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नई दिल्ली. 1 मार्च से बैंकों ने कैश ट्रांजेक्शन पर बड़े चार्ज लगाने का ऐलान कर दिया है जिसके बाद जाहिर तौर पर आपकी चिंताएं बढ़ गई होंगी. बैंकों ने अब नकद लेनदेन (जमा-कैश निकालने) पर कई तरह का चार्ज लगा दिए हैं. लेकिन अगर आप यहां बताई बातों पर अमल करेंगे तो आपको कोई चार्ज नहीं देना पड़ेगा जानें किस तरह आप कैश ट्रांजेक्शन करने के बावजूद पैसे बचा सकते हैं.
ट्रांजेक्शन चार्ज से बचने के उपाय 
नए नियमों के मुताबिक बैंक की शाखा और एटीएम से मिलाकर 1 महीने में 9-10 लेनदेन मुफ्त होते हैं. 5 बार एटीएम से और और 4 बार बैंकों में पैसे निकालने पर आपको कोई चार्ज नहीं लगेगा. तो कुल मिलाकर 9 बार के कैश ट्रांजेक्शन आप फ्री कर सकते हैं और ये काफी हैं. बैंकों ने भी यही दलील दी है कि सामान्य सेविंग्स अकाउंट में इससे ज्यादा लेन-देन नहीं होता. लिहाजा ट्रांजैक्शन फीस से बड़ी तादाद में लोग प्रभावित नहीं होंगे.इसके लिए सबसे बड़ा सुझाव तो ये भी है कि आप कैश में ट्रांजेक्शन करने से बचें और ज्यादातर ऑनलाइन पैसे भेजें या प्राप्त करें. अगर आपको कैश में काम करने की आदत ज्यादा है भी तो भी एक महीने में 5 बार से ज्यादा एटीएम से पैसे ना निकालें. हर बार थोड़ा-थोड़ा कैश निकालने से बेहतर है आप एक बार में ज्यादा कैश निकालें और उसका इस्तेमाल करें.सरकार ने भीम एप और यूपीआई के जरिए ट्रांजेक्शन को बढ़ावा देने के लिए डिजी स्कीम भी लॉन्च की हुई है तो इसके जरिए फ्री में ट्रांजेक्शन भी करें और ईनाम भी जीतें. अब तक हजारों लोग करोड़ रुपये के कैश ईनाम डिजी स्कीम के जरिए जीत चुके हैं. तो आप ऑनलाइन लेनदेन करते हैं तो पेटीएम, फ्रीचार्ज से हटकर सोचें और सरकारी ऑनलाइन पेमेंट सर्विसेज का इस्तेमाल करें.4 ट्रांजेक्शन के बाद 150 रुपये का चार्ज सिर्फ निजी बैंकों ने तय किया है. सरकारी बैंकों में सिर्फ एसबीआई ने ऐसी घोषणा की है और बाकी बैंकों में अभी भी पहले के ही नियम लागू हैं और को-ऑपरेटिव बैंकों में भी आपको फ्री ही कैश जमा करने और निकालने की सुविधा पहले की तरह बदस्तूर मिल रही है तो इन बैंकों में आपके खाते हैं तो उनका ज्यादा इस्तेमाल करें. जानें अलग-अलग बैंकों किस तरह के चार्ज वसूल रहे हैं?
आईसीआईसीआई बैंक के चार्ज
आईसीआईसीआई बैंक में एक एक महीने में पहले चार लेन-देन के लिए कोई शुल्क नहीं लगेगा. उसके बाद प्रति 1,000 रुपये पर 5 रुपये का शुल्क लगाया जाएगा. यह समान महीने के लिए न्यूनतम 150 रुपये होगा. थर्ड पार्टी ट्रांजैक्शन के मामले में सीमा 50,000 रुपये प्रतिदिन होगी. होम ब्रांच के अलावा अन्य शाखाओं के मामले में आईसीआईसीआई बैंक एक महीने में पहली नकद निकासी के लिए कोई शुल्क नहीं लेगा. लेकिन उसके बाद प्रति 1,000 रुपये पर 5 रुपये का शुल्क लेगा. इसके लिए न्यूनतम शुल्क 150 रुपये रखा गया है.
एचडीएफ़सी बैंक के चार्ज
एचडीएफसी बैंक से 4 बार से ज्यादा कैश निकालने पर 150 रुपए फीस अदा करनी होगी. बैंक ने होम ब्रांचेज में भी फ्री कैश ट्रांजैक्शन 2 लाख रुपये की लिमिट लगा दी है. इसके ऊपर कस्टमर्स को न्यूनतम 150 रुपये या 5 रुपये प्रति 1000 रुपये का पेमेंट करना होगा. नॉन-होम ब्रांचेज में मुफ्त लेन-देन 25,000 रुपये है. उसके बाद चार्ज उसी स्तर पर लागू होगा. हालांकि बुजुर्गों और बच्चों के खातों पर किसी तरह का चार्ज नहीं लगाया है और इनमें जमा पर भी कोई चार्ज नहीं लगेगा. कोई दूसरा व्यक्ति यदि आपके खाते में नगद जमा कराना चाहे या निकालना चाहे तो उसके लिए 25 हजार रुपये की सीमा है और वो भी कम से कम 150 रुपये की फीस के साथ
एक्सिस बैंक के चार्ज
कस्टमर्स को हर महीने 5 ट्रांजैक्शन्स फ्री दिए गए हैं. इसके बाद छठे लेनदेन पर कम से कम 95 रुपए प्रति लेनदेन की दर से चार्ज लगाया जाएगा. नॉन-होम ब्रांच के 5 ट्रांजैक्शन फ्री हैं. बैंक ने एक दिन में कैश जमा करने की सीमा 50,000 रुपये फिक्स की है और इससे ज्यादा के डिपॉजिट पर या 6ठें ट्रांजेक्शन पर हरेक 1000 रुपये पर 2.50 रुपये की दर से या प्रति ट्रांजैक्शन 95 रुपये में से जो भी ज्यादा होगा, चार्ज लिया जाएगा.
एसबीआई के चार्ज
सबसे बड़ा सरकारी बैंकएसबीआई भी एक महीने में 3 बार से ज्यादा कैश ट्रांजेक्शन पर सर्विस चार्ज वसूलेगी. साथ ही बैंक ने तय किया है कि वह व्यावसायिक प्रतिनिधि और पीओएस से नकदी निकालने पर निर्धारित सीमा के बाद चार्ज लेगा. होम ब्रांच के सेविंग खाते के एटीएम से ग्राहक महीने में 3 बार ही कैश ट्रांजेक्शन फ्री कर पाएंगे. इससे ऊपर के हर ट्रांजेक्शन पर 50 रुपये सर्विस चार्ज लगेगा.
सरकारी बैंकों में अभी भी नहीं है कोई चार्ज
दो प्रमुख सरकारी बैंक पंजाब नेशनल बैंक और बैंक  ऑफ बड़ौदा के अधिकारियों ने साफ किया है कि उनके यहां नगद लेन-देन पर कोई ट्रांजैक्शन फीस नही है. कोई भी बैंक जितना चाहे, जितनी बार चाहे, नगद जमा करा सकता है. 13 मार्च से पैसा निकालने पर कोई पाबंदी नही रहेगी. वहीं केनरा बैंक ने भी कहा है कि वह अपने कस्टमर्स से किसी तरह का चार्ज नहीं वसूलेगा. तो आप चाहें तो इन बैंकों में फभी सेविंग खाता है तो इनका इस्तेमाल कर सकते हैं या नया खाता भी खुलवा सकते हैं.

बैंकों का कहना है कि देश में लेसकैश को बढ़ाने यानी नकद लेन-देन को हतोत्साहित करने के लिए ही नियम बनाए हैं और कि ट्रांजैक्शन फीस का नोटबंदी से कोई लेन-देना नहीं है, ये पहले से ही लागू हैं. सरकार का मानना है कि एटीएम से नकदी निकासी की लागत प्रदर्शन करना चाहिए क्योंकि लोगों को नकदी में लेनदेन की इनबिल्ट कॉस्ट यानी लागत नहीं पता चलती है और कैश में लेनदेन करते रहते हैं जिससे बैंकिंग सिस्टम की भी लागत बढ़ती है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एडीशनल ट्रांजेक्‍शन करने के तौर पर 20 रुपये प्‍लस टैक्‍स को सभी सेंट्रल बैंकों पर लागू किया गया। जिससे कि उनकी सीमा को बढ़ाया जा सके.

फ़िरदौस ख़ान
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी
हिन्दी कविता की ये पंक्तियां पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को बख़ूबी बयान करती हैं. भारत में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ के आधार पर महिलाओं को देवी की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया गया है. लेकिन, आधुनिक समाज में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है, जहां उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है. काफ़ी हद तक इसका श्रेय विज्ञापन जगत को जाता है. मौजूदा दौर में विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी काया का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन कर दौलत बटोरने की होड़ मची हुई है.

पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाक़ू, गुटखा, सिगरेट और शराब तक के विज्ञापनों में नारी को दिखाया जाता है. जबकि, यहां उनकी कोई ज़रूरत नहीं है. इन वस्तुओं का इस्तेमाल मुख्यत: पुरुषों द्वारा किया जाता है. इसके बावजूद इसमें नारी देह का जमकर प्रदर्शन किया जाता है. इसके लिए तर्क दिया जाता है कि विज्ञापन में आर्कषण पैदा करने के लिए नारी का होना बेहद जरूरी है, यानी पुरुषों को गुमराह किया जाता है कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं मधुमक्खी की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी.

ऐसा नहीं है कि विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन से उत्पाद की श्रेष्ठता और उसके टिकाऊपन में सहज ही बढ़ोतरी हो जाती है या उसकी कीमत में इजाफा हो जाता है. दरअसल, इस प्रकार के विज्ञापन कामुकता को बढ़ावा देकर समाज को विकृत करने का काम करते हैं. शायद इसका अंदाजा उत्पादक विज्ञापनदाताओं को नहीं है या फिर वे लोग इसे समझना ही नहीं चाहते. आज न जाने कितने ही ऐसे विज्ञापन हैं जिन्हें परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता. अगर किसी कार्यक्रम के बीच ‘ब्रेक’ में कोई अश्लील विज्ञापन आ जाए तो नज़रें शर्म से झुक जाती हैं. परिजनों के सामने शर्मिंदगी होती है. विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि विज्ञापन को चर्चित बनाने के लिए कई चौंकाने वाली कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं.

यह माना जा सकता है कि आज विज्ञापन कारोबार की ज़रूरत बन गए हैं. लेकिन, इसका यह भी मतलब नहीं कि अपने फायदे के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल किया जाए. निर्माताओं को चाहिए कि वे अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें. उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फ़ायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं. लेकिन, निर्माताओं की मानसिकता ही आज बदल गई है. उन्हें लगता है कि वे विज्ञापनों में माडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं. लेकिन, हकीकत में ऐसा कतई नहीं है.

पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं. दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता. अगर विज्ञापन में ख़ून-ख़राबे वाले दृश्य हों, तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता. यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है. आथोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए.

इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे. बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था. दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई. उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फ़ीसद ज़्यादा है. यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुक़ाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फ़ीसदी अधिक देखी गई. निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फ़ीसद कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुक़ाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फ़ीसद कम हो जाती है. इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी. क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे. चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे.

यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी को भारत में एक समय सती प्रथा के नाम पर पति के साथ चिता में जलकर मरने को मजबूर किया गया था. देवदासी प्रथा की आड़ में उनसे वेश्यावृत्ति कराई गई थी. सदियों के बाद महिलाओं में जागरूकता आई है. अब जब वे अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तो ऐसे में देह प्रदर्शन के जरिए उन्हें भोग की वस्तु के रूप में पेश करना अपमानजनक है. यह देश के सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर भी कुठाराघात करने के समान है.

एक अनुमान के मुताबिक भारत के तक़रीबन 40 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और हर घर में यह आठ से दस घंटे तक चलता है. यानी विज्ञापन देश की क़रीब आधी आबादी को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं. इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नज़र रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है. बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए.

