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फ़िरदौस ख़ान
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी
हिन्दी कविता की ये पंक्तियां पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को बख़ूबी बयान करती हैं. भारत में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ के आधार पर महिलाओं को देवी की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया गया है. लेकिन, आधुनिक समाज में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है, जहां उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है. काफ़ी हद तक इसका श्रेय विज्ञापन जगत को जाता है. मौजूदा दौर में विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी काया का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन कर दौलत बटोरने की होड़ मची हुई है.

पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाक़ू, गुटखा, सिगरेट और शराब तक के विज्ञापनों में नारी को दिखाया जाता है. जबकि, यहां उनकी कोई ज़रूरत नहीं है. इन वस्तुओं का इस्तेमाल मुख्यत: पुरुषों द्वारा किया जाता है. इसके बावजूद इसमें नारी देह का जमकर प्रदर्शन किया जाता है. इसके लिए तर्क दिया जाता है कि विज्ञापन में आर्कषण पैदा करने के लिए नारी का होना बेहद जरूरी है, यानी पुरुषों को गुमराह किया जाता है कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं मधुमक्खी की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी.

ऐसा नहीं है कि विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन से उत्पाद की श्रेष्ठता और उसके टिकाऊपन में सहज ही बढ़ोतरी हो जाती है या उसकी कीमत में इजाफा हो जाता है. दरअसल, इस प्रकार के विज्ञापन कामुकता को बढ़ावा देकर समाज को विकृत करने का काम करते हैं. शायद इसका अंदाजा उत्पादक विज्ञापनदाताओं को नहीं है या फिर वे लोग इसे समझना ही नहीं चाहते. आज न जाने कितने ही ऐसे विज्ञापन हैं जिन्हें परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता. अगर किसी कार्यक्रम के बीच ‘ब्रेक’ में कोई अश्लील विज्ञापन आ जाए तो नज़रें शर्म से झुक जाती हैं. परिजनों के सामने शर्मिंदगी होती है. विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि विज्ञापन को चर्चित बनाने के लिए कई चौंकाने वाली कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं.

यह माना जा सकता है कि आज विज्ञापन कारोबार की ज़रूरत बन गए हैं. लेकिन, इसका यह भी मतलब नहीं कि अपने फायदे के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल किया जाए. निर्माताओं को चाहिए कि वे अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें. उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फ़ायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं. लेकिन, निर्माताओं की मानसिकता ही आज बदल गई है. उन्हें लगता है कि वे विज्ञापनों में माडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं. लेकिन, हकीकत में ऐसा कतई नहीं है.

पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं. दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता. अगर विज्ञापन में ख़ून-ख़राबे वाले दृश्य हों, तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता. यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है. आथोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए.

इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे. बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था. दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई. उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फ़ीसद ज़्यादा है. यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुक़ाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फ़ीसदी अधिक देखी गई. निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फ़ीसद कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुक़ाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फ़ीसद कम हो जाती है. इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी. क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे. चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे.

यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी को भारत में एक समय सती प्रथा के नाम पर पति के साथ चिता में जलकर मरने को मजबूर किया गया था. देवदासी प्रथा की आड़ में उनसे वेश्यावृत्ति कराई गई थी. सदियों के बाद महिलाओं में जागरूकता आई है. अब जब वे अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तो ऐसे में देह प्रदर्शन के जरिए उन्हें भोग की वस्तु के रूप में पेश करना अपमानजनक है. यह देश के सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर भी कुठाराघात करने के समान है.

एक अनुमान के मुताबिक भारत के तक़रीबन 40 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और हर घर में यह आठ से दस घंटे तक चलता है. यानी विज्ञापन देश की क़रीब आधी आबादी को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं. इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नज़र रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है. बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए.

डॊ.सौरभ मालवीय
युवा देश और समाज की रीढ़ होते हैं. युवा देश और समाज को नए शिखर पर ले जाते हैं. युवा देश का वर्तमान हैं, तो भूतकाल और भविष्य के सेतु भी हैं. युवा देश और समाज के जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं.  युवा गहन ऊर्जा और उच्च महत्वकांक्षाओं से भरे हुए होते हैं. उनकी आंखों में भविष्य के इंद्रधनुषी स्वप्न होते हैं. समाज को बेहतर बनाने और राष्ट्र के निर्माण में सर्वाधिक योगदान युवाओं का ही होता है. देश के स्वतंत्रता आंदोलन में युवाओं ने अपनी शक्ति का परिचय दिया था, परंतु देखने में आ रहा है कि युवाओं में नकारात्मकता जन्म ले रही है.  उनमें धैर्य की कमी है. वे हर वस्तु अति शीघ्र प्राप्त कर लेना चाहते हैं. वे आगे बढ़ने के लिए कठिन परिश्रम की बजाय शॊर्टकट्स खोजते हैं. भोग विलास और आधुनिकता की चकाचौंध उन्हें प्रभावित करती है. उच्च पद, धन-दौलत और ऐश्वर्य का जीवन उनका आदर्श बन गए हैं. अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में जब वे असफल हो जाते हैं, तो उनमें चिड़चिड़ापन आ जाता है. कई बार वे मानसिक तनाव का भी शिकार हो जाते हैं. युवाओं की इस नकारत्मकता को सकारत्मकता में परिवर्तित करना होगा. उन्हें स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा लेनी होगी. उल्लेखनीय है कि 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के कायस्थ परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर उसे सार्वभौमिक पहचान दिलाई. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके बारे में कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानन्द को पढ़िये. उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं."

स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था. उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध अधिवक्ता थे.  उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की घरेलू महिला थीं. वह बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि के थे. उनके घर में नियमपूर्वक प्रतिदिन पूजा-पाठ होता था. साथ ही नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था. परिवार के धार्मिक वातावरण का उन पर भी प्रभाव गहरा पड़ा. वह वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से अत्यधिक प्रभावित थे. उन्होंने अपने गुरु से ही यह ज्ञान प्राप्त किया कि समस्त जीव स्वयं परमात्मा का ही अंश हैं, इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है.

स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस पर अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. उल्लेखनीय है कि विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार वर्ष 1985 को अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया.  पहली बार वर्ष 2000 में अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस का आयोजन आरंभ किया गया था. संयुक्त राष्ट्र ने 17 दिसंबर 1999 को प्रत्येक वर्ष 12 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी. अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस मनाने का अर्थ है कि सरकार युवा के मुद्दों और उनकी बातों पर ध्यान आकर्षित करे. भारत में इसका प्रारंभ वर्ष 1985 से हुआ, जब सरकार ने स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस पर अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की. युवा दिवस के रूप में स्वामी विवेकानन्द का जन्मदिवस चुनने के बारे में सरकार का विचार था कि स्वामी विवेकानन्द का दर्शन एवं उनका जीवन भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है. इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में कई प्रकार के कार्यक्रम होते हैं, रैलियां निकाली जाती हैं, विभिन्न प्रकार की स्पर्धाएं आयोजित की जाती है, व्याख्यान होते हैं तथा विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनियां लगाई जाती हैं.
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कठोपनिषद का एक मंत्र कहा था-
 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।'
अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाओ.'

भारत एक विकासशील और बड़ी जनसंख्या वाला देश है. यहां आधी जनसंख्या युवाओं की है. देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या की आयु 35 वर्ष से कम है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है. यहां के लगभग 60 करोड़ लोग 25 से 30 वर्ष के हैं. यह स्थिति वर्ष 2045 तक बनी रहेगी. विश्व की लगभग आधी जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की है. अपनी बड़ी युवा जनसंख्या के साथ भारत अर्थव्यवस्था नई ऊंचाई पर जा सकता है. परंतु इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आज देश की बड़ी जनसंख्या बेरोजगारी से जूझ रही है. भारतीय संख्यिकी विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. देश में बेरोजगारों की संख्या 11.3 करोड़ से अधिक है. 15 से 60 वर्ष आयु के 74.8 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, जो काम करने वाले लोगों की संख्या का  15 प्रतिशत है. जनगणना में बेरोजगारों को श्रेणीबद्ध करके गृहणियों, छात्रों और अन्य में शामिल किया गया है. यह अब तक बेरोजगारों की सबसे बड़ी संख्या है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहां 23 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे, वहीं 2011 की जनगणना में इनकी संख्या बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई. बेरोजगार युवा हताश हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में युवा शक्ति का अनुचित उपयोग किया जा सकता है. हताश युवा अपराध के मार्ग पर चल पड़ते हैं. वे नशाख़ोरी के शिकार हो जाते हैं और फिर अपनी नशे की लत को पूरा करने के लिए अपराध भी कर बैठते हैं. इस तरह वे अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं. देश में हो रही 70 प्रतिशत आपराधिक गतिविधियों में युवाओं की संलिप्तता रहती है.

युवाओं के उचित मार्गदर्शन के लिए अति आवश्यक है कि उनकी क्षमता का सदुपयोग किया जाए.  उनकी सेवाओं को प्रौढ़ शिक्षा तथा अन्य सराकारी योजनाओं के तहत चलाए जा रहे अभियानों में प्रयुक्त किया जा सकता है. वे सरकार द्वारा सुनिश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के दायित्व को वहन कर सकते हैं. तस्करी, काला बाजारी, जमाखोरी जैसे अपराधों पर अंकुश लगाने में उनकी सेवाएं ली जा सकती हैं. युवाओं को राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगाया जाए. राष्ट्र निर्माण का कार्य सरल नहीं है. यह दुष्कर कार्य है. इसे एक साथ और एक ही समय में पूर्ण नहीं किया जा सकता. यह चरणबद्ध कार्य है. इसे चरणों में विभाजित किया जा सकता है. युवा इस श्रेष्ठ कार्य में अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार भाग ले सकते हैं. ऐसी असंख्य योजनाएं, परियोजनां और कार्यक्रम हैं, जिनमें युवाओं की सहभागिता सुनिश्चत की जा सकती है. युवा समाज में समाजिक, आर्थिक और नवनिर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. वे समाज में प्रचलित कुप्रथाओं और अंधविश्वास को समाप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं. देश में दहेज प्रथा के कारण न जाने कितनी ही महिलाओं पर अत्याचार किए जाते हैं, यहां तक कि उनकी हत्या तक कर दी जाती है. महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से तो देश त्रस्त है. नब्बे साल की वॄद्धाओं से लेकर कुछ दिन की मासूम बच्चियों तक से दुष्कर्म कर उनकी हत्या कर दी जाती है. डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं की हत्याएं होती रहती हैं. अंधविश्वास में जकड़े लोग नरबलि तक दे डालते हैं. समाज में छुआछूत, ऊंच-नीच और जात-पांत की खाई भी बहुत गहरी है. दलितों विशेषकर महिलाओं के साथ अमानवीयता व्यवहार की घटनाएं भी आए दिन देखने और सुनने को मिलती रहती हैं, जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक समान हैं. आतंकवाद के प्रति भी युवाओं में जागृति पैदा करने की आवश्यकता है. भविष्य में देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता होगी. कृषि में उत्पादन के स्तर को उन्नत करने से संबंधित योजनाओं में युवाओं को लगाया जा सकता है. इससे जहां युवाओं को रोजगार मिलेगा, वहीं देश और समाज हित में उनका योगदान रहेगा.

यदि युवाओं को कोई उपयुक्त कार्य नहीं दिया गया, तब मानव संसाधनों का भारी राष्ट्रीय क्षय होगा. उन्हें किसी सकारात्मक कार्य में भागीदार बनाया जाना चाहिए. यदि इस मानव शक्ति की क्रियाशीलता को देश की विकास परियोजनाओं में प्रयुक्त किया जाए, तो यह अद्भुत कार्य कर सकती है. जब भी किसी चुनौती का सामना करने के लिए देश के युवाओं को पुकारा गया, तो वे पीछे नहीं रहे. प्राकृतिक आपदाओं के समय युवा आगे बढ़कर अपना योगदान देते हैं, चाहे भूकंप हो या बाढ़. युवाओं ने सदैव पीड़ितों की सहायता में दिन-रात परिश्रम किया. युवा देश के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग है. युवाओं को देश के विकास के लिए अपना सक्रिय योगदान प्रदान करना चाहिए. समाज को बेहतर बनाने और राष्ट्र निर्माण के कार्यों में युवाओं को सम्मिलित करना अति महत्वपूर्ण है तथा इसे यथाशीघ्र एवं व्यापक स्तर पर किया जाना चाहिए.

महादेवी वर्मा के शब्दों में- ‘‘बलवान राष्ट्र वही होता है,जिसकी तरुणाई सबल होती है, जिसमें मृत्यु को वरण करने की क्षमता होती है, जिसमें भविष्य के सपने होते हैं और कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है, वही तरुणाई है.’’

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं, बुरी घड़ी कहकर नहीं आती. बुरा वक़्त कभी भी आ जाता है. मौत या हादसों का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं होता. जब कोई हादसा होता है, जान या माल का नुक़सान होता है, तो किसी भी व्यक्ति को इसका सदमा लग सकता है. ऐसे में व्यक्ति के जिस्म में ताक़त नहीं रहती और शारीरिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं. दिमाग़ रक्त वाहिनियों की पेशियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, जिससे दिमाग़ और जिस्म का तालमेल गड़बड़ा जाता है. दिल की धड़कन भी धीमी हो जाती है. व्यक्ति क चक्कर आने लगते हैं, वह बेहोश हो जाता है, कई बार उसकी मौत भी हो जाती है. मौत कभी पूरा न होने वाला नुक़सान है. मौत के सदमे से उबरना आसान नहीं है. सदमे का ताल्लुक़ भावनाओं से है, संवेदनाओं से है. अगर कोई इन संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करे, तो उसे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सियासी हलक़े में मौत और सदमे पर भी सियासत की बिसात बिछा ली जाती है. फिर अपने फ़ायदे के लिए शह और मात का खेल खेला जाता है. इन दिनों तमिलनाडु में भी यही सब देखने को मिल रहा है.
तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी अन्नाद्र्मुक दावा कर रही है कि जयललिता की मौत के सदमे से 470 लोगों की मौत हो चुकी है. पार्टी ने मृतकों के परिवार को तीन लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया है. पार्टी ने ऐसे लोगों की फ़ेहरिस्त जारी की है, जिनकी मौत सदमे की वजह से हुई है. पार्टी का यह भी कहना है कि जयललिता के निधन के बाद अब तक छह लोग ख़ुदकुशी की कोशिश कर चुके हैं. ऐसे चार लोगों का ब्यौरा भी जारी किया गया है. जयललिता की मौत की ख़बर सुनने पर ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले एक व्यक्ति को पार्टी ने 50 हज़ार रुपये देने की घोषणा की है. इतना ही नहीं जयललिता की मौत की ख़बर सुनकर अपनी उंगली काटने वाले व्यक्ति को भी 50 हज़ार रुपये की मदद देने का ऐलान किया जा चुका है.

