पहनाई. दोनों से आठ साल पहले प्रेम विवाह किया था. उनका कहना थी कि यह दिन उनके लिए यादगार रहेगा. जून 2004 में जयपुर में स्विटज़लैंड के मारकोस और अलम्सा ने वैदिक रीति से विवाह किया था.  स्विटज़रलैंड के एक ऐसे ही प्रेमी जोड़े ने जयपुर में स्थानीय रीति रिवाज़ से विवाह किया. अलाम्सा का मानना था कि भारत में विवाह ज़्यादा कामयाब हैं, क्योंकि विवाह का अपना पारंपरिक तरीक़ा है. मारकोस का कहना था कि भारतीय विवाह में रौनक़ बहुत होती है, जो उन्हें बहुत पसंद आई. क़ाबिले-ग़ौर है कि सभी विदेशी दुल्हनें भारतीय दुल्हनों की तरह सजती-संवरती हैं. लाल लिबास, मांग में सिंदूर, मेहंदी से सजे हाथों में चूड़ियां, पारंपरिक गहने और फूलों के गजरे लगाए ये दुल्हनें किसी अप्सरा से कम नहीं लगतीं. दूल्हे भी पारंपरिक शेरवानी और साफ़ों में नज़र आते हैं.

इसे विडंबना ही कहेंगे कि आज जब भारतीय युवा अपनी संस्कृति से विमुख होकर पश्चिम की लहर में बह रहे हैं, वहीं विदेशियों में भारतीय संस्कृति और परंपराओं में आस्था बढ़ रही है. हर सल सैकड़ों विदेशी जोड़े भारत आते हैं और वैदिक रीति से विवाह करते हैं. भारतीय प्राच्य विद्या सोसायटी के अध्यक्ष डॉ. प्रतीक मिश्रपुरी के मुताबिक़ वह खु़द साठ विदेशी जोड़ों का वैदिक रीति से विवाह करा चुके हैं. उनका कहना है कि विदेशियों के मन में तलाक़ का डर रहता है. इसलिए वे ऐसी पद्धतियों की तलाश में रहते हैं, जिनसे उनका विवाह लंबे वक़्त तक चल सके. एक अनुमान के मुताबिक़ अकेले राजस्थान में हर साल तक़रीबन तीन सौ विदेशी जोड़े विवाह करते हैं.

यह भारतीय परंपराओं और रीति-रिवाजों का आकर्षण ही है, जो विदेशियों को भी भारत आकर वैदिक रीति से विवाह रचाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. बेशक, यही परंपराएं और रीति-रिवाज हमारी गौरवशाली संस्कृति का प्रतीक हैं. 


“कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका प्रभा में सन 1923 में प्रेमचंद का एक लेख हज़रत अली शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. यह लेख अब तक असंकलित है.”
ज़रत अली की कीर्ति जितनी उज्ज्वल और चरित्र जितना आदर्श है उतना और किसी का न होगा. वह फ़क़ीर, औलिया नहीं थे. उनकी गणना राजनीतिज्ञों या विजेताओं में भी नहीं की जा सकती. लेकिन उन पर जितनी श्रद्धा है, चाहे शिया हो चाहे सुन्नी, उतनी और किसी पर नहीं. उन्हें सर्वसम्मति ने 'शेरे-ख़ुदा’, 'मुश्किल कुशा’ की उपाधियां दे रखी हैं. समरभूमि में मुस्लिम सेना धावा करती है, तो 'या अली’ कहकर. उनकी दीन-वत्सलता की सहस्त्रों किवदंतियां प्रचलित हैं. इस सर्वप्रियता, भक्ति का कारण यही है कि अली शांत प्रकृति, गंभीर,  धैर्यशील और उदार थे.

हज़रत अली हज़रत मुहम्मद के दामाद थे. विदुषी फ़ातिमा का विवाह अली से हुआ था. वह हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई थे. मर्दों में सबसे पहले वही हज़रत मुहम्मद पर विश्वास लाए थे. इतना ही नहीं मुहम्मद का पालन-पोषण उन्हीं के पिता अबूतालिब ने किया था. मुहम्मद साहब को उनसे बहुत प्रेम था और उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनके बाद अली ही ख़िलाफ़त की मसनद पर बिठाए जाएं. पर नियम से बंधे होने के कारण वह इसे स्पष्ट रूप से न कह सकते थे. अली में अमर, अधिकार-भोग की लालसा होती, तो वह मुहम्मद के बाद अपना हक अवश्य पेश करते, लेकिन वह तटस्थ रहे और जनता ने अबूबक्र को ख़लीफ़ा चुन लिया. अबूबक्र के बाद उमर फ़ारूक़ ख़लीफ़ा हुए, तब भी अली ने अपना संतोष-व्रत न छोड़ा. फ़ारूक़ के बाद उस्मान की बारी आई. उस वक़्त अली के ख़लीफ़ा चुने जाने की बहुत संभावना थी, किंतु यह अवसर भी निकल गया, पक्ष बहुत बलवान होने पर भी ख़िलाफ़त न मिल सकी. इस घटना का स्पष्टीकरण इतिहासकारों ने यों किया कि जब निर्वाचक मंडल के मध्यस्थ ने अली से पूछा, 'आप पर ख़लीफ़ा होकर शास्त्रानुसार शासन करेंगे न?’ अली ने कहा, 'यथासाध्य.’ मध्यस्थ ने यही प्रश्न उस्मान से भी किया. उस्मान ने कहा,  'ईश्वर की इच्छा से, अवश्य करूंगा।’ मध्यस्थ ने उस्मान को ख़लीफ़ा बना दिया. मगर अली को अपने असफल होने का लेशमात्र भी दुख नहीं हुआ. वह राज्य कार्य से पृथक रहकर पठन पाठन में प्रवृत्ति हो गए. इतिहास और धर्मशास्त्र में वह पारंगत थे. साहित्य के केवल प्रेमी ही नहीं, स्वयं अच्छे कवि थे. उनकी कविता का अरबी भाषा में आज भी बड़ा मान है, किंतु राज्यकार्य से अलग रहते हुए भी वह ख़लीफ़ा उस्मान को कठिन अवसरों पर उचित परामर्श देते रहते थे.

अरब जाति को इस बात का गौरव है कि उसने जिस देश की विजय की सबसे पहले कृषकों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया. ईराक, शाम, ईरान सभी देशों में कृषकों पर भूपतियों के अत्याचार होते थे. मुसलमानों ने इन देशों में पदार्पण करते ही प्रजा को भूपतियों की निरकुंशता से निवृत्त किया. यही कारण था कि प्रजा मुसलमान विजेताओं को अपना उद्धारक समझती थी और सहर्ष उनका स्वागत करती थी. यही लोग पहुंचते ही नहरे बनवाते थे, कुएं खुदवाते थे, भूमि कर घटाते थे और भांति-भांति की बेगारों की प्रथा को मिटा देते थे. यह नीति ख़लीफ़ा अबूबक्र और ख़लीफ़ा उमर दोनों ही के शासनकाल में होती रही. यह सब अली के ही सत्परामर्शों का फल था. वह पशुबल से प्रजा पर शासन करना पाप समझते थे. उनके हृदयों पर राज्य की भित्ति बनाना ही उन्हें श्रेयस्कर जान पड़ता था.

ख़लीफ़ा उस्मान धर्मपरायण पुरुष थे, किंतु उनमें दृढ़ता का अभाव था. वह निष्पक्षभाव से शासन करने में समर्थ न थे. वह शीघ्र ही अपने कुल वालों के हाथ की कठपुतली बन गए. विशेषत: मेहवान नाम के एक पुरुष ने उन पर अधिपत्य जमा लिया. उस्मान उसके हाथों में हो गए. सूबेदारों ने प्रांतों में प्रजा पर अत्याचार करने शुरू किए. उन दिनों शाम (सीरिया) की सूबेदारी पर मुआविया नियत थे, जो आगे चलकर अली के बाद ख़लीफ़ा हुए. मुआविया के कर्मचारियों ने प्रजा को इतना सताया कि समस्त प्रांत में हाहाकार मच गया. प्रजावर्ग के नेताओं ने ख़लीफ़ा के यहां आकर शिकायत की. मेहवान ने इन लोगों का अपमान किया और उन पर राज-विद्रोह का लांछन लगाया. लेकिन दूतों ने कहा कि जब तक हमारी फ़रियाद न सुनी जाएगी और हमको अत्याचारों से बचाने का वचन न दिया जाएगा हम यहां से कदापि न जाएंगे. ख़लीफ़ा उस्मान को भी ज्ञात हो गया कि समस्या इतनी सरल नहीं है, दूतगंग असंतुष्ट होकर लौटेंगे तो संभव है, समस्त देश में कोई भीषण स्थिति उत्पन्न हो जाए. उन्होंने हज़रत अली से इस विषय में सलाह पूछी. हज़रत अली ने दूतों का पक्ष लिया और ख़लीफ़ा को समझाया कि इन लोगों की विनय-प्रार्थना को सुनकर वास्तविक स्थिति का अन्वेषण करना चाहिए और यदि सूबेदार और उस के कर्मचारियों का अपराध सिद्ध हो जाए, तो धर्मशास्त्र के अनुसार उन्हें दंड देना चाहिए. हम यह कहना भूल गए कि उस्मान बनू उस्मानिया वंश के पूर्व पुरुष थे. इस वंश में चिरकाल तक ख़िलाफ़त रही. लेकिन यह वंश बनू हाशिमिया का सदैव से प्रतिद्वंद्वी था जिसमें हज़रत मुहम्मद उमर अली आदि थे. अतएव उस्मान के अधिकांश सूबेदार सेनानायक बनू उस्मिया वंश के ही थे और वह सब हज़रत अली को सशंक नेत्रों से देखते थे और मन ही मन द्वेष भी रखते थे. हज़रत अली की सलाह इन लोगों को पक्षपातपूर्ण मालूम हुई और वह इस की अवहेलना करना चाहते थे, किंतु ख़लीफ़ा को अली पर विश्वास था, उनकी सलाह मान ली, नेताओं को आश्वासन दिया कि हम शीघ्र ही सूबेदार के अत्याचारों की तहक़ीक़ात करेंगे और तुम्हारी शिकायतें दूर कर दी जाएंगी. उस्मान के बाद हज़रत अली ख़लीफ़ा चुने गए. यद्यपि उन्हें हज़रत मुहम्मद के बाद ही चुना जाना चाहिए था.

ख़िलाफ़त की बागडोर हाथ में लेते ही अली ने स्वर्गवासी उस्मान के नियत किए हुए सूबेदारों को, जो प्रजा पर अभी तक अत्याचार कर रहे थे, पदच्यूत कर दिया और उनकी जगह पर धर्मपरायण पुरुषों को नियुक्त किया. कितनों की ही जागीरें ज़बरदस्ती कर प्रजा को दे दीं, कई कर्मचारियों के वेतन घटा दिए.

मुआविया ने शाम में बहुत बड़ी शक्ति संचित कर ली थी. इसके उपरांत वह सभी आदमी जो परलोकवासी ख़लीफ़ा उस्मान के ख़ून का बदला लेना चाहते थे और हज़रत अली को इस हत्या का प्रेरक समझते थे, मुआविया के पास चले गए थे. 'आस’ का पुत्र 'अमरो’ इन्हीं द्वेषियों में था. अतएव जब अली शाम की तरफ़ बढ़े तो मुआविया एक बड़ी सेना से उनका प्रतिकार करने को तैयार था. हज़रत अली की सेना में कुल 8 हज़ार योद्धा थे. जब दोनों सेनाएं निकट पहुंच गईं, तो ख़लीफ़ा ने फिर 'मुआविया’ से समझौता करने की बातचीत की. पर जब विश्वास हो गया कि लड़ाई के बग़ैर कुछ निश्चय न होगा, तो उनने 'अशतर’ को अपनी सेना का नायक बना कर लड़ाई की घोषणा कर दी. यह शत्रुओं की लड़ाई नहीं, बंधुओं की लड़ाई थी. मुआविया की सेना ने फ़रात नदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और ख़लीफ़ा की सेना को प्यासा मार डालने की ठानी. अशतर ने देखा पानी के बिना सब हताश हो रहे हैं, तो उसने कहला भेजा, 'पानी रोकना युद्ध के नियमों के अनुकूल नहीं है, तुम नदी किनारे से सेना हटा लो.’ मुआविया की भी राय थी कि इतनी क्रूरता न्याय विहीन है, पर उसके दरबारियों ने जिनमें 'आस’ का बेटा 'अमरो’ प्रधान था, उस का विरोध किया. अंत में अशतर ने विकट संग्राम के बाद शत्रुओं को जल तट से हटा कर अपना अधिकार जमा लिया. अब इन लोगों की भी इच्छा हुई कि शत्रुओं को पानी न लेने दें पर हज़रत अली ने इस पाशविक रणनीति का तिरस्कार किया और अशतर को जल तट से हटने की आज्ञा दी.