फ़िरदौस ख़ान
तीज-त्यौहार हमारी तहज़ीब और रवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. ये ख़ुशियों के ख़ज़ाने भी हैं. ये हमें ख़ुशी के मौक़े देते हैं. ख़ुश होने के बहाने देते हैं. ये लोक जीवन का एक अहम हिस्सा हैं. इनसे किसी भी देश और समाज की संस्कृति व सभ्यता का पता चलता है. मगर बदलते वक़्त के साथ तीज-त्यौहार भी पीछे छूट रहे हैं. कुछ दशकों पहले तक जो त्यौहार बहुत ही धूमधाम के साथ मनाए जाते थे, अब वे महज़ रस्म अदायगी तक ही सिमट कर रह गए हैं. इन्हीं में से एक त्यौहार है लोहड़ी.
लोहड़ी उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा और पंजाब का एक प्रसिद्ध त्यौहार है. लोहड़ी के की शाम को लोग सामूहिक रूप से आग जलाकर उसकी पूजा करते हैं. महिलाएं आग के चारों और चक्कर काट-काटकर लोकगीत गाती हैं. लोहड़ी का एक विशेष गीत है. जिसके बारे में कहा जाता है कि एक मुस्लिम फ़कीर था. उसने एक हिन्दू अनाथ लड़की को पाला था. फिर जब वो जवान हुई तो उस फ़क़ीर ने उस लड़की की शादी के लिए घूम-घूम के पैसे इकट्ठे किए और फिर धूमधाम से उसका विवाह किया. इस त्यौहार से जुड़ी और भी कई किवदंतियां हैं. कहा जाता है कि सम्राट अकबर के जमाने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाकों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर ग़रीबों की मदद करता था.
जो भी हो, लेकिन इस गीत का नाता एक लड़की से ज़रूर है. यह गीत आज भी लोहड़ी के मौक़े पर खूब गया जाता है.
लोहड़ी का गीत
सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूं बधाइयां...
यह गीत आज भी प्रासंगिक हो, जो मानवता का संदेश देता है.

एक अन्य किवदंती के मुताबिक़ क़रीब ढाई हज़ार साल पहले पूर्व पंजाब के एक छोटे से उत्तरी भाग पर एक लोहड़ी नाम के राजा-गण का राज्य था. उसके दो बेटे थे, जो वे हमेशा आपस में लड़ते और इसी तरह मारे गए. राजा बेटों के वियोग में दुखी रहने लगा. इसी हताशा में उसने अपने राज्य में कोई भी ख़ुशी न मनाए की घोषणा कर दी. प्रजा राजा से दुखी थी. राजा के अत्याचार दिनों-दिन बढ़ रहे थे. आखिर तंग आकर जनता ने राजा हो हटाने का फैसला कर लिया. राजा के बड़ी सेना होने के बावजूद जनता ने एक योजना के तहत राजा को पकड़ लिया और एक सूखे पेड़ से बांधकर उसे जला दिया. इस तरह अत्याचारी राजा मारा गया और जनता के दुखों का भी अंत हो गया. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

नई दिल्ली. चुनाव आयोग ने पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीख़ों का ऐलान कर दिया है.  केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त नसीम ज़ैदी ने बताया कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव सात चरणों में करवाया जाएगा, जबकि पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में चुनाव दो चरणों में होगा. शेष तीनों राज्यों में मतदान एक-एक चरण में ही होगा. गोवा तथा पंजाब में एकमात्र चरण का मतदान 4 फ़रवरी को करवाया जाएगा, जबकि उत्तराखंड में मतदान एक ही चरण में 15 फ़रवरी को होगा. मणिपुर में पहले चरण का मतदान 4 मार्च तथा दूसरे चरण का मतदान 8 मार्च को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में सात चरणों में 11, 15, 19, 23, 27 फ़रवरी तथा 4, 8 मार्च को मतदान होगा. सभी राज्यों में मतगणना 11 मार्च को होगी.

ग़ौरतलब है कि इन राज्यों में मौजूदा विधानसभाओं का कार्यकाल 18 मार्च से ही ख़त्म होना शुरू हो रहा है. गोवा, मणिपुर और पंजाब विधानसभाओं का कार्यकाल 18 मार्च को ख़त्म हो रहा है, जबकि उत्तराखंड विधानसभा का कार्यकाल 26 मार्च को  और उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 27 मई को ख़त्म हो रहा है.

उत्तर प्रदेश में कुल 403 विधानसभा सीटों के लिए सात चरणों में घोषित चुनाव कार्यक्रम इस प्रकार है.
राज्य में पहले चरण के दौरान 15 ज़िलों की 73 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 17 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 24 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 25 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 27 जनवरी होगी, जबकि मतदान 11 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में पहले चरण के दौरान जिन 15 ज़िलों में मतदान होगा, उनमें शामली, मुज़फ़्फरनगर, बाग़पत, मेरठ, ग़ाज़ियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, एटा और कासगंज शामिल है.

उत्तर प्रदेश  में दूसरे चरण के दौरान 11 ज़िलों की 67 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 20 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 27 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 28 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 30 जनवरी होगी, जबकि मतदान 15 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर में होने वाले दूसरे चरण के दौरान जिन 11 ज़िलों में मतदान होगा, उनमें सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर तथा बदायूं शामिल है.

उत्तर प्रदेश में तीसरे चरण में 12 ज़िलों की 69 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 24 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 31 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 2 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 4 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 19 फ़रवरी को करवाया जाएगा. राज्य में तीसरे चरण के तहत 12 ज़िलों फ़र्रुख़ाबाद, हरदोई, कन्नौज, मैनपुरी, इटावा, औरैया, कानपुर देहात, कानपुर नगर, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी तथा सीतापुर में मतदान होगा.

राज्य में चौथे चरण के दौरान 12 ज़िलों की 53 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 30 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 6 फ़रवरी जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 7 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 9 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 23 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में चुनाव के चौथे चरण में जिन 12 ज़िलों में मतदान होने जा रहा है, उनमें प्रतापगढ़, कौशाम्बी, इलाहाबाद, जालौन, झांसी, ललितपुर, महोबा, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, फतेहपुर और रायबरेली शामिल है.

उत्त प्रदेश में पांचवें चरण में 11 ज़िलों की 52 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 2 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 9 फ़रवरी जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 11 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 13 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 27 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में पांचवें चरण के तहत 11 ज़िलों में मतदान होगी, जिनमें बलरामपुर, गोंडा, फ़ैज़ाबाद, अम्बेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, बस्ती, संत कबीर नगर, अमेठी और सुल्तानपुर  में शामिल है.

उत्तर प्रदेश में छठे चरण में सात ज़िलों की 49 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 8 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 15 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 16 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 18 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 4 मार्च को करवाया जाएगा. राज्य में छठे चरण में सात ज़िलों में मतदान करवाया जा रहा है, जिनमें महाराजगंज, कुशीनगर, गोरखपुर, देवरिया, आज़मगढ़, मऊ और बलिया शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश में सातवें तथा अंतिम चरण में सात ज़िलों की 40 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 11 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 20 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 22 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 8 मार्च को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के सातवें और अंतिम चरण में भी सात ज़िलों में मतदान की प्रक्रिया संपन्न होगी, जिनमें ग़ाज़ीपुर, वाराणसी, चंदौली, मिर्ज़ापुर, भदोही, सोनभद्र और जौनपुर शामिल हैं हैं.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
उत्तर प्रदेश के अलावा मणिपुर ऐसा राज्य है, जहां एक से ज़्यादा चरणों में मतदान करवाया जा रहा है. यहां पहले चरण में 38 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 8 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 15 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 16 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 18 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 4 मार्च को करवाया जाएगा.
मणिपुर में दूसरे चरण में 22 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 11 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 20 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 22 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 8 मार्च को करवाया जाएगा.
मणिपुर विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
पंजाब में सभी 117 विधानसभा सीटों पर एक ही चरण में मतदान के लिए अधिसूचना 11 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 19 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 21 जनवरी होगी, जबकि मतदान 4 फ़रवरी को करवाया जाएगा.
पंजाब विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
गोवा में भी सभी 40 विधानसभा सीटों पर चुनाव का कार्यक्रम पूरी तरह पंजाब के साथ चलेगा, यानी अधिसूचना 11 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 जनवरी होगी, उनकी जांच के लिए 19 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 21 जनवरी होगी, जबकि मतदान 4 फ़रवरी को करवाया जाएगा.
गोवा विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
पांचवें और अंतिम राज्य उत्तराखंड में सभी 70 सीटों पर एक ही चरण में करवाए जाने वाले मतदान के लिए अधिसूचना 20 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 27 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 28 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 30 जनवरी होगी, जबकि मतदान 15 फ़रवरी को करवाया जाएगा.
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
सभी पांचों राज्यों में मतगणना का काम 11 मार्च को एक साथ करवाया जाएगा.  चुनाव अर्ध सैनिक बलों की निगरानी  में होंगे.

फ़िरदौस ख़ान
कालेधन पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सबकी नज़र सियासी दलों के चंदे पर है.  देश की अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सामाजिक अंकेक्षण की मांग उठ रही है. जब नोटबंदी, कैश लेस ट्रांजेक्शन, सोना, रियल स्टेट में कैश लेस ख़रीद-बिक्री को लेकर आम जनता प्रभावित है, तो फिर जनता द्वारा भरे गए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से मिली रक़म का इस्तेमाल करने वाले नेताओं और सियासी दलों को भी पारदर्शिता बरतनी होगी.

इस बाबत चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को क़ानून में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसके लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को तीन सुझाव भी दिए हैं. पहला सियासी दलों के दो हज़ार रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदा लेने पर रोक लगाई जाए, दूसरा चुनाव न लड़ने वाले सियासी दलों को आयकर से छूट नहीं दी जाए और तीसरा सियासी दल कूपन के ज़रिये चंदा देने वाले लोगों की भी पूरी जानकारी रखें. क़ाबिले-ग़ौर है कि फ़िलहाल गुप्त चंदे पर क़ानूनी रोक नहीं है. जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29(सी) के तहत 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा के चंदे की सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है. इससे नीचे की रक़म का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता. आमदनी के मामले में कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बताया कि एक दशक में उसे दो-तिहाई रकम 20 हज़ार रुपये से नीचे के चंदे के ज़रिये हुई है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 44 फ़ीसद आमदनी को 20 हज़ार रुपये से नीचे की मदद को बताया है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुताबिक़  उन्हें 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए उनमें यह दर 100 फ़ीसद है. ऐसे में नियामक एजेंसियां यह पता लगाने में नाकाम रहती हैं कि सियासी दलों के पास आख़िर इतनी बड़ी रक़म कहां से आई है. सियासी दलों को आयकर भरने से भी छूट है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के तहत  संपत्ति, चंदा, या दूसरे स्रोतों से हुई आमदनी पर कोई कर नहीं देना पड़ता. कूपन या रसीद के ज़रिये चंदा देने वालों का ब्यौरा देना भी ज़रूरी नहीं है. इस तरह छोटी-छोटी रक़म के कूपनों के ज़रिये कितनी भी रक़म दिखाई जा सकती है. सियासी दल चुनाव आयोग को जिस रक़म का ब्यौरा देते हैं, वह पैसा कॊरपोरेट घरानों से चंदे के तौर पर आता है, जो पूरी तरह आयकर से मुक्त है. इसके अलावा सियासी आरटीआई के दायरे में नहीं आते. सियासी दलों की आमदनी और ख़र्च दोनों ही में पारदर्शिता नहीं होती. चुनाव आयोग भी अपने लेखा विभाग से इसकी जांच नहीं करा सकता. ऐसी हालत में कालेधन को बहुत ही आसानी से सफ़ेद किया जा सकता है. सियासी दलों पर आरोप लग रहे हैं कि नोटबंदी के बाद उनके खातों में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के पुराने नोट जमा हुए हैं. यह भी आरोप है कि बहुत से छोटे सियासी दल 25 फ़ीसद कमीशन पर कालेधन को सफ़ेद बनाने में लगे हैं. साथ ही सियासी गलियारे में चर्चा थी कि नोटबंदी के बाद सियासी दलों के खातों में जमा हुए पुराने नोटों की जांच नहीं होगी. हालांकि विवाद बढ़ने पर राजस्व सचिव हंसमुख अढिया को सफ़ाई देनी पड़ी कि नोटबंदी के बाद कोई भी सियासी दल 500 और 1000 रूपये में चंदा स्वीकार नहीं कर सकता. अगर उन्होंने ऐसा किया, तो उन पर भी कार्रवाई होगी.

