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मेरे महबूब !
होली
मुझे बहुत अज़ीज़ है
क्योंकि
इसके इंद्रधनुषी रंगों में
तुम्हारे इश्क़ का रंग भी शामिल है...
-फ़िरदौस ख़ान

फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तानी त्योहार हमें बचपन से ही आकर्षित करते रहे हैं, क्योंकि ये त्योहार मौसम से जुड़े होते हैं, प्रकृति से जुड़े होते हैं. हर त्योहार का अपना ही रंग है, बिल्कुल मन को रंग देने वाला. बसंत पंचमी के बाद रंगों के त्योहार होली का उल्लास वातावरण को उमंग से भर देता है. होली से कई दिन पहले बाज़ारों, गलियों और हाटों में रंग, पिचकारियां सजने लगती हैं. छोटे क़स्बों और गांवों में होली का उल्लास देखते ही बनता है. महिलाएं कई दिन पहले से ही होलिका दहन के लिए भरभोलिए बनाने लगती हैं. भरभोलिए गाय के गोबर से बने उन उपलों को कहा जाता है, जिनके बीच में छेद होता है. इन भरभेलियों को मूंज की रस्सी में पिरोकर माला बनाई जाती है. हर माला में सात भरभोलिए होते हैं. इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमाने के बाद होलिका दहन में डाल दिया जाता है. होली का सबसे पहला काम झंडा लगाना है. यह झंडा उस जगह लगाया जाता है, जहां होलिका दहन होना होता है. मर्द और बच्चों चैराहों पर लकड़िया इकट्ठी करते हैं. होलिका दहन के दिन दोपहर में विधिवत रूप से इसकी पूजा-अर्चना की जाती है. महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए घरों में पकवानों का भोग लगाती हैं. रात में मुहूर्त के समय होलिका दहन किया जाता है. किसान गेहूं और चने की अपनी फ़सल की बालियों को इस आग में भूनते हैं. देर रात तक होली के गीत गाए जाते हैं और लोग नाचकर अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हैं.
होली के अगले दिन को फाग, दुलहंदी और धूलिवंदन आदि नामों से पुकारा जाता है. हर राज्य में इस दिन को अलग नाम से जाना जाता है. बिहार में होली को फगुआ या फागुन पूर्णिमा कहते हैं. फगु का मतलब होता है, लाल रंग और पूरा चांद. पूर्णिमा का चांद पूरा ही होता है. हरित प्रदेश हरियाणा में इसे धुलैंडी कहा जाता है. इस दिन महिलाएं अपने पल्लू में ईंट आदि बांधकर अपने देवरों को पीटती हैं. यह सब हंसी-मज़ाक़ का ही एक हिस्सा होता है. महाराष्ट्र में होली को रंगपंचमी और शिमगो के नाम से जाना जाता है. यहां के आम बाशिंदे जहां रंग खेलकर होली मनाते हैं, वहीं मछुआरे नाच के कार्यक्रमों का आयोजन कर शिमगो मनाते हैं. पश्चिम बंगाल में होली को दोल जात्रा के नाम से पुकारा जाता है. इस दिन भगवान श्रीकृष्ण और राधा की मूर्तियों का मनोहारी श्रृंगार कर शोभा यात्रा निकाली जाती है. शोभा यात्रा में शामिल लोग नाचते-गाते और रंग उड़ाते चलते हैं. तमिलनाडु में होली को कामान पंडिगई के नाम से पुकारा जाता है. इस दिन कामदेव की पूजा की जाती है. किवदंती है कि शिवजी के क्रोध के कारण कामदेव जलकर भस्म हो गए थे और उनकी पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें दोबारा जीवनदान मिला.
इस दिन सुबह से ही लोग रंगों से खेलना शुरू कर देते हैं. बच्चे-बड़े सब अपनी-अपनी टोलियां बनाकर निकल पड़ते हैं. ये टोलियां नाचते-गाते रंग उड़ाते चलती हैं. रास्ते जो मिल जाए, उसे रंग से सराबोर कर दिया जाता है. महिलाएं भी अपने आस पड़ोस की महिलाओं के साथ इस दिन का भरपूर लुत्फ़ उठाती हैं. इस दिन दही की मटकियां ऊंचाई पर लटका दी जाती हैं और मटकी तोड़ने वाले को आकर्षक इनाम दिया जाता है. इसलिए युवक इसमें बढ़-चढ़कर शिरकत करते हैं.
रंग का यह कार्यक्रम सिर्फ़ दोपहर तक ही चलता है. रंग खेलने के बाद लोग नहाते हैं और भोजन आदि के बाद कुछ देर विश्राम करने के बाद शाम को फिर से निकल पड़ते हैं. मगर अब कार्यक्रम होता है, गाने-बजाने का और प्रीति भोज का. अब तो होली से पहले ही स्कूल, कॊलेजों व अन्य संस्थानों में होली के उपलक्ष्य में समारोहों का आयोजन किया जाता है. होली के दिन घरों में कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं, जिनमें खीर, पूरी और गुझिया शामिल है. गुझिया होली का ख़ास पकवान है. पेय में ठंडाई और भांग का विशेष स्थान है.
होली एक ऐसा त्योहार है, जिसने मुग़ल शासकों को भी प्रभावित किया. अकबर और जहांगीर भी होली खेलते थे. शाहजहां के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी और आब-ए-पाशी के नाम से पुकारा जाता था. पानी की बौछार को आब-ए-पाशी कहते हैं. आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र भी होली मनाते थे. इस दिन मंत्री बादशाह को रंग लगाकर होली की शुभकामनाएं देते थे. पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक सफ़रनामे मे होली का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया है. हिन्दू साहित्यकारों ही नहीं मुस्लिम सूफ़ियों ने भी होली को लेकर अनेक कालजयी रचनाएं रची हैं. अमीर ख़ुसरो साहब कहते हैं-
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब ऐ इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया वो तो दोनों बसंती रंग दे
जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरबी रख ले
आन परी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे...
होली के दिन कुछ लोग पक्के रंगों का भी इस्तेमाल करते हैं, जिसके कारण जहां उसे हटाने में कड़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है, वहीं इससे एलर्जी होने का ख़तरा भी बना रहता है. हम और हमारे सभी परिचित हर्बल रंगों से ही होली खेलते हैं. इन चटक़ रंगों में गुलाबों की महक भी शामिल होती है. इन दिनों पलाश खिले हैं. इस बार भी इनके फूलों के रंग से ही होली खेलने का मन है.

फ़िरदौस ख़ान
ये कहानी है दिल्ली के ’शहज़ादे’ और हिसार की ’शहज़ादी’ की. उनकी मुहब्बत की... गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शाह तुगलक़ ने अपनी महबूबा के रहने के लिए किया था...यह किसी भी महबूब का अपनी महबूबा को परिस्तान में बसाने का ख़्वाब ही हो सकता था और जब गूजरी महल की तामीर की गई होगी...तब इसकी बनावट, इसकी नक्क़ाशी और इसकी ख़ूबसूरती को देखकर ख़ुद वह भी इस पर मोहित हुए बिना न रह सका होगा...

हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है. गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है. ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका. हिसार का गूजरी महल 1354 में फ़िरोज़शाह तुग़लक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया. गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है. इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था. ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फिरोज़शाह तुग़लक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है.

गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक ने क़िला बनवाया. यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया. क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं. दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़शाह तुग़लक का महल बताई जाती है. इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है. अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था. गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी.

सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है. हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते. यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है. फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे. शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे. उस वक़्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे. दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था. उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी. चारों तरफ़ घना जंगल था. गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था. आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी. इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी. डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे. डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था.

एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा. उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा, तो उस पर मोहित हो गया. गूजर कन्या भी शहज़ादा फ़िरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया. फ़िरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंज़ूरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती. फ़िरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा.

1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना. फ़िरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था. सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया. उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, क़िलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की. उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए. उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे.

दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़शाह तुग़लक ने महल हिसार इलाक़े में महल बनवाने की योजना बनाई. महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों. यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया. बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी. दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी. तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था.

किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई. दिल्ली के कोटला फ़िरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं. तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि हिसार को फ़िरोज़शाह तुग़लक के वक़्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फ़िरोज़ा नामक क़िला बनवाया था. 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'. इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था. अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है. इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-

सुनने की फुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं...


नज़्म
मेरे महबूब !
मैं हर रोज़
पढ़ती हूं
अल्लाह के निन्यानवे नाम
और
फिर पढ़ती हूं
अल्लाह के नबी
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
के निन्यानवे नाम
और
इन सब नामों में
ढूंढा करती हूं तुम्हारा नाम...
जान !
मुझे कहीं भी
तुम्हारा नाम नहीं मिलता
लेकिन
हर नाम में
तुम ही नज़र आते हो...
-फ़िरदौस ख़ान

फ़िरदौस ख़ान
फ़िराक़ गोरखपुरी बीसवीं सदी के वह शायर हैं, जो जंगे-आज़ादी से लेकर प्रगतिशील आंदोलन तक से जुडे रहे. उनकी ज़ाती ज़िंदगी बेहद कड़वाहटों से भरी हुई थी, इसके बावजूद उन्होंने अपने कलाम को इश्क़ के रंगों से सजाया. वह कहते हैं-
तू एक था मेरे अशआर में हज़ार हुआ
इस एक चिराग़ से कितने चिराग़ जल उठे फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनका असली नाम रघुपति सहाय था, लेकिन उन्होंने फ़िराक़ गोरखपुरी नाम से लेखन किया. उन्होंने एमए किया और आईसीएस में चुने गए. 1920 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी स्वराज आंदोलन में शामिल हो गए. वह डेढ़ साल तक जेल में भी रहे और यहां से छूटने के बाद जवाहरलाल नेहरू के कहने पर अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ़्तर में अवर सचिव बना दिए गए. नेहरू के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने पद से इस्तीफ़ा दे दिया और 1930 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक बन गए. उन्होंने 1959 तक यहां अध्यापन कार्य किया.

फ़िराक़ गोरखपुरी को 1968 में पद्म भूषण और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. अगले साल 1969 में उन्हें साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया. फिर 1970 में उन्हें साहित्य अकादमी का मनोनीत सदस्य नियुक्त किया गया. 1981 में उन्हें ग़ालिब अकादमी अवॉर्ड दिया गया. उनकी प्रमुख कृतियों में गुले-नग़मा, गुले-राना, मशाल, रूहे-कायनात, रूप, शबिस्तां, सरगम, बज़्मे-ज़िंदगी रंगे-शायरी, धरती की करवट, गुलबाग़, रम्ज़ कायनात, चिराग़ां, शोला व साज़, हज़ार दास्तान, और उर्दू की इश्क़िया शायरी शामिल हैं. उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियां भी लिखीं. उनकी उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुईं.

आम तौर पर ख़्याल किया जाता है कि फ़नकार को ऐसी बुनियाद और कमज़ोर हालात से बेनियाज़ होना चाहिए. ग़ालिब ज़िंदगी भर परेशान रहे, अपनी बीवी की शिकायत करते रहे. अपनी तमाम मुस्कराहटों के साथ जीवन पद्धति निभाते रहे. इसलिए मुश्किलें आसान लगने लगीं. मंटों ने तो हंस-हंस कर जीना सीखा था. ज़िंदगी की सारी तल्ख़ियां अपनी हंसी में पी गया और भी अच्छे फ़नकारों ने कुछ ऐसे ही जिया होगा.