इसमें कोई शक नहीं है कि ’अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध जयललिता तमिलनाडु की लोकप्रिय नेत्री थीं. उन्होंने राज्य की ग़रीब जनता के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं. उन्होंने साल 2013 में चेन्नई में ‘अम्मा कैंटीन’ शुरू की, जहां बहुत कम दाम पर भोजन मुहैया कराया जाता है. अब पूरे राज्य में 300 से ज़्यादा ऐसी कैंटीन हैं, जिनमें एक रुपये में एक इडली और सांभर दिया जाता है, और पांच रुपये में चावल और सांभर परोसा जाता है. ग़रीब तबक़े के लोग इन कैंटीन में नाममात्र के दाम पर भरपेट भोजन करते और ’अम्मा’ के गुण गाते हैं. ये कैंटीन सरकारी अनुदान पर चलती हैं. इसके अलावा ग़रीबी रेखा के नीचे के परिवारों को हर महीने 25 किलो चावल, दालें, मसाले और खाने का अन्य सामान मुफ़्त दिया जाता है. सरकारी अस्पतालों में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता है. उन्होंने पालना बेबी योजना, अम्मा मिनरल वॉटर, अम्मा सब्ज़ी की दुकान, अम्मा फ़ार्मेसी, बेबी केयर किट, अम्मा मोबाइल जैसी कई योजनाएं भी चलाई. इतना ही नहीं उन्होंने मुफ़्त में भी कई सुविधाएं लोगों को दीं, जिनमें ग़रीब औरतों को मिक्सर ग्राइंडर, लड़कियों को साइकिलें, छात्रों को स्कूल बैग, किताबें, यूनिफॉर्म और मुफ़्त में मास्टर हेल्थ चेकअप आदि शामिल हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि चुनाव के वक़्त लोगों को लुभाने के लिए उन्हें  रोज़मर्रा के काम आने वाली चीज़ें ’तोहफ़े’ में दी जाती हैं, जिनमें टेलीविज़न, एफ़एम रेडियो,  इडली-डोसा बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली पिसाई मशीन, साइकिल, लैपटॉप वग़ैरह शामिल हैं. अपने इन्हीं ग़रीब हितैषी कार्यों की वजह से जयललिता जनप्रिय हो गईं. उनकी लोकप्रिय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बाक़ी राज्यों में भाजपा की लहर चल रही थी, उस वक़्त उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत का परचम लहराया था. वह अपने सियासी गुरु एमजी रामचंद्रन के बाद सत्ता में लगातार दूसरी बार आने वाली तमिलनाडु में पहली राजनीतिज्ञ थीं.

ग़ौरतलब है कि 68 वर्षीय जयललिता को 22 सितंबर को अस्पताल में दाख़िल कराया, तो बहुचर्चित सबरीमाला मंदिर ने उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना के साथ तक़रीबन 75 हज़ार श्रद्धालुओं को मुफ़्त भोजन कराना शुरू कर दिया था. लोग उनके लिए दुआएं कर रहे थे. 5 दिसंबर को उनकी मौत के बाद राज्य में शोक की लहर दौड़ गई. जन सैलाब उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ. सरकार ने पांच दिन का शोक घोषित कर दिया.  जगह-जगह शोक सभाओं का आयोजन कर उनकी आत्मिक शांति के लिए प्रार्थनाएं होने लगीं. फिर ख़बरें आने लगीं कि जयललिता की मौत के सदमे में फ़लां-फ़लां व्यक्ति की मौत हो गई. अन्नाद्रमुक ने मृतकों के लिए सहायता राशि देने की घोषणा कर डाली. इस काम में राज्य सरकार भी पीछे नहीं रही.  इन मरने वाले लोगों की मौत सदमे से हुई है या नहीं ? ये बात अलग है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ डालना सही है, क्या करदाताओं की मेहनत की कमाई, जिसका बड़ा हिस्सा करों के रूप में राज्य को मिलता है, उसका इस्तेमाल इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा देने में होना भी चाहिए था? जयललिता की लोकप्रियता के बाद भी इस सवाल का जवाब ’न’ ही है. तमिलनाडु सरकार को सरकारी ख़ज़ाने के पैसे का इस तरह से दुरुपयोग करने से बचना चाहिए था.

इससे बेहतर यह होता कि अन्नाद्रमुक जन कल्याण की कोई और योजना शुरू करती, जिससे ग़रीबों का भला होता ही, वह योजना जयललिता के प्रशंसकों-समर्थकों के मन में उनकी स्मृतियों को भी तरोताज़ा किए रहती. इसके साथ-साथ उन योजनाओं को जारी रखने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए था, जो जयललिता ने अपने कार्यकाल में शुरू की थीं. अन्नाद्रमुक और पन्नीर सेल्वम की सरकार को समझना होगा कि हथकंडे अपनाकर कुछ वक़्त के लिए ही जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता है, पर इस तरह खींचा गया ध्यान स्थाई नहीं होता है. यह तो तभी होता है, जब जन कल्याण के कार्य एक संकल्प के तौर पर किए जाएं. जयललिता यही करती थीं, इसीलिए उन्हें ’अम्मा’ कहा जाता है, जबकि पन्नीर सेल्वम सरकारी ख़ज़ाने का दुरुपयोग ही कर रहे हैं. यह उन मौतों को गरिमा प्रदान करनी भी है, जो जयललिता के निधन के बाद सदमा लगने से हुई बताई जा रही हैं. इंसान का जीवन अनमोल होता है. अलबत्ता अल्पकाल में होने वाली मौतों को महिमा-मंडित करना भी प्रकृति और उसके नियमों के ख़िलाफ़ है.



फ़िरदौस ख़ान
भारत दवाओं का एक ब़डा बाज़ार है. यहां बिकने वाली तक़रीबन 60 हज़ार ब्रांडेड दवाओं में महज़ कुछ ही जीवनरक्षक हैं. बाक़ी दवाओं में ग़ैर ज़रूरी और प्रतिबंधित भी शामिल होती हैं. ये दवाएं विकल्प के तौर पर या फिर प्रभावी दवाओं के साथ मरीज़ों को ग़ैर जरूरी रूप से दी जाती हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से जिन दवाओं पर अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित लगा हुआ है, उन्हें भारत में खुलेआम बेचा जा रहा है. समिति ने कहा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के कई अधिकारियों के बीच मिलीभगत है. इसलिए कई दवाओं की जांच किए बिना उन्हें मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी जा रही है. इनकी वजह से आए दिन लोगों की मौत हो रही है. तीन विवादस्पद दवाएं पीफ्लोकेसील, होम्पलोकेसीन और स्परफ्लोकेसीन के तो दस्ताव़ेज तक ग़ायब हैं. स्थायी समिति के सदस्य डॉ. संजय जायसवाल का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे पर हमने सरकार को स्थायी समिति की ओर से पत्र लिखकर दवा परीक्षण और घटिया दवाओं की बिक्री को अनदेखा करने पर सख्त ऐतराज़ जताया है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रतिबंधित दवाओं में शरीर को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्व होते हैं. इसलिए विकसित देश इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा देते हैं. ऐसे में दवा कंपनियां ग़रीब और विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर वहां अपनी प्रतिबंधित दवाओं के लिए बाज़ार तैयार करती हैं. इन दवाओं का परीक्षण भी इन्हीं देशों में किया जाता है. अंतराष्ट्रीय क्लीनिकल परीक्षण और शोध का बाज़ार तक़रीबन 20 अरब डॉलर का है. भारत में यह बाज़ार तक़रीब दो अरब डॉलर का है और दिनोदिन इसमें त़ेजी से ब़ढोत्तरी हो रही है. ज़्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन ये देश अपने देश के लोगों पर दवाओं का परीक्षण न करके ग़रीब और विकासशील देशों के लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. इनमें एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और अफ्रीकी देश शामिल हैं.

हालांकि क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणा-पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इस घोषणा-पत्र में छह बार संशोधन भी किए गए. घोषणा-पत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुना़फे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो. दवाओं का परीक्षण दबाव और लालच देकर नहीं कराया जाए, लेकिन इस पर असरदार तरीक़े से अमल नहीं किया जा रहा है. साल 2008 से 2011 के बीच भारत में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 2031 लोगों की मौत हुई है. 2008 में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 288 लोगों की जान जान चुकी है, जबकि 2009 में 637 लोगों, 2010 में 668 लोगों और 2011 में 438 लोगों की मौत हुई थी. हाल में मध्य प्रदेश में भोपाल गैस हादसे के पीडि़तों और इंदौर में कई मरीज़ों पर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा था. एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर कर मध्य प्रदेश समेत देश भर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के आरोप लगाए हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के प्रतिनिधियों द्वारा ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात सामने आई थी कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में 2004 से 2008 के बीच विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 279 मरीज़ों पर दवाओं का परीक्षण किया गया है. इनमें से 13 मरीज़ों की दवा परीक्षण के बाद बीमारी बढ़ने से मौत हो गई. मरने वालों में से 12 गैस पीड़ित थे. देश भर में दवा परीक्षण के दौरान में चार साल में 2031 लोगों मौत हुई है. इनमें से केवल 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है, जबकि बाक़ी लोगों के परिवार वाले आज तक इंसा़फ की राह देख रहे हैं.
दरअसल, हमारे देश की लचर क़ानून व्यवस्था का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता कंपनियां ग़रीब मरीज़ों को मुफ्त में इलाज कराने का झांसा देकर उन पर दवा परीक्षण करती हैं. ग़रीब लोग ठगे जाने पर इनके खिला़फ आवाज़ भी नहीं उठा पाते. पिछले दिनों तक़रीबन 13 हज़ार दवाओं के परीक्षण भारत में किए गए. भारत प्रतिबंधित दवाओं का भी ब़डा बाज़ार है. विदेशों में प्रतिबंधित एक्शन 500, निमेसूलाइड और एनालजिन जैसी दवाएं भारत में ज़्यादा बिकने वाली दवाओं में शामिल हैं. फिनलैंड, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों ने निमेसूलाइड के जिगर पर हानिकारक प्रभाव की रिपोर्टों के मद्देनज़र इस पर पाबंदी लगाई हुई है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में भी यह दवा प्रतिबंधित है. इसके अलावा दवाओं के साइड इफेक्ट से भी लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अनेक दवाएं ऐसी हैं जो फायदे की बजाय नुक़सान ज़्यादा पहुंचाती हैं. कुछ दवाएं रिएक्शन करने पर जानलेवा तक साबित हो जाती हैं, जबकि कुछ दवाएं मीठे ज़हर का काम करती हैं. क़ब्ज़ की दवा से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. सर्दी, खांसी, ज़ुकाम, सरदर्द और नींद न आने के लिए ली जाने वाली एस्प्रीन में सालि सिलेट नामक रसायन होता है, जो श्रवण केंद्रीय के ज्ञान तंतु पर विपरीत प्रभाव डालता है. कुनेन का अधिक सेवन कर लेने पर व्यक्ति बहरा हो सकता है. ये दवाएं एक तरह से नशे का काम करती हैं. नियमित रूप से एक ही दवा का इस्तेमाल करते रहने से दवा का असर कम होता जाता है और व्यक्ति दवा की मात्रा में बढ़ोतरी करने लगता है. दवाओं में अल्कोहल का भी अधिक प्रयोग किया जाता है, जो फेफड़ों को नुक़सान पहुंचाती है.