इसके बाद मुहर्रम का पवित्र मास आ गया. इस महीने में मुसलमान जाति के लड़ाई करना निषिद्ध है. हज़रत अली ने तीन बार अपने दूत भेजे, लेकिन मुआविया ने हर बार यही जवाब दिया कि अली ने उस्मान की हत्या कराई है. वह ख़िलाफ़त छोड़ दें और उस्मान के घातकों को मेरे सुपुर्द कर दें. मुआविया वास्तव में इस बहाने से स्वयं ख़लीफ़ा बनना चाहता था. वह अली के मित्रों को भांति-भांति के प्रलोभनों से फोड़ने की चेष्टा किया करता था. जब मुहर्रम का महीना यों ही गुज़र गया, तो ख़लीफ़ा ने रिसालों की तैयारी की अज्ञा दी और सेना को उपदेश किया कि जब तक वे लोग तुम से न लड़े तुम उन पर कदापि आक्रमण न करना. जब वह पराजित हो जाए, तो भागने वालों का पीछा न करना और न ही उनका वध करना. घायलों का धन न छीनना, किसी को नग्न मत करना और न किसी स्त्री का सतीत्व भ्रष्ट करना, चाहे वे तुम लोगों को गालिया भी दें. दूसरे ही दिन लड़ाई शुरू हुई और 20 दिनों तक जारी रही. एक बार वह शाम की सेना की सफ़ों को चीरते हुए मुआविया के पास जा पहुंचे और उसे ललकार कर कहा, ञ्चयों व्यर्थ दोनों तरफ़ के वीरों का रक्त बहाते हो, आओ हम और तुम अकेले आपस में निपट लें. पर मुआविया अली के बाहुबल को ख़ूब जानता था. अकेले निकलने का साहस न हुआ.

दसवें दिन सारी रात लड़ाई होती रही. शुक्र का दिन था. मध्याह्न काल बीत गया, किंतु दोनों सेनाएं युद्धस्थल में अचल खड़ी थीं. सहसा अशतर ने अपनी समग्र शक्ति को एकत्र करके ऐसा धावा किया कि शामी सेना के क़दम उखड़ गए. इतने में आस के बेटे अमरो को एक उपाय सूझा. उसने मुआविया से कहा अब क्या देखते हो, मैदान तुम्हारे हाथ से जाना चाहता है, लोगों को हुक्म दो कि क़ुरान शरीफ़ अपने भालों पर उठाएं और उच्च स्वर से कहें, 'हमारे और तुक्वहारे बीच में क़ुरान है.’ अगर वह लोग क़ुरान की मर्यादा रखेंगे, तो यह मारकाट इसी दम बंद हो जाएगी. अगर न मानेंगे, तो उनमें मतभेद अवश्य हो जाएगा. इसमें भी हमारा ही फ़ायदा है. क़ुरान नेज़ों पर उठाए गए. अली समझ गए कि शत्रुओं ने चाल चली. सिपाहियों ने आगे बढ़ने से इनकार किया और कहने लगे हमको हार जीत की चिंता नहीं है, हम तो केवल न्याय चाहते हैं. यदि वह लोग न्याय करना चाहते हैं, तो हम तैयार हैं. अशतर ने सेना को समझाया, मित्रों, यह शत्रुओं की कपटनीति है, इनमें से एक भी क़ुरान का व्यवहार नहीं करता, इन्होंने केवल अपनी प्राण रक्षा के लिए यह उपाय किया है. किंतु कौन सुनता.

जब चारों ओर शांति छा गई, तो कीस के बेटे 'आशअस’ ने हज़रत अली से कहा कि अब मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं जाकर मुआविया से पूछूं कि तुमने क्यों शरण मांगी है. जब वह मुआविया के पास आए, तो उसने कहा, मैंने इसलिए शरण मांगी है कि हम और तुम दोनों अल्लाहताला से न्याय की प्रार्थना करें. दोनों तरफ़ से एक-एक मध्यस्थ चुन लिया जाए. लोगों ने 'अबूमूसा अशअरी’ को चुना. अली ने इस निर्वाचन को अस्वीकार किया और कहा मुझे उन पर विश्वास नहीं है, वह पहले कई बार मेरी अमंगल कामना कर चुके हैं. पर लोगों ने एक स्वर से अबूमूसा को ही चुना. निदान अली को भी मानना पड़ा. दोनों मध्यस्थों में बड़ा अंतर था. आस का बेटा अमरो बड़ा राज-नीति कुशल दांव-पेंच जानने वाला आदमी था. इसके प्रतिकूल अबूमूसा सीधे-सादे मौलवी थे और मन में अली से द्वेष भी रखते थे. अभी यहां यह विवाद हो ही रहा था कि अमरो ने आकर पंचायतनामे की लिखा-पढ़ी कर ली. फ़ैसला सुनाने का समय और स्थान निश्चित कर दिया गया और हज़रत अली अपनी सेना के साथ कूफ़ा को चले. इस अवसर पर एक विचित्र समस्या आ खड़ी हुई, जिसने अली की कठिनाइयों को द्विगुण कर दिया. वही लोग लड़ाई बंद करने के पक्ष में थे, अब कुछ सोच-समझ कर लड़ाई जारी रखने पर आग्रह करने लगे. पंचों की नियुक्ति भी उन्हें सिद्धांतों के विरुद्ध जान पड़ती थी, लेकिन ख़लीफ़ा अपने वचन पर दृढ़ रहे. उन्होंने निश्चय रूप से कहा कि जब लड़ाई बंद कर दी गई, तो वह किसी प्रकार जारी नहीं रखी जा सकती. इस पर उनकी सेना के कितने ही योद्धा रुष्ट होकर अलग हो गए. उन्हें ’ख़ारिजी’ कहते हैं. इन ख़ारीजियों ने आगे चलकर बड़ा उपद्रव किया और हज़रत अली की हत्या के मुख्य कारण हुए.

इधर ख़ारिजीन ने इतना सिर उठाया कि ख़लीफ़ा ने जिन महानुभावों को उनको समझाने-बुझाने भेजा, उन्हें कत्ल कर दिया. इस पर अली ने उन्हें दंड देना आवश्यक समझा. नहरवां की लड़ाई में उनके सरदार मारे गए और बचे हुए लोग ख़लीफ़ा के प्रति कट्टïर बैरभाव लेकर इधर-उधर जा छिपे. अब अली ने शाम पर आक्रमण करने की तैयारी की, लेकिन सेना लड़ते-लड़ते हतोत्साहित हो रही थी. कोई साथ देने पर तैयार न हुआ. उधर मुआविया ने मिस्र देश पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया. ख़लीफ़ा की तरफ़ से 'मुहक्वमद बिन अबी बक्र’ नियुक्त थे. मआविया ने पहले उसे रिश्वत देकर मिलाना चाहा, लेकिन जब इस तरह दाल न गली, तो अमरो को एक सेना देकर मिस्र की ओर भेजा. अमरो ने मिस्र के स्थायी सूबेदार को निर्दयता से मरवा डाला.

अली की सत्यप्रियता ने उनके कितने ही मित्रों और अनुगामियों को उनका शत्रु बना दिया. यहां तक कि इस महासंकट के समय उनके चचेरे भाई 'अबदुल्लाह’ के बेटे भी जो उनके दाहिने हाथ बने रहते थे, उनसे नाराज होकर मक्का चले गए. अबदुल्लाह के चले जाने के थोड़े ही दिन बाद ख़ारीजियों ने अली की हत्या करने के लिए एक षड्यंत्र रचा. मिस्र निवासी एक व्यक्ति जिसे मलजम कहते थे, अली को मारने का बीड़ा उठाया. इनका इरादा अली और मुआविया दोनों को समाप्त कर कोई दूसरा ख़लीफ़ा चुनने का था.

शुक्र का दिन दोनों हत्याओं के लिए निश्चित किया गया. थोड़ी रात गई थी. अली मस्जिद में नियमानुसार नमाज़ पढ़ाने आए. मलजम मसजिद के द्वार पर छिपा बैठा था. अली को देखते ही उन पर तलवार चलाई. माथे पर चोट लगी. वहीं गिर पड़े. मलजम पकड़ लिया गया. ख़लीफ़ा को लोग उठाकर मकान पर लाए. मलजम उनके सम्मुख लाया गया. अली ने पूछा तुमने किस अपराध के लिए मुझे मारा? मलजम ने कहा, तुमने बहुत से निरपराध मनुष्यों को मारा है. तब अली ने लोगों से कहा कि यदि मैं मर जाऊं तो तुम भी इसे मार डालना, लेकिन इसी की तलवार से और एक ही वार करना. इसके सिवा और किसी को क्रोध के वश होकर मत मारना. इसके बाद उन्होंने अपने दोनों पुत्रों हसन और हुसैन को सदुपदेश दिया और थोड़ी देर बाद परलोक सिधारे. उन्होंने अपने पुत्रों में से किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने की चेष्टा तक न की.
साभार

सरफ़राज़ ख़ान
अरावली की मनोरम पर्वत मालाओं के अंचल में स्थित सोहना अपने गर्म पानी के चश्मों के लिए प्राचीनकाल से ही प्रसिध्द है. दिल्ली से करीब 50 किलोमीटर दिल्ली-अलवर मार्ग पर हरियाणा में बसा यह नगर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर होने के कारण तीर्थ यात्रियों व पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. दिल्ली, जयपुर, अलवर, पलवल व गुड़गांव से आने वाली सड़कों का मुख्य केंद्र होने के कारण यहां सालभर श्रध्दालुओं का जमघट लगा रहता है.

किवदंती है कि सोहना को महर्षि सोनक ने बनाया था.  इसलिए उन्हीं के नाम पर स्थल का नाम सोहना पड़ा. कुछ विद्वानों का मानना है कि प्राचीनकाल में यहां की पहाड़ियों से सोना मिलता था. इस वजह से इस स्थल को सुवर्ण कहा जाता था, जो बाद में सोहना के नाम से जाना जाने लगा. वैसे बरसात के दिनों में पहाड़ी नालों की रेत में अकसर सोने के कण दिखाई देते हैं. इस सोने को लेकर एक और किस्स मशहूर है जिसके मुताबिक वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आख़िरी मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र के परिजनों को दिल्ली छोड़कर जाना पड़ा. अंग्रेज़ फ़ौज से बचने के लिए उन्होंने सोहना इलाके के गांव में डेरा डाला और अपने ख़ज़ाने को पहाड़ियों की किसी सुरक्षित गुफ़ा में दबा दिया. बाद में अंग्रेजी सेना ने उनकी हत्या कर दी.

इस घटना के करीब चार दषक बाद वर्ष 1895 में के.एम. पॉप नामक अंग्रेज कर्नल ने उस खजाने की तलाश में लंबे समय तक पहाड़ियों की ख़ाक छानी. मगर जब उसे कोई कामयाबी नहीं मिली, तो उसने इलाक़े के कुछ लोगों को साथ लेकर नए सिरे से ख़ज़ाने की खोज शुरू की. उन्हें ख़ज़ाने वाली गुफ़ा भी मिल गई, लेकिन भूत-प्रेत के ख़ौफ़ से ग्रामीणों ने गुफा में जाने से इंकार कर दिया. इसके बावजूद कर्नल ने हार नहीं मानी और अकेले ही ख़ज़ाने तक जाने का फ़ैसला किया. गुफ़ा के अंदर जाने पर उन्हें अस्थि पंजर दिखाई दिए, लेकिन इसके बाद भी वह आगे बढ़ते रहे. अंधेरी गुफा की जहरीली गैस से उनका दम घुटने लगा और वह बाहर की ओर दौड़ पड़े. इस गैस का उनकी सेहत पर गहरा असर पड़ा. स्वास्थ्य लाभ होने पर वे दोबारा गुफ़ा में गए, लेकिन तब तक सारा ख़ज़ाना चोरी हो चुका था. प्राचीनकाल में यहां ठंडे पानी के चश्मे भी थे, जो प्राकृतिक आपदाओं या परिवर्तन की वजह से धरती के नीचे समा गए. इनके बारे में ख़ास बात यह है कि इन चश्मों का संबंध जितना प्राचीन कथा से जुड़ा है, उतना ही इनकी खोज का विषय भी विवादास्पद रहा है. कुछ लोगों के मुताबिक़ ये चश्मे करीब तीन सौ साल पहले खोजे गए, जबकि बुजुर्गों का कहना है कि इन पर्वत मालाओं के नीचे से होकर गुजरने वाले व्यापारी और तीर्थ यात्रियों ने इन चश्मों की खोज की थी.