29 जून, 1914 को उनका विवाह ज़मींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी हुआ, लेकिन वह पत्नी को पसंद नहीं करते थे. इसका उनकी ज़िंदगी पर गहरा असर पड़ा. बक़ौल फ़िराक़ गोरखपुरी, एक साहब ने मेरी शादी एक ऐसे ख़ानदान और एक ऐसी लड़की से कर दी कि मेरी ज़िंदगी एक नाक़ाबिले-बर्दाश्त अज़ाब बन गई. पूरे एक साल तक मुझे नींद न आई. उम्र भर मैं इस मुसीबत को भूल नहीं सका. आज तक मैं इस बात के लिए तरस गया कि मैं किसी को अपना कहूं ओर कोई मुझे अपना समझे.

फ़िराक़ के इश्क़ और मोहब्बत के चर्चे आम रहे. वह इस क़िस्म की शौहरत चाहते भी थे. कभी-कभी ख़ुद भी क़िस्सा बना लिया करते थे, ताकि ज़माना उन्हें एक आदर्श आशिक़ समझे. वह ख़ुद लिखते हैं-इन तकली़फ़देह और दुख भरे हालात में मैंने शायरी की ओर आहिस्ता-आहिस्ता अपनी आवाज़ को पाने लगा. अब जब शायरी शुरू की तो मेरी कोशिश यह हुई कि अपनी नाकामियों और आने ज़ख्मी ख़ुलूस के लिए अशआर के मरहम तैयार करूं. मेरी ज़िंदगी जितनी तल्ख़ हो चुकी थी, उतने ही पुरसुकून और हयात अफ़ज़ा अशआर कहना चाहता था. फ़िराक़ का ख़्याल है कि इस उलझन, द्वंद्व और टकराव से बाहर निकलने में सिर्फ़ एक भावना काम करती है और वह है इश्क़.

इश्क़ अपनी राह ले तो दिल क्या पूरी दुनिया जीत सकता है, बस इन दर्जों और हालात के ज्ञान की ज़रूरत हुआ करती है. फ़िराक़ का इश्क़, इस दर्जे का इश्क़ न सही जहां ख़ुदा और बंदे का फ़र्क़ उठ जाया करता है. फ़िराक़ का वह रास्ता न था. वह भक्ति और ईश्वर प्रेम की दुनिया के आदमी न थे. वह शमा में जलकर भस्म हो जाने पर यक़ीन भी नहीं रखते थे, बल्कि वह उस दुनिया के आशिक़ थे, जहां इंसान बसते हैं और उनका ख़्याल है कि इंसान का इंसान से इश्क़ ज़िंदगी और दुनिया से इश्क़ की बुनियाद जिंस (शारीरिक संबंध) है. किसी से जुनून की हद तक प्यार, ऐसा प्यार जो हड्डी तक को पिघला दे, जो दिलो-दिमाग़ में सितारों की चमक, जलन और पिघलन भर दे. फिर कोई भी फ़लसफ़ा हो, फ़लसफ़ा-ए-इश्क़ से आगे उसकी चमक हल्की रहती है. हर फ़लसफ़ा इसी परिपेक्ष्य, इसी पृष्ठभूमि को तलाश करता रहता है. फ़िराक़ ने जब होश व हवास की आंखें खोलीं दाग़ और अमीर मीनाई का चिराग़ गुल हो रहा था. स़िर्फ उर्दू शायरी में ही नहीं, पूरी दुनिया में एक नई बिसात बिछ रही थी. क़ौमी ज़िंदगी एक नए रंग रूप से दो चार थी. समाजवाद का बोलबाला था. वह समाजवाद से प्रभावित हुए. प्रगतिशील आंदोलन से जु़डे. वह स्वीकार करते हैं इश्तेराकी फ़लसफ़े ने मेरे इश्क़िया शायरी और मेरी इश्क़िया शायरी को नई वुस्अतें (विस्तार) और नई मानवियत (अर्थ) अता की.
अब उनकी शायरी में बदलाव देखने को मिला. बानगी देखिए-

तेरा फ़िराक़ तो उस दम तेरा फ़िराक़ हुआ
जब उनको प्यार किया मैंने जिनसे प्यार नहीं

फ़िराक़ एक हुए जाते हैं ज़मानों मकां
तलाशे दोस्त में मैं भी कहां निकल आया

तुझी से रौनक़े-बज़्मे-हयात है ऐ दोस्त
तुझी से अंजुमने-महर व माह है रौशन

ज़िदगी को भी मुंह दिखाना है
रो चुके तेरे बेक़रार बहुत

हासिले हुस्नो-इश्क़ बस है यही
आदमी आदमी को पहचाने

इस दश्त को नग़मों से गुलज़ार बना जाएं
जिस राह से हम गुज़रें कुछ फूल खिला जाएं

अजब क्या कुछ दिनों के बाद ये दुनिया भी दुनिया हो
ये क्या कम है मुहब्बत को मुहब्बत कर दिया मैंने

क्या है सैर गहे ज़िंदगी में रुख़ जिस सिम्त
तेरे ख़्याल टकरा के रह गया हूं मैं

फ़िराक़ गोरखपुरी कहा करते थे- शायरी उस हैजान (अशांति) का नाम है, जिसमें सुकून के सिफ़ात (विशेषता) पाए जाएं. सुकून से उनका मतलब रक़्स की हरकतों में संगीत के उतार-च़ढाव से है.उनके कुछ अशआर देखिए-
रफ़्ता-रफ़्ता इश्क़ मानूसे-जहां होता गया
ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम

मेहरबानी को मुहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह अब मुझसे तेरी रंजिशें बेजा भी नहीं

बहुत दिनों में मुहब्बत को यह हुआ मालूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वह रात, रात हुई

इश्क़ की आग है वह आतिशे-सोज़ फ़िराक़
कि जला भी न सकूं और बुझा भी न सकूं

मुहब्बत ही नहीं जिसमें वह क्या दरसे-अमल देगा
मुहब्बत तर्क कर देना भी आशिक़ ही को आता है

एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

तेरी निगाहों से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया है रगे जां में नश्तर फिर भी

फ़िराक़ गोरखपुरी का देहांत 3 मार्च, 1982 को नई दिल्ली में हुआ. बेशक वह इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उन्होंने जनमानस को अपनी शायरी के ज़रिये ज़िंदगी की दुश्वारियों में भी मुस्कुराते रहने का जो पैग़ाम दिया, वह हमेशा मायूस लोगों की रहनुमाई करता रहेगा. बक़ौल फ़िराक़ गोरखपुरी-
अब तुमसे रुख़्सत होता हू, आओ संभालो साज़े-ग़ज़ल
नये तराने छेड़ो, मेरे नग़मों को नींद आती है...
(स्टार न्यूज़ एजेंसी)


हमारी नज़्म ’हश्र’ उन ’अमन पसंदों’ के नाम, जिन्होंने दुनिया को दोज़ख़ बनाकर रख दिया है...
हश्र...
अमन पसंदो !
तुम अपने मज़हब के नाम पर
क़त्ल करते हो मर्दों को
बरहना करते हो औरतों को
और
मौत के हवाले कर देते हो
मासूम बच्चों को
क्योंकि
तुम मानते हो
ऐसा करके तुम्हें जन्नत मिल जाएगी
जन्नती शराब मिल जाएगी
हूरें मिल जाएंगी...

लेकिन-
क़यामत के दिन
मैदाने-हश्र में
जब तुम्हें आमाल नामे सौंपे जाएंगे
तुम्हारे हर छोटे-बड़े आमाल
तुम्हें दिखाए जाएंगे
तुम्हारे आमाल में शामिल होंगी
उन मर्दों की चीख़ें
जिन्हें तुमने क़त्ल किया
उन औरतें की बददुआएं
जिन्हें तुमने बरहना किया
और
उन मासूमों की आहें
जिन्हें तुमने मौत की नींद सुला दिया...

कभी सोचा है
उस वक़्त
तुम्हारा क्या हश्र होगा...
-फ़िरदौस ख़ान

आज वेलेंटाइन डे है, यानी मुहब्बत करने वालों का दिन... हमारी दुआ है कि आज के मुक़द्दस रोज़, हर मुहब्बत करने वाले को उसके महबूब के दीदार हों...बहरहाल, यह दिन हमारे लिए भी बहुत ख़ास है... अपने महबूब को समर्पित एक नज़्म...
एक दुआ तुम्हारे लिए...
मेरे महबूब
तुम्हारी ज़िन्दगी में
हमेशा मुहब्बत का मौसम रहे...
मुहब्बत के मौसम के
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी हों...
जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी धूप से
सराबोर हों...
जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ हों...
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती रहे...
तुम्हारी ज़िन्दगी का हर साल
और
साल का हर दिन
और
हर दिन का हर लम्हा
मुहब्बत के नूर से रौशन रहे...
यही मेरी दुआ है
तुम्हारे लिए...
-फ़िरदौस ख़ान

गीत
ऋतु बसंत की मादक बेला
तुझ बिन सूनी ओ हरजाई
मन का दर्पण बिखरा-बिखरा
जैसे अम्बर की तन्हाई...

कंगन, पायल, झूमर, झांझर
सांझ सुहानी, नदी किनारा
आकुल, आतुर, विरह-व्यथित मन
पंथ प्रिय का देख के हारा
कल की यादें बांह में ले के
मुझको सता रही अमराई...

क्षण, रैना, दिन सब ही बीते
बीत गईं कितनी सदियां
नयन मिलन की आस लिए हैं
ले भूली-बिसरी सुधियां
अंग-अंग जल उठे विरह में
ऐसी मंद चली पुरवाई...
-फ़िरदौस ख़ान

फ़िरदौस ख़ान
सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है... हमारे पीर की ख़ानकाह में बसंत पंचमी मनाई गई... बसंत का साफ़ा बांधे मुरीदों ने बसंत के गीत गाए... हमने भी अपने पीर को मुबारकबाद दी...

बसंत पंचमी के दिन मज़ारों पीली चादरें चढ़ाई जाती हैं, पीले फूल चढ़ाए जाते हैं... क़व्वाल पीले साफ़े बांधकर हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीत गाते हैं...
कहा जाता है कि यह रिवायत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने शुरू की थी... हुआ यूं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) को अपने भांजे सैयद नूह की मौत से बहुत सदमा पहुंचा और वह उदास रहने लगे. हज़रत अमीर ख़ुसरो से अपने पीर की ये हालत देखी न गई... वह उन्हें ख़ुश करने के जतन करने लगे... एक बार हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे... उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पास हिन्दू श्रद्धालु नाच-गा रहे हैं... ये देखकर हज़रत अमीर ख़ुसरो को बहुत अच्छा लगा... उन्होंने इस बारे में मालूमात की कि तो श्रद्धालुओं ने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वे लोग देवी सरस्वती पर पीले फूल चढ़ाने जा रहे हैं, ताकि देवी ख़ुश हो जाए...
इस पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने सोचा कि वह भी अपने औलिया को पीले फूल देकर ख़ुश करेंगे... फिर क्या था. उन्होंने पीले फूलों के गुच्छे बनाए और नाचते-गाते हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) के पास पहुंच गए... अपने मुरीद को इस तरह देखकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई... तब से हज़रत अमीर ख़ुसरो बसंत पंचमी मनाने लगे..