अधिकांश दवाएं शरीर के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे ये शरीर में घुलमिल कर खाद्य पदार्थों की भांति पच नहीं पाती हैं. नतीजतन, ये शरीर में एकत्रित होकर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. दवाओं में जड़ी-बूटियों के अलावा खनिज लोहा, चांदी, सोना, हीरा, पारा, गंधक, अभ्रक, मूंगा, मोती और संखिया आदि का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही कई दवाओं में अफ़ीम, जानवरों का रक्त और चर्बी आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है. सर्लें तथा एंटीबायोटिक दवाओं के लंबे समय तक सेवन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. चिकित्सकों का कहना है कि मेक्साफार्म, प्लेक्वान, एमीक्लीन, क्लोरोक्लीन और नियोक्लीन आदि दवाएं बहुत ख़तरनाक हैं. इनके ज़्यादा सेवन से जिगर और तिल्ली बढ़ जाती है, स्नायु दर्द होता है, आंखों की रोशनी कम हो सकती है, लकवा मार सकता है और कभी-कभी मौत भी हो सकती है. दर्द, जलन और बुख़ार के लिए दी जाने वाली ऑक्सीफेन, बूटाजोन, एंटीजेसिक, एमीडीजोन, प्लेयर, बूटा प्रॉक्सीवोन, जेक्रिल, मायगेसिक, ऑसलजीन, हैडरिल, जोलांडिन और प्लेसीडीन आदि दवाएं भी ख़तरनाक हैं. ये ख़ून में कई क़िस्म के विकार उत्पन्न करती हैं. ये दवाएं स़फेद रक्त कणों को ख़त्म कर देती हैं. इनसे अल्सर हो जाता है तथा साथ ही जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं. एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली दवा इफेविरेंज से नींद नहीं आना, पेट दर्द और चक्कर आने लगते हैं. नेविरापिन से खून की कमी हो जाती है, आंख में धुंधलापन, मुंह का अल्सर आदि रोग हो जाते हैं. मिर्गी के लिए दी जाने वाली फेनिटोइन और कार्बेमेजीपिन से मुंह में छाले और खाने की नली में जख्म हो जाते हैं. डायबिटीज के लिए दिए जाने वाले इंसुलिन से खुजली की शिकायत हो जाती है. कैंसर के लिए दी जाने वाली पेक्लीटेक्सिल से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं और कीमोथैरेपी की दवा साइक्लोसपोरिन से शरीर में खून की कमी हो जाती है और त्वचा भी संक्रमित होती है. चमड़ी के संक्रमण के लिए दी जाने वाली एजीथ्रोमाइसिन से पेट संबंधी समस्या पैदा हो जाती है. एलर्जी के लिए दी जाने वाली स्रिटेजीन से शरीर में ददोड़े प़ड जाते हैं. मेक्लिजीन से डायरिया हो जाता है. एंटीबायोटिक सेफट्राइजोन और एम्पीसिलीन से सांस की नली में सूजन आ जाती है. नॉरफ्लोक्सेसिन और ओफ्लोक्सेसिन से खुजली हो जाती है. टीबी के लिए दी जाने वाली इथेमबूटोल से आंखों की नसों में कमज़ोरी आ जाती है. मानसिक रोगी को दी जाने वाली हेलोपेरीडॉल से शरीर में अकड़न, जोड़ों में दर्द और बेहोशी की समस्या पैदा हो जाती है. इसी तरह दर्द निवारक दवा आईब्रूफेन, एस्प्रिन, पैरासिटामॉल से शरीर में सूजन आ जाती है. एक र्फार्मास्टि के मुताबिक़, स्टीरॉयड और एनाबॉलिक्स जैसे डेकाडयराबोलिन, ट्राइएनर्जिक आदि दवाएं पौष्टिक आहार कहकर बेची जाती हैं, जबकि प्रयोगों ने यह साबित कर दिया है कि इनसे बच्चों की हड्डियों का विकास रुक जाता है. इनके सेवन से लड़कियों में मर्दानापन आ जाता है. उनका मासिक धर्म अनियमित या बहुत कम हो जाता है. उनके चेहरे पर दा़ढीनुमा बाल उगने लगते हैं और कई बार उनकी आवाज़ में भारीपन भी आ जाता है. जलनशोथ आदि से बचने के लिए दी जाने वाली चाइमारोल तथा खांसी रोकने के लिए दी जाने वाली बेनाड्रिल, एविल, केडिस्टिन, साइनोरिल, कोरेक्स, डाइलोसिन और एस्कोल्ड आदि दवाएं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. इसी तरह एंसिफैड्रिल आदि का मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है. एक चिकित्सक के मुताबिक़, दवाओं के दुष्प्रभाव का सबसे बड़ा कारण बिना शारीरिक परीक्षण किए हुए दी जाने वाली दवाओं की निर्धारित मात्रा से अधिक ख़ुराक है. अनेक चिकित्सक अपनी दवाओं का जल्दी प्रभाव दिखाने के लिए प्राइमरी की बजाय थर्ड जेनेरेशन दे देते हैं, जो अक्सर कामयाब तो हो जाती हैं, लेकिन दूसरे असर छोड़ जाती हैं. दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं, जिनसे अन्य बीमारियां पैदा हो जाती हैं. जयपुर के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज के एडवर्स ड्रग रिएक्शन मॉनिटरिंग सेंटर (एएमसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले डे़ढ साल में 40 दवाओं के साइड से 445 मरीज़ प्रभावित हुए हैं. इनमें गंभीर बीमारियां एचआईवी, कैंसर, डायबिटीज और टीबी से लेकर बु़खार और एलर्जी के लिए दी जाने वाली दवाएं शामिल हैं. मरीज़ों ने ये दवाएं लेने के बाद पेट दर्द, सरदर्द, एनीमिया, बु़खार, त्वचा संक्रमण और सूजन आदि की शिकायतें कीं.

स्वास्थय विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टर को चाहिए कि वे दवा के बारे में मरीज़ को ठीक से समझाएं, मरीज़ की उम्र और उसके वज़न के हिसाब से दवा लिखे तथा दवा का कोई भी दुष्प्रभाव होने पर फौरन डॉक्टर को सूचित करे. मरीज़ों को चाहिए कि वे हमेशा डॉक्टर की सलाह से ही पर्ची पर दवा लें, अप्रशिक्षित लोगों और दवा विक्रेताओं के कहने पर किसी भी दवा का इस्तेमाल न करें. सरकार को भी चाहिए कि वह डॉक्टरों को सेंटर पर सूचना देने के लिए पाबंद करे, अस्पतालों में पोस्टर, बैनर और कार्यशालाओं के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करे. किसी भी दवा के दुष्प्रभाव मिलने पर उन्हें प्रतिबंधित करने की स़िफारिश की जाती है. किसी भी अस्पताल या सेंटर से दवा से दुष्प्रभाव और नुक़सान की रिपोर्ट को सीडी एससीओ नई दिल्ली को भेजा जाता है. यहां पर पूरे देश के सभी राज्यों से रिपोर्टें आती हैं. इसके बाद विशेषज्ञों की ड्रग टेक्नीकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) और ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी के सदस्यों द्वारा इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के बाद इसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को उस दवा की रिपोर्ट भेजी जाती है. इसके बाद केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेकर ग़ज़ट नोटिफिकेशन करते हैं. देश में पहले ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है. केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है. ऐसे में मरीज़ों के साथ खिलवा़ड किया जाना बेहद गंभीर और चिंता का विषय है. देश भर के सरकारी अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की कमी है. डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं. आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं. अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है. न तो पर्याप्त संख्या में नए स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं और न मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं. इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती. स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है. चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं. उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं. घटिया स्तर की दवाएं मुहैया कराए जाने के भी आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं नौ दिन चले अढाई कोस नामक कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आती हैं. हालांकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दवाओं को मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया में अनियमितता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तीन सदस्यीय समिति क्लीनिकल परीक्षण के बिना नई दवाओं को दी गई मंज़ूरी की वैज्ञानिक और वैधानिक आधार पर जांच करने के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. वह मंज़ूरी प्रक्रिया में प्रणालीगत सुधार के लिए सुझाव पेश करेगी और दवा नियंत्रक कार्यालय की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए भी सुझाव देगी.

स्वस्थ नागरिक किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं. हमें इस बात को समझना होगा. देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के साथ-साथ प्रतिबंधित दवाओं पर सख्ती से रोक लगाने और ग़ैर क़ानूनी रूप से मरीज़ों पर किए जा रहे दवा परीक्षणों पर भी रोक लगानी होगी. इसके अलावा दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा. इसके कई फ़ायदे हैं, पहला लोगों को रोजगार मिलेगा, दूसरा मरीज़ों को वाजिब क़ीमत में दवाएं मिल सकेंगी और तीसरा फायदा यह है कि मरीज़ विदेशी दवाओं के रूप में ज़हर खाने से बच जाएंगे.

इलाज से परहेज़ बेहतर है
लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति काफ़ी सचेत रहने की ज़रूरत है, वरना एक बीमारी का इलाज कराते-कराते वे किसी दूसरी बीमारी का शिकार हो जाएंगे. शरीर में स्वयं रोगों से मुक्ति पाने की क्षमता है. बीमारी प्रकृति के साधारण नियमों के उल्लंघन की सूचना मात्र है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने से बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करने तथा पौष्टिक भोजन लेने से मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहता है. यही सेहत की निशानी है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल का कहना है कि स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी है कि लोग अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें जैसे अपना ब्लड कोलेस्ट्रॉल 160 एमजी प्रतिशत से कम रखें. कोलेस्ट्ररॉल में एक प्रतिशत की भी कमी करने से हार्ट अटैक में दो फ़ीसदी कमी होती है. अनियंत्रित मधुमेह और उच्च रक्तचाप से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए इन पर क़ाबू रखें. कम खाएं, ज़्यादा चलें. नियमित व्यायाम करना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. सोया के उत्पाद स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. खुराक में इन्हें ज़रूर लिया जाना चाहिए. जूस की जगह फल का सेवन करना बेहतर होता है. ब्राउन राइस पॉलिश्ड राइस से और स़फेद चीनी की जगह गुड़ लेना कहीं अच्छा माना जाता है. फाइबर से भरपूर खुराक लें. शराब पीकर कभी भी गाड़ी न चलाएं. गर्भवती महिलाएं तो शराब बिल्कुल न पिएं. इससे होने वाले बच्चे को नुक़सान होता है. साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की जांच ज़रूर करवाएं. ज़्यादा नमक से परहेज़ करें.

फ़िरदौस ख़ान
नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सरकार ने बेनामी संपत्तियों और सोने पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का मन बनाया है, जो यह अनायास नहीं है. सरकार को पता है कि देश में काला धन नग़दी के रूप में कम, संपत्तियों और आभूषणों के रूप में ज़्यादा है. इसीलिए सरकार ने पिछले दिनों इन पर भी सख़्ती करने का फ़ैसला किया है. बेनामी संपत्तियों के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई शुरू भी हो चुकी है. अब बारी सोना रखने वालों की है. ऐसी ख़बर है कि सरकार घरों में सोना रखने की सीमा तय कर सकती है. इस फ़ैसले से जुड़ी ख़बरें पहली बार शुक्रवार को सुनने को मिली थीं, हांकि रात तक वित्त मंत्रालय के आला अफ़सरों के हवाले से इस ख़बर को ग़लत भी साबित कर दिया गया था, मगर अभी तक इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. इसलिए यह सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि सरकार सोने के ख़िल्दाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक नहीं करेगी. ऐसे में मानना चाहिए कि सरकार इस बाबत कभी भी ऐलान कर सकती है. एक तरह से देखा जाए, तो देश में नोटबंदी के फ़ैसले ए बाद रातों रात जिस तरह से सोने की बिक्री हुई है, वह यह साबित करती है कि देश में सोने के रूप में कालेधन का बड़ा भंडार है, जिसे बाहर लाना ज़रूरी है. नोटबंदी के जितना भी काला धन बाहर आया है, उससे भी ज़्यादा लोगों के घरों में है. अगर इसे करंसी में देखें, तो मुश्किल से दो-तीन फ़ीसद करंसी काले धन में शुमार होती है. हक़ीक़त में काला धन जायदाद के तौर पर रहता है. काला धन बेशक़ीमती हीरे-जवाहारात, सोना-चांदी, ज़मीन जायदाद, गगन चुंबी इमारतों, आलीशान कोठियों और बड़े-बड़े कारख़ानों में बदल जाता है, इनमें खप जाता है. सियासत में भी काले धन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. यहां ये काला धन चंदे का रूप धर कर सामने आता है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि पिछले आठ नवंबर को नोटबंदी के बाद लोगों ने अपने कालेधन को करेंसी से सोने में बदलने का काम शुरू कर दिया था. ख़बरें आ रही थीं कि लोगों ने कालेधन को खपाने के लिए 70 हज़ार रुपये तोला तक सोना ख़रीदा है. सोने और चांदी की बढ़ती मांग की वजह से इन धातुओं की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई. बड़े पैमाने पर सोने की ख़रीद की ख़बरों के बाद इस चर्चा ने ज़ोर पकड़ लिया था कि सरकार व्यक्तिगत स्तर पर सोना रखने की सीमा तय करने वाली है. ख़बर है कि फ़िलवक़्त घर में सोना रखने की सीमा तय करने के बारे में सरकार का कोई इरादा नहीं है. अगर सरकार वाक़ई कालेधन को लेकर संजीदा है,  तो उसे सोने की जमाख़ोरी पर पाबंदी लगानी चाहिए. लोग एक सीमा के बाद अपने कालेधन को सोने-चांदी के तौर पर ही जमा करते हैं. महंगाई के इस दौर में महिलाएं भी सोने-चांदी के ज़ेवरात की जगह नक़ली ज़ेवरात को ही पसंद करती हैं. लूटपाट की घटनाओं की वजह से भी सोने के ज़ेवरात पहनने का चलन कम हुआ है. शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार जैसे ख़ास मौक़ों पर ही महिलाएं सोने के ज़ेवरात पहनाती हैं. अमूमन कालेधन को ठिकाने लगाने के लिए ही सोना ख़रीदा जाता है. छापा पड़ने पर करोड़ों का सोना पकड़े जाने की ख़बरें आए-दिन सामने आती रहती हैं.

नोटबंदी से पहले सरकार ने बेनाम जायदाद को लेकर सख़्त रवैया अपनाया था. पिछले दिनों गोवा में प्रधानमंत्री ने कहा था कि अब सरकार ऐसी संपत्तियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने जा रही है, जो किसी और व्यक्ति के नाम पर ख़रीदी गई है, क्योंकि बेनामी देश की संपत्ति है. बेनामी संपत्ति उस जायदाद को कहते हैं, जिसका ख़रीददार संपत्ति के लिए के लिए भुगतान तो ख़ुद करता है, लेकिन संपत्ति किसी और के नाम पर ख़रीदता है. ऐसी जायदाद बेनामी कहलाती है.  ये बेनामी जायदाद चल, अचल या वित्तीय दस्तावेज़ों के तौर पर हो सकती है. अमूमन लोग कालेधन को बेनामी जायदाद में लगाते हैं. क़ाबिले-ग़ौर है कि बीते अगस्त माह में संसद में बेनामी सौदा निषेध क़ानून को पारित किया गया था. यह इसके प्रभाव में आने के बाद मौजूदा बेनामी सौदे (निषेध) क़ानून 1988 का नाम बदलकर बेनामी संपत्ति लेन-देन क़ानून 1988 कर दिया गया है. यह क़ानून बीते एक नवंबर से लागू हो गया है. इस क़ानून की वजह से सरकार बेनामी जायदाद को ज़ब्त कर सकती है. इसके तहत बेनामी लेन-देन करने वाले को कम से कम एक साल क़ैद की सज़ा हो सकती है. इस मामले में दोषी व्यक्ति को ज़्यादा से ज़्यादा सात साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 25 फ़ीसद तक जुर्माना देने का प्रावधान है. बेनामी जायदाद के मामले में जानबूझकर ग़लत जानकारी देने पर कम से कम छह महीने की क़ैद की सज़ा भी हो सकती है. इस मामले में ज़्यादा से ज़्यादा पांच साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 10 फ़ीसद तक का जुर्माना भी हो सकता है.

देखा जाए, तो भारत सोना ख़रीदने वाले देशों में दसवें स्थान पर है. वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूसीजी) की तरफ़ से जारी एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा सोने के भंडार वाले देशों में अमेरिका दुनिया में पहले स्थान पर है. अमेरिका के पास आठ हज़ार 133.5 टन सोना है, जबकि भारत के पास 1.6 टन सोना है. इस फ़ेहरिस्त में जर्मनी दूसरे, इटली तीसरे, फ़्रांस चौथे, रूस पांचवें, चीन छठे, स्विट्ज़रलैंड सातवें, जापान आठवें और नीदरलैंड नौवें स्थान पर है. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो भारत में सोने का भंडार इस बात को साबित करता है कि यहां कालेधन के रूप में सोना बड़ी मात्रा में हो सकता है. लिहाज़ा अगर सरकार इस दिशा में क़दम उठाती है, तो वह एक साहसिक क़दम होगा, जिसका जनता निश्चित तौर पर स्वागत करेगी.