अरावली पर्वत की शाखाएं यहां से अजमेर तक फैली हैं. इन पहाड़ियों में दस-दस मील की दूरी तक कोई न कोई कुंड या झरना मौजूद है. इन झरनों व चश्मों की आखिरी कड़ी अजमेर में 'पुष्कर' सरोवर के नाम से विख्यात है. इन चश्मों की खोज के बारे में कई दंत कथाएं प्रचलित हैं. कहा जाता है कि एक बार चतुर्भुज नामक एक बंजारा ऊंटों, भेड़ों और खच्चरों पर नमक डालकर सोहना इलाक़े से गुज़र रहा था. गर्मी का मौसम था. इसलिए प्यास से व्याकुल होने पर उसने अपने कुत्ते को पानी की तलाश के लिए भेजा. थोड़ी देर बाद कुत्ता वापस आया. उसके पैर पानी से भीगे हुए थे. यह देखकर बंजारा बहुत खुश हुआ और कुत्ते के साथ पानी के चश्मे की ओर गया. उसने देखा कि निर्जन स्थलों पर शीतल जल का चश्मा है. उसने सोचा कि दैवीय शक्ति के कारण ही वीरान चट्टानों में पानी का चश्मा है. इसलिए उसने देवी से अपने कारोबार में मुनाफ़ा होने की मन्नत मांगी और उसे बहुत लाभ हुआ.

लौटते समय उसने अपने गुरु के नाम पर साखिम जाति नाम के गुम्बद और कुंडों का निर्माण करवाया। बाद में लक्खी नामक बंजारे ने इन कुंडों का जीर्णोद्वार करवाया. साखिम जाति के गुम्बद पर लगा सोने का कलम क़रीब आठ दशक पुराना है. इसे केशावानंद जी ने इलाके के लोगों से एकत्रित घन से चढ़वाया था. आईने-अकबारी में भी यहां के गर्म पानी के चश्मों का ज़िक्र आता है. किवदंती है कि योग दर्शन के रचयिता महार्षि पतंजलि का इस स्थल पर अनेक बार आगमन हुआ. संत महात्मा ऐसे ही स्थलों के आसपास अपने आश्रम बनाते थे. आधुनिक समय (1872 ई.) में अंग्रेजों ने इन चश्मों का पता लगाया था. ये चश्मे शहर के मध्य स्थित एक सीधी चट्टान के तल में स्थित हैं. इन चश्मों की तीर्थ के रूप में माना जाता है.

संदीप माथुर
मथुरा (उत्तर प्रदेश). क्या आपने कभी भूतों का मंदिर देखा या सुना है? अगर नहीं तो आज हम आपको बताएंगे कि भूतों ने भी एक मंदिर बनाया है.
आज से 2100 वर्ष पहले मथुरा से 10 -12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वृंदावन में भूतों ने एक मंदिर बनाया था, जिसे गोविन्द देव जी का मंदिर कहा जाता है. यहां पर रहने वालों का कहना है कि इस मंदिर को भूतों ने बनाया है. तभी इसे तों के मंदिर के नाम से जाना जाता है. जब हमने इस मंदिर के पुजारी से बात की तो उन्होंने बताया कि यह मंदिर गोविन्द देव जी का है, लेकिन यह कहा जाता है कि इस मंदिर को आधी रात के समय भूत बना रहे थे. तभी सुबह के समय किसी महिला ने चक्की चला दी और उसकी आवाज़ सुनकर भूत मंदिर को अधूरा बना हुआ छोड़कर भाग गए. तब से ही ये मंदिर अधूरा ही है. बताया जाता है कि इस मंदिर में पहले गोविन्द देव जी की असली प्रतिमा थी, लेकिन अब वह असली प्रतिमा भी नहीं है. इसका कारण यह है कि जब औरंगज़ेब का शासन आया तो उस समय औरंगज़ेब हिन्दुओं के मंदिरों को ख़त्म करवा रहा था. उस समय औरंगज़ेब ने इस मंदिर को तुड़वाना शुरू किया. इस मंदिर के चार मंज़िल को वह तुड़वा चुका था और मंदिर की नक्काशियों में जड़े हुए जवाहरातों को वह निकालकर ले गया था. मंदिर की असली प्रतिमा को मंदिर के पुजारी औरंगज़ेब के डर के कारण जयपुर लेकर चले गए थे. फिर जयपुर के राजा ने जयपुर में ही गोविन्द देव का मंदिर बनवा कर उस असली प्रतिमा को स्थापित करवा दिया जो आज भी जयपुर के उस मंदिर में मौजूद है.


सुभाशिष के. चंदा
 लहरदार पगडंडियां, घने जंगल और घाटियां और संकरी नदियां और सोतों के मनोरम दृश्‍य, अनोखी वनस्‍पतियां और वन्‍य जीवों के आसपास होने का अहसास, और अपनी शहरी जिंदगी  की रेलमपेल से भागे हुए जंगल के अभयारण्‍यक। ऐसा ही है उनाकोटि का प्राकृतिक भंडार, जो इतिहास, पुरातत्‍व और धार्मिक खूबियों के रंग, गंध से पर्यटकों को अपनी ओर इशारे से बुलाता है। यह एक औसत ऊंचाई वाली पहाड़ी श्रृंखला है, जो उत्‍तरी त्रिपुरा के हरे-भरे शांत और शीतल वातावरण में स्थित है।

राज्य की राजधानी से 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित उनाकोटि की पहाड़ी पर हिन्दू देवी-देवताओं की चट्टानों पर उकेरी गई अनगिनत मूर्तियां और शिल्‍प मौजूद हैं। बड़ी-बड़ी चट्टानों पर ये विशाल नक्‍काशियों की तरह दिखते हैं, और ये शिल्‍प छोटे-बड़े आकार में और यहां-वहां चारों तरफ फैले हैं। पौराणिक कथाओं में इसके बारे में दिलचस्प कथा मिलती है, जिसके अनुसार यहां देवी-देवताओं की एक सभा हुई थी। भगवान शिव, बनारस जाते समय यहां रुके थे, तभी से इसका नाम उनाकोटि पड़ा है।

उनाकोटि में चट्टानों पर उकेरे गए नक्‍का‍शी के शिल्‍प और पत्‍थर की मूर्तियां हैं। इन शिल्‍पों का केंद्र शिव और गणेश हैं। 30 फुट ऊंचे शिव की विशालतम छवि खड़ी चट्टान पर उकेरी हुई है, जिसे ‘उनाकोटिस्‍वर काल भैरव’ कहा जाता है। इसके सिर को 10 फीट तक के लंबे बालों के रूप में उकेरा गया है। इसी के पास शेर पर सवार देवी दुर्गा का शिल्‍प चट्टान पर उकेरी हुई है, वहां दूसरी तरफ मकर पर सवार देवी गंगा का शिल्‍प भी है। यहां नंदी बैल की जमीन पर आधी उकेरे हुए शिल्‍प भी हैं।

शिव के शिल्‍पों से कुछ ही मीटर दूर भगवान गणेश की तीन शानदार मूर्तियां हैं। चार-भुजाओं वाले गणेश की दुर्लभ नक्‍काशी के एक तरफ तीन दांत वाले साराभुजा गणेश और चार दांत वाले अष्‍टभुजा गणेश की दो मूर्तियां स्थित हैं। इसके अलावा तीन आंखों वाला एक शिल्‍प भी है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह सूर्य या विष्णु भगवान का है। चतुर्मुख शिवलिंग, नांदी, नरसिम्‍हा, श्रीराम, रावण, हनुमान, और अन्‍य अनेक देवी-देवताओं के शिल्‍प और मूर्तियों यहां हैं। एक किंवदंती है कि अभी भी वहां कोई चट्टानों को उकेर रहा है, इसीलिए इस उनाकोटि-बेल्‍कुम पहाड़ी को देवस्‍थल के रूप में जाना जाता है, आप कहीं से भी, किधर से भी गुजर जाइए आपको शिव या किसी देव की चट्टान पर उकेरी हुई मूर्ति या शिल्‍प मिलेगा। पहाडों से गिरते हुए सुंदर सोते उनाकोटि के तल में एक कुंड को भरते हैं, जिसे ‘’सीता कुंड’’ कहते हैं। इसमें स्‍नान करना पवित्र माना जाता है। हर साल यहां अप्रैल के महीने में ‘अशोकाष्‍टमी मेला’ लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु आते हैं और ‘सीता कुंड’ में स्‍नान करते हैं।

इसे एक आदर्श पर्यटन स्‍थल के रूप में विकसित करने के लिए केंद्रीय पर्यटन मंत्री ने 2009-10 में उनाकोटि डेस्टिनेशन डेवलेपमेंट प्रोजेक्‍ट के तहत यहां 5 किलोमीटर के दायरे में पर्यटक सूचना केंद्र, कैफेटेरिया, सार्वजनिक सुविधाएं, प्राकृतिक दृष्‍यों के लिए व्‍यूप्‍वाइंट आदि के निर्माण के लिए 1.13 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। त्रिपुरा पर्यटन विकास के योजना अधिकारियों के अनुसार, यह योजना एएसआई को सौंप दी गई है, और जल्‍दी ही इस पर काम शुरू होने की संभावना है।

माना जाता है कि उनाकोटि पर भारतीय इतिहास के मध्यकाल के पाला-युग के शिव पंथ का प्रभाव है। इस पुरातात्विक महत्‍व के स्‍थल के आसपास तांत्रिक, शक्ति, और हठ योगी जैसे कई अन्य संप्रदायों का प्रभाव भी पाया जाता है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) के अनुसार उनाकोटि का काल 8वीं या 9वीं शताब्दी का है। हालांकि, इसके शिल्‍पों के बारे में, उनके समय-काल के बारे अनेक मत हैं।

देखा जाए तो ऐतिहासिक रूप से और उनकोटि की कथाएं अभी भी एएसआई और ऐसी ही अन्‍य संस्‍थाओं से इस पर समन्वित अनुसंधान की मांग कर रही हैं, ताकि भारतीय सभ्‍यता के लुप्‍त अध्‍याय के रहस्‍य को उजागर किया जा सके।
(लेखक पीआईबी, अगरतला में मीडिया एवं संचार अधिकारी हैं)


फ़िरदौस ख़ान
शहरीकरण ने लोक मानस से बहुत कुछ छीन लिया है. चौपालों के गीत-गान लुप्त हो चले हैं. लोक में सहज मुखरित होने वाले गीत अब टीवी कार्यक्रमों में सिमट कर रह गए हैं. फिर भी गांवों में, पर्वतों एवं वन्य क्षेत्रों में बिखरे लोक जीवन में अभी भी इनकी महक बाक़ी है. हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में पारंपरिक लोकगीतों और लोककथाओं के बिंब-प्रतिबिंब देखे जा सकते हैं, जबकि मौजूदा आधुनिक चकाचौंध के दौर में शहरों में लोकगीत अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं. संचार माध्यमों के अति तीव्र विकास एवं यातायात की सुविधा के चलते प्रियतम की प्रतीक्षा में पल-पल पलकें भिगोती नायिका अब केवल प्राचीन काव्यों में ही देखी जा सकती है. सारी प्रकृति संगीतमय है. इसके कण-कण में संगीत बसा है. मनुष्य भी प्रकृति का अभिन्न अंग है, इसलिए संगीत से अछूता नहीं रह सकता. साज़ और सुर का अटूट रिश्ता है. साज़ चाहे जैसे भी हों, संगीत के रूप चाहे कितने ही अलग-अलग क्यों न हों, अहम बात संगीत और उसके प्रभाव की है. जब कोई संगीत सुनता है तो यह सोचकर नहीं सुनता कि उसमें कौन से वाद्यों का इस्तेमाल हुआ है या गायक कौन है या राग कौन सा है या ताल कौन सी है. उसे तो केवल संगीत अच्छा लगता है, इसलिए वह संगीत सुनता है यानी असल बात है संगीत के अच्छे लगने की, दिल को छू जाने की. संगीत भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा है. भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोकगीतों में झलकता है. यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है.