नज़्म
जाड़ों की सहर
कितनी दिलकश होती है
जाड़ों की
कोहरे से ढकी सहर
जब
सुर्ख़ गुलाबों की
नरम पंखुरियों पर
ओस की बूंदें
इतराती हैं
और फिर
किसी के
लम्स का अहसास
रूह की गहराई में
उतर जाता है
रग-रग में
समा जाता है
जाड़े बीतते रहते हैं
मौसम-दर-मौसम
वक़्त की, परतों की तरह
मगर
अहसास की वो शिद्दत
क़ायम रहती है
दूसरे पहर की
गुनगुनी धूप की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान


फ़िरदौस ख़ान
देश की एक बड़ी आबादी धीमा ज़हर खाने को मजबूर है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. हम बात कर रहे हैं भोजन के साथ लिए जा रहे उस धीमे ज़हर की, जो सिंचाई जल और कीटनाशकों के ज़रिये अनाज, सब्ज़ियों और फलों में शामिल हो चुका है. देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में आर्सेनिक सिंचाई जल के माध्यम से फ़सलों को ज़हरीला बना रहा है. यहां भू-जल से सिंचित खेतों में पैदा होने वाले धान में आर्सेनिक की इतनी मात्रा पाई गई है, जो मानव शरीर को नुक़सान पहुंचाने के लिए काफ़ी है. इतना ही नहीं, देश में नदियों के किनारे उगाई जाने वाली फ़सलों में भी ज़हरीले रसायन पाए गए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे देश की नदियां कितनी प्रदूषित हैं. कारख़ानों से निकलने वाले कचरे और शहरों की गंदगी को नदियों में बहा दिया जाता है, जिससे इनका पानी अत्यंत प्रदूषित हो गया है. इसी दूषित पानी से सींचे गए खेतों की फ़सलें कैसी होंगी, सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

दूर जाने की ज़रूरत नहीं, देश की राजधानी दिल्ली में यमुना की ही हालत देखिए. जिस देश में नदियों को मां या देवी कहकर पूजा जाता है, वहीं यह एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है. काऱखानों के रासायनिक कचरे ने इसे ज़हरीला बना दिया है. नदी के किनारे सब्ज़ियां उगाई जाती हैं, जिनमें काफ़ी मात्रा में विषैले तत्व पाए गए हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, नदियों के किनारे उगाई गई 50 फ़ीसद फ़सलों में विषैले तत्व पाए जाने की आशंका रहती है. इसके अलावा कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने भी फ़सलों को ज़हरीला बना दिया है. अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्ज़ियों में भी रसायनों के विषैले तत्व पाए गए हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं. इसके बावजूद अधिक उत्पादन के लालच में डीडीटी जैसे प्रतिबंधित कीटनाशकों का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है. अकेले हरियाणा की कृषि भूमि हर साल एक हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा के कीटनाशक निग़ल जाती है. पेस्टिसाइड्‌स ऐसे रसायन हैं, जिनका इस्तेमाल अधिक उत्पादन और फ़सलों को कीटों से बचाने के लिए किया जाता है. इनका इस्तेमाल कृषि वैज्ञानिकों की सिफ़ारिश के मुताबिक़ सही मात्रा में किया जाए, तो फ़ायदा होता है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति ख़त्म होने लगती है और इससे इंसानों के अलावा पर्यावरण को भी नुक़सान पहुंचता है. चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल से कृषि भूमि पर होने वाले असर को जांचने के लिए मिट्टी के 50 नमूने लिए. ये नमूने उन इलाक़ों से लिए गए थे, जहां कपास की फ़सल उगाई गई थी और उन पर कीटनाशकों का कई बार छिड़काव किया गया था. इसके साथ ही उन इलाक़ों के भी नमूने लिए गए, जहां कपास उगाई गई थी, लेकिन वहां कीटनाशकों का छिड़काव नहीं किया गया था. कीटनाशकों के छिड़काव वाले कपास के खेत की मिट्टी में छह प्रकार के कीटनाशकों के तत्व पाए गए, जिनमें मेटासिस्टोक्स, एंडोसल्फान, साइपरमैथरीन, क्लोरो पाइरीफास, क्वीनलफास और ट्राइजोफास शामिल हैं. मिट्टी में इन कीटनाशकों की मात्रा 0.01 से 0.1 पीपीएम पाई गई. इन कीटनाशकों का इस्तेमाल कपास को विभिन्न प्रकार के कीटों और रोगों से बचाने के लिए किया जाता है. कीटनाशकों की लगातार बढ़ती खपत से कृषि वैज्ञानिक भी हैरान और चिंतित हैं. कीटनाशकों से जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है. प्रदूषित जल से फल और सब्ज़ियों का उत्पादन तो बढ़ जाता है, लेकिन इनके हानिकारक तत्व फलों और सब्ज़ियों में समा जाते हैं. सब्ज़ियों में पाए जाने वाले कीटनाशकों और धातुओं पर भी कई शोध किए गए हैं. एक शोध के मुताबिक़, सब्ज़ियों में जहां एंडोसल्फान, एचसीएच एवं एल्ड्रिन जैसे कीटनाशक मौजूद हैं, वहीं केडमियम, सीसा, कॉपर और क्रोमियम जैसी ख़तरनाक धातुएं भी शामिल हैं. ये कीटनाशक और धातुएं शरीर को बहुत नुक़सान पहुंचाती हैं. सब्ज़ियां तो पाचन तंत्र के ज़रिए हज़म हो जाती हैं, लेकिन कीटनाशक और धातुएं शरीर के संवेदनशील अंगों में एकत्र होते रहते हैं. यही आगे चलकर गंभीर बीमारियों की वजह बनती हैं. इस प्रकार के ज़हरीले तत्व आलू, पालक, फूल गोभी, बैंगन और टमाटर में बहुतायत में पाए गए हैं. पत्ता गोभी के 27 नमूनों का परीक्षण किया गया, जिनमें 51.85 फ़ीसद कीटनाशक पाया गया. इसी तरह टमाटर के 28 नमूनों में से 46.43 फ़ीसद में कीटनाशक मिला, जबकि भिंडी के 25 नमूनों में से 32 फ़ीसद, आलू के 17 में से 23.53 फ़ीसद, पत्ता गोभी के 39 में से 28, बैंगन के 46 में से 50 फ़ीसद नमूनों में कीटनाशक पाया गया. फ़सलों में कीटनाशकों के इस्तेमाल की एक निश्चित मात्रा तय कर देनी चाहिए, जो स्वास्थ्य पर विपरीत असर न डालती हो. मगर सवाल यह भी है कि क्या किसान इस पर अमल करेंगे. 2005 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने केंद्रीय प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला के साथ मिलकर एक अध्ययन किया था. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिकी स्टैंडर्ड (सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) के मुक़ाबले पंजाब में उगाई गई फ़सलों में कीटनाशकों की मात्रा 15 से लेकर 605 गुना ज़्यादा पाई गई. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों का होना भविष्य में घातक सिद्ध होगा, क्योंकि मिट्टी के ज़हरीला होने से सर्वाधिक असर केंचुओं की तादाद पर पड़ेगा. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होगी और फ़सलों की उत्पादकता भी प्रभावित होगी. मिट्टी में कीटनाशकों के इन अवशेषों का सीधा असर फ़सलों की उत्पादकता पर पड़ेगा और साथ ही जैविक प्रक्रियाओं पर भी. उन्होंने बताया कि यूरिया खाद को पौधे सीधे तौर पर अवशोषित कर सकते हैं. इसके लिए यूरिया को नाइट्रेट में बदलने का कार्य विशेष प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है. अगर भूमि ज़हरीली हो गई तो बैक्टीरिया की तादाद प्रभावित होगी. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि रसायन अनाज, दलहन और फल-सब्ज़ियों के साथ मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं. फलों और सब्ज़ियों को अच्छी तरह से धोने से उनका ऊपरी आवरण तो स्वच्छ कर लिया जाता है, लेकिन उनमें मौजूद विषैले तत्वों को भोजन से दूर करने का कोई तरीक़ा नहीं है. इसी धीमे ज़हर से लोग कैंसर, एलर्जी, हृदय, पेट, शुगर, रक्त विकार और आंखों की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. इतना ही नहीं, पशुओं को लगाए जाने वाले ऑक्सीटॉक्सिन के इंजेक्शन से दूध भी ज़हरीला होता जा रहा है. अब तो यह इंजेक्शन फल और सब्ज़ियों के पौधों और बेलों में भी धड़ल्ले से लगाया जा रहा है. ऑक्सीटॉक्सिन के तत्व वाले दूध, फल और सब्ज़ियों से पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में बांझपन जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं. हालांकि देश में कीटनाशक की सीमा यानी मैक्सिमम ऐजिड्यू लिमिट के बारे में मानक बनाने और उनके पालन की ज़िम्मेदारी तय करने से संबंधित एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जा चुका है, लेकिन इसके बावजूद फ़सलों को ज़हरीले रसायनों से बचाने के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं की जाती. रसायन और उर्वरक राज्यमंत्री श्रीकांत कुमार जेना के मुताबिक़, अगर कीटनाशी अधिनियम, 1968 की धारा 5 के अधीन गठित पंजीकरण समिति द्वारा अनुमोदित दवाएं प्रयोग में लाई जाती हैं तो वे खाद्य सुरक्षा के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करती हैं. कीटनाशकों का पंजीकरण उत्पादों की जैव प्रभाविकता, रसायन एवं मानव जाति के लिए सुरक्षा आदि के संबंध में दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुरूप वृहद आंकड़ों के मूल्यांकन के बाद किया जाता है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार स्वीकार कर चुके हैं कि कई देशों में प्रतिबंधित 67 कीटनाशकों की भारत में बिक्री होती है और इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से फ़सलों के लिए होता है. उन्होंने बताया कि कैल्शियम सायनायड समेत 27 कीटनाशकों के भारत में उत्पादन, आयात और इस्तेमाल पर पाबंदी है. निकोटिन सल्फेट और केप्टाफोल का भारत में इस्तेमाल तो प्रतिबंधित है, लेकिन उत्पादकों को निर्यात के लिए उत्पादन करने की अनुमति है. चार क़िस्मों के कीटनाशकों का आयात, उत्पादन और इस्तेमाल बंद है, जबकि सात कीटनाशकों को बाज़ार से हटाया गया है. इंडोसल्फान समेत 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल की अनुमति तो है, लेकिन कई पाबंदियां भी लगी हैं.
ग़ौरतलब है कि भारत में क्लोरडैन, एंड्रिन, हेप्टाक्लोर और इथाइल पैराथीओन पर प्रतिबंध है. कीटनाशकों के उत्पादन में भारत एशिया में दूसरे और विश्व में 12वें स्थान पर है. देश में 2006-07 के दौरान 74 अरब रुपये क़ीमत के कीटनाशकों का उत्पादन हुआ. इनमें से क़रीब 29 अरब रुपये के कीटनाशकों का निर्यात किया गया. ख़ास बात यह भी है कि भारत डीडीटी और बीएचसी जैसे कई देशों में प्रतिबंधित कीटनाशकों का सबसे बड़ा उत्पादक भी है. यहां भी इनका खूब इस्तेमाल किया जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, डेल्टिरन, ईपीएन और फास्वेल आदि कीटनाशक बेहद ज़हरीले और नुक़सानदेह हैं. पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी में बिक रही सब्ज़ियों में प्रतिबंधित कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर सरकार को फलों और सब्ज़ियों की जांच करने का आदेश दिया है. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार से कहा कि शहर में बिक रही सब्ज़ियों की जांच अधिकृत प्रयोगशालाओं में कराई जाए. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने आदेश में कहा कि हम जांच के ज़रिये यह जानना चाहते हैं कि सब्ज़ियों में कीटनाशकों का इस्तेमाल किस मात्रा में हो रहा है और ये सब्ज़ियां बेचने लायक़ हैं या नहीं. अदालत ने यह भी कहा कि यह जांच इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट की प्रयोगशाला या दूसरी प्रयोगशालाओं में की जाए. ये प्रयोगशालाएं नेशनल एक्रेडेशन बोर्ड फोर टेस्टिंग से अधिकृत होनी चाहिए. यह आदेश कोर्ट ने कंज्यूमर वॉयस की उस रिपोर्ट पर संज्ञान लेते हुए दिया है, जिसमें कहा गया है कि भारत में फलों और सब्ज़ियों में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मानकों के मुक़ाबले 750 गुना ज़्यादा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि क्लोरडैन के इस्तेमाल से आदमी नपुंसक हो सकता है. इसके अलावा इससे खू़न की कमी और ब्लड कैंसर जैसी बीमारी भी हो सकती है. यह बच्चों में कैंसर का सबब बन सकता है. एंड्रिन के इस्तेमाल से सिरदर्द, सुस्ती और उल्टी जैसी शिकायतें हो सकती हैं. हेप्टाक्लोर से लीवर ख़राब हो सकता है और इससे प्रजनन क्षमता पर विपरीत असर पड़ सकता है. इसी तरह इथाइल और पैराथीओन से पेट दर्द, उल्टी और डायरिया की शिकायत हो सकती है. केयर रेटिंग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के समुचित प्रयोग से उत्पादकता में सुधार आ सकता है. इससे खाद्य सुरक्षा में भी मदद मिलेगी. देश में हर साल कीटों के कारण क़रीब 18 फ़ीसद फ़सल बर्बाद हो जाती है यानी इससे हर साल क़रीब 90 हज़ार करोड़ रुपये की फ़सल को नुक़सान पहुंचता है. भारत में कुल 40 हज़ार कीटों की पहचान की गई है, जिनमें से एक हज़ार कीट फ़सलों के लिए फ़ायदेमंद हैं, 50 कीट कभी कभार ही गंभीर नुक़सान पहुंचाते हैं, जबकि 70 कीट ऐसे हैं, जो फ़सलों के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि फ़सलों के नुक़सान को देखते हुए कीटनाशकों का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है. देश में जुलाई से नवंबर के दौरान 70 फ़ीसद कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इन दिनों फ़सलों को कीटों से ज़्यादा ख़तरा होता है. भारतीय खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों का अवशेष 20 फ़ीसद है, जबकि विश्व स्तर पर यह 2 फ़ीसद तक होता है. इसके अलावा देश में सिर्फ़ 49 फ़ीसद खाद्य उत्पाद ऐसे हैं, जिनमें कीटनाशकों के अवशेष नहीं मिलते, जबकि वैश्विक औसत 80 फ़ीसद है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के इस्तेमाल के तरीक़े और मात्रा के बारे में जागरूकता की कमी है.

ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि पिछले तीन दशकों से कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर समीक्षा तक नहीं की गई. बाज़ार में प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री भी बदस्तूर जारी है. हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारें कीटनाशकों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करती हैं. किसानों को अनुशंसित मात्रा में कीटनाशकों की पंजीकृत गुणवत्ता के प्रयोग, अपेक्षित सावधानियां बरतने और निर्देशों का पालन करने की सलाह दी जाती है. यह सच है कि मौजूदा दौर में कीटनाशकों पर पूरी तरह पाबंदी लगाना मुमकिन नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इस्तेमाल सही समय पर और सही मात्रा में किया जाए.

फ़िरदौस ख़ान
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी
हिन्दी कविता की ये पंक्तियां पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को बख़ूबी बयान करती हैं. भारत में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ के आधार पर महिलाओं को देवी की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया गया है. लेकिन, आधुनिक समाज में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है, जहां उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है. काफ़ी हद तक इसका श्रेय विज्ञापन जगत को जाता है. मौजूदा दौर में विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी काया का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन कर दौलत बटोरने की होड़ मची हुई है.

पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाक़ू, गुटखा, सिगरेट और शराब तक के विज्ञापनों में नारी को दिखाया जाता है. जबकि, यहां उनकी कोई ज़रूरत नहीं है. इन वस्तुओं का इस्तेमाल मुख्यत: पुरुषों द्वारा किया जाता है. इसके बावजूद इसमें नारी देह का जमकर प्रदर्शन किया जाता है. इसके लिए तर्क दिया जाता है कि विज्ञापन में आर्कषण पैदा करने के लिए नारी का होना बेहद जरूरी है, यानी पुरुषों को गुमराह किया जाता है कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं मधुमक्खी की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी.

ऐसा नहीं है कि विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन से उत्पाद की श्रेष्ठता और उसके टिकाऊपन में सहज ही बढ़ोतरी हो जाती है या उसकी कीमत में इजाफा हो जाता है. दरअसल, इस प्रकार के विज्ञापन कामुकता को बढ़ावा देकर समाज को विकृत करने का काम करते हैं. शायद इसका अंदाजा उत्पादक विज्ञापनदाताओं को नहीं है या फिर वे लोग इसे समझना ही नहीं चाहते. आज न जाने कितने ही ऐसे विज्ञापन हैं जिन्हें परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता. अगर किसी कार्यक्रम के बीच ‘ब्रेक’ में कोई अश्लील विज्ञापन आ जाए तो नज़रें शर्म से झुक जाती हैं. परिजनों के सामने शर्मिंदगी होती है. विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि विज्ञापन को चर्चित बनाने के लिए कई चौंकाने वाली कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं.

यह माना जा सकता है कि आज विज्ञापन कारोबार की ज़रूरत बन गए हैं. लेकिन, इसका यह भी मतलब नहीं कि अपने फायदे के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल किया जाए. निर्माताओं को चाहिए कि वे अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें. उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फ़ायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं. लेकिन, निर्माताओं की मानसिकता ही आज बदल गई है. उन्हें लगता है कि वे विज्ञापनों में माडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं. लेकिन, हकीकत में ऐसा कतई नहीं है.

पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं. दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता. अगर विज्ञापन में ख़ून-ख़राबे वाले दृश्य हों, तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता. यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है. आथोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए.

इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे. बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था. दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई. उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फ़ीसद ज़्यादा है. यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुक़ाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फ़ीसदी अधिक देखी गई. निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फ़ीसद कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुक़ाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फ़ीसद कम हो जाती है. इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी. क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे. चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे.

यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी को भारत में एक समय सती प्रथा के नाम पर पति के साथ चिता में जलकर मरने को मजबूर किया गया था. देवदासी प्रथा की आड़ में उनसे वेश्यावृत्ति कराई गई थी. सदियों के बाद महिलाओं में जागरूकता आई है. अब जब वे अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तो ऐसे में देह प्रदर्शन के जरिए उन्हें भोग की वस्तु के रूप में पेश करना अपमानजनक है. यह देश के सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर भी कुठाराघात करने के समान है.

एक अनुमान के मुताबिक भारत के तक़रीबन 40 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और हर घर में यह आठ से दस घंटे तक चलता है. यानी विज्ञापन देश की क़रीब आधी आबादी को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं. इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नज़र रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है. बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए.

नज़्म
मेरे महबूब !
तुम्हारा चेहरा
मेरा क़ुरान है
जिसे मैं
अज़ल से अबद तक
पढ़ते रहना चाहती हूं...

तुम्हारा ज़िक्र
मेरी नमाज़ है
जिसे मैं
रोज़े-हश्र तक
अदा करते रहना चाहती हूं...

मेरे महबूब !
तुमसे मिलने की चाह में
दोज़ख़ से भी गुज़र हो तो
गुज़र जाना चाहती हूं...

तुम्हारी परस्तिश ही
मेरी रूह की तस्कीन है
तुम्हारे इश्क़ में
फ़ना होना चाहती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान

फ़िरदौस ख़ान
वक़्त कभी किसी के लिए नहीं ठहरता... कुछ साल ऐसे हुआ करते हैं, जो यादों के माज़ी को ख़ूबसूरत यादें देकर जाते हैं और कुछ साल अपने में दर्द समेटे होते हैं... ये साल भी जा रहा है, माज़ी को कई ख़ूबसूरत यादों की सौग़ात सौंपकर... कुछ लम्हे मुहब्बत से सराबोर हैं, तो कुछ लम्हों में दर्द समाया है...
अब बस इतना करना है कि ख़ूशनुमा लम्हों को यादों के संदूक़ में क़रीने से सहेज कर रख देना है, अहसास के मख़मली रुमाल में लपेट कर... और दर्द में भीगे लम्हों को किसी ऐसी जगह दफ़न कर देना है, जहां से कभी किसी का गुज़र तक न हो...
मुहब्बत के कुछ लम्हे अपने साथ भी रखने हैं... जिन्हें वक़्त के दरिया में बहते रहना है, ताकि ये जहां-जहां से गुज़रें.... उस धरती की फ़िज़ा को मुहब्बत की ख़ुशबू से महकाते रहें...
(Firdaus Diary)


फ़िरदौस ख़ान
हर साल की तरह यह साल भी बीत रहा है... जल्द ही नया साल शुरू होने वाला है एक नई उम्मीद और एक नई रौशनी की किरन के साथ... हर साल से हम कोई न कोई उम्मीद ज़रूर करते हैं... इस साल जो पाना चाहते थे, अगर वो नहीं मिला, तो यह उम्मीद रहती है कि इस बार नये साल में हमारी ख़्वाहिश ज़रूर पूरी होगी...
हम चाहते हैं कि हर साल यादगार हो... साल में कहीं कुछ ऐसा ज़रूर हो, जो साल को यादगार बना जाए... यादों की किताब में एक और ख़ूबसूरत याद जुड़ जाए... लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता... कोई साल बहुत प्यारा होता है, उसमें सबकुछ अच्छा ही अच्छा होता है... घर और ज़िंदगी में कोई नया मेहमान आता... और फिर वह हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाता है... लेकिन कई बार कोई अपना इस दुनिया से चला जाता है... और उसकी कमी उम्रभर खलती रहती है... लेकिन ज़िंदगी तो यूं ही चलती आई है और यूं ही चलती रहेगी... वक़्त भी पल-दर-पल गुज़रता रहा है और गुज़रता रहेगा...
हमारी कोशिश तो बस यही होनी चाहिए कि ज़िंदगी की किताब में कोई ख़ुशनुमा वर्क़ जोड़ लें...
चलो किसी चेहरे पर मुस्कान बनकर बिखर जाएं...
(Firdaus Diary)


फ़िरदौस ख़ान
बचपन से सुनते आए हैं कि क्रिसमस के दिन सांता क्लाज आते हैं. अपने साथ बहुत सारे तोहफ़े और खुशियां लाते हैं. बचपन में बस संता क्लाज को देखने की ख़्वाहिश थी. उनसे कुछ पाने का ख़्याल कभी ज़हन में आया तक नहीं, क्योंकि हर चीज़ मुहैया थी. जिस चीज़ की तरफ़ इशारा कर दिया कुछ ही पलों में मिल जाती थी. किसी चीज़ का अभाव क्या होता है. कभी जाना ही नहीं. मगर अब सांता क्लाज़ से पाना चाहते हैं- मुहब्बत, पूरी कायनात के लिए, ताकि हर तरफ़ बस मुहब्बत का उजियारा हो और नफ़रतों का अंधेरा हमेशा के लिए छंट जाए... हर इंसान ख़ुशहाल हो, सबका अपना घरबार हो, सबकी ज़िन्दगी में चैन-सुकून हो, आमीन.. संता क्लाज वही हैं, मगर उम्र बढ़ने के साथ ख़्वाहिशें भी बढ़ जाती हैं...