ग़ौरतलब है कि चुनावों में कालेधन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भी यही कहना है कि काला धन सबसे ज़्यादा चुनावों में ही खपता है. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सियासी दलों को मिली रियायत का ग़लत फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला रहता है. बड़ी रक़म को ज़्यादा हिस्सों में बांटकर कालेधन को सफ़ेद बनाया जा सकता है. आयकर में छूट हासिल करने के मक़सद से ही ज़्यादतर सियासी दलों का गठन हुआ है. फ़िलहाल देश में 1900 से ज़्यादा सियासी दल हैं, जिनमें से तक़रीबन 1400 सियासी दलों ने किसी भी चुनाव में अपना एक उम्मीदवार भी मैदान में नहीं उतारा. हालत यह है कि पिछले आम चुनाव में महज़ 45 दलों ने ही चुनाव लड़ा. चंदे के कूपन का भी कोई नियम नहीं है. कितने भी कूपन छपवाकर कितनी भी रक़म का चंदा दिखाया जा सकता है.

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॊर्म्स (एडीआर) की साल 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सियासी दलों को 75 फ़ीसद से ज़्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला. पिछले दस सालों में सियासी दलों के चंदे में 478 की बढ़ोतरी हुई. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में 38 दलों को 253.46 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जो साल 2014 में बढ़कर 1463.63 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में 44 फ़ीसद चंदा नक़दी के तौर पर था. लोकसभा चुनावों के अलावा इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों में भी सियासी दलों ने चंदे के तौर पर करोड़ों रुपये जुटाये.  साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों को 3368.06 करोड़ रुपये मिले. इसमें से 63 फ़ीसद रक़म नक़दी के तौर पर मिली. चुनाव आयोग में जमा किए गए चुनावी ख़र्च के विवरण के मुताबिक़ पिछले तीन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा रक़म खर्च भी की है. साल 2004 और 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा पैसे ख़र्च किए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2014-15 में चुनावी ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ चंदे के तौर पर जुटाये हैं और उनमें से 177.40 करोड़ अलग-अलग सियासी दलों को चंदे के रूप में दिए गए.

अफ़सोस की बात है कि अपनी आमदनी के मामले में सियासी दल पारदर्शिता नहीं चाहते. सनद रहे कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब साल 2013 में पार्टियों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए उन्हें सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का आदेश दिया था, तब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और वामदलों से लेकर तक़रीबन सभी बड़े-छोटे दलों ने एक सुर में इसका विरोध किया था. पिछले सरकार केंद्र की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि सियासी दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से उनके संचालन पर असर पड़ेगा और सियासी विरोधी भी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. सियासी दल भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि चुनाव के दौरान कालाधन बाहर आ जाता है. कालेधन के मामले में सख़्ती होने से उनकी आमदनी पर भी इसका असर पड़ेगा. सियासी दलों के इसी विरोध की वजह से ही चुनाव आयोग और लॊ कमीशन के सुझावों की तमाम फ़ाइलें दफ़्तरों में पड़ी धूल फांक रही हैं. चुनाव आयोग ने सियासी दलों के लिए कई और भी सिफ़ारिशें की थीं, जिनमें सियासी दलों को आरटीआई का जवाब देने, उनके दान खातों का ऒडिट करने, एक उम्मीदवार के एक ज़्यादा सीटों से चुनाव लड़ने और निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव लड़ने आदि पर रोक लगाना शामिल है.

दरअसल, कालेधन से जुड़ा मुद्दा चुनावी सुधारों से भी जुड़ा हुआ है. अगर सरकार कालेधन के मामले में वाक़ई गंभीर है, तो उसे चुनाव सुधारों की दिशा में भी सख़्त फ़ैसले लेने होंगे. उसे चुनाव में धन-बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगानी होगी. सियासी दलों को चाहिए कि वे भी कैश लेस चंदा लेना शुरू करें और साथ ही अपनी आमदनी को सार्वजनिक करें. विदेशों की तर्ज़ पर भारत को भी इस दिशा में कारगर क़दम उठाने होंगे. अमेरिका, ब्रिटेन्, जर्मनी, फ़्रांस, ऒस्ट्रेलिया और आयरलैंड आदि देशों ने सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर सख़्त नियम बनाए हुए हैं. सियासी दलों को अपनी आमदनी का ब्यौरा देना होता है. फ़्रांस में चुनाव का सारा ख़र्च सरकार ही वहन करती है.

बहरहाल, कालेधन पर पारदर्शिता बरतने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ जनता की ही नहीं है, सरकार और सियासी दलों को भी अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना होगा.

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं, बुरी घड़ी कहकर नहीं आती. बुरा वक़्त कभी भी आ जाता है. मौत या हादसों का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं होता. जब कोई हादसा होता है, जान या माल का नुक़सान होता है, तो किसी भी व्यक्ति को इसका सदमा लग सकता है. ऐसे में व्यक्ति के जिस्म में ताक़त नहीं रहती और शारीरिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं. दिमाग़ रक्त वाहिनियों की पेशियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, जिससे दिमाग़ और जिस्म का तालमेल गड़बड़ा जाता है. दिल की धड़कन भी धीमी हो जाती है. व्यक्ति क चक्कर आने लगते हैं, वह बेहोश हो जाता है, कई बार उसकी मौत भी हो जाती है. मौत कभी पूरा न होने वाला नुक़सान है. मौत के सदमे से उबरना आसान नहीं है. सदमे का ताल्लुक़ भावनाओं से है, संवेदनाओं से है. अगर कोई इन संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करे, तो उसे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सियासी हलक़े में मौत और सदमे पर भी सियासत की बिसात बिछा ली जाती है. फिर अपने फ़ायदे के लिए शह और मात का खेल खेला जाता है. इन दिनों तमिलनाडु में भी यही सब देखने को मिल रहा है.
तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी अन्नाद्र्मुक दावा कर रही है कि जयललिता की मौत के सदमे से 470 लोगों की मौत हो चुकी है. पार्टी ने मृतकों के परिवार को तीन लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया है. पार्टी ने ऐसे लोगों की फ़ेहरिस्त जारी की है, जिनकी मौत सदमे की वजह से हुई है. पार्टी का यह भी कहना है कि जयललिता के निधन के बाद अब तक छह लोग ख़ुदकुशी की कोशिश कर चुके हैं. ऐसे चार लोगों का ब्यौरा भी जारी किया गया है. जयललिता की मौत की ख़बर सुनने पर ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले एक व्यक्ति को पार्टी ने 50 हज़ार रुपये देने की घोषणा की है. इतना ही नहीं जयललिता की मौत की ख़बर सुनकर अपनी उंगली काटने वाले व्यक्ति को भी 50 हज़ार रुपये की मदद देने का ऐलान किया जा चुका है.

इसमें कोई शक नहीं है कि ’अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध जयललिता तमिलनाडु की लोकप्रिय नेत्री थीं. उन्होंने राज्य की ग़रीब जनता के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं. उन्होंने साल 2013 में चेन्नई में ‘अम्मा कैंटीन’ शुरू की, जहां बहुत कम दाम पर भोजन मुहैया कराया जाता है. अब पूरे राज्य में 300 से ज़्यादा ऐसी कैंटीन हैं, जिनमें एक रुपये में एक इडली और सांभर दिया जाता है, और पांच रुपये में चावल और सांभर परोसा जाता है. ग़रीब तबक़े के लोग इन कैंटीन में नाममात्र के दाम पर भरपेट भोजन करते और ’अम्मा’ के गुण गाते हैं. ये कैंटीन सरकारी अनुदान पर चलती हैं. इसके अलावा ग़रीबी रेखा के नीचे के परिवारों को हर महीने 25 किलो चावल, दालें, मसाले और खाने का अन्य सामान मुफ़्त दिया जाता है. सरकारी अस्पतालों में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता है. उन्होंने पालना बेबी योजना, अम्मा मिनरल वॉटर, अम्मा सब्ज़ी की दुकान, अम्मा फ़ार्मेसी, बेबी केयर किट, अम्मा मोबाइल जैसी कई योजनाएं भी चलाई. इतना ही नहीं उन्होंने मुफ़्त में भी कई सुविधाएं लोगों को दीं, जिनमें ग़रीब औरतों को मिक्सर ग्राइंडर, लड़कियों को साइकिलें, छात्रों को स्कूल बैग, किताबें, यूनिफॉर्म और मुफ़्त में मास्टर हेल्थ चेकअप आदि शामिल हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि चुनाव के वक़्त लोगों को लुभाने के लिए उन्हें  रोज़मर्रा के काम आने वाली चीज़ें ’तोहफ़े’ में दी जाती हैं, जिनमें टेलीविज़न, एफ़एम रेडियो,  इडली-डोसा बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली पिसाई मशीन, साइकिल, लैपटॉप वग़ैरह शामिल हैं. अपने इन्हीं ग़रीब हितैषी कार्यों की वजह से जयललिता जनप्रिय हो गईं. उनकी लोकप्रिय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बाक़ी राज्यों में भाजपा की लहर चल रही थी, उस वक़्त उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत का परचम लहराया था. वह अपने सियासी गुरु एमजी रामचंद्रन के बाद सत्ता में लगातार दूसरी बार आने वाली तमिलनाडु में पहली राजनीतिज्ञ थीं.

ग़ौरतलब है कि 68 वर्षीय जयललिता को 22 सितंबर को अस्पताल में दाख़िल कराया, तो बहुचर्चित सबरीमाला मंदिर ने उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना के साथ तक़रीबन 75 हज़ार श्रद्धालुओं को मुफ़्त भोजन कराना शुरू कर दिया था. लोग उनके लिए दुआएं कर रहे थे. 5 दिसंबर को उनकी मौत के बाद राज्य में शोक की लहर दौड़ गई. जन सैलाब उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ. सरकार ने पांच दिन का शोक घोषित कर दिया.  जगह-जगह शोक सभाओं का आयोजन कर उनकी आत्मिक शांति के लिए प्रार्थनाएं होने लगीं. फिर ख़बरें आने लगीं कि जयललिता की मौत के सदमे में फ़लां-फ़लां व्यक्ति की मौत हो गई. अन्नाद्रमुक ने मृतकों के लिए सहायता राशि देने की घोषणा कर डाली. इस काम में राज्य सरकार भी पीछे नहीं रही.  इन मरने वाले लोगों की मौत सदमे से हुई है या नहीं ? ये बात अलग है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ डालना सही है, क्या करदाताओं की मेहनत की कमाई, जिसका बड़ा हिस्सा करों के रूप में राज्य को मिलता है, उसका इस्तेमाल इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा देने में होना भी चाहिए था? जयललिता की लोकप्रियता के बाद भी इस सवाल का जवाब ’न’ ही है. तमिलनाडु सरकार को सरकारी ख़ज़ाने के पैसे का इस तरह से दुरुपयोग करने से बचना चाहिए था.

इससे बेहतर यह होता कि अन्नाद्रमुक जन कल्याण की कोई और योजना शुरू करती, जिससे ग़रीबों का भला होता ही, वह योजना जयललिता के प्रशंसकों-समर्थकों के मन में उनकी स्मृतियों को भी तरोताज़ा किए रहती. इसके साथ-साथ उन योजनाओं को जारी रखने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए था, जो जयललिता ने अपने कार्यकाल में शुरू की थीं. अन्नाद्रमुक और पन्नीर सेल्वम की सरकार को समझना होगा कि हथकंडे अपनाकर कुछ वक़्त के लिए ही जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता है, पर इस तरह खींचा गया ध्यान स्थाई नहीं होता है. यह तो तभी होता है, जब जन कल्याण के कार्य एक संकल्प के तौर पर किए जाएं. जयललिता यही करती थीं, इसीलिए उन्हें ’अम्मा’ कहा जाता है, जबकि पन्नीर सेल्वम सरकारी ख़ज़ाने का दुरुपयोग ही कर रहे हैं. यह उन मौतों को गरिमा प्रदान करनी भी है, जो जयललिता के निधन के बाद सदमा लगने से हुई बताई जा रही हैं. इंसान का जीवन अनमोल होता है. अलबत्ता अल्पकाल में होने वाली मौतों को महिमा-मंडित करना भी प्रकृति और उसके नियमों के ख़िलाफ़ है.