लोकगीत जनमानस को लुभाते रहे हैं. 80 वर्षीय कुमार का कहना है कि वर्षा ऋतु का आख्यान गीत आल्हा कभी जन-जन का कंठहार होता था. वीर रस से ओतप्रोत आल्हा जनमानस में जोश भर देता था. कहते हैं कि अंग्रेज़ अपने सैनिकों को आल्हा सुनवाकर ही जंग के लिए भेजा करते थे. हरियाणा के कलानौर में लोकगीत सुनाकर लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे राजस्थान के चुरू निवासी लोकगायक वीर सिंह कहते हैं कि लोकगायकों में राजपूत, गूजर, भाट, भोपा, धानक एवं अन्य पिछड़ी जातियों के लोग शामिल हैं. वे रोज़ी-रोटी की तलाश में अपना घर-बार छोड़कर दूरदराज़ के शहरों एवं गांवों में निकल पड़ते हैं. वह बताते हैं कि लोकगीत हर मौसम एवं हर अवसर विशेष पर अलग-अलग महत्व रखते हैं. इनमें हर ऋतु का वर्णन मनमोहक ढंग से किया जाता है. दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद चांदनी रात में चौपालों पर बैठे किसान ढोल-मंजीरे की तान पर उनके लोकगीत सुनकर झूम उठते हैं. फ़सल की कटाई के वक़्त गांवों में काफ़ी चहल-पहल देखने को मिलती है. फ़सल पकने की ख़ुशी में किसान कुसुम-कलियों से अठखेलियां करती बयार, ठंडक और भीनी-भीनी महक को अपने रोम-रोम में महसूस करते हुए लोक संगीत की लय पर नाचने लगते हैं. वह बताते हैं कि किसान उनके लोकगीत सुनकर उन्हें बहुत-सा अनाज दे देते हैं, लेकिन वह पैसे लेना ज़्यादा पसंद करते हैं. अनाज को उठाकर घूमने में उन्हें काफ़ी परेशानी होती है. वह कहते हैं कि युवा वर्ग सुमधुर संगीत सुनने के बजाय कानफोड़ू संगीत को ज़्यादा महत्व देता है. शहरों में अब लोकगीत-संगीत को चाहने वाले लोग नहीं रहे. दिन भर गली-मोहल्लों की ख़ाक छानने के बाद उन्हें बामुश्किल 50 से 60 रुपये ही मिल पाते हैं. उनके बच्चे भी बचपन से ही इसी काम में लग जाते हैं. चार-पांच साल की खेलने-पढ़ने की उम्र में उन्हें घड़ुवा, बैंजू, ढोलक, मृदंग, पखावज, नक्कारा, सारंगी एवं इकतारा आदि वाद्य बजाने की शिक्षा शुरू कर दी जाती है. यही वाद्य उनके खिलौने होते हैं.

दस वर्षीय बिरजू ने बताया कि लोकगीत गाना उसका पुश्तैनी पेशा है. उसके पिता, दादा और परदादा को भी यह कला विरासत में मिली थी. इस लोकगायक ने पांच साल की उम्र से ही गीत गाना शुरू कर दिया था. इसकी मधुर आवाज़ को सुनकर किसी भी मुसाफ़िर के क़दम ख़ुद ब ख़ुद रुक जाते हैं. इसके सुर एवं ताल में भी ग़ज़ब का सामंजस्य है. मानसिंह ने इकतारे पर हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, शीरी-फ़रहाद एवं लैला-मजनूं के क़िस्से सुनाते हुए अपनी उम्र के 55 साल गुज़ार दिए. उन्हें मलाल है कि सरकार और प्रशासन ने कभी लोकगायकों की सुध नहीं ली. काम की तलाश में उन्हें घर से बेघर होना पड़ता है. उनकी जिंदगी ख़ानाबदोश बनकर रह गई है. ऐसे में दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम करना पहाड़ से दूध की नहर निकालने से कम नहीं है. उनका कहना है कि दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण बच्चे शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रहते हैं. सरकार की किसी भी जनकल्याणकारी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिलता. साक्षरता, प्रौढ़ शिक्षा, वृद्धावस्था पेंशन एवं इसी तरह की अन्य योजनाओं से वे अनजान हैं. वह कहते हैं कि रोज़गार की तलाश में दर-दर की ठोंकरे खाने वाले लोगों को शिक्षा की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. अगर रोज़गार मिल जाए तो उन्हें पढ़ना भी अच्छा लगेगा. वह बताते हैं कि लोक संपर्क विभाग के कर्मचारी कई बार उन्हें सरकारी समारोह या मेले में ले जाते हैं और पारिश्रमिक के नाम पर 200 से 300 रुपये तक दे देते हैं, लेकिन इससे कितने दिन गुज़ारा हो सकता है. आख़िर रोज़गार की तलाश में भटकना ही उनकी नियति बन चुका है.

कई लोक गायकों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई. भूपेन हजारिका और कैलाश खैर इसकी बेहतरीन मिसालें हैं. असम के सादिया में जन्मे भूपेन हजारिका ने बचपन में एक गीत लिखा और दस साल की उम्र में उसे गाया. बारह साल की उम्र में उन्होंने असमिया फिल्म इंद्रमालती में काम किया था. उन्हें 1975 में सर्वोत्कृष्ट क्षेत्रीय फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, 1992 में सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के सम्मान से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें 2009 में असोम रत्न और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड और 2011 में पद्मभूषण जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. कैलाश खैर ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई और लोकगीतों को विदेशों तक पहुंचाया, मगर सभी लोक गायक भूपेन हजारिका और कैलाश खैर जैसे क़िस्मत वाले नहीं होते. ऐसे कई लोक गायक हैं, जो अनेक सम्मान पाने के बावजूद बदहाली में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं. राजस्थान के थार रेगिस्तान की खास पहचान मांड गायिकी को बुलंदियों तक पहुंचाने वाली लोक गायिका रुक्मा उम्र के सातवें दशक में बीमारियों से लड़ते-लड़ते ज़िंदगी की जंग हार गईं. विगत 20 जुलाई, 2011 को उनकी मौत के साथ ही मांड गायिकी का एक युग भी समाप्त हो गया. थार की लता के नाम से प्रसिद्ध रुक्मा ज़िंदगी के आख़िरी दिनों तक पेंशन के लिए कोशिश करती रहीं, लेकिन यह सरकारी सुविधा उन्हें नसीब नहीं हुई. वह मधुमेह और ब्लड प्रेशर से पीड़ित थीं, लेकिन पैसों की कमी के कारण वक़्त पर दवाएं नहीं ख़रीद पाती थीं. उनका कहना था कि वह प्रसिद्ध गायिका होने का ख़ामियाज़ा भुगत रही हैं. सरकार की तरफ़ से उन्हें कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली. हालत इतनी बदतर है कि बीपीएल में भी उनका नाम शामिल नहीं है. विधवा और विकलांग पेंशन से भी वह वंचित हैं. सरकारी बाबू सोचते हैं कि हमें किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है.

रुक्मा ने विकलांग होते हुए भी देश-विदेश में सैकड़ों कार्यक्रम पेश कर मांड गायिकी की सरताज मलिका रेशमा, अलनजिला बाई, मांगी बाई और गवरी देवी के बीच अपनी अलग पहचान बनाई. बाड़मेर के छोटे से गांव जाणकी में लोक गायक बसरा खान के घर जन्मी रुक्मा की सारी ज़िंदगी ग़रीबी में बीती. रुक्मा की दादी अकला देवी एवं माता आसी देवी थार इलाक़े की ख्यातिप्राप्त मांड गायिका थीं. गायिकी की बारीकियां उन्होंने अपनी मां से ही सीखीं. केसरिया बालम आओ नी, पधारो म्हारे देस…उनके इस गीत को सुनकर श्रोता भाव विभोर हो उठते थे. उन्होंने पारंपरिक मांड गायिकी के स्वरूप को बरक़रार रखा. उनका मानना था कि पारंपरिक गायिकी से खिलवाड़ करने से उसकी नैसर्गिक मौलिकता ख़त्म हो जाती है. विख्यात रंगमंच कर्मी मल्लिका साराभाई ने उनके जीवन पर डिस्कवरी चैनल पर वृत्तचित्र प्रसारित किया था. विदेशों से भी संगीत प्रेमी उनसे मांड गायिकी सीखने आते थे. ऑस्ट्रेलिया की सेरहा मेडी ने बाडमेर के गांव रामसर में स्थित उनकी झोपड़ी में रहकर उनसे संगीत की शिक्षा ली और फिर गुलाबी नगरी जयपुर के जवाहर कला केंद्र में आयोजित थार महोत्सव में मांड गीत प्रस्तुत कर ख़ूब सराहना पाई. रुक्मा की ज़िंदगी के ये यादगार लम्हे थे. अब उनकी छोटी बहू हनीफ़ा मांड गायिकी को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रही हैं. एक तरफ़ सरकार कला संस्कृति के नाम पर बड़े-बड़े समारोहों का आयोजन कर उन पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा देती है, वहीं दूसरी तरफ़ देश की कला-संस्कृति को विदेशों तक फैलाने वाले कलाकारों को ग़ुरबत में मरने के लिए छोड़ देती है.

क़ाबिले-गौर है कि लोकगीत गाने वालों को लोक गायक कहा जाता है. लोकगीत से आशय है लोक में प्रचलित गीत, लोक रचित गीत और लोक विषयक गीत. कजरी, सोहर और चैती आदि लोकगीतों की प्रसिद्ध शैलियां हैं. त्योहारों पर गाए जाने वाले मांगलिक गीतों को पर्व गीत कहा जाता है. ये गीत रंगों के पावन पर्व होली, दीपावली, छठ, तीज एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर गाए जाते हैं. विभिन्न ऋतुओं में गाए जाने वाले गीतों को ऋतु गीत कहा जाता है. इनमें कजरी, चतुमार्सा, बारहमासा, चइता और हिंडोला आदि शामिल हैं. इसी तरह अलग-अलग काम-धंधे करने वालों के गीतों को पेशा गीत कहा जाता है. ये गीत लोग काम करते वक़्त गाते हैं, जैसे गेहूं पीसते समय महिलाएं जांत-पिसाई, छत की ढलाई करते वक़्त थपाई और छप्पर छाते वक़्त छवाई गाते हैं. इसी तरह गांव-देहात में अन्य कार्य करते समय सोहनी और रोपनी आदि गीत गाने का भी प्रचलन है. विभिन्न जातियों के गीतों को जातीय गीत कहा जाता है. इनमें नायक और नायिका की जाति का वर्णन होता है. इसके अलावा कई राज्यों में झूमर, बिरहा, प्रभाती, निर्गुण और देवी-देवताओं के गीत गाने का चलन है. ये गीत क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक धरोहर हैं, जिनसे वहां के बारे में जानकारी प्राप्त होती है.

पेशकश : चांदनी
जंगे-आज़ादी के सभी अहम केंद्रों में अवध सबसे ज्यादा वक़्त तक आज़ाद रहा। इस बीच बेगम हज़रत महल ने लखनऊ में नए सिरे से शासन संभाला और बगावत की कयादत की। तकरीबन पूरा अवध उनके साथ रहा और तमाम दूसरे ताल्लुकदारों ने भी उनका साथ दिया। बेगम अपनी कयादत की छाप छोड़ने में कामयाब रहीं।

फैज़ाबाद के एक बेहद ग़रीब परिवार में पैदा हुई इस लडक़ी (बेगम) को नवाब वाजिद अली शाह के हरम में बेगमात की खातिरदारी के लिए रखा गया था, लेकिन उनकी खूबसूरती और अक्लमंदी पर फ़िदा होकर नवाब ने उसे अपने हरम में शामिल कर लिया। बेटा होने पर नवाब ने उसे 'महल' का दर्जा दिया। ब्रिटिश संवाददाता डब्ल्यू। एच. रसेल के मुताबिक़ बेगम अपने शौहर वाजिद अली शाह से कहीं ज़्यादा क़ाबिल थीं। वाजिद अली ने भी इसे मानने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की।

बेगम की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आज़ादी के दौरान नज़रबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी। योजना का भेद खुल गया, वरना वाजिद अली शाह शायद आज़ाद करा लिए जाते। इतिहासकार ताराचंद लिखते हैं कि बेगम खुद हाथी पर चढक़र लडाई के मैदान में फ़ौज का हौसला बढ़ाती थीं।


जंगे-आज़ादी की कमान संभालने से पहले बेगम हज़रत महल ने अपने बारह साला बेटे शहजादे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया था। इसकी मान्यता उन्होंने आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र से भी ली, ताकि उन्हें कानून उनका हक मिल सके। ऐसा इसलिए भी किया गया कि इससे पहले गाजिउद्दीन हैदर (1814-1827) ने मुगलों से नाता तोड़कर खुद को इंग्लैंड के राजा के अधीन घोषित कर दिया था। वे 1819 में अवध के प्रभु संपन्न राजा बने थे। इसलिए जंगे-आज़ादी के वक़्त नवाब की कानूनन हालत मुल्क के दूसरे सूबेदारों से अलग थी।

बेगम के सामने कई दिक्कतें थीं। वे खुद भी नवाब का ओहदा संभाल सकती थीं। उन्हें यह भी समझाया गया कि अगर वे बगावत करेंगी तो मटियाबुर्ज में वाजिद अली शाह की जान पर बन सकती है। उनकी राह में उनकी बाकी सौतों रोड़ा बनी हुई थीं। इन्हीं हालात के बीच उन्होंने फ़ैसला लिया। इसमें उनका सबसे ज़्यादा साथ वाजिद अली शाह के हरम के दरोगा मम्मू खान और नवाबों के पुश्तैनी वफ़ादार रहे राजा जयलाल सिंह ने दिया। राजा जयलाल सिंह ने अवध के ताल्लुकदारों को बेगम के इरादों से वाकिफ कराते हुए भरोसा दिलाया और उन्हें बेगम के समर्थन में लामबंद कर लिया। मम्मू खान ने बाकी बेगमों की तऱफ से हो रहे विरोध को भी संभाला। तब बिरजिस कद्र को जुलाई में अवध का नवाब बनाया गया और शासन की कमान बेगम ने ख़ुद संभाली।