यह हमारे देश की सदियों पुरानी परंपरा रही है कि यहां सभी त्यौहारों को मिलजुल कर मनाया जाता है. हर त्यौहार का अपना ही उत्साह होता है- बिलकुल ईद और दिवाली की तरह.  क्रिसमस  ईसाइयों के सबसे मह्त्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है. इसे ईसा मसीह के जन्म की ख़ुशी में मनाया जाता है. क्रिसमस को बड़े दिन के रूप में भी मनाया जाता है. क्रिसमस से 12 दिन का उत्सव क्रिसमसटाइड शुरू होता है. ‘क्रिसमस’ शब्द ‘क्राइस्ट्स और मास’ दो शब्दों से मिलकर बना है, जो मध्य काल के अंगेजी शब्द ‘क्रिस्टेमसे’ और पुरानी अंगेजी शब्द ‘क्रिस्टेसमैसे’ से नक़ल किया गया है. 1038 ई. से इसे ‘क्रिसमस’ कहा जाने लगा. इसमें ‘क्रिस’ का अर्थ ईसा मसीह और ‘मस’ का अर्थ ईसाइयों का प्रार्थनामय समूह या ‘मास’ है. 16वीं शताब्दी के मध्य से ‘क्राइस्ट’ शब्द को रोमन अक्षर एक्स से दर्शाने की प्रथा चल पड़ी. इसलिए अब क्रिसमस को एक्समस भी कहा जाता है. भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में क्रिसमस 25 दिसंबर को मनाया जाता है, लेकिन रूस, जार्जिया, मिस्त्र, अरमेनिया, युक्रेन और सर्बिया आदि देशों में 7 जनवरी को लोग क्रिसमस मनाते हैं, क्योंकि पारंपरिक जुलियन कैलंडर का 25 दिसंबर यानी क्रिसमस का दिन गेगोरियन कैलंडर और रोमन कैलंडर के मुताबिक़ 7 जनवरी को आता है. हालांकि पवित्र बाइबल में कहीं भी इसका ज़िक्र नहीं है कि क्रिसमस मनाने की परंपरा आख़िर कैसे, कब और कहां शुरू हुई. एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म, 7 से 2 ई.पू. के बीच हुआ था. 25 दिसंबर यीशु मसीह के जन्म की कोई ज्ञात वास्तविक जन्म तिथि नहीं है.शोधकर्ताओं का कहना है कि ईसा मसीह के जन्म की निश्चित तिथि के बारे में पता लगाना काफी मुश्किल है. सबसे पहले रोम के बिशप लिबेरियुस ने ईसाई सदस्यों के साथ मिलकर 354 ई. में 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाया था. उसके बाद 432 ई. में मिस्त्र में पुराने जुलियन कैलंडर के मुताबिक 6 जनवरी को क्रिसमस मनाया गया था. उसके बाद धीरे-धीरे पूरे संसार में जहां भी ईसाइयों की संख्या अधिक थी, यह त्योहार मनाया जाने लगा. छठी सदी के अंत तक इंग्लैंड में यह एक परंपरा का रूप ले चुका था.

गौरतलब है ईसा मसीह के जन्‍म के बारे में व्यापक रूप से स्‍वीकार्य ईसाई पौराणिक कथा के मुताबिक़ प्रभु ने मैरी नामक एक कुंवारी लड़की के पास गैब्रियल नामक देवदूत भेजा. गैब्रियल ने मैरी को बताया कि वह प्रभु के पुत्र को जन्‍म देगी और बच्‍चे का नाम जीसस रखा जाएगा. व‍ह बड़ा होकर राजा बनेगा, तथा उसके राज्‍य की कोई सीमाएं नहीं होंगी. देवदूत गैब्रियल, जोसफ के पास भी गया और उसे बताया कि मैरी एक बच्‍चे को जन्‍म देगी, और उसे सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करे व उसका परित्‍याग न करे. जिस रात को जीसस का जन्‍म हुआ, उस वक़्त लागू नियमों के मुताबिक़ अपने नाम पंजीकृत कराने के लिए मैरी और जोसफ बेथलेहेम जाने के लिए रास्‍ते में थे. उन्‍होंने एक अस्‍तबल में शरण ली, जहां मैरी ने आधी रात को जीसस को जन्‍म दिया और उसे एक नांद में लिटा दिया. इस प्रकार प्रभु के पुत्र जीसस का जन्‍म हुआ. क्रिसमस समारोह आधी रात के बाद शुरू होता है. इसके बाद मनोरंजन किया जाता है. सुंदर रंगीन वस्‍त्र पहने बच्‍चे ड्रम्‍स, झांझ-मंजीरों के आर्केस्‍ट्रा के साथ हाथ में चमकीली छड़ियां  लिए हुए सामूहिक नृत्‍य करते हैं.

क्रिसमस का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि ईसा मसीह के जन्म की कहानी का संता क्लॉज की कहानी के साथ कोई रिश्ता नहीं है. वैसे तो संता क्लॉज को याद करने का चलन चौथी सदी से शुरू हुआ था और वे संत निकोलस थे, जो तुर्किस्तान के मीरा नामक शहर के बिशप थे. उन्हें बच्चों से अत्यंत प्रेम था और वे गरीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों को तोहफ़े दिया करते थे.

पुरानी कैथलिक परंपरा के मुताबिक क्रिसमस की रात को ईसाई बच्चे अपनी तमन्नाओं और ज़रूरतों को एक पत्र में लिखकर सोने से पूर्व अपने घर की खिड़कियों में रख देते थे. यह पत्र बालक ईसा मसीह के नाम लिखा जाता था. यह मान्यता थी कि फ़रिश्ते उनके पत्रों को बालक ईसा मसीह से पहुंचा देंगे. क्रिसमस ट्री की कहानी भी बहुत ही रोचक है. किवदंती है कि सर्दियों के महीने में एक लड़का जंगल में अकेला भटक रहा था. वह सर्दी से ठिठुर रहा था. वह ठंड से बचने के लिए आसरा तलाशने लगा. तभी उसकी नजर एक झोपड़ी पर पड़ी. वह झोपडी के पास गया और उसने दरवाजा खटखटाया. कुछ देर बाद एक लकड़हारे ने दरवाजा खोला. लड़के ने उस लकड़हारे से झोपड़ी के भीतर आने का अनुरोध किया. जब लकड़हारे ने ठंड में कांपते उस लड़के को देखा तो उसे लड़के पर तरस आ गया और उसने उसे अपनी झोपड़ी में बुला लिया और उसे गर्म कपड़े भी दिए. उसके पास जो रूख-सूखा था, उसने लड़के को बभी खिलाया. इस अतिथि सत्कार से लड़का बहुत खुश हुआ. वास्तव में वह लड़का एक फरिश्ता था और लकड़हारे की परीक्षा लेने आया था. उसने लकड़हारे के घर के पास खड़े फर के पेड़ से एक तिनका निकाला और लकड़हारे को देकर कहा कि इसे ज़मीन में बो दो. लकड़हारे ने ठीक वैसा ही किया जैसा लड़के ने बताया था. लकडहारा और उसकी पत्नी इस पौधे की देखभाल अकरने लगे. एक साल बाद क्रिसमस के दिन उस पेड़ में फल लग गए. फलों को देखकर लकड़हारा और उसकी पत्नी हैरान रह गए, क्योंकि ये फल, साधारण फल नहीं थे बल्कि सोने और चांदी के थे. कहा जाता है कि इस पेड़ की याद में आज भी क्रिसमस ट्री सजाया जाता है. मगर मॉडर्न क्रिसमस ट्री शुरुआत जर्मनी में हुई. उस समय एडम और ईव के नाटक में स्टेज पर फर के पेड़ लगाए जाते थे. इस पर सेब लटके होते थे और स्टेज पर एक पिरामिड भी रखा जाता था. इस पिरामिड को हरे पत्तों और रंग-बिरंगी मोमबत्तियों से सजाया जाता था. पेड़ के ऊपर एक चमकता तारा लगाया जाता था. बाद में सोलहवीं शताब्दी में फर का पेड़ और पिरामिड एक हो गए और इसका नाम हो गया क्रिसमस ट्री अट्ठारहवीं सदी तक क्रिसमस ट्री बेहद लोकप्रिय हो चुका था. जर्मनी के राजकुमार अल्बर्ट की पत्नी महारानी विक्टोरिया के देश इंग्लैंड में भी धीरे-धीरे यह लोकप्रिय होने लगा. इंग्लैंड के लोगों ने क्रिसमस ट्री को रिबन से सजाकर और आकर्षक बना दिया. 19वीं शताब्दी तक क्रिसमस ट्री उत्तरी अमेरिका तक जा पहुंचा और वहां से यह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया. क्रिसमस के मौके पर अन्य त्योहारों की तरह अपने घर में तैयार की हुई मिठाइयां और व्यंजनों को आपस में बांटने व क्रिसमस के नाम से तोहफ़े देने की परंपरा भी काफ़ी पुरानी है. इसके अलावा बालक ईसा मसीह के जन्म की कहानी के आधार पर बेथलेहम शहर के एक गौशाले की चरनी में लेटे बालक ईसा मसीह और गाय-बैलों की मूर्तियों के साथ पहाड़ों के ऊपर फरिश्तों और चमकते तारों को सजा कर झांकियां बनाई जाती हैं, जो दो हज़ार साल पुरानी ईसा मसीह के जन्म की याद दिलाती हैं.