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं कि मुहब्बत और अक़ीदत का कोई मुल्क नहीं होता, कोई मज़हब नहीं होता. लेकिन जब बात सियासत की आ जाए, मुल्क की आ जाए, तो मुहब्बत और अक़ीदत के पाक जज़्बे पर सियासत ही भारी पड़ती है.  दरगाह आला हज़रत को लें. आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान साहब, जिन्होंने दुनिया को मुहब्बत और भाईचारे का पैग़ाम दिया, अब उन्हीं की दरगाह पर उनके ज़ायरीनों को आने से रोका जा रहा है. दरअसल, भारत-पाक तनाव के मद्देनज़र बरेली में दरगाह आला हज़रत के प्रबंधन ने 24 नवंबर को शुरू हो रहे उर्स में पाकिस्तान के उलेमाओं को शामिल न करने का फ़ैसला किया है. हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए दरगाह प्रबंधन का यह फ़ैसला सही है.

बताया जा रहा है कि पाकिस्तान से छह उलेमाओं की जानिब से उर्स में शिरकत करने की गुज़ारिश आई है, लेकिन दरगाह प्रबंधन ने उन्हें उर्स में शामिल न करने का फ़ैसला किया है. पिछले साल दरगाह प्रबंधन ने पाकिस्तान के 12 उलेमाओं को बुलावा भेजा था, जिसमें से पांच उलेमाओं ने अपनी हाज़िरी दर्ज कराई थी. दरगाह आला हज़रत के उर्स प्रबंधन को ख़ौफ़ है कि अगर किसी ने उसके दावतनामे का ग़लत इस्तेमाल कर किसी कर वीज़ा हासिल कर लिया और देश में कोई वारदात कर दी, तो इससे जानमाल का नुक़सान तो होगा ही, साथ ही दरगाह की भी बदनामी होगी. वैसे भी पाकिस्तान लगातार संघर्षविराम का उल्लंघन कर रहा है, जिससे दोनों मुल्कों के बीच तनाव पैदा हो गया है. दरगाह प्रबंधन का यह भी मानना है कि देश में जब भी कोई आतंकी घटना होती है, तो यहां के मुसलमानों को शक की नज़र से देखा जाता है. इन्हीं सब हालात को देखते हुए दरगाह प्रबंधन को पाकिस्तान के उलेमाओं का बहिष्कार करना पड़ा. ग़ौरतलब है कि तीन दिन तक चलने वाले इस विश्व प्रसिद्ध दरगाह के उर्स में दुनिया भर से ज़ायरीन आते हैं. इस बार भी मॉरीशस, ब्रिटेन, दुबई, ओमान, दक्षिण अफ्रीका, फ्रांस, सऊदी अरब, नीदरलैंड, श्रीलंका, मलावी और जिम्बाब्वे से बड़ी तादाद में उलेमा शिरकत करने के लिए यहां आ रहे हैं.

क़ाबिले-ग़ौर है कि बरेली के सौदागरन मोहल्ले में स्थित दरगाह-ए-आला-हज़रत पर साल भर ज़ायरीनों की भीड़ लगी रहती है. आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान फ़ाज़िले का जन्म 4 जून, 1856 को बरेली में हुआ था और 28 अक्टूबर, 1921 को वे इस दुनिया से पर्दा कर गए. लोग उन्हें आला हज़रत के नाम से पुकारते थे. उनके पूर्वज कंधार के पठान थे, जो मुग़लों के शासनकाल में हिंदुस्तान आए थे. आला हज़रत बहुत बड़े मुफ़्ती, आलिम, क़ुरान हाफ़िज़, लेखक, शायर, उलेमा और कई भाषाओं के जानकार थे. उन्होंने कई किताबें लिखीं, जिनमें अद्दौलतुल मक्किया है जिसे उन्होंने महज़ आठ घंटों में हरम-ए-मक्का में लिखा था. इस्लामी क़ानून पर उनकी एक और बेहतरीन किताब फ़तावा रज़्विया है.  

बहरहाल, सरहद पर भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का असर दोनों देशों की अवाम और उनके रिश्तों पर भी पड़ने लगा है. इससे जहां अवाम रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं, वहीं कारोबारियों को भी काफ़ी नुक़सान हो रहा है. शादी-ब्याह के लिए लोग अब पाकिस्तान में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को बुलावा नहीं भेज रहे हैं और न ही वहां से शादी-ब्याह के दावतनामे आ रहे हैं. इस तनाव की वजह से बहुत से लोग अपनों से नहीं मिल पा रहे हैं. बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के आफ़ताब की पत्नी शाहीना कराची में अपनी बेटी के साथ वापसी का इंतज़ार कर रही है. दिसंबर 2012 में आफ़ताब की शादी कराची की रहने वाली शाहीना कौसर से हुई थी. शाहीना 2013 में मुज़फ़्फ़रपुर आई और वीज़ा बढ़ाते रहने के साथ लांग टर्म वीज़ा के लिए आवेदन दिया. तभी उसकी मां की बीमार हो गई और वह 22 फ़रवरी 2016 को अपनी बेटी को लेकर कराची चली गई. उसने 10 जुलाई को वीज़ा के लिए पाकिस्तान के भारतीय दूतावास में आवेदन दिया था, लेकिन उसे यह कहकर वीज़ा देने ने मना कर दिया गया कि दोनों देशों के बीच रिश्ते ठीक नहीं चल रहे हैं.

भारत-पाक तनाव की वजह से पाकिस्तान से होने वाला कारोबार भी ठप हो गया है. पाकिस्तान के कारोबारी अब भारत से कपास की ख़रीद नहीं कर रहे हैं, जिससे देश के तक़रीबन 82.2 करोड़ डॉलर के कपास उद्योग पर असर पड़ा है. पाकिस्तान भारतीय कपास कारोबारियों के लिए एक बड़ी मंडी है. भारत से कपास का आयात रुकने से पाकिस्तान में कपास के दाम बढेंगे. इससे अमेरिका, ब्राज़ील और अफ़्रीकी देशों के कपास निर्यातकों को ख़ासा मुनाफ़ा होगा. मौजूदा हालात को देखते हुए दोनों ही देशों के व्यापारी नये कारोबारी सौदे भी नहीं कर रहे हैं. साल 2015-16 में पाकिस्तान से भारत को निर्यात घटकर 40 करोड़ डॉलर रह गया, जबकि उससे पहले साल 2014-15 में निर्यात 41.5 करोड़ डॉलर का था. हालांकि इसी अवधि में भारत का पाकिस्तान को निर्यात 27 फ़ीसद बढ़कर 1.8 अरब डॉलर पहुंच गया.

हालांकि अमेरिका व दुनिया के कई अन्य देश चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बाच तनाव ख़त्म हो और हालात सामान्य हो जाएं. अलबत्ता, नफ़रत से किसी का भला नहीं होता. यह बात पाकिस्तान को भी समझनी होगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि फिर से दोनों देशों के रिश्ते बेहतर होंगे,  मुहब्बत और अक़ीदत की जीत होगी.

डॊ. सौरभ मालवीय
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात्
असत्य से सत्य की ओर।
अंधकार से प्रकाश की ओर।
मृत्यु से अमरता की ओर।
ॐ शांति शांति शांति।।
अर्थात् इस प्रार्थना में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना की गई है. दीपों का पावन पर्व दीपावली भी यही संदेश देता है. यह अंधकार पर प्रकाश की जीत का पर्व है. दीपावली का अर्थ है दीपों की श्रृंखला. दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' एवं 'आवली' अर्थात 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है. दीपावली का पर्व कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है. वास्तव में दीपावली एक दिवसीय पर्व नहीं है, अपितु यह कई त्यौहारों का समूह है, जिनमें धन त्रयोदशी अर्थात धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भैया दूज सम्मिलित हैं. दीपावली महोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की दूज तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है. धनतेरस के दिन बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है. तुलसी या घर के द्वार पर दीप जलाया जाता है. नरक चतुर्दशी के दिन यम की पूजा के लिए दीप जलाए जाते हैं.  गोवर्धन पूजा के दिन लोग गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर उसकी पूजा करते हैं. भैया दूज पर बहन अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसके लिए मंगल कामना करती है. इस दिन यमुना नदी में स्नान करने की भी परंपरा है.

प्राचीन हिंदू ग्रंथ रामायण के अनुसार दीपावली के दिन श्रीरामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या लौटे थे. अयोध्यावासियों ने श्रीराम के स्वागत में घी के दीप जलाए थे. प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार दीपावली के दिन ही 12 वर्षों के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी हुई थी. मान्यता यह भी है कि दीपावली का पर्व भगवान विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी से संबंधित है. दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से प्रारंभ होता है. समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में लक्ष्मी भी एक थीं, जिनका प्रादुर्भाव कार्तिक मास की अमावस्या को हुआ था. उस दिन से कार्तिक की अमावस्या लक्ष्मी-पूजन का त्यौहार बन गया. दीपावली की रात को लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे विवाह किया था. मान्यता है कि दीपावली के दिन विष्णु की बैकुंठ धाम में वापसी हुई थी.
कृष्ण भक्तों के अनुसार इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था. एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था. यह भी कहा जाता है कि इसी दिन समुद्र मंथन के पश्चात धन्वंतरि प्रकट हुए. मान्यता है कि इस दिन देवी लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं. जो लोग इस दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, उन पर देवी की विशेष कृपा होती है. लोग लक्ष्मी के साथ-साथ संकट विमोचक गणेश, विद्या की देवी सरस्वती और धन के देवता कुबेर की भी पूजा-अर्चना करते हैं.

अन्य हिन्दू त्यौहारों की भांति दीपावली भी देश के अन्य राज्यों में विभिन्न रूपों में मनाई जाती है. बंगाल और ओडिशा में दीपावली काली पूजा के रूप में मनाई जाती है. इस दिन यहां के हिन्दू देवी लक्ष्मी के स्थान पर काली की पूजा-अर्चना करते हैं. उत्तर प्रदेश के मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान श्री कृष्ण से जुड़ा पर्व माना जाता है. गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पर श्रीकृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है.

दीपावली का ऐतिहासिक महत्व भी है. हिन्दू राजाओं की भांति मुगल सम्राट भी दीपावली का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया करते थे. सम्राट अकबर के शासनकाल में दीपावली के दिन दौलतखाने के सामने ऊंचे बांस पर एक बड़ा आकाशदीप लटकाया जाता था. बादशाह जहांगीर और मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर ने भी इस परंपरा को बनाए रखा. दीपावली के अवसर पर वे कई समारोह आयोजित किया करते थे. शाह आलम द्वितीय के समय में भी पूरे महल को दीपों से सुसज्जित किया जाता था. कई महापुरुषों से भी दीपावली का संबंध है. स्वामी रामतीर्थ का जन्म एवं महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ था. उन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय समाधि ले ली थी. आर्य समाज के संस्थापाक महर्षि दयानंद ने दीपावली के दिन अवसान लिया था.

जैन और सिख समुदाय के लोगों के लिए भी दीपावली महत्वपूर्ण है. जैन समाज के लोग दीपावली को महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं. जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी.  इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. जैन धर्म के मतानुसार लक्ष्मी का अर्थ है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ है ज्ञान. इसलिए प्रातःकाल जैन मंदिरों में भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाया जाता है और लड्डू का भोग लगाया जाता है. सिख समुदाय के लिए दीपावली का दिन इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन अमृतसर में वर्ष 1577 में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था. वर्ष 1619 में दीपावली के दिन ही सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था.

दीपावली से पूर्व लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई करते हैं. घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य कराते हैं. दीपावली पर लोग नये वस्त्र पहनते हैं. एक-दूसरे को मिष्ठान और उपहार देकर उनकी सुख-समृद्धि की कामना करते हैं. घरों में रंगोली बनाई जाती है, दीप जलाए जाते हैं. मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. घरों व अन्य इमारतों को बिजली के रंग-बिरंगे बल्बों की झालरों से सजाया जाता है. रात में चहुंओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है. आतिशबाज़ी भी की जाती है. अमावस की रात में आकाश में आतिशबाज़ी का प्रकाश बहुत ही मनोहारी दृश्य बनाता है.

दीपावली का धार्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी है. दीपावली पर खेतों में खड़ी खरीफ़ की फसल पकने लगती है, जिसे देखकर किसान फूला नहीं समाता. इस दिन व्यापारी अपना पुराना हिसाब-किताब निपटाकर नये बही-खाते तैयार करते हैं.

दीपावली बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, लेकिन कुछ लोग इस दिन दुआ खेलते हैं और शराब पीते हैं. अत्यधिक आतिशबाज़ी के कारण ध्वनि और वायु प्रदूषण भी बढ़ता है. इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि दीपों के इस पावन पर्व के संदेश को समझते हुए इसे पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाए.


फ़िरदौस ख़ान
ज़िंदगी की जद्दोजहद ने इंसान को जितना मसरूफ़ बना दिया है, उतना ही उसे अकेला भी कर दिया है. हालांकि आधुनिक संचार के साधनों ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है. मोबाइल, इंटरनेट के ज़रिये सात समंदर पार किसी भी पल किसी से भी बात की जा सकती है. इसके बावजूद इंसान बहुत अकेला दिखाई देता है. बहुत ही अकेला, क्योंकि आज के दौर में 'अपनापन' जैसे जज़्बे कहीं पीछे छूट गए हैं. अब रिश्तों में वह गरमाहट नहीं रही, जो पहले कभी हुआ करती थी. पहले लोग संयुक्त परिवार में रहा करते थे. पुरुष बाहर कमाने जाया करते थे और महिलाएं मिल जुलकर घर-परिवार का कामकाज किया करती थीं. परिवार के सदस्यों में एक-दूसरे के लिए आदर-सम्मान और अपनापन हुआ करता था. लेकिन अब संयुक्त परिवार टूटकर एकल हो रहे हैं. महिलाएं भी कमाने के लिए घर से बाहर जा रही हैं. उनके पास बच्चों के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं है. बच्चों का भी ज़्यादा वक़्त घर से बाहर ही बीतता है. सुबह स्कूल जाना, होम वर्क करना, फिर ट्यूशन के लिए जाना और उसके बाद खेलने जाना. जो वक़्त मिलता है, उसमें भी बच्चे मोबाइल या फिर कंप्यूटर पर गेम खेलते हैं. ऐसे में न माता-पिता के पास बच्चों के लिए वक़्त है और न ही बच्चों के पास अपने बड़ों के लिए है.