शुरुआती अव्यवस्था से निपट कर बेगम ने अवध के शासन को व्यवस्थित करने का काम संभाला। उनके सामने कई चुनौतियां थीं। शहर की बिगडती क़ानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए बेगम ने अली राजा बेग को शहर कोतवाल नियुक्त किया। शहर में अमन-चैन कायम होने लगा। राजधानी होने के नाते लखनऊ की सुरक्षा का काम काफी मुश्किल था, क्योंकि जंगे-आज़ादी के नेताओं में आपस में और बेगम व मौलवी अहमदुल्ला में मतभेद पैदा हो गए थे। कैसरबाग की कई बेगमें भी हज़रत महल के ख़िलाफ़ थीं और रेजिडेंसी में रह रहे अंग्रेज़ सेनापतियों को गुप्त सूचनाएं भेज रही थीं, क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा और जागीरों की फ़िक्र अवध की बजाय ज़्यादा थी।

हालांकि ज़्यादातर अंग्रेज़ लखनऊ को छोड़ चुके थे, फिर भी अवध के कई ज़िलों में ताल्लुकदारों से उनका संघर्ष जारी था। इन सेनानियों को मदद पहुंचानी थी। यह जाहिर था कि अंग्रेज अवध पर अपना वर्चस्व फिर कायम करने के लिए जोरदार हमला करेंगे, इसलिए सुरक्षा की मुकम्मल रणनीति भी बनानी थी। बेगम की सरकार की माली हालत खस्ता थी, जिसे बेहतर करना था। साथ ही अवध की लड़ाई में साथ देने के लिए कानुपर और दिल्ली वगैरह से बंगाल आर्मी के काफ़ी तादाद में जो सिपाही लखनऊ पहुंच चुके थे, उनकी तनख्वाह और रसद का इंतज़ाम भी बेगम को करना था। मशहूर लेखक रोशन तकी के मुताबिक़ ताल्लुकदारों की मदद से बेगम इस काम में काफ़ी हद तक कामयाब रहीं।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए 26 से 28 नवंबर 1857 के बीच बेगम ने फ़ौरी तौर पर कई काम किए। 26 नवंबर को ही राजा देवीबख्श सिंह की फ़ौज ने लखनऊ में चिनहट की लड़ाई के बाद बची रह गई फौज के हमले को नाकाम कर बनी गांव की तरफ खदेड दिया। 27 नवंबर को सूचना मिली कि कॉलिन कैंपबेल कानुपर से लखनऊ के लिए चल पड़ा है। इसी बीच जनरल आउटरम भी आलमबाग में डेरा डाल चुका था। उनको पीछे धकेलने के लिए कई ताल्लुकदारों की सेना राजा देवीबख्श सिंह की अगुवाई में तैनात की गई। साथ ही अवध के समृध्द इलाके के ताल्लुकदारों को उनके इलाके में रवाना किया गया कि वे रसद और सेना का इंतज़ाम करें।

इन शुरुआती कदमों के बाद बेगम ने एक रक्षा परिषद बनाई। इसने तय किया कि कैसरबाग को मुख्य दुर्ग माना जाए। इसके अलावा सात और ऐसी जगहों की निशानदेही की गई, जहां से अंग्रेजी सेना लखनऊ में दाखिल को सकती थी। यहां पर सेना की तैनाती के साथ-साथ खाई भी खुदवाई गई। इसी रणनीति का यह नतीजा रहा कि लंबे वक्त तक रेजिडेंसी घिरी रही। नतीजतन, दूसरी अहम लड़ाई मार्च 1858 में ही हो पाई, जिसमें अवध की सेना को पीछे हटना पड़ा।

हालात बिगड़ते देख ताल्लुकदारों ने बेगम को उनके बेटे बिरजिस कद्र के साथ सुरक्षित नेपाल भेज दिया और लडाई जारी रखी। बेगम के प्रमुख सेनापति राजा जयपाल सिंह और राना बेनीमाधव दरगाह पर लगे मोर्चे पर पहुंचे और कसम खाई कि वे आखिरी दम तक लडेंग़े। जंगे-आज़ादी के तमाम नेता महीनों गुरिल्ला लड़ाई लड़ते रहे। आखिरकार इनमें से ज़्यादातर फांसी पर चढ़ा दिए गए। खुद लार्ड कैनिंग ने कुबूल किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद हम 1859 तक अवध को एक हद तक शांत और व्यवस्थित कर सके। उधर, 1879 में नेपाल में बेगम का इंतकाल हो गया।

फ़िरदौस ख़ान
बुल्ले शाह पंजाबी के प्रसिध्द सूफ़ी कवि हैं. उनके जन्म स्थान और समय को लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं, लेकिन ज़्यादातर विद्वानों ने उनका जीवनकाल 1680 ईस्वी से 1758 ईस्वी तक माना है. तारीख़े-नफ़े उल्साल्कीन के मुताबिक़ बुल्ले शाह का जन्म सिंध (पाकिस्तान) के उछ गीलानीयां गांव में सखि शाह मुहम्मद दरवेश के घर हुआ था. उनका नाम अब्दुल्ला शाह रखा गया था. मगर सूफ़ी कवि के रूप में विख्यात होने के बाद वे बुल्ले शाह कहलाए. वे जब छह साल के थे, तब उनके पिता पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उछ गीलानीयां छोड़कर साहीवाल में मलकवाल नामक बस्ती में रहने लगे. इस दौरान चौधरी पांडो भट्टी किसी काम से तलवंडी आए थे. उन्होंने अपने एक मित्र से ज़िक्र किया कि लाहौर से 20 मील दूर बारी दोआब नदी के तट पर बसे गांव पंडोक में मस्जिद के लिए किसी अच्छे मौलवी की ज़रूरत है. इस पर उनके मित्र ने सखि शाह मुहम्मद दरवेश से बात करने की सलाह दी. अगले दिन तलवंडी के कुछ बुज़ुर्ग चौधरी पांडो भट्टी के साथ दरवेश साहब के पास गए और उनसे मस्जिद की व्यवस्था संभालने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया.

इस तरह बुल्ले शाह पंडोक आ गए।. यहां उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की. वे अरबी और फ़ारसी के विद्वान थे, मगर उन्होंने जनमानस की भाषा पंजाबी को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया. प्रसिध्द 'क़िस्सा हीर-रांझा' के रचयिता सैयद वारिस शाह उनके सहपाठी थे. बुल्ले शाह ने अपना सारा जीवन इबादत और लोक कल्याण में व्यतीत किया. उनकी एक बहन भी थीं, जिन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर ख़ुदा की इबादत की.

बुल्ले शाह लाहौर के संत शाह इनायत क़ादिरी शत्तारी के शिष्य थे. बुल्ले शाह ने अन्य सूफ़ियों की तरह ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्वीकार किया. उनकी रचनाओं में भारत के विभिन्न संप्रदायों का प्रभाव साफ़ नज़र आता है. उनकी एक रचना में नाथ संप्रदाय की झलक मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा है-
तैं कारन हब्सी होए हां
नौ दरवाजे बंद कर सोए हां
दर दसवें आन खलोए हां
कदे मन मेरी असनाई
यानी, तुम्हारे कारण मैं योगी बन गया हूं. मैं नौ द्वार बंद करके सो गया हूं और अब दसवें द्वार पर खड़ा हूं. मेरा प्रेम स्वीकार कर मुझ पर कृपा करो.

भगवान श्रीकृष्ण के प्रति बुल्ले शाह के मन में अपार श्रध्दा और प्रेम था. वे कहते हैं-
मुरली बाज उठी अघातां
मैंनु भुल गईयां सभ बातां
लग गए अन्हद बाण नियारे
चुक गए दुनीयादे कूड पसारे
असी मुख देखण दे वणजारे
दूयां भुल गईयां सभ बातां

असां हुण चंचल मिर्ग फहाया
ओसे मैंनूं बन्ह बहाया
हर्ष दुगाना उसे पढ़ाया
रह गईयां दो चार रुकावटां

बुल्ले शाह मैं ते बिरलाई
जद दी मुरली कान्ह बजाई
बौरी होई ते तैं वल धाई
कहो जी कित वल दस्त बरांता

बुल्ले शाह हिन्दू-मुसलमान और ईश्वर-अल्लाह में कोई भेद नहीं मानते थे. इसलिए वे कहते हैं-
की करदा हुण की करदा
तुसी कहो खां दिलबर की करदा।
इकसे घर विच वसदियां रसदियां नहीं बणदा हुण पर्दा
विच मसीत नमाज़ गुज़ारे बुतख़ाने जा सजदा
आप इक्को कई लख घरां दे मालक है घर-घर दा
जित वल वेखां तित वल तूं ही हर इक दा संग कर दा
मूसा ते फिरौन बणा के दो हो कियों कर लडदा
हाज़र नाज़र ख़ुद नवीस है दोज़ख किस नूं खडदा
नाज़क बात है कियों कहंदा ना कह सकदा ना जर्दा
वाह-वाह वतन कहींदा एहो इक दबींदा इस सडदा
वाहदत दा दरीयायो सचव, उथे दिस्से सभ को तरदा
इत वल आये उत वल आये, आपे साहिब आपे बरदा
बुल्ले शाह दा इश्क़ बघेला, रत पींदा गोशत चरदा

बुल्ले शाह समाज के सख़्त नियमों को ग़ैर ज़रूरी मानते थे. उनका मानना था कि इस तरह के नियम व्यक्ति को सांसारिक बनाने का काम करते हैं. वे तो ईश्वर को पाना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने प्रेम के मार्ग को अपनाया, क्योंकि प्रेम किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करता। वे कहते हैं-
करम शरा दे धरम बतावन
संगल पावन पैरी
जात मज़हब एह इश्क़ ना पुछदा
इश्क़ शरा दा वैरी

बुल्लेशाह का मानना था कि ईश्वर धार्मिक आडंबरों से नहीं मिलता, बल्कि उसे पाने का सबसे सरल और सहज मार्ग प्रेम है. वे कहते हैं-
इश्क़ दी नवियों नवी बहार
फूक मुसल्ला भन सिट लोटा
न फड तस्बी कासा सोटा
आलिम कहन्दा दे दो होका
तर्क हलालों खह मुर्दार
उमर गवाई विच मसीती
अंदर भरिया नाल पलीती
कदे वाहज़ नमाज़ न कीती
हुण कीयों करना ऐं धाडो धाड।
जद मैं सबक इश्क़ दा पढिया
मस्जिद कोलों जियोडा डरिया
भज-भज ठाकर द्वारे वडिया
घर विच पाया माहरम यार
जां मैं रमज इश्क़ दा पाई
मैं ना तूती मार गवाई
अंदर-बाहर हुई सफ़ाई
जित वल वेखां यारो यार
हीर-रांझा दे हो गए मेले
भुल्लि हीर ढूंडेंदी बेले
रांझा यार बगल विच खेले
मैंनूं सुध-बुध रही ना सार
वेद-क़ुरान पढ़-पढ़ थक्के
सिज्दे कर दियां घर गए मथ्थे
ना रब्ब तीरथ, ना रब्ब मक्के
जिन पाया तिन नूर अंवार।
इश्क़ भुलाया सिज्दे तेरा
हुण कियों आईवें ऐवैं पावैं झेडा
बुल्ला हो रहे चुप चुपेरा
चुक्की सगली कूक पुकार
बुल्लेशाह अपने मज़हब का पालन करते हुए भी साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से परे थे. वे कहते हैं-
मैं बेक़ैद, मैं बेक़ैद
ना रोगी, न वैद
ना मैं मोमन, ना मैं काफ़र
ना सैयद, ना सैद

बुल्ले शाह का कहना था कि ईश्वर मंदिर और मस्जिद जैसे धार्मिक स्थलों का मोहताज नहीं है. वह तो कण-कण में बसा हुआ है। वे कहते हैं-
तुसी सभनी भेखी थीदे हो
हर जा तुसी दिसीदे हो
पाया है किछ पाया है
मेरे सतगुर अलख लखाया है
कहूं बैर पडा कहूं बेली है
कहूं मजनु है कहूं लेली है
कहूं आप गुरु कहूं चेली है
आप आप का पंथ बताया है
कहूं महजत का वर्तारा है
कहूं बणिया ठाकुर द्वारा है
कहूं बैरागी जटधारा है
कहूं शेख़न बन-बन आया है
कहूं तुर्क किताबां पढते हो
कहूं भगत हिन्दू जप करते हो
कहूं घोर घूंघट में पडते हो
हर घर-घर लाड लडाया है
बुल्लिआ मैं थी बेमोहताज होया
महाराज मिलिया मेरा काज होया
दरसन पीया का मुझै इलाज होया
आप आप मैं आप समाया है
कृष्ण और राम का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं-
ब्रिन्दाबन में गऊआं चराएं
लंका चढ़ के नाद बजाएं
मक्के दा हाजी बण आएं
वाहवा रंग वताई दा
हुण किसतों आप छपाई दा