फ़िरदौस ख़ान
भारत दवाओं का एक ब़डा बाज़ार है. यहां बिकने वाली तक़रीबन 60 हज़ार ब्रांडेड दवाओं में महज़ कुछ ही जीवनरक्षक हैं. बाक़ी दवाओं में ग़ैर ज़रूरी और प्रतिबंधित भी शामिल होती हैं. ये दवाएं विकल्प के तौर पर या फिर प्रभावी दवाओं के साथ मरीज़ों को ग़ैर जरूरी रूप से दी जाती हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से जिन दवाओं पर अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित लगा हुआ है, उन्हें भारत में खुलेआम बेचा जा रहा है. समिति ने कहा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के कई अधिकारियों के बीच मिलीभगत है. इसलिए कई दवाओं की जांच किए बिना उन्हें मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी जा रही है. इनकी वजह से आए दिन लोगों की मौत हो रही है. तीन विवादस्पद दवाएं पीफ्लोकेसील, होम्पलोकेसीन और स्परफ्लोकेसीन के तो दस्ताव़ेज तक ग़ायब हैं. स्थायी समिति के सदस्य डॉ. संजय जायसवाल का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे पर हमने सरकार को स्थायी समिति की ओर से पत्र लिखकर दवा परीक्षण और घटिया दवाओं की बिक्री को अनदेखा करने पर सख्त ऐतराज़ जताया है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रतिबंधित दवाओं में शरीर को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्व होते हैं. इसलिए विकसित देश इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा देते हैं. ऐसे में दवा कंपनियां ग़रीब और विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर वहां अपनी प्रतिबंधित दवाओं के लिए बाज़ार तैयार करती हैं. इन दवाओं का परीक्षण भी इन्हीं देशों में किया जाता है. अंतराष्ट्रीय क्लीनिकल परीक्षण और शोध का बाज़ार तक़रीबन 20 अरब डॉलर का है. भारत में यह बाज़ार तक़रीब दो अरब डॉलर का है और दिनोदिन इसमें त़ेजी से ब़ढोत्तरी हो रही है. ज़्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन ये देश अपने देश के लोगों पर दवाओं का परीक्षण न करके ग़रीब और विकासशील देशों के लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. इनमें एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और अफ्रीकी देश शामिल हैं.

हालांकि क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणा-पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इस घोषणा-पत्र में छह बार संशोधन भी किए गए. घोषणा-पत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुना़फे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो. दवाओं का परीक्षण दबाव और लालच देकर नहीं कराया जाए, लेकिन इस पर असरदार तरीक़े से अमल नहीं किया जा रहा है. साल 2008 से 2011 के बीच भारत में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 2031 लोगों की मौत हुई है. 2008 में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 288 लोगों की जान जान चुकी है, जबकि 2009 में 637 लोगों, 2010 में 668 लोगों और 2011 में 438 लोगों की मौत हुई थी. हाल में मध्य प्रदेश में भोपाल गैस हादसे के पीडि़तों और इंदौर में कई मरीज़ों पर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा था. एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर कर मध्य प्रदेश समेत देश भर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के आरोप लगाए हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के प्रतिनिधियों द्वारा ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात सामने आई थी कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में 2004 से 2008 के बीच विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 279 मरीज़ों पर दवाओं का परीक्षण किया गया है. इनमें से 13 मरीज़ों की दवा परीक्षण के बाद बीमारी बढ़ने से मौत हो गई. मरने वालों में से 12 गैस पीड़ित थे. देश भर में दवा परीक्षण के दौरान में चार साल में 2031 लोगों मौत हुई है. इनमें से केवल 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है, जबकि बाक़ी लोगों के परिवार वाले आज तक इंसा़फ की राह देख रहे हैं.
दरअसल, हमारे देश की लचर क़ानून व्यवस्था का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता कंपनियां ग़रीब मरीज़ों को मुफ्त में इलाज कराने का झांसा देकर उन पर दवा परीक्षण करती हैं. ग़रीब लोग ठगे जाने पर इनके खिला़फ आवाज़ भी नहीं उठा पाते. पिछले दिनों तक़रीबन 13 हज़ार दवाओं के परीक्षण भारत में किए गए. भारत प्रतिबंधित दवाओं का भी ब़डा बाज़ार है. विदेशों में प्रतिबंधित एक्शन 500, निमेसूलाइड और एनालजिन जैसी दवाएं भारत में ज़्यादा बिकने वाली दवाओं में शामिल हैं. फिनलैंड, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों ने निमेसूलाइड के जिगर पर हानिकारक प्रभाव की रिपोर्टों के मद्देनज़र इस पर पाबंदी लगाई हुई है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में भी यह दवा प्रतिबंधित है. इसके अलावा दवाओं के साइड इफेक्ट से भी लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अनेक दवाएं ऐसी हैं जो फायदे की बजाय नुक़सान ज़्यादा पहुंचाती हैं. कुछ दवाएं रिएक्शन करने पर जानलेवा तक साबित हो जाती हैं, जबकि कुछ दवाएं मीठे ज़हर का काम करती हैं. क़ब्ज़ की दवा से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. सर्दी, खांसी, ज़ुकाम, सरदर्द और नींद न आने के लिए ली जाने वाली एस्प्रीन में सालि सिलेट नामक रसायन होता है, जो श्रवण केंद्रीय के ज्ञान तंतु पर विपरीत प्रभाव डालता है. कुनेन का अधिक सेवन कर लेने पर व्यक्ति बहरा हो सकता है. ये दवाएं एक तरह से नशे का काम करती हैं. नियमित रूप से एक ही दवा का इस्तेमाल करते रहने से दवा का असर कम होता जाता है और व्यक्ति दवा की मात्रा में बढ़ोतरी करने लगता है. दवाओं में अल्कोहल का भी अधिक प्रयोग किया जाता है, जो फेफड़ों को नुक़सान पहुंचाती है.

अधिकांश दवाएं शरीर के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे ये शरीर में घुलमिल कर खाद्य पदार्थों की भांति पच नहीं पाती हैं. नतीजतन, ये शरीर में एकत्रित होकर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. दवाओं में जड़ी-बूटियों के अलावा खनिज लोहा, चांदी, सोना, हीरा, पारा, गंधक, अभ्रक, मूंगा, मोती और संखिया आदि का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही कई दवाओं में अफ़ीम, जानवरों का रक्त और चर्बी आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है. सर्लें तथा एंटीबायोटिक दवाओं के लंबे समय तक सेवन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. चिकित्सकों का कहना है कि मेक्साफार्म, प्लेक्वान, एमीक्लीन, क्लोरोक्लीन और नियोक्लीन आदि दवाएं बहुत ख़तरनाक हैं. इनके ज़्यादा सेवन से जिगर और तिल्ली बढ़ जाती है, स्नायु दर्द होता है, आंखों की रोशनी कम हो सकती है, लकवा मार सकता है और कभी-कभी मौत भी हो सकती है. दर्द, जलन और बुख़ार के लिए दी जाने वाली ऑक्सीफेन, बूटाजोन, एंटीजेसिक, एमीडीजोन, प्लेयर, बूटा प्रॉक्सीवोन, जेक्रिल, मायगेसिक, ऑसलजीन, हैडरिल, जोलांडिन और प्लेसीडीन आदि दवाएं भी ख़तरनाक हैं. ये ख़ून में कई क़िस्म के विकार उत्पन्न करती हैं. ये दवाएं स़फेद रक्त कणों को ख़त्म कर देती हैं. इनसे अल्सर हो जाता है तथा साथ ही जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं. एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली दवा इफेविरेंज से नींद नहीं आना, पेट दर्द और चक्कर आने लगते हैं. नेविरापिन से खून की कमी हो जाती है, आंख में धुंधलापन, मुंह का अल्सर आदि रोग हो जाते हैं. मिर्गी के लिए दी जाने वाली फेनिटोइन और कार्बेमेजीपिन से मुंह में छाले और खाने की नली में जख्म हो जाते हैं. डायबिटीज के लिए दिए जाने वाले इंसुलिन से खुजली की शिकायत हो जाती है. कैंसर के लिए दी जाने वाली पेक्लीटेक्सिल से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं और कीमोथैरेपी की दवा साइक्लोसपोरिन से शरीर में खून की कमी हो जाती है और त्वचा भी संक्रमित होती है. चमड़ी के संक्रमण के लिए दी जाने वाली एजीथ्रोमाइसिन से पेट संबंधी समस्या पैदा हो जाती है. एलर्जी के लिए दी जाने वाली स्रिटेजीन से शरीर में ददोड़े प़ड जाते हैं. मेक्लिजीन से डायरिया हो जाता है. एंटीबायोटिक सेफट्राइजोन और एम्पीसिलीन से सांस की नली में सूजन आ जाती है. नॉरफ्लोक्सेसिन और ओफ्लोक्सेसिन से खुजली हो जाती है. टीबी के लिए दी जाने वाली इथेमबूटोल से आंखों की नसों में कमज़ोरी आ जाती है. मानसिक रोगी को दी जाने वाली हेलोपेरीडॉल से शरीर में अकड़न, जोड़ों में दर्द और बेहोशी की समस्या पैदा हो जाती है. इसी तरह दर्द निवारक दवा आईब्रूफेन, एस्प्रिन, पैरासिटामॉल से शरीर में सूजन आ जाती है. एक र्फार्मास्टि के मुताबिक़, स्टीरॉयड और एनाबॉलिक्स जैसे डेकाडयराबोलिन, ट्राइएनर्जिक आदि दवाएं पौष्टिक आहार कहकर बेची जाती हैं, जबकि प्रयोगों ने यह साबित कर दिया है कि इनसे बच्चों की हड्डियों का विकास रुक जाता है. इनके सेवन से लड़कियों में मर्दानापन आ जाता है. उनका मासिक धर्म अनियमित या बहुत कम हो जाता है. उनके चेहरे पर दा़ढीनुमा बाल उगने लगते हैं और कई बार उनकी आवाज़ में भारीपन भी आ जाता है. जलनशोथ आदि से बचने के लिए दी जाने वाली चाइमारोल तथा खांसी रोकने के लिए दी जाने वाली बेनाड्रिल, एविल, केडिस्टिन, साइनोरिल, कोरेक्स, डाइलोसिन और एस्कोल्ड आदि दवाएं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. इसी तरह एंसिफैड्रिल आदि का मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है. एक चिकित्सक के मुताबिक़, दवाओं के दुष्प्रभाव का सबसे बड़ा कारण बिना शारीरिक परीक्षण किए हुए दी जाने वाली दवाओं की निर्धारित मात्रा से अधिक ख़ुराक है. अनेक चिकित्सक अपनी दवाओं का जल्दी प्रभाव दिखाने के लिए प्राइमरी की बजाय थर्ड जेनेरेशन दे देते हैं, जो अक्सर कामयाब तो हो जाती हैं, लेकिन दूसरे असर छोड़ जाती हैं. दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं, जिनसे अन्य बीमारियां पैदा हो जाती हैं. जयपुर के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज के एडवर्स ड्रग रिएक्शन मॉनिटरिंग सेंटर (एएमसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले डे़ढ साल में 40 दवाओं के साइड से 445 मरीज़ प्रभावित हुए हैं. इनमें गंभीर बीमारियां एचआईवी, कैंसर, डायबिटीज और टीबी से लेकर बु़खार और एलर्जी के लिए दी जाने वाली दवाएं शामिल हैं. मरीज़ों ने ये दवाएं लेने के बाद पेट दर्द, सरदर्द, एनीमिया, बु़खार, त्वचा संक्रमण और सूजन आदि की शिकायतें कीं.

स्वास्थय विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टर को चाहिए कि वे दवा के बारे में मरीज़ को ठीक से समझाएं, मरीज़ की उम्र और उसके वज़न के हिसाब से दवा लिखे तथा दवा का कोई भी दुष्प्रभाव होने पर फौरन डॉक्टर को सूचित करे. मरीज़ों को चाहिए कि वे हमेशा डॉक्टर की सलाह से ही पर्ची पर दवा लें, अप्रशिक्षित लोगों और दवा विक्रेताओं के कहने पर किसी भी दवा का इस्तेमाल न करें. सरकार को भी चाहिए कि वह डॉक्टरों को सेंटर पर सूचना देने के लिए पाबंद करे, अस्पतालों में पोस्टर, बैनर और कार्यशालाओं के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करे. किसी भी दवा के दुष्प्रभाव मिलने पर उन्हें प्रतिबंधित करने की स़िफारिश की जाती है. किसी भी अस्पताल या सेंटर से दवा से दुष्प्रभाव और नुक़सान की रिपोर्ट को सीडी एससीओ नई दिल्ली को भेजा जाता है. यहां पर पूरे देश के सभी राज्यों से रिपोर्टें आती हैं. इसके बाद विशेषज्ञों की ड्रग टेक्नीकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) और ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी के सदस्यों द्वारा इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के बाद इसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को उस दवा की रिपोर्ट भेजी जाती है. इसके बाद केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेकर ग़ज़ट नोटिफिकेशन करते हैं. देश में पहले ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है. केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है. ऐसे में मरीज़ों के साथ खिलवा़ड किया जाना बेहद गंभीर और चिंता का विषय है. देश भर के सरकारी अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की कमी है. डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं. आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं. अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है. न तो पर्याप्त संख्या में नए स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं और न मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं. इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती. स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है. चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं. उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं. घटिया स्तर की दवाएं मुहैया कराए जाने के भी आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं नौ दिन चले अढाई कोस नामक कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आती हैं. हालांकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दवाओं को मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया में अनियमितता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तीन सदस्यीय समिति क्लीनिकल परीक्षण के बिना नई दवाओं को दी गई मंज़ूरी की वैज्ञानिक और वैधानिक आधार पर जांच करने के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. वह मंज़ूरी प्रक्रिया में प्रणालीगत सुधार के लिए सुझाव पेश करेगी और दवा नियंत्रक कार्यालय की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए भी सुझाव देगी.