ज़िंदगी की आपाधापी में रिश्ते कहीं खो गए हैं. शायद, इसीलिए, अब लोग परछाइयों यानी वर्चुअल दुनिया में रिश्ते तलाशने लगे हैं. लेकिन अफ़सोस यहां भी वे रिश्तों के नाम पर ठगे जा रहे हैं. सोशल नेटवर्किंग साइट पर ज़्यादातर प्रोफ़ाइल फ़ेक होते हैं, या फिर उनमें ग़लत जानकारी दी गई होती है. झूठ की बुनियाद पर बनाए गए रिश्तों की उम्र बस उस वक़्त तक ही होती है, जब तक झूठ पर पर्दा पड़ा रहता है. लेकिन जैसे ही सच सामने आता है, वह रिश्ता भी दम तोड़ देता है.  अगर किसी इंसान को कोई अच्छा लगता है और वह उससे उम्रभर का रिश्ता रखना चाहता है, तो उसे सामने वाले व्यक्ति से झूठ नहीं बोलना चाहिए. जिस दिन उसका झूठ सामने आ जाएगा. उस वक़्त उसका रिश्ता तो टूट ही जाएगा, साथ ही वह हमेशा के लिए नज़रों से भी गिर जाएगा. कहते हैं- इंसान पहाड़ से गिरकर तो उठ सकता है, लेकिन नज़रों से गिरकर कभी नहीं उठ सकता. ऐसा भी देखने में आया है कि कुछ अपराधी प्रवृति के लोग ख़ुद को अति सभ्य व्यक्ति बताते हुए महिलाओं से दोस्ती गांठते हैं, फिर प्यार के दावे करते हैं. बाद में पता चलता है कि वे शादीशुदा हैं और कई बच्चों के बाप हैं. दरअसल, ऐसे बाप टाईप लोग हीन भावना का शिकार होते हैं. अपराधी प्रवृति के कारण उनकी न घर में इज्ज़त होती है और न ही बाहर. उनकी हालत धोबी के कुत्ते जैसी होकर रह जाती है यानी धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का. ऐसे में वे सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपना अच्छा-सा प्रोफ़ाइल बनाकर ख़ुद को महान साबित करने की कोशिश करते हैं. वे ख़ुद को अति बुद्धिमान, अमीर और न जाने क्या-क्या बताते हैं, जबकि हक़ीक़त में उनकी कोई औक़ात नहीं होती. ऐसे लोगों की सबसे बड़ी 'उपलब्धि' यही होती है कि ये अपने मित्रों की सूची में ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को शामिल करते हैं. कोई महिला अपने स्टेट्स में कुछ भी लिख दे, फ़ौरन उसे 'लाइक' करेंगे, कमेंट्स करेंगे और उसे चने के झाड़ पर चढ़ा देंगे.  ऐसे लोग समय-समय पर महिलाएं बदलते रहते हैं, यानी आज इसकी प्रशंसा की जा रही है, तो कल किसी और की. लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती.

वक़्त दर वक़्त ऐसे मामले सामने आते रहते हैं. ब्रिटेन में हुए एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि ऑनलाइन रोमांस के चक्कर में तक़रीबन दो लाख लोग धोखा खा चुके हैं. धोखा देने वाले लोग अपनी असली पहचान छुपाकर रखते थे और आकर्षक मॉडल और सेना अधिकारी की तस्वीर अपनी प्रोफ़ाइल पर लगाकर लोगों को आकर्षित किया करते थे. ऐसे में सोशल नेटवर्किंग साइटों का इस्तेमाल करने वाले लोगों का उनके प्रति जुड़ाव रखना स्वाभाविक ही था, लेकिन जब उन्होंने झूठे प्रोफ़ाइल वाले लोगों से मिलने की कोशिश की, तो उन्हें सारी असलियत पता चल गई. कई लोग अपनी तस्वीर तो असली लगाते हैं, लेकिन बाक़ी जानकारी झूठी देते हैं. झूठी प्रोफ़ाइल बनाने वाले या अपनी प्रोफ़ाइल में झूठी जानकारी देने वाले लोग महिलाओं को फांसकर उनसे विवाह तक कर लेते हैं. सच सामने आने पर उससे जुड़ी महिलाओं की ज़िन्दगी बर्बाद होती है. एक तरफ़ तो उसकी अपनी पत्नी की और दूसरी उस महिला की जिससे उसने दूसरी शादी की है.

एक ख़बर के मुताबि़क़,  अमेरिका में एक महिला ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर अपने पति की दूसरी पत्नी को खोज निकाला. फेसबुक पर बैठी इस महिला ने साइड में आने वाले पॉपअप ‘पीपुल यू मे नो’ में एक महिला को दोस्त बनाया. उसकी फेसबुक पर गई, तो देखा कि उसके पति की वेडिंग केक काटते हुए फोटो थी. समझ में नहीं आया कि उसका पति किसी और के घर में वेडिंग केक क्यों काट रहा है? उसने अपने पति की मां को बुलाया, पति को बुलाया. दोनों से पूछा, माजरा क्या है? पति ने पहली पत्नी को समझाया कि ज़्यादा शोर न मचाये, हम इस मामले को सुलझा लेंगे. मगर इतने बड़े धोखे से आहत महिला ने घर वालों को इसकी जानकारी दी. उसने अधिकारियों से इस मामले की शिकायत की. अदालत में पेश दस्तावेज़ के मुताबिक़  दोनों अभी भी पति-पत्नी हैं. उन्होंने तलाक़ के लिए भी आवेदन नहीं किया.  पियर्स काउंटी के एक अधिकारी के मुताबिक़, एलन ओनील नाम के इस व्यक्ति ने 2001 में एलन फल्क के अपने पुराने नाम से शादी की. फिर 2009 में पति ओनील ने नाम बदलकर एलन करवा लिया था और किसी दूसरी महिला से शादी कर ली थी. उसने  पहली पत्नी को तलाक़ नहीं दिया था.

दरअसल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से रिश्ते तेज़ी से टूट रहे हैं. अमेरिकन एकेडमी ऑफ मैट्रीमोनियल लॉयर्स के एक सर्वे में यह बात सामने आई है. सर्वे के मुताबिक़ तलाक़ दिलाने वाले क़रीब 80 फ़ीसद वकीलों ने माना कि उन्होंने तलाक़ के लिए सोशल नेटवर्किंग पर की गई बेवफ़ाई वाली टिप्पणियों को अदालत में बतौर सबूत पेश किया है. तलाक़ के सबसे ज़्यादा मामले फेसबुक से जुड़े हैं. 66 फ़ीसद मामले फेसबुक से, 15 फ़ीसद माईस्पेस से, पांच फ़ीसद ट्विटर और 14 फ़ीसद मामले बाक़ी दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े हैं. इन डिजिटल फुटप्रिंट्स को अदालत में तलाक़ के एविडेंस के रूप में पेश किया गया.  अभिनेत्री इवा लांगोरिया ने बास्केट बाल  खिलाड़ी अपने पति टोनी पार्कर का तलाक़ दे दिया. इवा का आरोप है कि फेसबुक पर उसके पति टोनी और एक महिला की नज़दीकी ज़ाहिर हो रही थी. ब्रिटेन में भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से तलाक़ के मामले तेज़ी से बढ़े हैं. अपने साथी को धोखा देकर ऑनलाइन बात करते हुए पकड़े जाने की वजह से तलाक़ के मामलों में इज़ाफ़ा हुआ है. ब्रिटिश न्यूज पेपर 'द सन' के मुताबिक़  पिछले एक साल में फेसबुक पर की गईं आपत्तिजनक टिप्पणियां तलाक़ की सबसे बड़ी वजह बनीं. रिश्ते ख़राब होने और टूटने के बाद लोग अपने साथी के संदेश और तस्वीरों को तलाक़ की सुनवाई के दौरान इस्तेमाल कर रहे हैं.

सोशल नेटवर्किंग साइट की वजह से खु़दकशी के मामले भी सामने आए हैं. एक चर्चित मामला है जमशेदपुर की 22 वर्षीय आदिवासी छात्रा मालिनी मुर्मू का, जिसने अपने प्रेमी के रवैये से आहत होकर ख़ुदकुशी कर ली थी. उसका बेंगलूर में ही रहने वाले उसके ब्वायफ्रेंड से कथित तौर पर कुछ मनमुटाव और कहासुनी हुई थी. इसके बाद लड़के ने फेसबुक में अपने वॉल पर एक संदेश में लिखा था- 'मैं आज बहुत आराम महसूस कर रहा हूं. मैंने अपनी गर्लफ्रेंड को छोड़ दिया है. अब मैं स्वतंत्र महसूस कर रहा हूं. स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं.'  मामले की जांच कर रहे अधिकारियों के मुताबिक़ सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर मालिनी के ब्वॉयफ्रैंड ने उससे संबंध तोड़ लिए थे. इससे उसे गहरा आघात लगा और उसने क्लास में भी जाना छोड़ दिया. क्लास में उसे नहीं पाकर जब उसके दोस्त हॉस्टल के कमरा नंबर 421 में गए, तो उसने दरवाज़ा नहीं खोला. गार्ड्स को बुलाकर दरवाज़ा तुड़वाया गया. कमरे के भीतर मालिनी का शव पंखे से झूलता मिला. मालिनी ज़िन्दगी में एक बड़ा मुक़ाम हासिल करना चाहती थी. उसने साकची के राजेंद्र विद्यालय से दसवीं की पढ़ाई की थी. इसके बाद उसने उड़ीसा के आईटीई से बारहवीं पास की. वह आईआईएम बेंगलुरू में एमबीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी. लैपटॉप में छोड़े अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा है- ‘उसने मुझे छोड़ दिया, इसलिए आत्महत्या कर रही हूं.’ माना ज़िन्दगी में प्रेम की भी अपनी अहमियत है. मगर प्रेम ही तो सबकुछ नहीं है. ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है...और उससे भी ख़ूबसूरत होते हैं हमारे इंद्रधनुषी सपने .हमें अपनी भावनाएं ऐसे व्यक्ति से नहीं जोड़नी चाहिए, जो इस क़ाबिल ही न हो. जिस तरह पूजा के फूलों को कूड़ेदान में नहीं फेंका जा सकता, उसी तरह अपने प्रेम और इससे जुडी कोमल भावनाओं को किसी दुष्ट प्रवृति के व्यक्ति पर न्योछावर नहीं किया जा सकता.

दरअसल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जहां कुछ फ़ायदें हैं, वहीं नुक़सान भी हैं. इसलिए सोच-समझ कर ही इनका इस्तेमाल करें. अपने आसपास के लोगों को वक़्त दें, उनके साथ रिश्ते निभाएं. सोशल नेटवर्किंग साइट्स के आभासी मित्रों से परस्पर दूरी बनाकर रखें.  कहीं ऐसा न हो कि आभासी फ़र्ज़ी दोस्तों के चक्कर में आप अपने उन दोस्तों को खो बैठें, जो आपके सच्चे हितैषी हैं.

वाल्ट व्हिटमेन के शब्दों में " ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई, तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

फ़िरदौस ख़ान
ग़रीबों के मसीहा और इंसानियत परस्त अब्दुल सत्तार ईधी जनसेवा के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. उन्होंने जनसेवा को अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बनाया और मानवता को अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी.  वे कहते थे, " मेरा मज़हब इंसानियत है, जो हर मज़हब का मूल है. लोग शिक्षित तो हो गए, लेकिन इंसान न बन सके." वे देश की सरहदों, मज़हब और जात-पांत की परवाह किए बग़ैर इंसानियत के काम करते थे. वे कहा करते थे, "आपको हर उस प्राणी की देखभाल करनी है, जिसे अल्लाह ने बनाया है. मेरा मक़सद हर ज़रूरतमंद की मदद करना है. उन्होंने भूखों को खाना दिया, बेघरों को छत दी, मरीज़ों का इलाज कराया. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने हज़ारों यतीम बच्चों की परवरिश की. सादगी पसंद ईधी दो जोड़े कपड़ों और एक जोड़ी चप्पल में बरसों गुज़ार देते थे.  अमेरिका ने उन्हें दुनिया के महान मानवतावादियों में शुमार क़रार दिया है.

उनका जन्म 1 जनवरी 1928 को गुजरात के बंटवा में हुआ था. उनके पिता अब्दुल शकूर ईधी का जूनाग़ढ़ में कपड़े का कारोबार था. अब्दुल सत्तार ईधी बचपन से ही दूसरों का भला चाहने वाले थे. बचपन में उनकी मां ग़ुरबा ईधी उन्हें दो पैसे दिया करती थीं. एक पैसे वे ख़ुद पर ख़र्च करते और एक पैसा किसी ज़रूरतमंद को दे दिया करते थे. वे जब सिर्फ़ 11 साल के थे, तब उनके मां को लकवा मार गया था, जिससे उनके दिमाग़ पर भी असर हुआ. उन्होंने अपनी मां की जी-जान से ख़िदमत की.

साल 1947 में बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. वहां उन्होंने ठेला लगाकर कपड़े बेचे, फेरी भी लगाई. फिर वे कराची के थोक बाज़ार में कपड़ों के एजेंट बन गए. कुछ वक़्त बाद उनकी मां का इंतक़ाल हो गया. मां की मौत का उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. उन्होंने काम छोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी समाज को समर्पित कर दी. वे दिन रात मेहनत-मज़दूरी करके जनसेवा के लिए पैसे इकट्ठे करते. उनके एक दोस्त हाजी ग़नी उस्मान ने उनकी मदद की. उनसे मिलने वाले पैसों से उन्होंने एक गाड़ी ली, एक डिस्पेंसरी खोली और एक तंबू में चार बिस्तरों का अस्पताल स्थापित किया. उन्होंने गाड़ी चालनी सीखी और इसी गाड़ी को एम्बुलेंस के तौर पर इस्तेमाल करने लगे. वे कहते थे, "मैंने ज़िंदगी में कभी कोई और गाड़ी नहीं चलाई, 48 साल तक सिर्फ़ एंबुलेंस चलाई." अस्पताल में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता था.  उन्हें दवाइयां भी मुफ़्त दी जाती थीं. वे अपनी एंबुलेंस में दिन भर शहर के चक्कर लगाते रहते और जब भी किसी ज़रूरतमंद या ज़ख़्मी को देखते, तो उसे फ़ौरन अपने अस्पताल ले आते. अस्पताल के ख़र्च पूरे करने के लिए वे रात को शादियों में जाकर बर्तन धोते थे, दूध बेचते थे, अख़बार बेचते थे. उन्हें लोगों की मदद मिलने लगी. उन्होंने पत्नी बिलकिस के साथ मिलकर ईधी फ़ाउंडेशन की स्थापना की. किसी भी तरह के भेदभाव के बिना फ़ाउंडेशन की सेवाओं सभी को दी जाती हैं.  वे कहते थे, " कई सालों तक लोग मुझसे शिकायत करते और पूछते थे कि " आप ईसाई और हिन्दुओ को क्यों अपनी एम्बुलेंस में ले जाते हो? और तब मैं कहता, " क्योंकि मेरी एम्बुलेंस तुम लोगो से ज़्यादा बड़ी मुस्लिम है." वे कहते थे, "सिर्फ़ मुसलमानों का काम न करो, तमाम इंसानियत का काम करो."
वे कहते थे, "मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

उनकी मदद की पहली सार्वजनिक अपील पर दो लाख रुपये का चंदा इकट्ठा हुआ था. उनका कहना था, "ये मेरी नीयत नहीं थी कि मैं किसी के पास जाकर मांगूं, बल्कि मैं चहता था कि क़ौम को देने वाला बनाऊं. फिर मैंने फ़ुटपाथों पर खड़ा रहकर भीख मांगी. थोड़ी मिली, लेकिन ठीक मिली. जल्द ही लोग आते गए और कारवां बनता गया.