दिसंबर का महीना शुरू होते ही क्रिसमस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं . गिरजाघरों को सजाया जाता है. भारत में अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के उत्सव में शामिल होते हैं. क्रिसमस के दौरान प्रभु की प्रशंसा में लोग कैरोल गाते हैं. वे प्‍यार व भाईचारे का संदेश देते हुए घर-घर जाते हैं. भारत में विशेषकर गोवा में कुछ लोकप्रिय चर्च हैं, जहां क्रिसमस बहुत जोश व उत्‍साह के साथ मनाया जाता है. इनमें से ज़्यादातर चर्च भारत में ब्रि‍टिश व पुर्तगाली शासन के दौरान बनाए गए थे. इनके अलावा देश के अन्य बड़े भारत के कुछ बड़े चर्चों मे सेंट जोसफ कैथेड्रिल, आंध्र प्रदेश का मेढक चर्च, सेंट कै‍थेड्रल, चर्च ऑफ़ सेंट फ्रांसिस ऑफ़ आसीसि और गोवा का बैसिलिका व बोर्न जीसस, सेंट जांस चर्च इन विल्‍डरनेस और हिमाचल में क्राइस्‍ट चर्च, सांता क्‍लाज बैसिलिका चर्च, और केरल का सेंट फ्रासिस चर्च, होली क्राइस्‍ट चर्च, महाराष्‍ट्र में माउन्‍ट मेरी चर्च, तमिलनाडु में क्राइस्‍ट द किंग चर्च व वेलान्‍कन्‍नी चर्च, और आल सेंट्स चर्च और उत्तर प्रदेश का कानपुर मेमोरियल चर्च शामिल हैं. बहरहाल, देश के सभी छोटे-बड़े चर्चों में रौनक़ है.

फ़िरदौस ख़ान
कालेधन पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सबकी नज़र सियासी दलों के चंदे पर है.  देश की अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सामाजिक अंकेक्षण की मांग उठ रही है. जब नोटबंदी, कैश लेस ट्रांजेक्शन, सोना, रियल स्टेट में कैश लेस ख़रीद-बिक्री को लेकर आम जनता प्रभावित है, तो फिर जनता द्वारा भरे गए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से मिली रक़म का इस्तेमाल करने वाले नेताओं और सियासी दलों को भी पारदर्शिता बरतनी होगी.

इस बाबत चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को क़ानून में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसके लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को तीन सुझाव भी दिए हैं. पहला सियासी दलों के दो हज़ार रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदा लेने पर रोक लगाई जाए, दूसरा चुनाव न लड़ने वाले सियासी दलों को आयकर से छूट नहीं दी जाए और तीसरा सियासी दल कूपन के ज़रिये चंदा देने वाले लोगों की भी पूरी जानकारी रखें. क़ाबिले-ग़ौर है कि फ़िलहाल गुप्त चंदे पर क़ानूनी रोक नहीं है. जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29(सी) के तहत 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा के चंदे की सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है. इससे नीचे की रक़म का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता. आमदनी के मामले में कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बताया कि एक दशक में उसे दो-तिहाई रकम 20 हज़ार रुपये से नीचे के चंदे के ज़रिये हुई है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 44 फ़ीसद आमदनी को 20 हज़ार रुपये से नीचे की मदद को बताया है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुताबिक़  उन्हें 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए उनमें यह दर 100 फ़ीसद है. ऐसे में नियामक एजेंसियां यह पता लगाने में नाकाम रहती हैं कि सियासी दलों के पास आख़िर इतनी बड़ी रक़म कहां से आई है. सियासी दलों को आयकर भरने से भी छूट है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के तहत  संपत्ति, चंदा, या दूसरे स्रोतों से हुई आमदनी पर कोई कर नहीं देना पड़ता. कूपन या रसीद के ज़रिये चंदा देने वालों का ब्यौरा देना भी ज़रूरी नहीं है. इस तरह छोटी-छोटी रक़म के कूपनों के ज़रिये कितनी भी रक़म दिखाई जा सकती है. सियासी दल चुनाव आयोग को जिस रक़म का ब्यौरा देते हैं, वह पैसा कॊरपोरेट घरानों से चंदे के तौर पर आता है, जो पूरी तरह आयकर से मुक्त है. इसके अलावा सियासी आरटीआई के दायरे में नहीं आते. सियासी दलों की आमदनी और ख़र्च दोनों ही में पारदर्शिता नहीं होती. चुनाव आयोग भी अपने लेखा विभाग से इसकी जांच नहीं करा सकता. ऐसी हालत में कालेधन को बहुत ही आसानी से सफ़ेद किया जा सकता है. सियासी दलों पर आरोप लग रहे हैं कि नोटबंदी के बाद उनके खातों में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के पुराने नोट जमा हुए हैं. यह भी आरोप है कि बहुत से छोटे सियासी दल 25 फ़ीसद कमीशन पर कालेधन को सफ़ेद बनाने में लगे हैं. साथ ही सियासी गलियारे में चर्चा थी कि नोटबंदी के बाद सियासी दलों के खातों में जमा हुए पुराने नोटों की जांच नहीं होगी. हालांकि विवाद बढ़ने पर राजस्व सचिव हंसमुख अढिया को सफ़ाई देनी पड़ी कि नोटबंदी के बाद कोई भी सियासी दल 500 और 1000 रूपये में चंदा स्वीकार नहीं कर सकता. अगर उन्होंने ऐसा किया, तो उन पर भी कार्रवाई होगी.

ग़ौरतलब है कि चुनावों में कालेधन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भी यही कहना है कि काला धन सबसे ज़्यादा चुनावों में ही खपता है. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सियासी दलों को मिली रियायत का ग़लत फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला रहता है. बड़ी रक़म को ज़्यादा हिस्सों में बांटकर कालेधन को सफ़ेद बनाया जा सकता है. आयकर में छूट हासिल करने के मक़सद से ही ज़्यादतर सियासी दलों का गठन हुआ है. फ़िलहाल देश में 1900 से ज़्यादा सियासी दल हैं, जिनमें से तक़रीबन 1400 सियासी दलों ने किसी भी चुनाव में अपना एक उम्मीदवार भी मैदान में नहीं उतारा. हालत यह है कि पिछले आम चुनाव में महज़ 45 दलों ने ही चुनाव लड़ा. चंदे के कूपन का भी कोई नियम नहीं है. कितने भी कूपन छपवाकर कितनी भी रक़म का चंदा दिखाया जा सकता है.

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॊर्म्स (एडीआर) की साल 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सियासी दलों को 75 फ़ीसद से ज़्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला. पिछले दस सालों में सियासी दलों के चंदे में 478 की बढ़ोतरी हुई. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में 38 दलों को 253.46 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जो साल 2014 में बढ़कर 1463.63 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में 44 फ़ीसद चंदा नक़दी के तौर पर था. लोकसभा चुनावों के अलावा इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों में भी सियासी दलों ने चंदे के तौर पर करोड़ों रुपये जुटाये.  साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों को 3368.06 करोड़ रुपये मिले. इसमें से 63 फ़ीसद रक़म नक़दी के तौर पर मिली. चुनाव आयोग में जमा किए गए चुनावी ख़र्च के विवरण के मुताबिक़ पिछले तीन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा रक़म खर्च भी की है. साल 2004 और 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा पैसे ख़र्च किए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2014-15 में चुनावी ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ चंदे के तौर पर जुटाये हैं और उनमें से 177.40 करोड़ अलग-अलग सियासी दलों को चंदे के रूप में दिए गए.

अफ़सोस की बात है कि अपनी आमदनी के मामले में सियासी दल पारदर्शिता नहीं चाहते. सनद रहे कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब साल 2013 में पार्टियों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए उन्हें सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का आदेश दिया था, तब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और वामदलों से लेकर तक़रीबन सभी बड़े-छोटे दलों ने एक सुर में इसका विरोध किया था. पिछले सरकार केंद्र की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि सियासी दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से उनके संचालन पर असर पड़ेगा और सियासी विरोधी भी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. सियासी दल भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि चुनाव के दौरान कालाधन बाहर आ जाता है. कालेधन के मामले में सख़्ती होने से उनकी आमदनी पर भी इसका असर पड़ेगा. सियासी दलों के इसी विरोध की वजह से ही चुनाव आयोग और लॊ कमीशन के सुझावों की तमाम फ़ाइलें दफ़्तरों में पड़ी धूल फांक रही हैं. चुनाव आयोग ने सियासी दलों के लिए कई और भी सिफ़ारिशें की थीं, जिनमें सियासी दलों को आरटीआई का जवाब देने, उनके दान खातों का ऒडिट करने, एक उम्मीदवार के एक ज़्यादा सीटों से चुनाव लड़ने और निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव लड़ने आदि पर रोक लगाना शामिल है.

दरअसल, कालेधन से जुड़ा मुद्दा चुनावी सुधारों से भी जुड़ा हुआ है. अगर सरकार कालेधन के मामले में वाक़ई गंभीर है, तो उसे चुनाव सुधारों की दिशा में भी सख़्त फ़ैसले लेने होंगे. उसे चुनाव में धन-बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगानी होगी. सियासी दलों को चाहिए कि वे भी कैश लेस चंदा लेना शुरू करें और साथ ही अपनी आमदनी को सार्वजनिक करें. विदेशों की तर्ज़ पर भारत को भी इस दिशा में कारगर क़दम उठाने होंगे. अमेरिका, ब्रिटेन्, जर्मनी, फ़्रांस, ऒस्ट्रेलिया और आयरलैंड आदि देशों ने सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर सख़्त नियम बनाए हुए हैं. सियासी दलों को अपनी आमदनी का ब्यौरा देना होता है. फ़्रांस में चुनाव का सारा ख़र्च सरकार ही वहन करती है.

बहरहाल, कालेधन पर पारदर्शिता बरतने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ जनता की ही नहीं है, सरकार और सियासी दलों को भी अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना होगा.

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं, बुरी घड़ी कहकर नहीं आती. बुरा वक़्त कभी भी आ जाता है. मौत या हादसों का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं होता. जब कोई हादसा होता है, जान या माल का नुक़सान होता है, तो किसी भी व्यक्ति को इसका सदमा लग सकता है. ऐसे में व्यक्ति के जिस्म में ताक़त नहीं रहती और शारीरिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं. दिमाग़ रक्त वाहिनियों की पेशियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, जिससे दिमाग़ और जिस्म का तालमेल गड़बड़ा जाता है. दिल की धड़कन भी धीमी हो जाती है. व्यक्ति क चक्कर आने लगते हैं, वह बेहोश हो जाता है, कई बार उसकी मौत भी हो जाती है. मौत कभी पूरा न होने वाला नुक़सान है. मौत के सदमे से उबरना आसान नहीं है. सदमे का ताल्लुक़ भावनाओं से है, संवेदनाओं से है. अगर कोई इन संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करे, तो उसे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सियासी हलक़े में मौत और सदमे पर भी सियासत की बिसात बिछा ली जाती है. फिर अपने फ़ायदे के लिए शह और मात का खेल खेला जाता है. इन दिनों तमिलनाडु में भी यही सब देखने को मिल रहा है.
तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी अन्नाद्र्मुक दावा कर रही है कि जयललिता की मौत के सदमे से 470 लोगों की मौत हो चुकी है. पार्टी ने मृतकों के परिवार को तीन लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया है. पार्टी ने ऐसे लोगों की फ़ेहरिस्त जारी की है, जिनकी मौत सदमे की वजह से हुई है. पार्टी का यह भी कहना है कि जयललिता के निधन के बाद अब तक छह लोग ख़ुदकुशी की कोशिश कर चुके हैं. ऐसे चार लोगों का ब्यौरा भी जारी किया गया है. जयललिता की मौत की ख़बर सुनने पर ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले एक व्यक्ति को पार्टी ने 50 हज़ार रुपये देने की घोषणा की है. इतना ही नहीं जयललिता की मौत की ख़बर सुनकर अपनी उंगली काटने वाले व्यक्ति को भी 50 हज़ार रुपये की मदद देने का ऐलान किया जा चुका है.