उनका अद्वैत मत ब्रह्म सर्वव्यापी है. वे कहते हैं-
हुण किस थी आप छपाई दा
किते मुल्ला हो बुलेन्दे हो
किते सुन्नत फ़र्ज़ दसेन्दे हो
किते राम दुहाई देन्दे हो
किते मथ्थे तिलक लगाई दा
बेली अल्लाह वाली मालिक हो
तुसी आपे अपने सालिक हो
आपे ख़ल्कत आपे ख़ालिक हो
आपे अमर मारूफ़ कराई दा
किधरे चोर हो किधरे क़ाज़ी हो
किते मिम्बर ते बेह वाजी हो
किते तेग बहादुर गाजी हो
आपे अपना कतक चढाई दा
बुल्ले शाह हुण सही सिंझाते हो
हर सूरत नाल पछाते हो
हुण मैथों भूल ना जाई दा
हुण किस तों आप छपाई दा

बुल्ले शाह का मानना था कि जिसे गुरु की शरण मिल जाए, उसकी ज़िन्दगी को सच्चाई की एक राह मिल जाती है. वे कहते हैं-
बुल्ले शाह दी सुनो हकैत
हादी पकड़िया होग हदैत
मेरा मुर्शिद शाह इनायत
उह लंघाए पार
इनायत सभ हूया तन है
फिर बुल्ला नाम धराइया है

भले ही बुल्ले शाह की धरती अब पाकिस्तान हो, लेकिन भारत में भी उन्हें उतना ही माना जाता है, जितना पाकिस्तान में. अगर यह कहा जाए कि बुल्ले शाह भारत और पाकिस्तान के महान सूफ़ी शायर होने के साथ इन दोनों मुल्कों की सांझी विरासत के भी प्रतीक हैं तो ग़लत न होगा. आज भी पाकिस्तान में बुल्ले शाह के बारे में कहा जाता है कि 'मेरा शाह-तेरा शाह, बुल्ले शाह'.

प्रदीप श्रीवास्तव
विश्व के सात अजूबों में से एक, प्रेम का प्रतीक ताजमहल और आगरा आज एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. अब ताज भारत का गौरव ही नहीं अपितु दुनिया का गौरव बन चुका है. ताजमहल दुनिया की उन 165 ऐतिहासिक इमारतों में से एक है, जिसे राष्ट्र संघ ने विश्व धरोहर की संज्ञा से विभूषित किया है. इस तरह हम कह सकते हैं कि ताज हमारे देश की एक बेशकीमती धरोहर है, जो सैलानियों और विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. प्रेम के प्रतीक इस खूबसूरत ताज के गर्भ में मुग़ल सम्राट शाहजहां की सुंदर प्रेयसी मुमताज महल की यादें सोयी हुई हैं, जिसका निर्माण शाहजहां ने उसकी याद में करवाया था. कहते हैं कि इसके बनाने में कुल बाईस वर्ष लगे थे, लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि सम्राट शाहजहां की पत्नी मुमताज की न तो आगरा में मौत हुई थी और न ही उसे आगरा में दफनाया गया था. मुमताज महल तो मध्य प्रदेश के एक छोटे जिले बुरहानपुर (पहले खंडवा जिले का एक तहसील था) के जैनाबाद तहसील में मरी थी, जो सूर्य पुत्री ताप्ती नदी के पूर्व में आज भी स्थित है. इतिहासकारों के अनुसार लोधी ने जब 1631 में विद्रोह का झंडा उठाया था तब शाहजहां अपनी पत्नी (जिसे वह अथाह प्रेम करता था) मुमताज महल को लेकर बुरहानपुर चला गया. उन दिनों मुमताज गर्भवती थी. पूरे 24 घंटे तक प्रसव पीड़ा से तड़पते हुए जीवन-मृत्यु से संघर्ष करती रही. सात जून, दिन बुधवार सन 1631 की वह भयानक रात थी, शाहजहां अपने कई ईरानी हकीमों एवं वैद्यों के साथ बैठा दीपक की टिमटिमाती लौ में अपनी पत्नी के चेहरे को देखता रहा. उसी रात मुमताज महल ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया, जो अधिक देर तक जिन्दा नहीं रह सका. थोड़ी देर बाद मुमताज ने भी दम तोड़ दिया. दूसरे दिन गुरुवार की शाम उसे वहीँ आहुखाना के बाग में सुपुर्द-ए- खाक कर दिया गया. वह इमारत आज भी उसी जगह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़ी मुमताज के दर्द को बयां करती है. इतिहासकारों के मुताबिक मुमताज की मौत के बाद शाहजहां का मन हरम में नहीं रम सका. कुछ दिनों के भीतर ही उसके बाल रुई जैसे सफ़ेद हो गए. वह अर्धविक्षिप्त-सा हो गया. वह सफ़ेद कपड़े पहनने लगा. एक दिन उसने मुमताज की कब्र पर हाथ रखकर कसम खाई कि मुमताज तेरी याद में एक ऐसी इमारत बनवाऊंगा, जिसके बराबर की दुनिया में दूसरी नहीं होगी. बताते हैं कि शाहजहां की इच्छा थी कि ताप्ती नदी के तट पर ही मुमताज कि स्मृति में एक भव्य इमारत बने, जिसकी सानी की दुनिया में दूसरी इमारत न हो. इसके लिए शाहजहां ने ईरान से शिल्पकारों को जैनाबाद बुलवाया. ईरानी शिल्पकारों ने ताप्ती नदी के का निरीक्षण किया तो पाया कि नदी के किनारे की काली मिट्टी में पकड़ नहीं है और आस-पास की ज़मीन भी दलदली है. दूसरी सबसे बड़ी बाधा ये थी कि तप्ति नदी का प्रवाह तेज होने के कारण जबरदस्त भूमि कटाव था. इसलिए वहां पर इमारत को खड़ा कर पाना संभव नहीं हो सका. उन दिनों भारत की राजधानी आगरा थी. इसलिए शाहजहां ने आगरा में ही पत्नी की याद में इमारत बनवाने का मन बनाया. उन दिनों यमुना के तट पर बड़े -बड़े रईसों कि हवेलियां थीं. जब हवेलियों के मालिकों को शाहजहां कि इच्छा का पता चला तो वे सभी अपनी-अपनी हवेलियां बादशाह को देने की होड़ लगा दी. इतिहास में इस बात का पता चलता है कि सम्राट शाहजहां को राजा जय सिंह की अजमेर वाली हवेली पसंद आ गई. सम्राट ने हवेली चुनने के बाद ईरान, तुर्की, फ़्रांस और इटली से शिल्पकारों को बुलवाया. कहते हैं कि उस समय वेनिस से प्रसिद्ध सुनार व जेरोनियो को बुलवाया गया था. शिराज से उस्ताद ईसा आफंदी भी आए, जिन्होंने ताजमहल कि रूपरेखा तैयार की थी. उसी के अनुरूप कब्र की जगह को तय किया गया. 22 सालों के बाद जब प्रेम का प्रतीक ताजमहल बनकर तैयार हो गया तो उसमें मुमताज महल के शव को पुनः दफनाने की प्रक्रिया शुरू हुई. बुरहानपुर के जैनाबाद से मुमताज महल के जनाजे को एक विशाल जुलूस के साथ आगरा ले जाया गया और ताजमहल के गर्भगृह में दफना दिया गया. इस विशाल जुलूस पर इतिहासकारों कि टिप्पणी है कि उस विशाल जुलूस पर इतना खर्च हुआ था कि जो किल्योपेट्रा के उस ऐतिहासिक जुलूस की याद दिलाता है जब किल्योपेट्रा अपने देश से एक विशाल समूह के साथ सीज़र के पास गई थी. जिसके बारे में इतिहासकारों का कहना है कि उस जुलूस पर उस समय आठ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. ताज के निर्माण के दौरान ही शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने उन्हें कैद कर के पास के लालकिले में रख दिया, जहां से शाहजहां एक खिड़की से निर्माणाधीन ताजमहल को चोबीस घंटे देखते रहते थे. कहते हैं कि जब तक ताजमहल बनकर तैयार होता. इसी बीच शाहजहां की मौत हो गई. मौत से पहले शाहजहां ने इच्छा जाहिर की थी कि "उसकी मौत के बाद उसे यमुना नदी के दूसरे छोर पर काले पत्थर से बनी एक भव्य इमारत में दफ़न किया जाए और दोनों इमारतों को एक पुल से जोड़ दिया जाए", लेकिन उसके पुत्र औरंगजेब ने अपने पिता की इच्छा पूरी करने की बजाय, सफ़ेद संगमरमर की उसी भव्य इमारत में उसी जगह दफना दिया, जहां पर उसकी मां यानि मुमताज महल चिर निद्रा में सोईं हुई थी. उसने दोनों प्रेमियों को आस-पास सुलाकर एक इतिहास रच दिया. बुहरानपुर पहले मध्य प्रदेश के खंडवा जिले की एक तहसील हुआ करती थी, जिसे हाल ही में जिला बना दिया गया है. यह जिला दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग पर इटारसी-भुसावल के बीच स्थित है. बुहरानपुर रेलवे स्टेशन भी है, जहां पर लगभग सभी प्रमुख रेलगाड़ियां रुकती हैं. बुहरानपुर स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर दूर शहर के बीच बहने वाली ताप्ती नदी के उस पर जैनाबाद (फारुकी काल), जो कभी बादशाहों की शिकारगाह (आहुखाना) हुआ करती थी, जिसे दक्षिण का सूबेदार बनाने के बाद शहजादा दानियाल ( जो शिकार का काफी शौक़ीन था) ने इस जगह को अपने पसंद के अनुरूप महल, हौज, बाग-बगीचे के बीच नहरों का निर्माण करवाया था, लेकिन 8 अप्रेल 1605 को मात्र तेईस साल की उम्र मे सूबेदार की मौत हो गई. स्थानीय लोग बताते हैं कि इसी के बाद आहुखाना उजड़ने लगा. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार मनोज यादव कहते हैं कि जहांगीर के शासन काल में सम्राट अकबर के नौ रतनों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना ने ईरान से खिरनी एवं अन्य प्रजातियों के पौधे मंगवाकर आहुखाना को पुनः ईरानी बाग के रूप में विकसित करवाया. इस बाग का नाम शाहजहां की पुत्री आलमआरा के नाम पर पड़ा. बादशाहनामा के लेखक अब्दुल हामिद लाहौरी साहब के मुताबिक शाहजहां की प्रेयसी मुमताज महल की जब प्रसव के दौरान मौत हो गई तो उसे यहीं पर स्थाई रूप से दफ़न कर दिया गया था, जिसके लिए आहुखाने के एक बड़े हौज़ को बंद करके तल घर बनाया गया और वहीँ पर मुमताज के जनाजे को छह माह रखने के बाद शाहजहां का बेटा शहजादा शुजा, सुन्नी बेगम और शाह हाकिम वजीर खान, मुमताज के शव को लेकर बुहरानपुर के इतवारागेट-दिल्ली दरवाज़े से होते हुए आगरा ले गए. जहां पर यमुना के तट पर स्थित राजा मान सिंह के पोते राजा जय सिंह के बाग में में बने ताजमहल में सम्राट शाहजहां की प्रेयसी एवं पत्नी मुमताज महल के जनाजे को दोबारा दफना दिया गया. यह वही जगह है, जहां आज प्रेम का शाश्वत प्रतीक, शाहजहां-मुमताज के अमर प्रेम को बयां करता हुआ विश्व प्रसिद्ध "ताजमहल" खड़ा है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)


फ़िरदौस ख़ान
भारत गांवों का देश है. गांवों में ही हमारी लोक कला और लोक संस्कृति की पैठ है. लेकिन गांवों के शहरों में तब्दील होने के साथ-साथ हमारी लोककलाएं भी लुप्त होती जा रही हैं. इन्हीं में से एक है लोक संगीत. संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है. संगीत के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर करना भी बेमानी लगता है. संगीत को इस शिखर तक पहुंचाने का श्रेय बोलती फ़िल्मों को जाता है. इससे पहले फ़िल्मों में संगीत का इस्तेमाल तो होता था, लेकिन तकनीकी तौर पर रिकॉर्ड नहीं बनाए जा सकते थे. फ़िल्मों में संगीत की शुरुआत 1931 में बनी फ़िल्म आलम आरा से हुई. यह देश की पहली बोलती फ़िल्म थी. फ़िल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुए पहली बार रिकॉर्ड मशीन का इस्तेमाल किया. यह फ़िल्म 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई. फ़िल्म इतनी लोकप्रिय हुई कि पुलिस को भीड़ पर क़ाबू पाने के लिए मदद बुलानी पड़ी थी. इसका संगीत फ़िरोज़ मिस्त्री ने दिया था. इसमें आवाज़ देने के लिए उस वक़्त तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया. फ़िल्म के गीतों के बारे में कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव अर्देशिर ईरानी ने किया था. गीतों के चुनाव के बाद उनके फ़िल्मांकन की समस्या रही होगी. उसकी कोई मिसाल ईरानी के सामने नहीं थी और न ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था. सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फ़िल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफ़ी मुश्किल था. इस फ़िल्म में स्वर देकर डब्ल्यूए ख़ान पहले स्वर देने वाले गायक बने. अफ़सोस की बात है कि इस फ़िल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके. फ़िल्म में कुल सात गाने थे. इनमें से एक गीत फ़क़ीर का किरदार निभाने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था. गीत के बोल थे- ’दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त है अगर देने की’. यह हिंदी सिनेमा का पहला गाना था. एक और गाने के बारे में एलवी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था. इसके बोल थे-’बलमा कहीं होंगे’.