साल 1997 में इदी फ़ाउंडेशन को गिनीज़ बुक में दर्ज किया गया. गिनीज विश्व कीर्तिमान के मुताबिक़ इदी फ़ाउंडेशन के पास दुनिया की सबसे बड़ी निजी एम्बुलेंस सेवा हैं. यह फ़ाउंडेशन पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देशों में सेवाएं दे रही है. इदी फ़ाउंडेशन तक़रीबन 330 कल्याण केंद्र चला रही है, जिनमें अस्पताल, औषधालय, अनाथालय, महिला आश्रम, बुज़ुर्गों का आश्रम और कई पुनर्वास केंद्र शामिल है. ईधी फ़ाउंडेशन ने तक़रीबन 40 हज़ार नर्सों को प्रशिक्षण दिया है. फ़ाउंडेशन के अनाथालय में 50 हज़ार बच्चे हैं.

सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें साल 1986 रमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके बाद उन्हें साल 1988 में लेनिन शांति पुरस्कार, 1992 में पाल हैरिस फ़ेलो रोटरी इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन सम्मान मिला. फिर उन्हें साल 2000 में अंतर्राष्ट्रीय बालजन पुरस्कार और 26 मार्च 2005 को आजीवन उपलब्धि पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे कई बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए. इस साल भी उन्हें नोबेल के लिए नामांकित किया गया था.

अब्दुल सत्तार ईधी दूसरे मज़हबों का सम्मान करते थे. वे कहते थे, मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

ग़लती से भारत से पाकिस्तान पहुंचने वाली मूक-बधिर गीता को ईधी फ़ाउंडेशन ने ही आसरा दिया था. ईधी ने गीता भारत वापसी में अहम मदद की थी. उन्होंने ही गीता को उनका नाम दिया था. गीता का कहना है कि ईधी साहब मुझसे पिता की तरह स्नेह करते थे और मेरा अच्छी तरह ख़्याल रखते थे. उन्होंने मुझे रहने के लिए अलग कमरा भी दिया था. इसके साथ ही मेरी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए मुझे हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें भी लाकर दी थीं, ताकि मैं पूजा-अर्चना कर सकूं.
गीता का ख़्याल रखने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने ईधी फ़ाउंडेशन को  एक करोड़ रुपये का दान देने की घोषणा की थी, लेकिन फ़ाउंडेशन के संस्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने इस रक़म को लेने से साफ़ इंकार कर दिया था. उनका कहना था कि वे ख़िदमत के बदले पैसे क़ुबूल नहीं कर सकते.

उन्होंने एक बार कहा था - "मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं हूं, लेकिन मैंने मार्क्स और लेनिन की किताबें पढ़ी हैं. कर्बला वालों की ज़िन्दगी भी पढ़ी है. मैं तुम्हें बताता हूं असल जंग किसकी है. अस्ल जंग अमीर और ग़रीब की है, ज़ालिम और मज़लूम की है."

उन्होंने अपने अंगों को दान करने की भी वसीयत की थी. उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनकी आंखें दान कर दी गईं, लेकिन जिस्म के दूसरे हिस्से दान करने लायक़ नहीं रह गए थे, इसलिए वे दान नहीं किए जा सके. साल 2013 से वे गुर्दों की बीमारी से पीड़ित थे. सिंध इंस्टीट्यूट ऑफ़ यूरोलॉजी एंड ट्रांसप्लांटेशन में उनका इलाज चल रहा था, जहां 8 जुलाई को उनका इंतक़ाल हो गया. अगले दिन 9 जुलाई को उन्हें राजकीय सम्मान के साथ सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. उन्हें उसी क़ब्र में दफ़नाया गया, जो उन्होंने अपने लिए खोद कर रखी थी.  उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उन्हीं कपड़ों में उन्हें दफ़नाया गया, जिन कपड़ों में उनका इंतक़ाल हुआ था.  उन्होंने औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी. वे कहते थे, "दुनिया के ग़म ही मेरे उस्ताद हैं और ये ही मेरी बुद्धि और ज्ञान का स्त्रोत हैं."

अब्दुल सत्तार ईदी के नाम से संचालित अकाउंट से बताया गया कि उनके आख़िरी शब्द थे, “मेरे मुल्क के ग़रीबों का ख़्याल रखना.” एक और ट्वीट में कहा गया, "उन्होंने अपने एकमात्र सक्रिय अंग आंखों को दान कर दिया. अपना सबकुछ वो पहले ही दान कर चुके थे."

उनका कहना था, " पवित्र किताब सिर्फ़ हमारी गोद ही में खुली नहीं रहनी चाहिए, बल्कि वह हमारे दिमाग़ में भी खुली रहनी चाहिए. अपने दिल को खोलिये और अल्लाह के बनाये लोगो को देखिये, उनकी सेवा में तुम उसे पा लोगे. ख़ाली लफ़्ज़ और लम्बी दुआएं अल्लाह को मुतासिर नहीं करतीं. अपने आमाल से भी अपने ईमान को दिखाना चाहिए."

अब्दुल सत्तार ईदी को सच्ची ख़िराजे-अक़ीदत यही होगी कि उनकी तरह हम भी ख़ुदा के उन बंदों की मदद करें, जिन्हें मदद की ज़रूरत है और उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिल पा रही है. ख़ुदा की मख़्लूक की ख़िदमत करके ही खु़दा को पाया जा सकता है.

अमनदीप
वर्ष 2008 में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक ऐसे संकट की चपेट में है जिसमें से यह अभी तक निकल नहीं सकी है और भविष्य में भी निकल सकने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही. पर पूँजीपति वर्ग अपने संकट का बोझ हमेशा से आम मेहनतकश लोगों पर डालता आया है. वैसे तो संसार की व्यापक मेहनतकश आबादी पूँजीवादी व्यवस्था में सदा महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी आदि समस्याओं से जूझती रहती है पर मन्दी के दौर में ये समस्याएँ और बड़ी आबादी को अपने शिकंजे में ले लेती हैं. बेरोज़गारों की लाइनें और तेज़ी से लम्बी होती हैं और रोज़गारशुदा आबादी की आमदनी में गिरावट आती है. इसी कारण से आज संसार के सबसे विकसित मुल्कों में भी आम लोगों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है. पूँजीवादी व्यवस्था की बिगड़ती हालत को उजागर करते हुए रोज़ नये आँकड़े सामने आ रहे हैं. ब्रिटेन के नामी अखबार ‘गार्जियन’ की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, इटली, स्पेन और जर्मनी में 2008 के संकट के बाद के ‘मन्द मन्दी’ के दौर में लोगों की, ख़ास तौर पर नौजवानों का जीवन स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है. इन मुल्कों में 22 से 35 वर्ष आयु की नौजवान मेहनतकश आबादी बेरोज़गारी और कम वेतन के कारण कर्ज़ों में डूबी हुई है. इन्हीं आठ में से पाँच देशों के नौजवान जोड़ों और परिवारों की आमदनी बाकी वर्गों से 20 फ़ीसदी कम है. जबकि इससे पिछली पीढ़ी के लोग 1970 और 1980 के दशक में औसत राष्ट्रीय आमदनी से कहीं ज़्यादा कमाते थे. युद्धों या प्राकृतिक आपदाओं के बाद, पूँजीवाद के इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ है जब नौजवान आबादी की आमदनी समाज के बाकी वर्गों से बहुत नीचे गिरी है.
विकसित मुल्कों के लोग अपने भविष्य को लेकर काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. ‘इप्सोस मोरी’ नामक ब्रिटिश एजेंसी के सर्वेक्षण के अनुसार 54 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि आने वाली पीढ़ी की हालत पिछली पीढ़ी से भी बदतर होगी. इसका कारण है कि एक तरफ तो क़ीमतों और किरायों में निरन्तर वृद्धि हो रही है और दूसरी तरफ व्यापक आबादी के लिए रोज़गार के अवसर और वेतन लगातार कम होते जा रहे हैं. सन् 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित पूँजीवादी देशों में लगभग 3 करोड़ नौजवान शिक्षा और रोज़गार से वंचित हैं. यूनान जो कि इस रिपोर्ट का हिस्सा नहीं है, उसके हालात तो और भी भयानक हैं. यूनान की 60 फ़ीसदी से भी ज़्यादा नौजवान आबादी बेरोज़गार है. मकान की क़ीमतें पिछले 20 वर्षों में किसी भी और समय से ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं. इन देशों में जल्दी ही ऐसे लोगों की गिनती 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हो जायेगी जिनके पास अपना घर नहीं है. इस आर्थिक तंगी का असर लोगों के सामाजिक जीवन में भी दिख रहा है. 1980 के मुकाबले एक औरत विवाह करने के लिए 7.1 वर्ष ज़्यादा इन्तज़ार करती है और बच्चा पैदा करने की औसत आयु 4 वर्ष बढ़ गयी है. ज़्यादातर लोग यह जानकर परेशान हैं कि वह सारी उम्र काम करके भी कर्ज़दार रहेंगे और अपना घर नहीं खरीद सकेंगे.
आम तौर पर पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सापेक्षिक रूप से मज़दूरों और अन्य कामगारों के वेतन कम करता है. उदाहरण के लिए मज़दूरों का वेतन बढ़ाये बिना जब उनके द्वारा तैयार माल की क़ीमत बढ़यी जाती है तो सापेक्षिक रूप में उनका वेतन कम कर दिया जाता है. पर अमेरिका और इटली में निरपेक्ष तौर पर भी वेतन कम हुआ है. अमेरिका में औसत मज़दूरी 1979 में 29,638 यूरो से गिरकर 2010 में 27,757 यूरो हो गयी. फ्रांस, अमेरिका और इटली में नौजवान मेहनतकश लोगों की आमदनी पैंशन ले रहे रिटायर वर्ग से कम है.
‘गार्जियन’ अख़बार के लेखकों ने जिस तरह ये आँकड़े पेश किये हैं, उन्होंने लोगों के ग़ुस्से को ग़रीबी, बेरोज़गारी और ख़राब होती जीवन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार इस आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था से हटाकर इनके मुकाबले पेंशन पर जी रहे रिटायर वर्ग की ओर मोड़ने की कोशिश की है. उन्होंने ‘यूरोपीय केंद्रीय बैंक’ के प्रमुख मारियो द्राघी के हवाले से कहा है कि ”कई देशों में सख़्त श्रम क़ानून पक्की नौकरियों और ज़्यादा वेतन वाले कुछ पुराने लोगों को बचाने के लिए बनाये गये हैं. इसका नुकसान नौजवानों को होता है. जो कम वेतन और ठेके पर काम करने के लिए मजबूर हैं और मन्दी की हालतों में सबसे पहले बेरोज़गार होते हैं”. पक्की नौकरियाँ, ज़्यादा वेतन और सभी के लिए उच्च जीवन स्तर की माँग करने के बजाय नौजवानों को पेंशन ले रहे रिटायर वर्ग के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा है.
यह कोई नयी घटना नहीं है. मौजूदा लुटेरी व्यवस्था इसी तरह काम करती है. आर्थिक संकट के दौर में यह घटना और तेज़ हो जाती है और ज़्यादा स्पष्ट नज़र आती है. असल में दूसरे विश्व युद्ध के बाद मज़दूर इंकलाब के डर से जो सहूलियतें इन मुल्कों की हुकूमतों ने ‘पब्लिक सेक्टर’ खड़ा करके पिछली पीढ़ियों को दी थीं, उससे विकसित देशों की आम आबादी की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हुईं और उनका जीवन स्तर ऊँचा उठा था. पर आज किसी समाजवादी राज और किसी बड़े जन-आन्दोलन की नामौजूदगी की हालत में पूँजीवादी सत्ता आर्थिक संकट से निपटने के लिए जन कल्याण के वे सारे पैकेज, पेंशनें, बेरोज़गारी भत्ते आदि ख़त्म कर रही है और सारे क्षेत्र मुनाफ़ाख़ोर पूँजीपतियों के हाथों में दे रही है. साथ ही इन नीतियों के परिणाम स्वरूप लोगों में पैदा हो रहे आक्रोश को कुचलने के लिए फासीवादियों को सत्ता में तैनात कर रही है.
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट के कारण पूँजी की अपनी चाल में ही समाये हुए हैं. इस समय विश्व पूँजीवादी-साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था भीषण संकट का शिकार है और इसमें से निकलने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही. यह संकट आने वाले समय में और भी गहरा होगा और लोगों की बेचैनी भी बढ़ेगी. इंक़लाबी ताक़तों की कमज़ोरी की हालत में फासीवादियों का उदय हो रहा है. विश्व भर में ये फासीवादी लोगों के ग़ुस्से को धार्मिक अल्पसंख्यकों, कम्युनिस्टों, मज़दूरों और मेहनतकशों के विरुद्ध मोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं. आज ज़रूरी है कि इंक़लाबी ताक़तें मज़दूरों और मेहनतकशों को उनके ऐतिहासिक मिशन से परिचित करवाएं. वह मिशन पूँजीवाद को जड़ से मिटाने के लिए समाजवादी इंकलाब करने का है क्योंकि सिर्फ़ समाजवादी व्यवस्था ही लोगों को इस लुटेरी व्यवस्था की मुसीबतों से आज़ाद कर सकती है.