इसमें कोई शक नहीं है कि ’अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध जयललिता तमिलनाडु की लोकप्रिय नेत्री थीं. उन्होंने राज्य की ग़रीब जनता के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं. उन्होंने साल 2013 में चेन्नई में ‘अम्मा कैंटीन’ शुरू की, जहां बहुत कम दाम पर भोजन मुहैया कराया जाता है. अब पूरे राज्य में 300 से ज़्यादा ऐसी कैंटीन हैं, जिनमें एक रुपये में एक इडली और सांभर दिया जाता है, और पांच रुपये में चावल और सांभर परोसा जाता है. ग़रीब तबक़े के लोग इन कैंटीन में नाममात्र के दाम पर भरपेट भोजन करते और ’अम्मा’ के गुण गाते हैं. ये कैंटीन सरकारी अनुदान पर चलती हैं. इसके अलावा ग़रीबी रेखा के नीचे के परिवारों को हर महीने 25 किलो चावल, दालें, मसाले और खाने का अन्य सामान मुफ़्त दिया जाता है. सरकारी अस्पतालों में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता है. उन्होंने पालना बेबी योजना, अम्मा मिनरल वॉटर, अम्मा सब्ज़ी की दुकान, अम्मा फ़ार्मेसी, बेबी केयर किट, अम्मा मोबाइल जैसी कई योजनाएं भी चलाई. इतना ही नहीं उन्होंने मुफ़्त में भी कई सुविधाएं लोगों को दीं, जिनमें ग़रीब औरतों को मिक्सर ग्राइंडर, लड़कियों को साइकिलें, छात्रों को स्कूल बैग, किताबें, यूनिफॉर्म और मुफ़्त में मास्टर हेल्थ चेकअप आदि शामिल हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि चुनाव के वक़्त लोगों को लुभाने के लिए उन्हें  रोज़मर्रा के काम आने वाली चीज़ें ’तोहफ़े’ में दी जाती हैं, जिनमें टेलीविज़न, एफ़एम रेडियो,  इडली-डोसा बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली पिसाई मशीन, साइकिल, लैपटॉप वग़ैरह शामिल हैं. अपने इन्हीं ग़रीब हितैषी कार्यों की वजह से जयललिता जनप्रिय हो गईं. उनकी लोकप्रिय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बाक़ी राज्यों में भाजपा की लहर चल रही थी, उस वक़्त उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत का परचम लहराया था. वह अपने सियासी गुरु एमजी रामचंद्रन के बाद सत्ता में लगातार दूसरी बार आने वाली तमिलनाडु में पहली राजनीतिज्ञ थीं.

ग़ौरतलब है कि 68 वर्षीय जयललिता को 22 सितंबर को अस्पताल में दाख़िल कराया, तो बहुचर्चित सबरीमाला मंदिर ने उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना के साथ तक़रीबन 75 हज़ार श्रद्धालुओं को मुफ़्त भोजन कराना शुरू कर दिया था. लोग उनके लिए दुआएं कर रहे थे. 5 दिसंबर को उनकी मौत के बाद राज्य में शोक की लहर दौड़ गई. जन सैलाब उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ. सरकार ने पांच दिन का शोक घोषित कर दिया.  जगह-जगह शोक सभाओं का आयोजन कर उनकी आत्मिक शांति के लिए प्रार्थनाएं होने लगीं. फिर ख़बरें आने लगीं कि जयललिता की मौत के सदमे में फ़लां-फ़लां व्यक्ति की मौत हो गई. अन्नाद्रमुक ने मृतकों के लिए सहायता राशि देने की घोषणा कर डाली. इस काम में राज्य सरकार भी पीछे नहीं रही.  इन मरने वाले लोगों की मौत सदमे से हुई है या नहीं ? ये बात अलग है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ डालना सही है, क्या करदाताओं की मेहनत की कमाई, जिसका बड़ा हिस्सा करों के रूप में राज्य को मिलता है, उसका इस्तेमाल इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा देने में होना भी चाहिए था? जयललिता की लोकप्रियता के बाद भी इस सवाल का जवाब ’न’ ही है. तमिलनाडु सरकार को सरकारी ख़ज़ाने के पैसे का इस तरह से दुरुपयोग करने से बचना चाहिए था.

इससे बेहतर यह होता कि अन्नाद्रमुक जन कल्याण की कोई और योजना शुरू करती, जिससे ग़रीबों का भला होता ही, वह योजना जयललिता के प्रशंसकों-समर्थकों के मन में उनकी स्मृतियों को भी तरोताज़ा किए रहती. इसके साथ-साथ उन योजनाओं को जारी रखने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए था, जो जयललिता ने अपने कार्यकाल में शुरू की थीं. अन्नाद्रमुक और पन्नीर सेल्वम की सरकार को समझना होगा कि हथकंडे अपनाकर कुछ वक़्त के लिए ही जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता है, पर इस तरह खींचा गया ध्यान स्थाई नहीं होता है. यह तो तभी होता है, जब जन कल्याण के कार्य एक संकल्प के तौर पर किए जाएं. जयललिता यही करती थीं, इसीलिए उन्हें ’अम्मा’ कहा जाता है, जबकि पन्नीर सेल्वम सरकारी ख़ज़ाने का दुरुपयोग ही कर रहे हैं. यह उन मौतों को गरिमा प्रदान करनी भी है, जो जयललिता के निधन के बाद सदमा लगने से हुई बताई जा रही हैं. इंसान का जीवन अनमोल होता है. अलबत्ता अल्पकाल में होने वाली मौतों को महिमा-मंडित करना भी प्रकृति और उसके नियमों के ख़िलाफ़ है.


ईद मिलाद-उन नबी के मौक़े पर सरकारे-दो आलम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समर्पित कलाम

मेरे मौला !
रहमतों की बारिश कर
हमारे आक़ा
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर
जब तक
कायनात रौशन रहे
सूरज उगता रहे
दिन चढ़ता रहे
शाम ढलती रहे
और रात आती-जाती रहे
मेरे मौला !
सलाम नाज़िल फ़रमा
हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
और आले-नबी की रूहों पर
अज़ल से अबद तक...
-फ़िरदौस ख़ान



फ़िरदौस ख़ान
भारत दवाओं का एक ब़डा बाज़ार है. यहां बिकने वाली तक़रीबन 60 हज़ार ब्रांडेड दवाओं में महज़ कुछ ही जीवनरक्षक हैं. बाक़ी दवाओं में ग़ैर ज़रूरी और प्रतिबंधित भी शामिल होती हैं. ये दवाएं विकल्प के तौर पर या फिर प्रभावी दवाओं के साथ मरीज़ों को ग़ैर जरूरी रूप से दी जाती हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से जिन दवाओं पर अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित लगा हुआ है, उन्हें भारत में खुलेआम बेचा जा रहा है. समिति ने कहा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के कई अधिकारियों के बीच मिलीभगत है. इसलिए कई दवाओं की जांच किए बिना उन्हें मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी जा रही है. इनकी वजह से आए दिन लोगों की मौत हो रही है. तीन विवादस्पद दवाएं पीफ्लोकेसील, होम्पलोकेसीन और स्परफ्लोकेसीन के तो दस्ताव़ेज तक ग़ायब हैं. स्थायी समिति के सदस्य डॉ. संजय जायसवाल का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे पर हमने सरकार को स्थायी समिति की ओर से पत्र लिखकर दवा परीक्षण और घटिया दवाओं की बिक्री को अनदेखा करने पर सख्त ऐतराज़ जताया है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रतिबंधित दवाओं में शरीर को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्व होते हैं. इसलिए विकसित देश इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा देते हैं. ऐसे में दवा कंपनियां ग़रीब और विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर वहां अपनी प्रतिबंधित दवाओं के लिए बाज़ार तैयार करती हैं. इन दवाओं का परीक्षण भी इन्हीं देशों में किया जाता है. अंतराष्ट्रीय क्लीनिकल परीक्षण और शोध का बाज़ार तक़रीबन 20 अरब डॉलर का है. भारत में यह बाज़ार तक़रीब दो अरब डॉलर का है और दिनोदिन इसमें त़ेजी से ब़ढोत्तरी हो रही है. ज़्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन ये देश अपने देश के लोगों पर दवाओं का परीक्षण न करके ग़रीब और विकासशील देशों के लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. इनमें एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और अफ्रीकी देश शामिल हैं.

हालांकि क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणा-पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इस घोषणा-पत्र में छह बार संशोधन भी किए गए. घोषणा-पत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुना़फे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो. दवाओं का परीक्षण दबाव और लालच देकर नहीं कराया जाए, लेकिन इस पर असरदार तरीक़े से अमल नहीं किया जा रहा है. साल 2008 से 2011 के बीच भारत में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 2031 लोगों की मौत हुई है. 2008 में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 288 लोगों की जान जान चुकी है, जबकि 2009 में 637 लोगों, 2010 में 668 लोगों और 2011 में 438 लोगों की मौत हुई थी. हाल में मध्य प्रदेश में भोपाल गैस हादसे के पीडि़तों और इंदौर में कई मरीज़ों पर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा था. एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर कर मध्य प्रदेश समेत देश भर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के आरोप लगाए हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के प्रतिनिधियों द्वारा ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात सामने आई थी कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में 2004 से 2008 के बीच विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 279 मरीज़ों पर दवाओं का परीक्षण किया गया है. इनमें से 13 मरीज़ों की दवा परीक्षण के बाद बीमारी बढ़ने से मौत हो गई. मरने वालों में से 12 गैस पीड़ित थे. देश भर में दवा परीक्षण के दौरान में चार साल में 2031 लोगों मौत हुई है. इनमें से केवल 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है, जबकि बाक़ी लोगों के परिवार वाले आज तक इंसा़फ की राह देख रहे हैं.
दरअसल, हमारे देश की लचर क़ानून व्यवस्था का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता कंपनियां ग़रीब मरीज़ों को मुफ्त में इलाज कराने का झांसा देकर उन पर दवा परीक्षण करती हैं. ग़रीब लोग ठगे जाने पर इनके खिला़फ आवाज़ भी नहीं उठा पाते. पिछले दिनों तक़रीबन 13 हज़ार दवाओं के परीक्षण भारत में किए गए. भारत प्रतिबंधित दवाओं का भी ब़डा बाज़ार है. विदेशों में प्रतिबंधित एक्शन 500, निमेसूलाइड और एनालजिन जैसी दवाएं भारत में ज़्यादा बिकने वाली दवाओं में शामिल हैं. फिनलैंड, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों ने निमेसूलाइड के जिगर पर हानिकारक प्रभाव की रिपोर्टों के मद्देनज़र इस पर पाबंदी लगाई हुई है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में भी यह दवा प्रतिबंधित है. इसके अलावा दवाओं के साइड इफेक्ट से भी लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अनेक दवाएं ऐसी हैं जो फायदे की बजाय नुक़सान ज़्यादा पहुंचाती हैं. कुछ दवाएं रिएक्शन करने पर जानलेवा तक साबित हो जाती हैं, जबकि कुछ दवाएं मीठे ज़हर का काम करती हैं. क़ब्ज़ की दवा से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. सर्दी, खांसी, ज़ुकाम, सरदर्द और नींद न आने के लिए ली जाने वाली एस्प्रीन में सालि सिलेट नामक रसायन होता है, जो श्रवण केंद्रीय के ज्ञान तंतु पर विपरीत प्रभाव डालता है. कुनेन का अधिक सेवन कर लेने पर व्यक्ति बहरा हो सकता है. ये दवाएं एक तरह से नशे का काम करती हैं. नियमित रूप से एक ही दवा का इस्तेमाल करते रहने से दवा का असर कम होता जाता है और व्यक्ति दवा की मात्रा में बढ़ोतरी करने लगता है. दवाओं में अल्कोहल का भी अधिक प्रयोग किया जाता है, जो फेफड़ों को नुक़सान पहुंचाती है.