फ़िल्म के संगीत में सिर्फ़ तीन वाद्य यंत्रों तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया था. फ़िल्म के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम मंगवाया गया. उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफ़ोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे. अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे रिकॉर्डिंग की बारीकियां सीखीं और फ़िल्म की रिकॉर्डिंग की. इस फ़िल्म के साथ ही भारतीय फ़िल्म जगत में पार्श्व गायिकी और पार्श्व संगीत का एक ऐसा दौर शुरू हुआ, जो आज तक भारतीय फ़िल्म की जान है. यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फ़िल्म संगीत की पहचान बना हुआ है. फ़िल्मों में ज़्यादा से ज़्यादा गाने देने की होड़ लग गई. अयूब ए ख़ान और मास्टर निसार जैसे संगीतकारों का मुक़द्दर चमक उठा. फ़िल्म ’लैला मजनूं’ में 22 गाने थे और फ़िल्म ’शकुंतला’ में 42 गाने रखे गए थे. फ़िल्म ’इंद्रसभा’ में 71 गाने थे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. दरअसल, फ़िल्में संगीत से ही चलती थीं. इन फ़िल्मों की कहानी महज़ दो गीतों के बीच की जगह भरने के लिए होती थी. ’इंद्रसभा’ के संगीतकार नागरदास बहुत प्रसिद्ध हुए थे. बक़ौल सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक श्याम बेनेगल, आलम आरा सिर्फ़ एक सवाक फ़िल्म नहीं थी, बल्कि यह बोलने और गाने वाली फ़िल्म थी, जिसमें बोलना कम और गाना ज़्यादा था. इस फ़िल्म में कई गीत थे और इसने फ़िल्मों में गाने के ज़रिये कहानी को कहे जाने या बढ़ाए जाने की परंपरा शुरू की.

फ़िल्मों में पार्श्व गायन की शुरुआत संगीतकार आरसी बोराल की फ़िल्म ’धूप छांव’ से हुई. इस फ़िल्म के पार्श्व गायक केसीडे थे, जिन्होंने ’आज मेरे घर मोहन आया’ गाना गाया था. 1934 में केदारनाथ शर्मा की फ़िल्म ’देवदास’ आई, जो अपने मधुर संगीत की वजह से बहुत लोकप्रिय हुई. इसमें केएल सहगल ने पार्श्व गायन के साथ-साथ देवदास का किरदार निभाया था. फ़िल्म ’क़िस्मत’ का गाना- ’दूर हटो ऐ दुनिया वालों ! हिंदुस्तान हमारा है’, बहुत लोकप्रिय हुआ. संगीतकार नौशाद ने अपनी फ़िल्मों में शास्त्रीय संगीत का बखू़बी इस्तेमाल किया. इसके साथ ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का बेहतरीन इस्तेमाल कर कर्णप्रिय धुनें तैयार कीं. बाद में कई संगीतकारों ने इसे आगे बढ़ाते हुए देश के विभिन्न हिस्सों के लोक संगीत पर आधारित धुनें बनाईं. नौशाद की फ़िल्म ’रतन’ के गाने ’अंखिया मिला के, जिया भरमा के चले नहीं जाना’ ने तो धूम मचा दी थी. 1945 के बाद के दौर में प्रेमकथा पर आधारित फ़िल्में बनीं. संगीत की धुनों में भी बदलाव आया. साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया जाने लगा कि पार्श्व में नायक-नायिका की आवाज़ मिलती-जुलती गायक-गायिकाओं की ली जाए. उस वक़्त के गायकों में केएल सहगल, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद और गायिकाओं में नूरजहां और सुरैया थीं. 1950 से 1960 तक का दशक न केवल शास्त्रीय संगीत पर आधारित धुनों के लिए मशहूर हुआ, बल्कि इस दौर में फ़िल्मों में ग़ज़लों और लोकगीतों का भी इस्तेमाल हुआ. नौशाद की फ़िल्म ’मुग़ले-आज़म’ ने तो अपने मधुर सगीत के लिए सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए. इसके सभी गाने शास्त्रीय संगीत पर आधारित थे.

अनिल विश्वास की फ़िल्म तराना में तलत महमूद द्वारा गाई ग़ज़ल ’सीने में सुलगते हैं अरमां, आंखों में उदासी छाई है’, राग यमन में थी. लोकगीतों का इस्तेमाल भी फ़िल्मों में एक नई शैली की शुरुआत थी. एसडी बर्मन ने पहली बार फ़िल्म ’तलाश’ में बंगाल के भटियाली लोकगीत का इस्तेमाल किया. उन्होंने फ़िल्म ’गाईड’ में यहां कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहां’ और फ़िल्म ’सुजाता’ के गीत ’सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मीत’, में लोकधुनों को अपनाया. संगीतकार ओपी नैयर ने अपनी फ़िल्मों में पंजाबी धुनों का खू़ब इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’फागुन’ में आशा भोंसले की आवाज़ में गाया गया गाना ’एक परदेसी मेरा दिल ले गया’, बहुत लोकप्रिय हुआ. 1975 में बनी फ़िल्म ’प्रतिज्ञा’ का मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’मैं जट यमला पगला दीवाना’ आज भी पसंद किया जाता है. फ़िल्म ’नया दौर’  का गाना ’ ये देश है वीर जवानों का’ भी ख़ासा मशहूर हुआ.
इस फ़िल्म की हीर ’उठ नींद से मिर्ज़ेया जाग जा’ भी बहुत मशहूर हुई. फ़िल्म ’मिलन’ के गीत ’सावन का महीना, पवन करे सोर’ से भी माटी की महक आती है. संगीतकार शंकर जयकिशन का संगीतबद्ध फ़िल्म ’तीसरी क़सम’ का गाना ’ पान खाय सैंया हमार भी’ लोकप्रिय गीत है.
 संगीत में बदलाव के इस दौर में संगीतकारों ने पश्चिमी संगीत की धुनों का भी इस्तेमाल किया. संगीतकार ओपी नैयर ने ये है ’बॉम्बे मेरी जान’, सी रामचंद्र ने ’गोरे-गोरे ओ बांके छोरे, शोला जो भड़के’ और ’ईना मीना डीका’ जैसे गानों को संगीत दिया.

किशन धवन की मुंशी प्रेमचंद की दो बैलों की कथा पर आधारित फ़िल्म ’हीरा मोती’ का गीत ’कौन रंग हीरा, कौन रंग मोती’ भी प्रचलित लोकगीत है. फ़िल्म ’गोदान’ का गीत ’पुरबा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा’ भी लोक संगीत पर आधारित है.
फ़िल्म ’लावारिस’ का गीत ’मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ और फ़िल्म ’सिलसिला’ का होली का गीत ’रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे’ भी लोकगीतों से ही प्रभावित हैं. पहले दोनों ही फ़िल्मों में इन गीतों के गीतकार के तौर पर हरिवंश राय बच्चन का नाम दिया गया था, लेकिन बाद में हटा लिया गया. जेपी दत्ता की फ़िल्म ’उमराव जान’ में जावेद अख़्तर द्वारा पेश किया गया गीत ’अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजौ’ भी मशहूर लोकगीत है, जिसके रचयिता अमीर खु़सरो हैं. इसी तरह फ़िल्म ’ग़ुलामी’ का गीत ’ज़िहाले मस्ती मक़म बरंजिश’ भी फ़ारसी के गीत से प्रेरित है. फ़िल्म ’लम्हे’ का गीत ’मोरनी बागा में बोले आधी रात मा’ राजस्थानी लोक संगीत से प्रभावित है. इसके अलावा शम्मी कपूर और ओपी नैयर ने फ़िल्मों में याहू नामक नई शैली का इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’जंगली’ में शंकर जयकिशन द्वारा निर्देशित मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’चाहे कोई मुझे जंगली कहे याहू’ बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद आया दौर किशोर कुमार की नई शैली यूडली का. फ़िल्म ’आराधना’ और ’अमर प्रेम’ आदि के गानों में यूडली का इस्तेमाल किया गया. इन फ़िल्मों का संगीत एसडी बर्मन ने दिया. वक़्त के साथ-साथ फ़िल्म संगीत में भी बदलाव आता गया. फ़िल्मों से शास्त्रीय संगीत लुप्त होता गया और इसकी जगह पर चोली और खंडाला जैसे गाने आ गए. लेकिन कई संगीतकारों ने अच्छी धुनें तैयार कीं. फिल्म ’लेकिन’, ’रुदाली’, ’दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ’दिल तो पागल है’, ’दिल से’, ’साजन’ और ’कुछ-कुछ होता है’ ’फ़ना’ आदि फ़िल्मों का संगीत सुमधुर और कर्णप्रिय रहा. फ़िल्म ’दिल्ली छह’ के गीत ’सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल’ छत्तीसगढ़ का लोकगीत है. इस लोकगीत को सबसे पहले 1972 में रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था. गंगाराम शिवारे के लिखे इस गीत को भुलवाराम यादव ने अपनी आवाज़ दी थी. फ़िल्म ’पीपली लाइव’ का महंगाई डायन खाय जात है, भी लोक संगीत पर आधारित है. अनुराग कश्यप की फ़िल्म ’गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ का लोकगीत ’तार बिजली से पतले हमारे पिया’ बिहार और झारखंड में विवाह के मौक़े पर गाया जाता है. इस गीत को गाने वाली वाली बिहार की जानी मानी लोक गायिका पदमश्री शारदा सिन्हा का कहना है कि फ़िल्मों से लोक संगीत को बड़ा मंच मिलता है और जिन फ़िल्मों में मूल लोक संगीत को अपनाया गया है, उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कामयाब रही हैं. सोहेल ख़ान की फ़िल्म ’मैंने प्यार किया’ के गीत ’कहे तोसे सजना’ के ज़रिये हिंदी सिनेमा में प्रवेश करने वाली लोक गायिका शारदा सिन्हा के गीतों में लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का सम्मिश्रण है. उनका गाया फ़िल्म ’हम आपके हैं कौन’ का गीत ’बाबुल जो तुमने सिखाया’ भी ख़ासा लोकप्रिय हुआ था. मौजूदा संगीत का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि नए लोग प्रतिभावान हैं, लेकिन उनमें से ज़्यादातर की गायिकी पर बाज़ार हावी है. नए गीतों के बोल उन्हें अच्छे नहीं लगते और लोक संगीत के नाम पर भी रीमिक्स परोसा जा रहा है. उनमें शुद्धता का अभाव है. हालांकि स्थानीय स्तर पर लोक संगीत की कई अल्बम आए दिन रिलीज़ होती रहती हैं. लोकगायकों की अल्बमों में ठेठ लोक संगीत की महक बरक़रार रहती है, लेकिन नए गायकों की अल्बमों में लोक संगीत की शुद्धता की कमी खलती है.

गांवों और क़स्बों में आज भी लोक संगीत का बड़ा महत्व है. मांगलिक कार्यों में महिलाएं आंचलिक गीत गाती हैं. लोक संगीत के बिना कोई भी उत्सव पूरा नहीं हो पाता है. आज भी सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जनसंपर्क विभाग लोक गायकों की मदद लेता है. मगर शहरों में लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गीत लेते जा रहे हैं. लेकिन यह कहना ग़लत न होगा कि फ़िल्में लोक संगीत के प्रचार-प्रसार का बेहतर ज़रिया साबित हो सकती हैं. इन गीतों में ही हमारी संस्कृति की आत्मा बसी है.