मानव
पिछले 7 जून को विश्व बैंक ने विश्व अर्थव्यवस्था के अपने नये मूल्यांकन में इसकी वृद्धि दर को फिर घटा दिया है. विश्व बैंक ने जनवरी में किये अपने पहले अनुमान 2.9% से कम करके वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर 2016 में 2.4% रहने का अनुमान लगाया है. विश्व बैंक के अर्थशास्त्री ऐहान कोजे़ ने कहा, “विश्व अर्थव्यवस्था की हालत नाज़ुक है. वृद्धि दर कमज़ोर स्थिति में है.” विश्व बैंक का यह ताज़ा अनुमान अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय कोष (आई.एम.एफ़.) की ओर से अप्रैल में किये गये 3.2% के अनुमान से भी कम है.
मार्क्सवादी दायरों में तो इस बात की सम्भावना पहले ही ज़ाहिर की जा रही थी कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक नये और गहरे आर्थिक संकट के दहाने पर खड़ी है लेकिन बुर्जुआ अर्थशास्त्री हकीकत से मुँह फेरकर हालत सुधरने के दावे किये जा रहे थे. जब कभी एक-आध महीने के लिए कुछ आँकड़े सकारात्मक नज़र आने लगते तो पूरी तस्वीर के एक छोटे से पहलू के रूप में इसे देखने के बजाय वे फ़ौरन आर्थिक संकट के अन्त की भविष्यवाणी करने लगते. लेकिन मौजूदा समय में जो सच्चाई एकदम सामने है उसे किसी भी तरह नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि बात सिर्फ अमेरिका या किसी एक-आध देश की नहीं है, बल्कि पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था की है जिसको आधार बनाकर ऐसे निराशावादी रुझान अब पेश किये जा रहे हैं. चाहे अमेरिका हो या लातिनी अमेरिका, यूरोपीय यूनियन हो या फिर जापान, चीन या अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाएँ, सबकी हालत इस समय पतली है.
और इस सिकुड़ते वैश्विक व्यापार के बीच, वैश्विक स्तर पर पैदा हो रहे अधिशेष मूल्य में से अपना हिस्सा बरकरार रखने के लिए या उसको बढ़ाने के लिए विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच आपसी खींचतान भी तीखी होती जा रही है. अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए सभी देश नये व्यापारिक गँठजोड़ क़ायम कर रहे हैं, अपने लिए वक्ती तौर पर नये सहयोगी ढूँढ़ रहे हैं. नये पैदा हुए इस भू-राजनीतिक तनाव के केन्द्र में विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, अमेरिका और चीन हैं और बाकी देश इनके इर्द-गिर्द अपने-आप को व्यवस्थित कर रहे हैं.
अमेरिका और चीन के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा का सबसे नया इज़हार मई के आखिरी हफ्ते में अमेरिकी अन्तरराष्ट्रीय व्यापार कमीशन की ओर से चीनी इस्पात कम्पनियों के ख़िलाफ़ शुरू की गयी जाँच-पड़ताल है जिसके तहत अमेरिकी इस्पात उद्योग की ओर से यह इल्ज़ाम लगाया गया है कि चीनी इस्पात कम्पनियों ने उनकी गुप्त जानकारियों को चुराया है और चीनी कम्पनियाँ अमेरिकी इस्पात कम्पनियों को नुकसान पहुँचाने के लिए जान-बूझकर अपनी क़ीमतें कम कर रही हैं. जहाँ तक गुप्त जानकारी चोरी करने की बात है, तो सभी बड़ी कम्पनियाँ इस काम में लगी ही रहती हैं, मगर अमेरिका के दूसरे दावे में सच्चाई है. इस समय चीन में इस्पात की अतिरिक्त पैदावार है. एक साल में जितना इस्पात पूरा यूरोप पैदा करता है, उससे ज़्यादा चीन पैदा करता है. सस्ती श्रम-शक्ति के आधार पर चीन ने विशालकाय इस्पात उद्योग खड़ा किया है और यह इस्पात वह अमेरिका में सस्ते दाम पर बेच रहा है. इससे उन अमेरिकी कम्पनियों के लिए मुकाबले में टिके रहने का संकट पैदा हो गया है जो स्थानीय महँगे श्रम पर निर्भर हैं. कई अमेरिकी इस्पात कम्पनियाँ बन्द भी हो चुकी हैं जिसके चलते हजारों अमेरिकियों का रोज़गार छिन गया है. इसी को आधार बनाकर अनेक ”राष्ट्रवादी” ताक़तें और उनके प्रतिनिधि अमेरिका में चुनावों के मौसम को देखते हुए दावा कर रहे हैं कि इन खोये रोज़गारों की वजह पूँजीवादी ढाँचा नहीं बल्कि चीन है. इस सबका एक दूसरा पहलू यह भी है की चीन के इस बड़े इस्पात उद्योग ने पिछले कुछ समय से वैश्विक अर्थव्यवस्था के गहरे आर्थिक संकट में कुछ राहत भी दे रखी थी और साथ ही कई अमेरिकी कम्पनियाँ चीन से आने वाले सस्ते इस्पात पर निर्भर भी हैं.
अमेरिकी कम्पनियों के इस आरोप पर चीनी कम्पनियों ने तीखा जवाब देते हुए कहा है कि अमेरिका विश्व व्यापार संगठन के मुक्त व्यापार के नियमों के ख़िलाफ़ जा रहा है. पूँजी का तर्क यही है कि यह ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफे़ वाले क्षेत्रों की ओर भागती है और सस्ती श्रम-शक्ति अधिक मुनाफे़ की गारंटी है. अमेरिकी कम्पनियाँ और विश्व की सारी कम्पनियाँ यही करती हैं कि जहाँ सस्ते से सस्ता श्रम उपलब्ध हो सकता है वहाँ अपने कारख़ाने स्थानांतरित करके अधिक मुनाफ़ा कमाने की फ़िराक में रहती हैं. अमेरिका की परेशानी का सबब सिर्फ यह है कि उसके वैश्विक प्रभुत्व को अब चीन से चुनौती मिल रही है, अधिशेष मूल्य में उसका हिस्सा चीन हथिया रहा है, इसीलिए अमेरिका चीन के ऊपर इस तरह का दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है.
अमेरिका के इस विरोध का दूसरा कारण यह है कि चीन पिछले लम्बे समय से विश्व व्यापर संगठन में बाज़ार अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल करने की कोशिश कर रहा है. यह दर्जा मिलने से चीन बिना किसी रोक-टोक के अपने सस्ते माल को अमेरिका समेत दूसरे देशों में भेज सकेगा (जिसको अर्थशास्त्री ‘डम्पिंग’ भी कहते हैं). अमेरिका चीन को यह दर्जा दिये जाने के ख़िलाफ़ है क्योंकि यह दर्जा मिलने के बाद अमेरिका चीन की इस हरकत के बदले उसके ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई करने की माँग नहीं कर सकेगा. दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका के परम्परागत सहयोगी इंग्लैण्ड ने भी चीन की इस दावेदारी का समर्थन किया है. इंग्लैण्ड देख रहा है कि बिगड़ती आर्थिक हालत के मद्देनज़र चीन से उम्मीद रखना अधिक फायदेमन्द है. लन्दन पूरे विश्व की वित्तीय गतिविधियों का केन्द्र है और चीनी निवेशक इस समय भारी मात्रा में विदेशी बांडों और कम्पनियों में निवेश कर रहे हैं. इंग्लैण्ड भी इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहता है.
व्यापार युद्ध का बढ़ता ख़तरा
वैश्विक स्तर पर अतिउत्पादन के हालात, सिकुड़ रहा व्यापार, गिर रही उत्पादकता और अपनी मन्द अर्थव्यवस्थाओं के चलते वैश्विक स्तर पर अधिशेष मूल्य के बँटवारे को लेकर पूँजीवादी देशों के बीच होड़ तीखी होती जा रही है. अपने देशों के पूँजीपतियों के हितों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न देशों की पूँजीवादी सरकारें संरक्षणवादी नीतियों पर चल रही हैं जिसके चलते वैश्विक पैमाने पर व्यापार युद्ध छिड़ने का ख़तरा बढ़ गया है. बिलकुल उसी तरह का जिस तरह का 1929 की महामन्दी के बाद पैदा हुआ था जिसका अन्त दूसरे विश्व युद्ध के महाविनाश के रूप में हुआ. इस व्यापार युद्ध में आज केवल अमेरिका और चीन ही अगुआ नहीं हैं. यदि हम विश्व के बड़े पूँजीवादी देशों की पिछले दो साल की विदेश नीति और कूटनीति को देखें तो पता चलता है कि किस तरह एक व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से सभी साम्राज्यवादी देशों की इन नीतियों में बदलाव आया है. चाहे वह अमेरिका की ओर से चीन को घेरने के लिए ट्रांस-पैसिफिक सहकारिता (टीपीपी) के तहत बनाया जाने वाला गँठजोड़ और बदले में चीन की ओर से लातिनी अमेरिका, एशिया और मध्य-पूर्व में विभिन्न सन्धियों के ज़रिए अपना एक अलग गँठजोड़ क़ायम करना हो, चाहे वह इंग्लैण्ड के अन्दर आर्थिक राष्ट्रवाद का फैलाया जा रहा प्रचार हो (जिसकी तीखी अभिव्यक्ति अब इंग्लैण्ड के यूरोपीय यूनियन में रहने या ना रहने को लेकर होने वाले मतदान के रूप में सामने आ रही है). चाहे वह जर्मनी द्वारा पिछले दो साल से लगातार अपने सैन्य खर्चे में बढ़ोत्तरी करना और इसके राजनीतिज्ञों द्वारा लगातार जर्मनी को वैश्विक पटल पर उसकी आर्थिक हैसियत के अनुसार भूमिका निभाने की वकालत करना हो और चाहे जापान द्वारा दूसरे विश्व-युद्ध के बाद अपने संविधान में दर्ज की गयी शान्तिवादी धारा को ख़त्म करना और सैन्य खर्चों में लगातार वृद्धि करना हो. ये सभी घटनाक्रम बड़ी पूँजीवादी शक्तियों के बीच तीखी होती होड़ के नतीजे हैं.
इतिहास का तथ्य यही है कि पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े के लिए युद्ध जैसे अपराधों को लगातार अंजाम देता रहा है. आज इसके मुकाबले के लिए और इसे रोकने के लिए गाँधीवादी, शान्तिवादी कार्यक्रमों और अपीलों की नहीं बल्कि एक रैडिकल, जुझारू अमन-पसन्द आन्दोलन की ज़रूरत है जिसकी धुरी में मज़दूर वर्ग के वर्ग-संघर्ष के नये संस्करण होंगे.