स्वस्थ नागरिक किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं. हमें इस बात को समझना होगा. देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के साथ-साथ प्रतिबंधित दवाओं पर सख्ती से रोक लगाने और ग़ैर क़ानूनी रूप से मरीज़ों पर किए जा रहे दवा परीक्षणों पर भी रोक लगानी होगी. इसके अलावा दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा. इसके कई फ़ायदे हैं, पहला लोगों को रोजगार मिलेगा, दूसरा मरीज़ों को वाजिब क़ीमत में दवाएं मिल सकेंगी और तीसरा फायदा यह है कि मरीज़ विदेशी दवाओं के रूप में ज़हर खाने से बच जाएंगे.

इलाज से परहेज़ बेहतर है
लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति काफ़ी सचेत रहने की ज़रूरत है, वरना एक बीमारी का इलाज कराते-कराते वे किसी दूसरी बीमारी का शिकार हो जाएंगे. शरीर में स्वयं रोगों से मुक्ति पाने की क्षमता है. बीमारी प्रकृति के साधारण नियमों के उल्लंघन की सूचना मात्र है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने से बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करने तथा पौष्टिक भोजन लेने से मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहता है. यही सेहत की निशानी है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल का कहना है कि स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी है कि लोग अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें जैसे अपना ब्लड कोलेस्ट्रॉल 160 एमजी प्रतिशत से कम रखें. कोलेस्ट्ररॉल में एक प्रतिशत की भी कमी करने से हार्ट अटैक में दो फ़ीसदी कमी होती है. अनियंत्रित मधुमेह और उच्च रक्तचाप से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए इन पर क़ाबू रखें. कम खाएं, ज़्यादा चलें. नियमित व्यायाम करना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. सोया के उत्पाद स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. खुराक में इन्हें ज़रूर लिया जाना चाहिए. जूस की जगह फल का सेवन करना बेहतर होता है. ब्राउन राइस पॉलिश्ड राइस से और स़फेद चीनी की जगह गुड़ लेना कहीं अच्छा माना जाता है. फाइबर से भरपूर खुराक लें. शराब पीकर कभी भी गाड़ी न चलाएं. गर्भवती महिलाएं तो शराब बिल्कुल न पिएं. इससे होने वाले बच्चे को नुक़सान होता है. साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की जांच ज़रूर करवाएं. ज़्यादा नमक से परहेज़ करें.

फ़िरदौस ख़ान
विकास का मतलब सिर्फ़ किसी चीज़ या जगह को ख़ूबसूरत बनाना ही नहीं है, बल्कि विकास सुविधाओं में भी विस्तार करता है. देश का सबसे लंबा 'आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे' इसकी एक बेहतरीन मिसाल है. सौंदर्य से परिपूर्ण हरेभरे इस एक्सप्रेस वे पर अत्याधुनिक सुविधाओं की व्यवस्था की गई है. सड़क हादसे या कोई और ज़रूरत पड़ने पर हैलीकॉप्टर का भी इंतज़ाम है. यहां जगह-जगह सीसीटीवी लगाए गए हैं. साथ ही मोर्टल, पैट्रोल पंप और फ़ूड कॊर्नर भी मौजूद हैं. इसकी एक बड़ी ख़ासियत यह भी है कि आपातकाल या जंग के वक़्त यहां पर लड़ाकू विमान उड़ान भर सकते हैं और उन्हें उतारा भी जा सकता है, यानी यह एक्सप्रेस-वे एयरस्ट्रिप की तरह काम करेगा. इस दौरान दोनों तरफ़ से यातायात भी सामान्य रूप से चलता रहेगा.
हाईवे पर बनने वाले इस रनवे को हाई-वे स्ट्रिप और रोड रनवे कहा जाता है. पड़ौसी देश पाकिस्तान, चीन, पोलैंड, स्वीडन, जर्मनी और सिंगापुर में ऐसे रोड रनवे हैं. ग़ौरतलब है कि सड़क के जिस हिस्से का इस्तेमाल रनवे के लिए किया जाता है, उस पर बिजली के खंभे और मोबाइल फ़ोन के टॊवर नहीं लगाए जाते. इस हिस्से पर उन्हीं सुविधाओं मुहैया कराई जाती हैं, जिनकी ज़रूरत हवाई जहाज़ों को होती है.

आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे को यमुना एक्सप्रेस वे और ताज एक्सप्रेस वे के नाम से भी जाना जाता है. यह भारत की सबसे लंबी छह लेन सड़क है. आने वाले वक़्त में तीन किमी लंबी हवाई पटटी के पास (खंभौली-कबीरपुर के बीच) एक्सप्रेस-वे की सड़क को 12 लेन किया जाएगा, ताकि हवाई जहाज़ों की लैंडिंग और टेकऑफ़ के वक़्त यातायात सामान्य रहे. तक़रीबन 13 हज़ार 200 करोड़  करोड़ रुपये की लागत से बने इस एक्सप्रेस-वे के रास्ते में गंगा-जमुना समेत पांच नदियां आती हैं.  370 किलोमीटर लंबा और 110 मीटर चौड़ा यह एक्सप्रेस-वे उन्नाव, कानपुर, हरदोई, औरैया, मैनपुरी, कन्नौज, इटावा और फ़िरोज़ाबाद को आगरा से जोड़ेगा. इस एक्सप्रेस-वे पर 13 बड़े और 52 छोटे पुल बनाए गए हैं. इस पर चार आरओबी भी बने हैं. इसके रास्ते में पड़ने वाले क़स्बों और गांवों के लोगों की सुविधा के लिए इस पर 132 फुट ओवरब्रिज और 59 अंडरपास बनाए गए हैं. इससे लोगों को आवाजाही में किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी. फ़िलहाल इस एक्सप्रेस-वे पर एडवांस ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम भी लगाया जाएगा. इसके अलावा साइड बैरीकेटिंग में आधुनिक रिफ़्लेक्टिव पेंट किया जाएगा, जो इसे और ख़ूबसूरत बनाएगा. इससे दुर्घटना और ट्रैफ़िक जाम की समस्या से भी लोगों को निजात मिलेगी.

दरअसल, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का ड्रीम प्रोजेक्ट है. उन्होंने इसमें बहुत दिलचस्पी ली, तभी इसे तक़रीबन 22 महीने में पूरा कर लिया गया. लिछले दिनों वायु सेना के अधिकारियों के साथ कई अन्य अधिकारियों ने एक्सप्रेस-वे का मुआवना किया था. इस पर लड़ाकू विमानों उड़ान भरने और उतरने का अभ्यास भा कराया गया. समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के 78वें जन्मदिन 21 नवंबर को इस एक्सप्रेस-वे का उद्गाटन किया गया. इस मौक़े पर ग्वालियर से आए मिराज 2000 और बरेली से आने वाले चार सुखोई विमानों ने उड़ान भरी. ये लड़ाकू विमान तक़रीबन 300 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार से एक्सप्रेस वे को छूकर वापस उड़ गए. उद्घाटन के बावजूद एक्सप्रेस वे आम वाहनों के लिए नहीं खोला गया, क्योंकि अभी तक एक्सप्रेस वे की सेफ़्टी ऑडिट नहीं हुई है. सेफ़्टी ऑडिट का काम पूरा होने के बाद इसे अगले माह दिसंबर में आम लोगों के लिए खोल दिया जाएगा.
इस अत्याधुनिक एक्सप्रेस वे पर वाहनों को तेज़ रफ़्तार से चलने की छूट नही होगी. अधिकतम गति सीमा तोड़ने पर कैमरे से जुड़ा अलार्म बज उठेगा. इसकी जानकारी टोल प्लाज़ा पर भी दी जाएगी और टोल प्लाज़ा से पहले ही वाहन को रोक कर जुर्माना वसूला जाएगा. एक्सप्रेस वे पर वाहनों की रफ़्तार की सीमा तय कर दी गई है. यहां पर हल्के वाहनों की अधिकतम गति 100 और भारी वाहनों की 60 किलोमीटर प्रति घंटा निर्धारित की गई है. इससे तेज़ रफ़्तार में वाहन चलाने पर चालकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी. एक्सप्रेस वे पर अत्याधुनिक नाइट विज़न कैमरे लगाए जा रहे हैं, जो वाहनों की रफ़्तार पर नज़र रखेंगे. दरअसल, सड़क हादसों के मद्देनज़र ऐसा करना बेहद ज़रूरी था. इस एक्सप्रेस पर पर अकसर हादसे होते रहते हैं, जिनमें जान और माल दोनों का ही नुक़सान होता है.

एक्सप्रेस-वे को हवाई पट्टी के तौर पर इस्तेमाल किए जाना वक़्त की ज़रूरत है. आज जब पड़ौसी देश आए-दिन आंखें दिखाते रहते हों, तो ये और भी ज़रूरी हो जाता है. पाकिस्तान की गतिविधियां किसी से छुपी नहीं हैं. चीन से भी अकसर विवाद ही रहता है. ऐसे हालात में देश के सबसे लंबे एक्सप्रेस-वे पर हवाई पट्टी का निर्माण किया जाना एक सराहनीय क़दम है. इससे आने वाले वक़्त में निर्माण कार्यों को लेकर नये आयाम भी स्थापित होंगे.  फ़िलहाल इसे एक अच्छी शुरुआत के तौर पर देखा जा रहा है. जल्द ही देश में ऐसे और एक्सप्रेस-वे बनाने का काम शुरू होगा.


फ़िरदौस ख़ान
देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था. एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए. बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा- पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,  लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं. नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- इसके तीन कारण हैं.  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं. उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं., इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं. दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं. मैं इनके साथ में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं. तीसरी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं. मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता. यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े.
पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवंबर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे. इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया. इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी. वह जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फ़ौरन बाद शुरू हुआ. उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया. स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग ज़ख़्मी हुए.

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए. अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज़्यादा वक़्त जेलों में गुज़ारा. अपने मिज़ाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है.  कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला. 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने. उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौक़ा दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया. हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था. 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया.
वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया. वह 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए. गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे.

1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा. इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया. उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया. नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल की क़ैद की सज़ा दी गई.

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई. इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे. संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया.

1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था. 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे. इसके कुछ ही वक़्त  बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई. उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा. हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है.
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए. कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया.

अक्तूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था. नेहरू को गिरफ़्तार करके चार साल की क़ैद की सज़ा दी गई. एक साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया. इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई. 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया  तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया. प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा. सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स  युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे. क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आज़ादी से कम कुछ भी मंज़ूर करने के पक्ष में नहीं थे.

कांग्रेस में अब नेतृव्य गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो  प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए. लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था. उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया. अब सवाल भारत की आज़ादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आज़ाद राज्य होगा या एक से ज़्यादा होंगे. गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए  मौन सहमति दे दी. 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आज़ाद देश बने. नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.

फिर 1952 में आज़ाद भारत में चुनाव हुए. ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव के वक़्त मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फ़ीसदी साक्षर थे. इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे. संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए.  देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है. कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया. उन्होंने 25,000 मील का सफ़र किया यह सफ़र 18,000 मील हवाई जहाज़ से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया. ख़ास बात यह भी रही कि देशभर में 60  फ़ीसदी मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थीं.

नेहरू के वक़्त एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था. इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया. आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था. इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई. इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला. संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला.

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई. संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया. इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई. आज़ादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था. 1962 में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी. नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की. नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा. कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था. संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्ज़े की कोशिश की. भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे. हालांकि दिसंबर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नराज़गी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी. हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया. नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए. चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे. पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक़्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी. उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा. कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश  के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा 1936  में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है  तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने. विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

नेहरू जी ने कहा था- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है. आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें. हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें. निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए. पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं.