तनवीर जाफ़री
फतवा जारी करने में महारत रखने वाले तमाम नीम-हकीम मुल्लओं द्वारा समय-समय पर इस्लाम धर्म के हवाले से ऐसे विवादित फतवे जारी किए जाते रहे हैं जिन्हें सुनकर आम लोग विचलित हो जाया करते हैं. ऐसे ही विवादित फतवों में एक है मोलवियों द्वारा समय-समय पर दिया जाने वाला गीत-संगीत विरोधी फतवा. ऐसे फतवे हालांकि पहले भी कई देशों के तमाम 'नीम-हकीम' मोलवियों द्वारा विभिन्न देशों में जारी किए जा चुके हैं. परंतु पिछले दिनों कश्मीर के एक रॉक बैंड में मुस्लिम युवाओं की भागीदारी के विरुद्ध जब एक मोलवी ने इस्लामी दलीलें पेश करते हुए एतराज़ जताया तो एक बार फिर भारत में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि वास्तव में इस्लाम धर्म में संगीत का क्या स्थान है? इस्लाम में संगीत की प्रासंगिकता क्या है और संगीत, इस्लाम की नज़रों में जायज़ है या हराम और नाजायज़? क्या मोलवियों को समय-समय पर ऐसे विषयों पर अपने फतवे जारी भी करने चाहिए या नहीं?
आइए इस विषय पर इस्लामी इतिहास में झांकने की कोशिश की जाए. गौरतलब है कि इस्लाम धर्म को हज़रत मोह मद साहब के समय से जोड़कर देखा जाता है. परंतु इस्लामी मान्यताएं यह हैं कि हज़रत मोह मद जोकि इस्लाम के आिखरी पैग बर माने जाते हैं उनके समय से उनकी उ मत या अनुयायी जिस पंथ का अनुसरण करने लगे उसका नाम इस्लाम था. परंतु  इस्लामी मान्यताओं के अनुसार इस्लाम की शुरुआत धरती के प्रथम मानव व प्रथम पैगंबर हज़रत आदम से हुई बताई जाती है. गोया हज़रत आदम से लेकर हज़रत मोह मद तक एक लाख चौबीस हज़ार पैगंबर पृथ्वी पर खुदा की ओर से अवतरित किए गए. इनमें केवल चार पैग बर ऐसे थे जिनपर खुदा ने अपनी हिदायतें अता कीं और बाद में इन्हीं हिदायतों का संकलन पुस्तकों के रूप में सामने आया. इनमें हज़रत मोह मद पर कुरान शरीफ नाजि़ल हुआ तो हज़रत ईसा पर इंजील(बाईबल),हज़रत मूसा पर तौरेत उतरी तो हज़रत दाऊद पर ज़ुबूर. यानी हज़रत दाऊद की गिनती एक लाख 24 हज़ार में से सर्वोच्च या सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले चार साहब-ए-किताब(पुस्तकधारी) पैगंबरों (अवतारों) में की जाती है. अब यदि हम पैगंबर हज़रत दाऊद की सबसे बड़ी विशेषता एवं उनके सबसे प्रमुख आकर्षण पर नज़र डालें और उनसे जुड़े इतिहास के पन्नों को पलटें तो हम यहां पाएंगे कि खुदा ने हज़रत दाऊद को मूसीक़ी का शहंशाह बनाकर पृथ्वी पर अवतरित किया था. बताया जाता है कि जब वे अपने सुर लगाते थे तो पर्वत और जंगल मस्ती में आकर उनके सुर से अपना सुर मिलाने लगते थे. इतना ही नहीं बल्कि तमाम पक्षी व जानवर सभी हज़रत दाऊद की सुरीली आवाज़ की ओर खिंचे चले आते थे. गोया हज़रत दाऊद का रागों, साज़ों व सुरों पर संपूर्ण नियंत्रण था.

ज़ुबूर में यह भी लिखा हुआ है कि कौन-कौन से रागों में गाकर तथा किन-किन साज़ों को बजाकर हज़रत दाऊद ने खुदा की शान में कसीदे पढ़े. यदि अल्लाह की नज़रों में संगीत हराम या नाजायज़ होता तो वह अपने प्यारे पैग बर हज़रत दाऊद को क्योंकर गीत-संगीत की इतनी बड़ी दौलत व हुनर से नवाज़ता? हराम चीज़ें खुदा क्योंकर अपने पैग बर को अता करता? इतिहास है कि खुद पैगंबर हज़रत मोह मद ने अपने एक सहाबी अबु मूसा अशरी की आवाज़ सुनकर प्रसन्न होकर कहा था कि लगता है तु हारे गले में दाऊद का साज़ है. आज पूरी दुनिया में कुरान शरीफ की तिलावत(पढऩा)की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं. इसमें केवल साज़ नहीं होते बाकी सुर,धुन और गले का पूरा हुनर दिखाया जाता है. और पूरे विश्व में ऐसे प्रतियोगियों को स मानित भी किया जाता है. हज़रत मोह मद के समय में अज़ान देने वाले हज़रत बिलाल अपनी गुलूकारी के लिए इतने प्रसिद्ध व लोकप्रिय थे कि आज तक अज़ान-ए-बिलाल का जि़क्र मौलवियों द्वारा किया जाता है. और तमाम इस्लामी किताबों में उनके अज़ान पढऩे की कला का जि़क्र है. हज़रत मोहम्मद को भी हज़रत बिलाल की अज़ान अत्यंत प्रिय थी. खुदा या अपने पीर-ओ-मुर्शिद की उपासना करने का एक प्राचीन माध्यम गीत-संगीत ही है. कहा जा सकता है कि इसकी शुरुआत पैग बर हज़रत दाऊद के साज़ से हुई जो आज के युग में चलते-चलते नुसरत फतेह अली खां और बिस्मिल्ला खां जैसे संगीत के महारथियों तक पहुंची. बिस्मिल्लाह खां व नुसरत फतेह अली खां दानों ही के बारे में बताया जाता है यह पांच वक़्त के नमाज़ी थे और दिमागी तौर पर हर समय खुदा की याद में खोए रहते थे. और उनका यही चिंतन उन्हें गीत व संगीत की दुनिया में उस बुलंदी पर ले गया पर ले गया जहां दुनिया का कोई दूसरा शहनाई वादक या गायक नहीं पहुंच सका. बड़े आश्चर्य की बात है कि शहनाई जैसे साज़ पर अपना एकछत्र नियंत्रण रखने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को तो उनकी अभूतपूर्व शहनाईवादन जैसी कला के लिए सरकार भारत रत्न से नवाज़ती है तो कठमुल्लों को वही संगीत इस्लाम विरोधी या नाजायज़ दिखाई देता है.

इसी प्रकार नुसरत फतेह अली खां एक सच्चे मुसलमान भी थे. नमाज़ी व परहेज़गार भी. उन्होंने अपनी आवाज़, संगीत व निराली व आकर्षक गायन शैली की बदौलत संगीत की दुनिया में वह याति अर्जित की जिसका कभी कोई मुकाबला नहीं कर सकता. गुरु नानक, बुल्लेशाह,फरीद,हज़रत मोह मद,हज़रत इमाम हुसैन, हज़रत अली सहित तमाम पीरों-फकीरों की शान में अपने विशेष अंदाज़ में कव्वालियां, कसीदे, हम्द, नात व कॉफी आदि गाकर फतेहअली खां ने दुनिया में इस्लामी पीरों-फक़ीरों, पैगंबरों व संतों के कसीदे पढ़े. मज़ारों, खाऩक़ाहों, दरगाहों में कव्वालियां गाने तथा गीत-संगीत के माध्यम से अपने मुर्शिद को खुश करने, उसे श्रद्धांजलि देने  या उसकी शान में कसीदे पढऩे का सिलसिला बेशक हज़रत दाऊद के समय से शुरु हुआ परंतु मध्ययुगीनकाल में हज़रत अमीर खुसरू के ज़माने से इस कला को पुन: संजीवनी मिली है. यदि इस्लाम में संगीत हराम या नाजायज़ होता तो हज़रत अमीर खुसरू की गीत-संगीत के प्रति क्योंकर इतनी दिलचस्पी होती? अजमेर शरीफ, हज़रत निज़ामुदीन औलिया जैसे महान सूफी-संतों की दरगाहें हर वक्त ढोलक, तबले और हारमोनियम की आवाज़ों से सराबोर रहती हैं. क्या इनमें शिरकत करने वाले, गाने या सुनने वाले सभी गैर इस्लामी, हराम और नाजायज़ अमल करते हैं?

मोहर्रम के अवसर पर हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद कर उन्हें कई धर्मों के कई वर्गों द्वारा अलग-अलग तरीके से श्रद्धांजलि दी जाती है. इनमें कहीं मरसिए पढ़े जाते हैं तो कहीं सोज़, कहीं नौहा तो कहीं रुबाई. सभी कलाम बाकायदा सुर और गुलूकारी पर आधारित होते हैं. नौहा-मातम की तो बाकायदा धुनें तैयार की जाती हैं. बिस्मिल्लाह खां अपनी शहनाई बजाकर ही हज़रत इमाम हुसैन को श्रद्धांजलि दिया करते थे. उनकी शहनाई सुनकर तो पत्थर दिल इंसान भी रो पड़ता था. क्या यह सब इस्लाम में संगीत के हराम होने के लक्षण कहे जा सकते हैं? जिस हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लाम धर्म को बचाने के लिए करबला में अपने पूरे परिवार की कुर्बानी दी हो उस हुसैन के चाहने वाले क्या गैर इस्लामी तरीके अपना कर अपने प्रिय हुसैन को याद करना चाहेंगे? शायद कभी नहीं. बड़े आश्चर्य की बात है कि कठमुल्लों को इस्लाम में संगीत हराम और नाजायज़ दिखाई देता है. तो दूसरी तरफ अल्लाह ने मुस्लिम घरानों में ही बड़े व छोटे गुलाम अली, डागर बंधु, बिस्मिल्लाह खां, फतेह अली, मेंहदी हसन, गुलामी अली सहित तमाम ऐसे उस्ताद फनकार पैदा किए जिनकी प्रसिद्धि की पताका हमेशा दुनिया में गीत-संगीत के क्षेत्र में लहराती रहेगी. कहना ग़लत नहीं होगा कि किसी भी व्यक्ति का संगीत से रिश्ता तो उसके पैदा होने के साथ ही उसी वक्त शुरु हो जाता है जबकि एक नवजात शिशु की मां अपने बच्चे को सुरीली आवाज़ में लोरियां गाकर उसे सुलाने का प्रयास करती है.

दरअसल, इस्लामी नीम-हकीम कट्टरपंथियों द्वारा संगीत के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्कों का कारण यह है कि संगीत का जादू किसी इंसान पर नशा सा चढ़ा देता है और गीत-संगीत में डूबा हुआ इंसान अपनी वास्तविकता से दूर हो जाता है. यही तर्क इस्लाम में नशे के विरुद्ध भी दिया गया है और संगीत को नशे की श्रेणी में रखा गया है. परंतु संगीत के पैरोकार इस तर्क को खारिज करते हैं और सुर-साज़ और साज़ों से निकलने वाले संगीत को खुदा की ही ब शी हुई एक सौग़ात मानते हैं. इसके पक्ष में संगीत प्रेमी मुसलमान हज़रत दाऊद से लेकर अमीर खुसरो और आगे नुसरत फतेह अली खां जैसे सुर सम्राटों के तर्क पेश करते हैं. जहां तक गीत-संगीत में मदहोशी छाने का प्रश्र है तो इसे भी संगीत प्रेमी अपने पक्ष में ही देखते हैं. उनका मानना है कि यदि अपने आराध्य की याद में खो जाने व उसका नशा अपने आप पर हावी होने देने के लिए गीत और संगीत का सहारा लिया जा सकता है तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है. इन सब बातों व तर्कों के बावजूद यह सत्य है कि इस्लाम धर्म के तमाम वर्गों में अब भी रूढ़ीवादी लोग गीत-संगीत से नफरत करते हैं. उनका संगीत से फासला बनाकर रखना या नफरत करना उन्हें मुबारक हो. परंतु इस विषय पर सार्वजनिक रूप से इस्लाम का नाम लेकर  गीत-संगीत के विरुद्ध फतवे नहीं जारी करने चाहिए. संगीत के अतिरिक्त तमाम और भी ऐसी बातें हैं जिन्हें लेकर मुसलमानों के अलग-अलग वर्गों में मतभेद बने हुए हैं. परंतु किसी वर्ग या किसी विचारधारा को दूसरों पर अपनी बातें जबरन थोपने का अधिकार किसी को हरगिज़ नहीं होना चाहिए.
लेखक का परिचय

वरिष्ठ पत्रकार, समीक्षक और कॊलम लेखक तनवीर जाफ़री वर्तमान में हरियाणा साहित्य अकादमी के सदस्य है. बेबाक लेखन के लिए जाने जाते हैं. लेखन के अलावा सांप्रदायिक सौहार्द कायम करन के सामाजिक कामों में भी सक्रिय हैं.


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