अधिकांश दवाएं शरीर के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे ये शरीर में घुलमिल कर खाद्य पदार्थों की भांति पच नहीं पाती हैं. नतीजतन, ये शरीर में एकत्रित होकर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. दवाओं में जड़ी-बूटियों के अलावा खनिज लोहा, चांदी, सोना, हीरा, पारा, गंधक, अभ्रक, मूंगा, मोती और संखिया आदि का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही कई दवाओं में अफ़ीम, जानवरों का रक्त और चर्बी आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है. सर्लें तथा एंटीबायोटिक दवाओं के लंबे समय तक सेवन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. चिकित्सकों का कहना है कि मेक्साफार्म, प्लेक्वान, एमीक्लीन, क्लोरोक्लीन और नियोक्लीन आदि दवाएं बहुत ख़तरनाक हैं. इनके ज़्यादा सेवन से जिगर और तिल्ली बढ़ जाती है, स्नायु दर्द होता है, आंखों की रोशनी कम हो सकती है, लकवा मार सकता है और कभी-कभी मौत भी हो सकती है. दर्द, जलन और बुख़ार के लिए दी जाने वाली ऑक्सीफेन, बूटाजोन, एंटीजेसिक, एमीडीजोन, प्लेयर, बूटा प्रॉक्सीवोन, जेक्रिल, मायगेसिक, ऑसलजीन, हैडरिल, जोलांडिन और प्लेसीडीन आदि दवाएं भी ख़तरनाक हैं. ये ख़ून में कई क़िस्म के विकार उत्पन्न करती हैं. ये दवाएं स़फेद रक्त कणों को ख़त्म कर देती हैं. इनसे अल्सर हो जाता है तथा साथ ही जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं. एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली दवा इफेविरेंज से नींद नहीं आना, पेट दर्द और चक्कर आने लगते हैं. नेविरापिन से खून की कमी हो जाती है, आंख में धुंधलापन, मुंह का अल्सर आदि रोग हो जाते हैं. मिर्गी के लिए दी जाने वाली फेनिटोइन और कार्बेमेजीपिन से मुंह में छाले और खाने की नली में जख्म हो जाते हैं. डायबिटीज के लिए दिए जाने वाले इंसुलिन से खुजली की शिकायत हो जाती है. कैंसर के लिए दी जाने वाली पेक्लीटेक्सिल से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं और कीमोथैरेपी की दवा साइक्लोसपोरिन से शरीर में खून की कमी हो जाती है और त्वचा भी संक्रमित होती है. चमड़ी के संक्रमण के लिए दी जाने वाली एजीथ्रोमाइसिन से पेट संबंधी समस्या पैदा हो जाती है. एलर्जी के लिए दी जाने वाली स्रिटेजीन से शरीर में ददोड़े प़ड जाते हैं. मेक्लिजीन से डायरिया हो जाता है. एंटीबायोटिक सेफट्राइजोन और एम्पीसिलीन से सांस की नली में सूजन आ जाती है. नॉरफ्लोक्सेसिन और ओफ्लोक्सेसिन से खुजली हो जाती है. टीबी के लिए दी जाने वाली इथेमबूटोल से आंखों की नसों में कमज़ोरी आ जाती है. मानसिक रोगी को दी जाने वाली हेलोपेरीडॉल से शरीर में अकड़न, जोड़ों में दर्द और बेहोशी की समस्या पैदा हो जाती है. इसी तरह दर्द निवारक दवा आईब्रूफेन, एस्प्रिन, पैरासिटामॉल से शरीर में सूजन आ जाती है. एक र्फार्मास्टि के मुताबिक़, स्टीरॉयड और एनाबॉलिक्स जैसे डेकाडयराबोलिन, ट्राइएनर्जिक आदि दवाएं पौष्टिक आहार कहकर बेची जाती हैं, जबकि प्रयोगों ने यह साबित कर दिया है कि इनसे बच्चों की हड्डियों का विकास रुक जाता है. इनके सेवन से लड़कियों में मर्दानापन आ जाता है. उनका मासिक धर्म अनियमित या बहुत कम हो जाता है. उनके चेहरे पर दा़ढीनुमा बाल उगने लगते हैं और कई बार उनकी आवाज़ में भारीपन भी आ जाता है. जलनशोथ आदि से बचने के लिए दी जाने वाली चाइमारोल तथा खांसी रोकने के लिए दी जाने वाली बेनाड्रिल, एविल, केडिस्टिन, साइनोरिल, कोरेक्स, डाइलोसिन और एस्कोल्ड आदि दवाएं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. इसी तरह एंसिफैड्रिल आदि का मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है. एक चिकित्सक के मुताबिक़, दवाओं के दुष्प्रभाव का सबसे बड़ा कारण बिना शारीरिक परीक्षण किए हुए दी जाने वाली दवाओं की निर्धारित मात्रा से अधिक ख़ुराक है. अनेक चिकित्सक अपनी दवाओं का जल्दी प्रभाव दिखाने के लिए प्राइमरी की बजाय थर्ड जेनेरेशन दे देते हैं, जो अक्सर कामयाब तो हो जाती हैं, लेकिन दूसरे असर छोड़ जाती हैं. दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं, जिनसे अन्य बीमारियां पैदा हो जाती हैं. जयपुर के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज के एडवर्स ड्रग रिएक्शन मॉनिटरिंग सेंटर (एएमसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले डे़ढ साल में 40 दवाओं के साइड से 445 मरीज़ प्रभावित हुए हैं. इनमें गंभीर बीमारियां एचआईवी, कैंसर, डायबिटीज और टीबी से लेकर बु़खार और एलर्जी के लिए दी जाने वाली दवाएं शामिल हैं. मरीज़ों ने ये दवाएं लेने के बाद पेट दर्द, सरदर्द, एनीमिया, बु़खार, त्वचा संक्रमण और सूजन आदि की शिकायतें कीं.

स्वास्थय विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टर को चाहिए कि वे दवा के बारे में मरीज़ को ठीक से समझाएं, मरीज़ की उम्र और उसके वज़न के हिसाब से दवा लिखे तथा दवा का कोई भी दुष्प्रभाव होने पर फौरन डॉक्टर को सूचित करे. मरीज़ों को चाहिए कि वे हमेशा डॉक्टर की सलाह से ही पर्ची पर दवा लें, अप्रशिक्षित लोगों और दवा विक्रेताओं के कहने पर किसी भी दवा का इस्तेमाल न करें. सरकार को भी चाहिए कि वह डॉक्टरों को सेंटर पर सूचना देने के लिए पाबंद करे, अस्पतालों में पोस्टर, बैनर और कार्यशालाओं के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करे. किसी भी दवा के दुष्प्रभाव मिलने पर उन्हें प्रतिबंधित करने की स़िफारिश की जाती है. किसी भी अस्पताल या सेंटर से दवा से दुष्प्रभाव और नुक़सान की रिपोर्ट को सीडी एससीओ नई दिल्ली को भेजा जाता है. यहां पर पूरे देश के सभी राज्यों से रिपोर्टें आती हैं. इसके बाद विशेषज्ञों की ड्रग टेक्नीकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) और ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी के सदस्यों द्वारा इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के बाद इसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को उस दवा की रिपोर्ट भेजी जाती है. इसके बाद केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेकर ग़ज़ट नोटिफिकेशन करते हैं. देश में पहले ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है. केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है. ऐसे में मरीज़ों के साथ खिलवा़ड किया जाना बेहद गंभीर और चिंता का विषय है. देश भर के सरकारी अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की कमी है. डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं. आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं. अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है. न तो पर्याप्त संख्या में नए स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं और न मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं. इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती. स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है. चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं. उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं. घटिया स्तर की दवाएं मुहैया कराए जाने के भी आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं नौ दिन चले अढाई कोस नामक कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आती हैं. हालांकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दवाओं को मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया में अनियमितता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तीन सदस्यीय समिति क्लीनिकल परीक्षण के बिना नई दवाओं को दी गई मंज़ूरी की वैज्ञानिक और वैधानिक आधार पर जांच करने के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. वह मंज़ूरी प्रक्रिया में प्रणालीगत सुधार के लिए सुझाव पेश करेगी और दवा नियंत्रक कार्यालय की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए भी सुझाव देगी.

स्वस्थ नागरिक किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं. हमें इस बात को समझना होगा. देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के साथ-साथ प्रतिबंधित दवाओं पर सख्ती से रोक लगाने और ग़ैर क़ानूनी रूप से मरीज़ों पर किए जा रहे दवा परीक्षणों पर भी रोक लगानी होगी. इसके अलावा दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा. इसके कई फ़ायदे हैं, पहला लोगों को रोजगार मिलेगा, दूसरा मरीज़ों को वाजिब क़ीमत में दवाएं मिल सकेंगी और तीसरा फायदा यह है कि मरीज़ विदेशी दवाओं के रूप में ज़हर खाने से बच जाएंगे.

इलाज से परहेज़ बेहतर है
लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति काफ़ी सचेत रहने की ज़रूरत है, वरना एक बीमारी का इलाज कराते-कराते वे किसी दूसरी बीमारी का शिकार हो जाएंगे. शरीर में स्वयं रोगों से मुक्ति पाने की क्षमता है. बीमारी प्रकृति के साधारण नियमों के उल्लंघन की सूचना मात्र है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने से बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करने तथा पौष्टिक भोजन लेने से मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहता है. यही सेहत की निशानी है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल का कहना है कि स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी है कि लोग अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें जैसे अपना ब्लड कोलेस्ट्रॉल 160 एमजी प्रतिशत से कम रखें. कोलेस्ट्ररॉल में एक प्रतिशत की भी कमी करने से हार्ट अटैक में दो फ़ीसदी कमी होती है. अनियंत्रित मधुमेह और उच्च रक्तचाप से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए इन पर क़ाबू रखें. कम खाएं, ज़्यादा चलें. नियमित व्यायाम करना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. सोया के उत्पाद स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. खुराक में इन्हें ज़रूर लिया जाना चाहिए. जूस की जगह फल का सेवन करना बेहतर होता है. ब्राउन राइस पॉलिश्ड राइस से और स़फेद चीनी की जगह गुड़ लेना कहीं अच्छा माना जाता है. फाइबर से भरपूर खुराक लें. शराब पीकर कभी भी गाड़ी न चलाएं. गर्भवती महिलाएं तो शराब बिल्कुल न पिएं. इससे होने वाले बच्चे को नुक़सान होता है. साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की जांच ज़रूर करवाएं. ज़्यादा नमक से परहेज़ करें.


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