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी. कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता.
बेशक, नेहरू के विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं. बस ज़रूरत है उनको अपनाने की. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

फ़िरदौस ख़ान
नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सरकार ने बेनामी संपत्तियों और सोने पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का मन बनाया है, जो यह अनायास नहीं है. सरकार को पता है कि देश में काला धन नग़दी के रूप में कम, संपत्तियों और आभूषणों के रूप में ज़्यादा है. इसीलिए सरकार ने पिछले दिनों इन पर भी सख़्ती करने का फ़ैसला किया है. बेनामी संपत्तियों के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई शुरू भी हो चुकी है. अब बारी सोना रखने वालों की है. ऐसी ख़बर है कि सरकार घरों में सोना रखने की सीमा तय कर सकती है. इस फ़ैसले से जुड़ी ख़बरें पहली बार शुक्रवार को सुनने को मिली थीं, हांकि रात तक वित्त मंत्रालय के आला अफ़सरों के हवाले से इस ख़बर को ग़लत भी साबित कर दिया गया था, मगर अभी तक इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. इसलिए यह सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि सरकार सोने के ख़िल्दाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक नहीं करेगी. ऐसे में मानना चाहिए कि सरकार इस बाबत कभी भी ऐलान कर सकती है. एक तरह से देखा जाए, तो देश में नोटबंदी के फ़ैसले ए बाद रातों रात जिस तरह से सोने की बिक्री हुई है, वह यह साबित करती है कि देश में सोने के रूप में कालेधन का बड़ा भंडार है, जिसे बाहर लाना ज़रूरी है. नोटबंदी के जितना भी काला धन बाहर आया है, उससे भी ज़्यादा लोगों के घरों में है. अगर इसे करंसी में देखें, तो मुश्किल से दो-तीन फ़ीसद करंसी काले धन में शुमार होती है. हक़ीक़त में काला धन जायदाद के तौर पर रहता है. काला धन बेशक़ीमती हीरे-जवाहारात, सोना-चांदी, ज़मीन जायदाद, गगन चुंबी इमारतों, आलीशान कोठियों और बड़े-बड़े कारख़ानों में बदल जाता है, इनमें खप जाता है. सियासत में भी काले धन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. यहां ये काला धन चंदे का रूप धर कर सामने आता है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि पिछले आठ नवंबर को नोटबंदी के बाद लोगों ने अपने कालेधन को करेंसी से सोने में बदलने का काम शुरू कर दिया था. ख़बरें आ रही थीं कि लोगों ने कालेधन को खपाने के लिए 70 हज़ार रुपये तोला तक सोना ख़रीदा है. सोने और चांदी की बढ़ती मांग की वजह से इन धातुओं की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई. बड़े पैमाने पर सोने की ख़रीद की ख़बरों के बाद इस चर्चा ने ज़ोर पकड़ लिया था कि सरकार व्यक्तिगत स्तर पर सोना रखने की सीमा तय करने वाली है. ख़बर है कि फ़िलवक़्त घर में सोना रखने की सीमा तय करने के बारे में सरकार का कोई इरादा नहीं है. अगर सरकार वाक़ई कालेधन को लेकर संजीदा है,  तो उसे सोने की जमाख़ोरी पर पाबंदी लगानी चाहिए. लोग एक सीमा के बाद अपने कालेधन को सोने-चांदी के तौर पर ही जमा करते हैं. महंगाई के इस दौर में महिलाएं भी सोने-चांदी के ज़ेवरात की जगह नक़ली ज़ेवरात को ही पसंद करती हैं. लूटपाट की घटनाओं की वजह से भी सोने के ज़ेवरात पहनने का चलन कम हुआ है. शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार जैसे ख़ास मौक़ों पर ही महिलाएं सोने के ज़ेवरात पहनाती हैं. अमूमन कालेधन को ठिकाने लगाने के लिए ही सोना ख़रीदा जाता है. छापा पड़ने पर करोड़ों का सोना पकड़े जाने की ख़बरें आए-दिन सामने आती रहती हैं.

नोटबंदी से पहले सरकार ने बेनाम जायदाद को लेकर सख़्त रवैया अपनाया था. पिछले दिनों गोवा में प्रधानमंत्री ने कहा था कि अब सरकार ऐसी संपत्तियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने जा रही है, जो किसी और व्यक्ति के नाम पर ख़रीदी गई है, क्योंकि बेनामी देश की संपत्ति है. बेनामी संपत्ति उस जायदाद को कहते हैं, जिसका ख़रीददार संपत्ति के लिए के लिए भुगतान तो ख़ुद करता है, लेकिन संपत्ति किसी और के नाम पर ख़रीदता है. ऐसी जायदाद बेनामी कहलाती है.  ये बेनामी जायदाद चल, अचल या वित्तीय दस्तावेज़ों के तौर पर हो सकती है. अमूमन लोग कालेधन को बेनामी जायदाद में लगाते हैं. क़ाबिले-ग़ौर है कि बीते अगस्त माह में संसद में बेनामी सौदा निषेध क़ानून को पारित किया गया था. यह इसके प्रभाव में आने के बाद मौजूदा बेनामी सौदे (निषेध) क़ानून 1988 का नाम बदलकर बेनामी संपत्ति लेन-देन क़ानून 1988 कर दिया गया है. यह क़ानून बीते एक नवंबर से लागू हो गया है. इस क़ानून की वजह से सरकार बेनामी जायदाद को ज़ब्त कर सकती है. इसके तहत बेनामी लेन-देन करने वाले को कम से कम एक साल क़ैद की सज़ा हो सकती है. इस मामले में दोषी व्यक्ति को ज़्यादा से ज़्यादा सात साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 25 फ़ीसद तक जुर्माना देने का प्रावधान है. बेनामी जायदाद के मामले में जानबूझकर ग़लत जानकारी देने पर कम से कम छह महीने की क़ैद की सज़ा भी हो सकती है. इस मामले में ज़्यादा से ज़्यादा पांच साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 10 फ़ीसद तक का जुर्माना भी हो सकता है.

देखा जाए, तो भारत सोना ख़रीदने वाले देशों में दसवें स्थान पर है. वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूसीजी) की तरफ़ से जारी एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा सोने के भंडार वाले देशों में अमेरिका दुनिया में पहले स्थान पर है. अमेरिका के पास आठ हज़ार 133.5 टन सोना है, जबकि भारत के पास 1.6 टन सोना है. इस फ़ेहरिस्त में जर्मनी दूसरे, इटली तीसरे, फ़्रांस चौथे, रूस पांचवें, चीन छठे, स्विट्ज़रलैंड सातवें, जापान आठवें और नीदरलैंड नौवें स्थान पर है. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो भारत में सोने का भंडार इस बात को साबित करता है कि यहां कालेधन के रूप में सोना बड़ी मात्रा में हो सकता है. लिहाज़ा अगर सरकार इस दिशा में क़दम उठाती है, तो वह एक साहसिक क़दम होगा, जिसका जनता निश्चित तौर पर स्वागत करेगी.

फ़िरदौस ख़ान
भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है. इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है. यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने की क़गार पर है.

कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है. कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी. कहानी 'सिंहासन बत्तीसी' में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है. सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ. आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुंच चुकी है. इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है. वहां कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है.

भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फ़रहाद की कथाएं ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं. रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफ़ी बदलाव आ गया है. अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ़्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है.

छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़ों, रंग-बिरंगे कपड़ों पर गोटे और बारीक काम से बनी कठपुतलियां हर किसी को मुग्ध कर लेती हैं. कठपुतली के खेल में हर प्रांत के मुताबिक़ भाषा, पहनावा व क्षेत्र की संपूर्ण लोक संस्कृति को अपने में समेटे रहते हैं. राजा-रजवाड़ों के संरक्षण में फली-फूली इस लोककला का अंग्रेजी शासनकाल में विकास रुक गया. चूंकि इस कला को जीवित रखने वाले कलाकार नट, भाट, जोगी समाज के दलित वर्ग के थे, इसलिए समाज का तथाकथित उच्च कुलीन वर्ग इसे हेय दृष्टि से देखता था.

महाराष्ट्र को कठपुतली की जन्मभूमि माना जाता है, लेकिन सिनेमा के आगमन के साथ वहां भी इस पारंपरिक लोककला को क्षति पहुंची. बच्चे भी अब कठपुतली का तमाशा देखने की बजाय ड्राइंग रूम में बैठकर टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. कठपुतली को अपने इशारों पर नचाकर लोगों का मनोरंजन करने वाले कलाकर इस कला के क़द्रदानों की घटती संख्या के कारण अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर हैं. अनके परिवार ऐसे हैं, जो खेल न दिखाकर सिर्फ़ कठपुतली बनाकर ही अपना गुज़र-बसर कर रहे हैं. देश में इस कला के चाहने वालों की तादाद लगातार घट रही है, लेकिन विदेशी लोगों में यह लोकप्रिय हो रही है. पर्यटक सजावटी चीज़ों, स्मृति और उपहार के रूप में कठपुतलियां भी यहां से ले जाते हैं, मगर इन बेची जाने वाली कठपुतलियों का फ़ायदा बड़े-बड़े शोरूम के विक्रेता ही उठाते हैं. बिचौलिये भी माल को इधर से उधर करके चांदी कूट रहे हैं, जबकि इनको बनाने वाले कलाकर दो जून की रोटी को भी मोहताज हैं.

कठपुतली व अन्य इसी तरह की चीज़ें बेचने का काम करने वाले बीकानेर निवासी राजा का कहना है कि जीविकोपार्जन के लिए कठपुतली कलाकारों को गांव-क़स्बों से पलायन करना पड़ रहा है. कलाकरों ने नाच-गाना और ढोल बजाने का काम शुरू कर लिया है. रोज़गार की तलाश ने ही कठपुतली कलाकरों की नई पीढ़ी को इससे विमुख किया है. जन उपेक्षा व उचित संरक्षण के अभाव में नई पीढ़ी इस लोक कला से उतनी नहीं जुड़ पा रही है जितनी ज़रूरत है. उनके परिवार के सदस्य आज भी अन्य किसी व्यवसाय की बजाय कठपुतली बनाना पसंद करते हैं. वह कहते हैं कि कठपुतली से उनके पूर्वजों की यादें जुड़ी हुई हैं. उन्हें इस बात का मलाल है कि प्राचीन भारतीय संसकृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के तमाम दावों के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.

पुरानी फ़िल्मों और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में कठपुतलियों का अहम किरदार रहा है, मगर वक़्त के साथ-साथ कठपुतलियों का वजूद ख़त्म होता जा रहा है. इन विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बात यह है कि कठपुतली कला को समर्पित कलाकारों ने उत्साह नहीं खोया है. भविष्य को लेकर इनकी आंखों में इंद्रधनुषी सपने सजे हैं. इन्हें उम्मीद है कि आज न सही तो कल लोककलाओं को समाज में इनकी खोयी हुई जगह फिर से मिल जाएगी और अपनी अतीत की विरासत को लेकर नई पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटेगी.


अर्चना महतो
बजा बिगुल विद्रोह का, नारों ने भरी हुंकार
हिली हुकूमत अंग्रेजों की, जब चले शब्दों के बाण
 जरूरी नहीं कि भावों को व्यक्त करने के लिए हमेशा शब्दों का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन जब बात तीव्र और सशक्त अभिव्यक्ति की हो तो शब्द अनिवार्य बन जाते हैं. शब्द, भावों की शक्ति और जज्बातों की जुबां है. ऐसी जुबां जो कभी-कभी मात्र अभिव्यक्ति का साधन न रहकर ललकार में बदल जाती है, जिसकी हुंकार भर से क्रोध, आक्रोश, असंतोष, घृणा, निराशा से व्याप्त भावनाओं का सैलाब कुछ यूं उमड़ता है कि सत्ता की नींव तक हिल जाती है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी शब्दों की शक्ति का ऐसा ही दौर चला. नारों की शक्ल अख्तियार किए कुछ शब्दों ने जनांदोलन में ऐसी जान फूंकी कि ब्रिटिश हुक्मरानों के इरादे शिथिल पड़ गए. नारों की एक-एक गूंज ने ब्रिटिश सत्ता पर आघात किया, जिसका परिणाम आखिरकार अंग्रेजी शासन के खात्मे के रूप में सामने आया.

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कुछ लोकप्रिय नारों की उत्पत्ति और उनका इतिहास कुछ इस तरह रहा-
“इंकलाब जिंदाबाद”
1929 में क्रांतिकारी भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली, दिल्ली में धमाके के बाद जब “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा दोहराया तो अवाम की जुबां पर उसके बाद बस यही नारा गूंजने लगा. दरअसल “इंकलाब जिंदाबाद” के असली जनक ‘हसरत मोहानी’ माने जाते हैं, जिन्होंने 1921 में इसकी रचना की थी. लेकिन भगत सिंह की जुबां से “इंकलाब जिंदाबाद” की गूंज के बाद जो लोकप्रियता इस नारे को मिली और जिस प्रकार इस नारे ने जनसाधारण में आजादी की अलख जगाई, उसका वर्णन इतिहास के पन्नों पर अमूल्य योगदान के तौर पर दर्ज है.

मॉडर्न रिव्यू के संपादक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय ने संपादकीय टिप्पणी में जब "इंकलाब जिंदाबाद' नारे की आलोचना की, तब दिसंबर, 1929 को अपने और साथी बटुकेश्वर दत्त की तरफ से भगत सिंह ने जो पत्र श्री चट्टोपाध्याय को भेजा, उसके एक अंश में “इंकलाब जिंदाबाद” की व्याख्या कुछ इस प्रकार से की-

“उदाहरण के लिए हम यतिन्द्रनाथ जिंदाबाद का नारा लगाते हैं, इससे हमारा तात्पर्य यह होता है उनके जीवन के महान आदर्शों तथा उस अथक उत्साह को सदा-सदा के लिए बनाए रखें, जिसने इस महानतम बलिदानी को उस आदर्श के लिए अकथनीय कष्ट झेलने एवं असीम बलिदान करने की प्रेरणा दी. यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है कि हम भी अपने आदर्शों के लिए अचूक उत्साह को अपनाएं. यही वह भावना है, जिसकी हम प्रशंसा करते हैं. इस प्रकार हमें ‘इंकलाब’ शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिए. इस शब्द का उचित एवं अनुचित प्रयोग करने वाले लोगों के हितों के आधार पर इसके साथ विभिन्न अर्थ एवं विभिन्न विशेषताएं जोड़ी जाती हैं. क्रांतिकारी की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है.
“वंदे मातरम्”
‘वंदे मातरम्’ इन दो शब्दों की ताकत और अहमियत का जितना वर्णन किया जाए उतना कम है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस नारे की लोकप्रियता का आलम कुछ इस कदर रहा कि एक समय ब्रिटिश सरकार को इस पर प्रतिबन्ध लगाने के बारे में सोचना पड़ा. लेकिन इसके बावजूद वंदे मातरम् ने जनमानस में जिस जनचेतना की लहर उत्पन्न की, उसे रोक पाना अंग्रेजों के लिए असंभव हो गया था.

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘वंदे मातरम्’ की रचना 7 नवंबर, 1876 को बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में की थी. वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में थे. इस गीत का प्रकाशन 1882 में बंकिमचंद्र के उपन्यास ‘आनंद मठ” में अंतर्निहित गीत के रूप में हुआ था. बंगाल में चले आजादी के आंदोलन में विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा. धीरे-धीरे यह गीत लोगों में बेहद लोकप्रिय हो गया. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पहली बार ‘वंदे मातरम्’ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ 1896 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था. 14 अगस्त,1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक की शुरुआत ‘वंदे मातरम्’ गीत के साथ ही हुई थी.
‘वंदे मातरम्’ नारे ने जनजागृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ‘वंदे मातरम्’ न केवल अवाम की जुबां पर गूंजने वाला अत्यधिक लोकप्रिय नारा था, बल्कि उस दौर की कई पत्र-पत्रिकाओं,पुस्तकों सहित कई प्रकाशनों का शीर्षक भी बना. इसके व्यापक उदाहरण मौजूद हैं- लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, उसका नाम वंदे मातरम् रखा. सन् 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में ‘वंदे मातरम्’ ही लिखा हुआ था. आर्य प्रिन्टिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस, देहरादून से सन् 1929 में प्रकाशित काकोरी के शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की प्रतिबंधित पुस्तक ‘क्रांति गीतांजलि’ में पहला गीत ‘वंदे मातरम्’ था.



“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है”

स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में से एक बाल गंगाधर तिलक का "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा" का उद्घोष बेहद लोकप्रिय हुआ. आदर से लोग इन्हें "लोकमान्य" बुलाने लगे थे.  उनके मतानुसार ‘स्वराज” भारतीयों का अधिकार है और ब्रिटिश सरकार को सत्ता भारतीयों को सौंप कर देश से चले जाना चाहिए. इसके लिए हक लड़कर भी लेना पड़े तो लिया जाएगा’. आजादी के महानायकों में से एक बाल गंगाधर तिलक ने संपूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में अर्पण कर दिया. जनजागृति के लिए उन्होंने अपनी पत्रकारिता की प्रतिभा का अद्भुत उपयोग किया. उनके दो समाचारपत्रों ‘मराठा’ और ‘केसरी’ ने लोगों को आजादी के संघर्ष के लिए प्रेरित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई. तिलक ने अपने भाषणों और लेखों द्वारा जनता से आग्रह किया कि वह आत्मविश्वासी, स्वाभिमानी, निर्भय और निस्वार्थी बने. उन्होंने आम जनता में राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार करने के लिए शिवाजी पर्व और गणेश उत्सव की शुरुआत की.
 “अंग्रेजों भारत छोड़ो”
‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ मात्र एक नारा नहीं था, बल्कि एक आंदोलन था जिसका शंखनाद अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी द्वारा किया गया था. क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद गांधी जी ने एक और बड़ा आंदोलन शुरू करने का निश्चय किया. इसको ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का नाम दिया गया और यहीं से शुरुआत हुई ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ नारे की. 9 अगस्त 1942 को आंदोलन की शुरुआत के साथ जब “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के नारे लगने लगे तब अंग्रेजों के हौसले बिल्कुल पस्त हो गए.

हालांकि, अंग्रेजों ने इस आन्दोलन के खिलाफ कड़ा रुख इख्तियार किया और आंदोलन को दबाने के लिए दमनकारी नीतियों का प्रयोग किया, लेकिन वे लोगों के हौसले को दबाने में असफल रहे. द्वितीय विश्व युद्ध में उलझने के कारण इंग्लैंड की ताकत और सत्ता की पकड़ में आई कमी को भांपते हुए एक ही समय पर, महात्मा गांधी द्वारा ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ तथा सुभाष चंद्र बोस द्वारा ‘दिल्ली चलो’ नारे दिए गए थे, जिन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हुए अंग्रेजों की ताकत को कमजोर करने में उम्मीद के मुताबिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
 “करो या मरो”
‘करो या मरो’ का नारा भी गांधी जी द्वारा ही दिया गया था, जो भारत छोड़ो आंदोलन के क्रम का ही एक हिस्सा था. 1942 में ‘बॉम्बे में अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक को संबोधित करते हुए ‘करो या मरो’ की बात कही थी. उन्होंने कहा था – “एक मंत्र है, छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूं. उसे आप अपने हृद्य में अंकित कर सकते हैं और प्रत्येक सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं. यह मंत्र है: ‘करो या मरो’. या तो हम भारत को आजाद कराएंगे या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे, अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिए हम जिंदा नहीं रहेंगे.” यहीं से ‘करो या मरो’ वो नारा बना जिसने जनता में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी जला दी.
 “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”
स्वतंत्रता संग्राम के आखिरी दौर में जब मुल्क अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मजबूती से खड़ा था और स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों को धूल-चटाने में जुटे थे, तब आजादी के एक और महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी 21 अक्टूबर 1943 को आज़ाद हिंद फौज के गठन के साथ ही ब्रिटिश राज के खात्मे की पूरी तैयारी कर ली थी.

4 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद फौज के साथ बर्मा पहुंचने पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित करते हुए ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा दिया. इस नारे से ऐसी जनजागृति हुई कि लोगों का हुजूम आजादी के महासंघर्ष में कूद पड़ा.

नेताजी के संबोधन के वो आखिरी प्रभावशाली शब्द कुछ ऐसे थे–
“स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियों! आज मैं आपसे एक चीज मांगता हूं, सबसे ऊपर मैं आपसे खून मांगता हूं. यह खून ही उस खून का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है. खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है. तुम मुझे खून दो मैं तुम से आजादी का वादा करता हूं.”
“जय हिंद”
‘जय हिंद’ का नारा भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सन् 1941 में दिया था, वैसे तो इस नारे का प्रयोग सर्वप्रथम क्रांतिकारी चेम्बाकरमण पिल्लई द्वारा किया गया था, लेकिन सुभाष चंद्र बोस द्वारा आजाद हिंद फौज के लिए युद्ध घोष के तौर पर प्रयोग हुए इस नारे ने अधिक लोकप्रियता प्राप्त की. देशप्रेम की भावना से सराबोर होने के कारण ‘जय हिंद’ नारा अवाम में बेहद प्रचलित हुआ.
 सन् 1933 में जब चेम्बाकरमण पिल्लई को आस्ट्रिया की राजधानी वियना में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ, तब उन्होंने “जय हिन्द” कह कर नेताजी का अभिवादन किया था. अभिवादन स्वरूप कहे गए इन दो शब्दों से नेताजी बेहद प्रभावित हुए थे. बाद में यही शब्द आजाद हिन्द फौज के युद्ध घोष के रूप में जाने गए.

आजाद हिंद फौज के सैनिकों में देशप्रेम की भावना भरने और आजादी की लौ जगाने के लिए ‘जय हिंद’ का प्रयोग हुआ था, लेकिन सैनिकों के साथ-साथ जनता के बीच भी यह नारा बेहद लोकप्रिय हुआ.
“दिल्ली चलो”
1942 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ही आजाद हिंद फौज को “दिल्ली चलो” का आह्वान करते हुए यह नारा दिया था. सन् 1942 में आजाद हिंद फौज के मुखर नेता होते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महसूस किया कि इंग्लैंड द्वितीय विश्व युद्ध में उलझता जा रहा है, तब उस समय यह नारा देकर उन्होंने फौज का मार्गदर्शन किया.

सुभाष चन्द्र बोस मानते थे कि अंग्रेज खुद भारत को आजाद नहीं करेंगे, इसलिए अंग्रेजों से लड़कर ही आजादी पाई जा सकती है. इसी लक्ष्य के साथ उन्होंने आजाद हिंद फौज का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सत्ता पर धावा बोलने के इरादे से ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया.
 “साइमन कमीशन वापस जाओ”
लाला लाजपत राय द्वारा ‘साइमन वापस जाओ’ का नारा सन् 1928 में दिया गया था. दरअसल, इस नारे की उत्पत्ति 8 नवंबर, 1927 को घोषित साइमन कमीशन के गठन का परिणाम था. 1927 में भारत में संवैधानिक सुधारों के अध्ययन के लिए सात ब्रिटिश सांसदों के समूह वाले साइमन कमीशन का गठन किया गया था. कमीशन को इस बात की जांच करनी थी कि क्या भारत इस लायक हो गया है कि यहां लोगों को संवैधानिक अधिकार दिए जाए. लेकिन कमीशन में केवल ब्रिटेन की संसद के मनोनीत सात सदस्यों को ही शामिल किया गया और यही जनता के बीच आक्रोश का प्रमुख कारण बना.

कांग्रेस के 1927 के मद्रास अधिवेशन में ‘साइमन कमीशन’ के पूर्ण बहिष्कार का निर्णय लिया गया. इस कमीशन से भारतीयों के आत्मसम्मान को बेहद ठेस पहुंची थी. इसलिए जब फरवरी 1928 में आयोग के सदस्य बंबई पहुंचे तो उनके खिलाफ अभूतपूर्व हड़ताल का आयोजन किया गया. विरोध में काले झंडे दिखाए गए और ‘साइमन वापस जाओ’ का नारा लगाकर आक्रोश जताया गया.

इसी विरोध के दौरान पुलिस की लाठियों से जख्मी होने के कारण लाला लाजपत राय शहीद हो गए. लेकिन अंतिम समय तक अंग्रेजों को ललकारते हुए उन्होंने कहा “‘मेरे सिर पर लाठी का एक-एक प्रहार, अंग्रेजी शासन के ताबूत की कील साबित होगा.”

ये मात्र कुछ ऐसे नारे हैं, जिन्होंने लोकप्रियता की बुलंदी को छूते हुए जनमानस के रग-रग में देशप्रेम की धारा प्रवाहित की. हालांकि, इसके अलावा भी कई और ऐसे नारे थे, जिनके योगदान को कम नहीं आंका जा सकता. कभी गीत, कभी गजल तो कभी कथन के तौर पर उभरे इन नारों ने शब्दरूपी बाणों की तरह प्रहार किया, जिससे ब्रिटिश हुकूमत छलनी और सत्ता जमींदोज हो गई.
(लेखिका पत्र सूचना कार्यालय, नई दिल्ली में सूचना सहायक के पद पर कार्यरत हैं.)



सरफ़राज़ ख़ान
मुसलमानों का त्योहार ईद उल-फ़ित्र इस्लाम के उपवास के महीने रमज़ान के ख़त्म होने के बाद मनाया जाता है. इस्लामी साल में दो ईदों में से यह एक है, दूसरा ईद उल-अज़हा या बक़रीद कहलाता है. पहला ईद उल-फ़ित्र पैगम्बर हज़रत मुहम्मद ने 624 ईस्वी में जंग-ए-बदर के बाद मनाया था.

ईद उल-फ़ित्र शव्वल  इस्लामी कैलंडर के दसवें महीने के पहले दिन मनाया जाता है. इस्लामी कैलेंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नये चांद के दिखने पर शुरू होता है. इस ईद में मुसलमान 29 या 30 दिनों के बाद पहली बार दिन में खाना खाते हैं. रमज़ान की समाप्ति के बाद ईद के दिन मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि उसने महीनेभर के रोज़े रखने की हिम्मत दी. ईद के दिन लोग सेवइयां और अन्य लज़ीज़ पकवान खाते हैं. इस दिन सभी नये कपड़े पहनते हैं. ईद उल-फ़ित्र के दिन लोग पुराने गले-शिकवे भूल कर गले मिलते हैं. ईद के दिन मस्जिद में सुबह की नमाज़ से पहले हर मुसलमान फ़ितरा और ज़कात देता है. इस दान को ज़कात उल-फ़ित्र कहते हैं. यह पैसा ग़रीबों में बांट दिया जाता है.

ईद का मतलब है ख़ुशी. हर क़ौम और समुदाय के कुछ विशेष त्योहार, उत्सव और प्रसन्नता व्यक्त करने के दिन होते हैं. उस दिन उस क़ौम के लोग अपने रीति-रिवाजों के अनुसार अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त करते हैं. इस्लाम के आगमन से पहले अरबों के यहां ईद का दिन 'यौमुस सबाअ' कहलाता था. मिस्र में कुब्ली 'नवरोज़' को ईद मनाते थे. मजूसियों के दो धार्मिक त्योहार नवरोज़ और मीरगान थे, जो बाद में मौसमी त्यौहार बन गए. नवरोज़ बसंत के मौसम में मनाया जाता था, जबकि मीरगान सूर्य देवता का त्यौहार था और पतझड़ में मनाया जाता था. पारसियों के इस त्यौहार का प्रभाव कुछ मुगल शहंशाहों पर भी रहा, जो बड़े जोशो-ख़रोश से नवरोज़ का आयोजन करते थे.

ईरान में फ़िरोज़ जान की ईद पांच दिनों तक मनाई जाती थी. उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मृत परिजनों की आत्माओं का आदर-सत्कार उन्हीं दिनों में किया जाता था. बसंत के मौसम में जश्ने-चिराग़ां मनाया जाता था. यहूदियों की सबसे बड़ी ईद ईदुल ख़िताब है. यह त्यौहार उस दिन की याद में मनाया जाता है, उनके ईश्वर यहुवाह ने सीना घाटी के पहाड़ से बनी इसराइल को संबोधित किया था.

ईसाई रोमन कैथोलिक और पश्चिमी अहले क्लीसा साल में कई ईदें मनाते हैं. उने यहां जैतूनिया का त्यौहार रोज़ों के सातवें दिन मनाया जाता है. यह त्यौहार हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बैतुल मुक़द्दस आगमन की याद में मनाया जाता है. यह ईस्टर से एक दिन पहले मनाया जाता है. ईस्टर 21 मार्च या उसके पहले रविवार को मनाया जाता है. इसे अरबी में ईदुल कियामा कहा जाता है.

ईदस्सलीब उस सलीब की याद में मनाई जाती है, जो कुस्तुनतुनिया के कैसर ने आसमान में देखा था. उसके बाद सलीब ईसाइयों का धार्मिक निशान बन गया. ईसाइयों की ईदुल बशारह उस घटना की याद दिलाती है, जब फ़रिश्ते ने हज़रत मरियम अलैहिस्सलाम को हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के जन्म की शुभ सूचना दी थी. ईसाइयों का त्यौहार क्रिसमस 25 दिसंबर को दुनियाभर में धूमधाम से मनाया जाता है.

फ़िरदौस ख़ान
पिछले काफ़ी अरसे से कांग्रेस अंदरूनी कलह और बग़ावत से जूझ रही है. इसी अंदरूनी कलह की वजह से कांग्रेस केंद्र और कई राज्यों से सत्ता गंवा चुकी है. उत्तराखंड में भी कांग्रेस अपने ही विधायकों की वजह से सत्ता से बाहर हो गई थी. हालांकि काफ़ी जद्दोजहद के बाद उसे खोयी हुई सत्ता वापस मिल गई. अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी पार्टी को छोड़कर जा रहे हैं. अब कांग्रेस को तीन और राज्यों से झटका लगा है. मुंबई में निकाय चुनाव से पहले महाराष्ट्र के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री गुरुदास कामत ने पार्टी से इस्तीफ़ा देते हुए राजनीति से संन्यास का ऐलान कर दिया है. गुरुदास कामत को गांधी परिवार का भरोसेमंद माना जाता है. पार्टी कार्यकर्ताओं को भेजे संदेश में उन्होंने लिखा है, "कई महीनों से मैंने महसूस किया कि मुझे नये लोगों को आगे आने के लिए पीछे हट जाना चाहिए. दस दिन पहले मैं कांग्रेस अध्यक्ष से मिला और इस्तीफ़ा देने की मंशा ज़ाहिर की. इसके बाद मैंने उन्हें और राहुल जी को पत्र लिखकर बता दिया कि मैं पार्टी छोड़ना चाहता हूं. इसके बाद से कोई जवाब नहीं आया. मैंने राजनीति से संन्यास लेने के बारे में बता दिया है." सियासी गलियारे में चर्चा है कि गुरुदास कामत मुंबई इकाई में अपनी उपेक्षा से नाराज़ थे. वह पार्टी में सुधार चाहते थे. इसके लिए उन्होंने पार्टी हाईकमान को कुछ सुझाव भी दिए, जिस पर कोई तवज्जो नहीं दी गई. कहा यह भी जा रहा है राहुल गांधी की मुंबई कांग्रेस प्रमुख संजय निरुपम से नज़दीकी और अपनी अनदेखी ने उन्हें चोट पहुंचाई.

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के क़द्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पार्टी का साथ छोड़ कर अपनी अलग सियासी पार्टी बना ली है. राज्यसभा का टिकट नहीं मिलने से अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान से नाराज़ थे. बेटे अमित को पार्टी से निकाले जाने पर भी उनमें कांग्रेस के लिए आक्रोश था. ग़ौरतलब है कि अमित जोगी अंतागढ़ टेप कांड में कांग्रेस से निकाले गए थे. उन्होंने अपने पैतृक गांव मरवाही में कांग्रेस पर कांग्रेस छोड़ने का ऐलान करते हुए कहा, "मैं अब कांग्रेस से आज़ाद हूं." इस मौक़े पर कांग्रेस के तीन विधायक और कई पूर्व विधायक भी मौजूद थे. अजीत जोगी का कहना है कि अब राज्य के फ़ैसले दिल्ली से नहीं होंगे. उनका कहना है कि कांग्रेस अब नेहरू, इंदिरा और राजीव-सोनिया गांधी वाली कांग्रेस नहीं रह गई है. इसमें जनाधार वाले नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है.

पूर्वोत्तर में भी कांग्रेस एक बार फिर संकट में घिर गई है. अरुणाचल प्रदेश, असम और मेघालय के बाद त्रिपुरा पूर्वोत्तर का चौथा राज्य है, जहां कांग्रेस को बग़ावत का सामना करना पड़ा है.यहां पार्टी के छह बाग़ी विधायक कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. इनमें त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन के पुत्र सुदीप राय बर्मन, बिस्वबंधु सेन, दिबा चंद्र हृंखाव्ल, आशीष साहा, दिलीप सरकार और प्राणजीत सिन्हा रॉय शामिल हैं. समीर रंजन बर्मन पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं.  इससे राज्य की 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस की विधायकों की संख्या दस से घटकर तीन रह जाएगी. त्रिपुरा में वाम की सरकार है. विधानसभा की 50 सीटों पर वाम का क़ब्ज़ा है. यहां अब तृणमूल मुख्य विपक्षी पार्टी बन जाएगी. कांग्रेस के बाग़ी नेताओं का कहना है कि पश्चिम बंगाल चुनाव में वाम के साथ भागीदारी करने के पार्टी के फ़ैसले के ख़िलाफ़ उन्होंने इस्तीफ़ा दिया है. पिछले चुनावों में कांग्रेस की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार समीर रंजन बर्मन ने कहा है, " तृणमूल में शामिल होने का हमारा मक़सद वाम की इस भ्रष्ट, जन विरोधी सरकार को हराना है." उन्होंने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस-वाम गठबंधन के विरोध में नेता विपक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. अब त्रिपुरा कांग्रेस में अध्यक्ष बिरजीत सिन्हा और दो अन्य विधायक हैं. ग़ौरतलब है कि त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव 2018 में होगा. माकपा के प्रदेश सचिव बिजन धर ने दावा किया है कि विधानसभा से इस्तीफ़ा देने वाले कांग्रेस के एक अन्य असंतुष्ट विधायक जितेन सरकार ने सत्तारूढ़ माकपा में शामिल होने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की है. उनका यह भी कहना है कि दिलीप सरकार माकपा के पूर्व सदस्य हैं, जो माकपा के टिकट पर पांच बार विधानसभा पहुंचे और वह नौ साल तक विधानसभा के अध्यक्ष रहे हैं. उन्हें माकपा में वापस लाया जाएगा.

ग़ौरतलब है कि कांग्रेस के लिए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में नतीजे मायूस करने वाले रहे. सिर्फ़ पुड्डुचेरी में ही कांग्रेस सरकार बना पाने में कामयाब रही है. असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस में बग़ावत के लिए कौन ज़िम्मेदार है. क्या कांग्रेस नेताओं का पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से विश्वास कम हो रहा है या फिर राज्यों के पार्टी नेताओं का असंतोष बग़ावत के तौर पर सामने आ रहा है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि कांग्रेस में बग़ावत के सुर उस वक़्त मुखर हो रहे हैं, जब राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने की बात चल रही है. पार्टी के दिग्गज नेता पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप देना चाहते हैं. राहुल की टीम में युवा चेहरों को तरजीह दिए जाने की भी पूरी उम्मीद है.

हालांकि कांग्रेस की अंदरूनी दिक़्क़तों को दूर करने के लिए पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने एक 'एडवाइज़र्स ब्लॉक' का गठन करने की सलाह दी है. इसमें दस नेता और उद्योगपतियों को शामिल किया जाएगा, जो पार्टी के अहम मुद्दों पर फ़ैसले लेंगे. बताया जा रहा है कि यह भारतीय जनता पार्टी के पार्लियामेंट्री बोर्ड जैसा होगा. राहुल गांधी इसमें पी. चिदंबरम और ग़ुलाम नबी आज़ाद जैसे वरिष्ठ नेताओं को शामिल करना चाहते हैं.  कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को मलाल है कि पार्टी नेतृत्व उनकी बात नहीं सुनता. राहुल गांधी को चाहिए कि वे अपनी पहुंच पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक बनाएं. अगर वे ऐसा पर पाए, तो कांग्रेस को उसका खोया रुतबा वापस दिला पाएंगे.

बहरहाल, कांग्रेस चाहती, तो गुरुदास कामत को उसी वक़्त मना लेती, जब उन्होंने इस्तीफ़ा देने की पेशकश की थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. कांग्रेस को चाहिए कि वह भले ही पार्टी की बागडोर युवा टीम के हवाले कर दे, लेकिन पार्टी के विश्वसनीय और पुराने उन नेताओं की अनदेखी न करे, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी कांग्रेस को समर्पित कर दी. वही दरख़्त फलता-फूलता है, जिसकी जड़ें मज़बूत हों, कांग्रेस को भी अपनी जड़ों की मज़बूती को बरक़रार रखना होगा, वरना पार्टी को बिखरने में देर नहीं लगेगी.


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