मुकेश त्यागी
मई 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार आई थी तो जनता ख़ासकर नौजवानों को बड़े सपने दिखाये गये थे, वादे किये गये थे – देश का चहुँमुखी विकास होगा, आर्थिक तरक़्क़ी की रफ़्तार तेज़ होगी, हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोज़गार मिलेगा. अभी 31 मई को भी सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर के बढ़ने की घोषणा द्वारा यही बताने की कोशिश की – बताया गया कि मार्च 2016 में खत्म हुई तिमाही में जीडीपी 7.9% की दर से बढ़ी और पूरे 2015-16 के वित्तीय वर्ष में 7.6% की दर से. टीवी और अख़बारों द्वारा ज़बर्दस्त प्रचार छेड़ दिया गया कि इस सरकार के निर्णायक और साहसी आर्थिक सुधारों की वजह से अर्थव्यवस्था संकट से बाहर आ गयी है; भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है और अब तेज़ी से विकास हो रहा है जिससे जनसाधारण के जीवन में भारी समृद्धि आने वाली है. आइये हम इन दावों और तथ्यों को थोड़ा गहराई से जाँचते हैं ताकि इसकी असलियत सामने आ सके.
अगर जीडीपी की वृद्धि की तस्वीर को ध्यान से देखें तो सरकार के जीडीपी में 7.9% वृद्धि के दावे पर ही सवाल उठ रहा है – कुल 221,744 करोड़ रुपये की वृद्धि में सबसे बडा आइटम है ‘गड़बड़ी’ या ‘विसंगतियाँ’ – सारी वृद्धि का 51% यही है; इसे निकाल दीजिये तो यह वृद्धि सिर्फ 3.9% ही रह जाती है. इन ‘गडबड़ियों’ की कोई व्याख्या नहीं दी गयी है. फिर इसको क्या समझा जाये? जीडीपी में वृद्धि के इस दावे पर कैसे भरोसा किया जाये? ख़ुद भारतीय पूँजीपति वर्ग के मुखपत्र ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ को भी 3 जून के अपने एक लेख ‘7.6%, भारत सबसे तेज़ वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था या सर्वश्रेष्ठ आँकड़ों की हेराफेरी’ में कहना पडा कि ‘’7.6% वृद्धि – नंगा राजा को ख़ुश करने के लिये आँकड़ों की बावली हेराफेरी है’. काफ़ी छीछालेदर के बाद सरकार ने भी बेशर्मी के साथ यह स्वीकार किया कि विकास के दिये गये आँकड़ों में ग़लतियाँ हैं.
एक और पक्ष को देखें तो इस वृद्धि का दूसरा बडा हिस्सा है निजी उपभोग में 127,000 करोड़ का इज़ाफ़ा! लेकिन अगर निजी उपभोग इतनी तेज़ी से बढा है तो ये उपभोग लायक वस्तुएँ आयीं कहाँ से क्योंकि सरकार द्वारा ही प्रस्तुत दूसरे आँकड़े बताते हैं कि इस दौर में औद्योगिक उत्पादन सिर्फ 0.1% बढा है! दुनिया के किसी देश में आजतक ऐसा किसी अर्थशास्त्री ने नहीं पाया कि बगैर औद्योगिक उत्पादन बढ़े ही जीडीपी इतनी तेज़ी से बढ़ जाये. इसी बात को दूसरी तरह से समझते हैं – जीडीपी के आँकड़े यह भी बताते हैं कि स्थायी पूँजीगत निर्माण अर्थात अर्थव्यवस्था में पूँजी निवेश 17 हज़ार करोड़ घट गया है. सवाल उठना लाज़िमी है कि अगर अर्थव्यवस्था में इतना सुधार और तेज़ी है तो सरकार व निजी पूँजीपति दोनों नया पूँजी निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिये कि उन्हें ख़ुद इस प्रचार की सच्चाई पर भरोसा नहीं? ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ इसका मज़ाक उड़ाते हुए कहता है कि ‘निजी उपभोग में आकाश छूने वाली 127,000 करोड़ की वृद्धि दिखायी गयी है. हम ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानते जिसका उपभोग हाल के दिनों में इतना बढ़ा हो. हो सकता है टीसीए अनन्त (भारत के सांख्यिकी प्रधान) या उसके बॉस जेटली या उसके बॉस के बॉस नरेन्द्र मोदी के ऐसे कुछ दोस्त हों जिनका उपभोग इतना बढा हो’. ऐसे भी देखा जाये तो जब देश में एक तरफ भारी सूखे की स्थिति है, देश के निर्यात में लगातार 15 महीने से गिरावट आ रही है, नौजवानों को नये रोज़गार नहीं मिल रहे हैं, जिनके पास रोज़गार है उनका वेतन महँगाई के मुकाबले नहीं बढ़ रहा है, सभी को मालूम है कि किसानों की आर्थिक दशा बेहद संकट में है, सरकार ख़ुद संसद में बता रही है कि खेतिहर श्रमिकों की मज़दूरी पिछले दो वर्षों से गिर रही है, तब ऐसी स्थिति में देश का ऐसा कौन सा तबका है जिसका उपभोग इतनी तेज़ी से बढ़ गया कि उसकी वजह से जीडीपी में इतना भारी उछाल आया है! इन सवालों के उठने पर ख़ुद प्रधान आँकड़ेबाज़ टीसीए अनन्त को स्वीकार करना पड़ा कि इन आँकड़ों की ‘गुणवत्ता’ में बहुत कमियाँ हैं.
फिर सरकार एक और हैरतअंगेज़ तर्क लेकर आयी कि कृषि में वृद्धि दर 2.3% है – क्या देश के लगभग एक-तिहाई हिस्से में दो साल से चल रहे भयंकर सूखे की स्थिति में कोई इस बात का भरोसा करेगा क्योंकि कृषि में ऐसी वृद्धि सिर्फ अच्छे मानसून के सालों में ही देखी गयी है. लेकिन कुछ दूसरे तथ्यों के आधार पर इस बात को जाँचते हैं. सरकार कहती है कि गेहूँ का उत्पादन बढ़कर 86 लाख टन हुआ है लेकिन मण्डियों में अब तक पिछले वर्ष के 29 लाख टन के मुकाबले 25 लाख टन गेहूँ ही आया है तो फिर बढ़ा हुआ उत्पादन कहाँ गया! कोई कहे कि भारत के किसान एक साल में इतने अमीर हो गये कि अच्छी क़ीमत के इन्तजार में फसल को दबाये बैठे हैं तो उन्हें शायद दिमागी डॉक्टर की ज़रूरत है. कृषि में इस 2.3% वृद्धि को आज की स्थिति में सभी कृषि विशेषज्ञ अविश्वसनीय मान रहे हैं.
एक और तरह से भी स्थिति को समझ सकते हैं – बैंक क्रेडिट (कर्ज़) में वृद्धि पिछले वर्ष 8-9% रही है जिसका भी बडा हिस्सा पर्सनल/हाउसिंग/क्रेडिट कार्ड कर्ज़ का है, औद्योगिक नहीं, बल्कि अप्रैल में तो औद्योगिक कर्ज़ में वृद्धि शून्य है! मतलब ख़ुद भारतीय कारोबारी नया निवेश नहीं कर रहे – उन्हें सरकारी योजनाओं के ऐलान से मतलब नहीं क्योंकि अर्थव्यवस्था की ज़मीनी हालत पर उन्हें भरोसा नहीं है! इसीलिये जीडीपी में स्थायी पूँजी निर्माण 17 हज़ार करोड़ घट गया है अर्थात नये पूँजी निवेश के मुकाबले पूँजी ह्रास (कमी) ज़्यादा है. असल में कोई भी पूँजीपति सरकार के नारों के असर में या किसी झोंक में आकर उद्योग नहीं लगाता. उद्योग लगाने का मकसद होता है अधिक से अधिक मुनाफ़ा. अगर मुनाफे़ का भरोसा न हो तो किसी योजना या नारे की घोषणा से कुछ नहीं होता. इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी की मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, स्टैंड अप, आदि सब योजनाएँ तो गयीं पानी में!
दूसरे, अगर अर्थव्यवस्था की तस्वीर इतनी ही चमकदार है तो उद्योगों द्वारा बैंकों से लिये गये कर्ज़ इतनी तेज़ी और भयंकर मात्रा में क्यों डूब रहे हैं? ऐसे संकटग्रस्त कर्ज़ की रकम 8 लाख करोड़ पर पहुँच चुकी है और मॉर्गन-स्टैनले आदि विश्लेषक संस्थाओं के अनुसार 10 लाख करोड़ तक जाने की आशंका है. अगर देश तरक़्क़ी कर रहा है, सबसे तेज़ अर्थव्यवस्था है, जनता के उपभोग में भारी वृद्धि हो रही है, बाज़ार में माँग बढ़ रही है, व्यवसाय तरक़्क़ी कर रहा है तो कॉरपोरेट जगत लिये गये कर्ज़ को दबाकर क्यों बैठा है? यह बात सच है कि इसका एक हिस्सा तो पिछले व वर्तमान शासकों के संरक्षण में विजय माल्या या विनसम डायमंड के जतिन मेहता जैसों के द्वारा की गयी सीधी धोखाधड़ी है जिनको स्वयं सरकारी एजेंसियों के संरक्षण में देश से भाग जाने का मौका दिया गया लेकिन यही पूरी सच्चाई नहीं. ख़ुद रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि इन डूबते कर्ज़ों का मुख्य कारण धोखाधड़ी नहीं बल्कि ‘अर्थव्यवस्था में गम्भीर सुस्ती’ है! अब कौन-सी बात पर विश्वास किया जाये – सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था या गम्भीर सुस्ती की शिकार अर्थव्यवस्था?
ख़ुद वित्त मंत्री अरुण जेटली 27 मई को ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ में छपे अपने इंटरव्यू में कहते हैं कि ‘हम माँग की अनुपस्थिति में मन्दी के वातावरण में संघर्ष कर रहे हैं और इसलिए क्षमता का विस्तार नहीं हो रहा है. जब अधिक माँग होती है तब ऐसा (क्षमता विस्तार) होता है और भारी मात्रा में रोज़गार सृजित होते हैं’. आह, कितना भी छिपाओ, सच बाहर आ ही जाता है!
अब हम इसे ग़ौर से देखें कि जीडीपी में जो वृद्धि दिखायी दे भी रही है उसका स्रोत क्या है? वह क्या वास्तव में अर्थव्यवस्था के ढाँचे में किसी सुधार की तरफ इशारा करती है या कुछ और? ध्यान से देखें तो इस वृद्धि में मुख्य कारक हैं एक तो तेज़ी से बढते अप्रत्यक्ष कर (सर्विस टैक्स, एक्साइज़, वैट, आदि) – इस सरकार ने सिर्फ पेट्रोलियम पर ही 6 बार टैक्स बढ़ाया है. सर्विस टैक्स भी 2014 के 12.36% से बढ़कर अब 15% हो गया है. इन करों के संग्रह से सब्सिडी घटाकर होने वाली सरकारी आमदनी भी जीडीपी की वृद्धि के रूप में दर्ज की जाती है. लेकिन इसका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर ही पड़ता है क्योंकि ये टैक्स जनता की वास्तविक आमदनी अर्थात उसकी क्रय शक्ति को कम करते हैं और पहले से ही सिकुड़ती माँग से जूझ रही अर्थव्यवस्था में माँग को और कमज़ोर ही करेंगे.
जीडीपी में दिखने वाली वृद्धि (निजी उपभोग) का दूसरा कारक है अर्थव्यवस्था में फुलाया जा रहा नया बुलबुला; जिसके ‘अच्छे दिनों’ की उम्मीद के प्रचार की चकाचौंध में मध्यम वर्ग का मोदी-भक्त हिस्सा फँस रहा है क्योंकि वह इसे हक़ीक़त मान बैठा है! और बुलबुला फूटने पर यह तबका बिलबिलायेगा! असलियत से अच्छी तरह वाकिफ़ पूँजीपति वर्ग तो ना कर्ज़ ले रहा है ना ही नया निवेश कर रहा है लेकिन अच्छे दिनों में आमदनी बढ़ने की उम्मीद लिये मध्यम वर्ग ने अभी से कर्ज़ लेकर खर्च करना शुरू कर दिया है. 2008 के वित्तीय संकट के बाद क्रेडिट कार्ड पर लिया जाने वाला कर्ज़ बहुत घट गया था लेकिन अब फिर से क्रेडिट कार्ड पर कर्ज़ 31% की सालाना दर से बढ़ रहा है जबकि इंडस्ट्री को कर्ज में इज़ाफ़ा ज़ीरो है. मोदी जी के ‘अच्छे दिनों’ की आस में क्रेडिट कार्ड या पर्सनल लोन लेकर खर्च करने वाला यह मध्यम वर्ग समझ नहीं पा रहा है कि यह कर्ज़ा एक दिन वापस करना होगा – लेकिन रोज़गार विहीन वृद्धि के दौर में यह कर्ज़ वापस करने का पैसा आयेगा कहाँ से? 2008-09 के वित्तीय संकट के पिछले कड़वे तजुर्बे को अपने लालच में भूल रहे हैं ये!
रोज़गार : दावे, उम्मीदें और वास्तविकता
आइये अब नौजवानों की रोज़गार की उम्मीदों की वास्तविक स्थिति पर नज़र डालते हैं. कुछ दिन पहले ही हमने ख़बर देखी थी कि कैसे हर वर्ष नये रोज़गार सृजन की दर कम हो रही है और पिछले 8 वर्षों में वर्ष 2015 में अर्थव्यवस्था के आठ सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाले उद्योगों में सबसे कम केवल 1.35 लाख नये रोज़गार ही पैदा हुए. सरकारी लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार इसके मुकाबले 2013 में 4.19 लाख और 2014 में 4.21 लाख नये रोज़गार सृजित हुए थे. अगर लेबर ब्यूरो के आँकड़ों को ग़ौर से देखें तो दरअसल पिछले साल की दो तिमाहियों यानी अप्रैल-जून और अक्टूबर-दिसम्बर 2015 में क्रमशः 0.43 व 0.20 लाख रोज़गार कम हो गये!
कुछ लोग इसे सिर्फ़ मोदी-नीत भाजपा सरकार की नीतियों की असफलता बता कर रुक जा रहे हैं लेकिन हम और ध्यान से देखें तो यह इस या उस नेता, इस या उस पार्टी का सवाल नहीं है, असल में तो यह पूँजीवादी व्यवस्था के मूल आर्थिक नियमों का नतीजा है. रिजर्व बैंक के एक अध्ययन पर आधारित यह विश्लेषण काबिल-ए-ग़ौर है कि
1999-2000 में अगर जीडीपी 1% बढ़ती थी तो रोज़गार में भी 0.39% का इजाफा होता था. 2014-15 तक आते-आते स्थिति यह हो गयी कि 1% जीडीपी बढ़ने से सिर्फ 0.15% रोज़गार बढ़ता है. मतलब जीडीपी बढ़ने, पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ने से अब लोगों को रोज़गार नहीं मिलता. इसलिए जब कॉरपोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था में तेज़ी-खुशहाली बताये तो भी उससे आम लोगों को ख़ुश होने की कोई वजह नहीं बनती.
 रोज़गार की स्थिति पर आँखें खोलने वाले कुछ अन्य तथ्य नीचे दिये गये हैं :
1. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 1991-2013 के बीच भारत में 30 करोड़ रोज़गार चाहने वालों में से आधे से भी कम अर्थात 14 करोड़ को ही काम मिल सका.
2. जिनको काम मिला भी उनमें से 60% को साल भर काम नहीं मिलता.
3. कुल रोज़गार में से सिर्फ 7% ही संगठित क्षेत्र में हैं बाकी 93% असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न कोई निश्चित मासिक वेतन मिलता है और न ही प्रोविडेंट फंड आदि कोई अन्य लाभ.
4. 2015 में नयी कम्पनियाँ स्थापित होने की दर घटकर 2009 के स्तर पर पहुँच गयी है. अप्रैल 2016 में 2 हज़ार से भी कम नयी कम्पनियाँ रजिस्टर हुईं जबकि पिछले दशक में हर महीने औसतन 6 हज़ार कम्पनियाँ रजिस्टर होती थीं. पूँजीवादी व्यवस्था में नयी कम्पनियाँ नहीं आयेंगी तो रोज़गार कहाँ से मिलेगा?
5. इसके अलावा कम्पनियों का आकार घट रहा है – 1991 में 37% कम्पनियाँ 10 से ज़्यादा लोगों को रोज़गार देतीं थीं लेकिन अब सिर्फ 21% कम्पनियाँ ही ऐसी हैं.

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि आम मज़दूरों और साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मण्डी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय स्टार्ट अप वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! फ्लिपकार्ट, एल एंड टी इन्फ़ोटेक जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफ़र दिये थे वे काग़ज़ के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ज्वाइन नहीं कराया जा रहा है!
असल में देखें तो निजी सम्पत्ति और मुनाफे़ पर आधारित पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ही असाध्य बीमारी की शिकार हो चुकी है; निजी मुनाफे़-सम्पत्ति के लिए सामाजिक उत्पादन का अधिग्रहण करने वाली यह व्यवस्था आज की स्थिति में उत्पादन का और विस्तार नहीं कर सकती. कुल मिलाकर हम पूँजीवादी व्यवस्था के क्लासिक ‘अति-उत्पादन’ के संकट को देख रहे हैं. इस अति-उत्पादन का अर्थ समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं है बल्कि एक तरफ 90% जनता ज़रूरतें पूरी न होने से तबाह है, दूसरी ओर आवश्यकता होते हुए भी क्रय-शक्ति के अभाव में ज़रूरत का सामान खरीदने में असमर्थ है. इस लिए बाजार में माँग नहीं है, उद्योग स्थापित क्षमता से काफी कम (लगभग 70%) पर ही उत्पादन कर रहे हैं. अतः न पूँजीपति निवेश कर रहे हैं और न ही रोज़गार पैदा हो रहा है. बल्कि पूँजीपति मालिक अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए और भी कम मज़दूरों से और भी कम मज़दूरी पर ज़्यादा से ज़्यादा काम और उत्पादन कराना चाहते हैं. इसलिए पिछले कुछ समय में देखिये तो आम श्रमिकों के ही नहीं अपने को सफ़ेद कॉलर मानने वाले अभिजात श्रमिकों के भी काम के घण्टों में लगातार वृद्धि हो रही है.
इस संकट से निकलने का कोई तरीका न पिछली मनमोहन सरकार के पास था न अब की मोदी-जेटली की जोड़ी के पास और न ही बहुत से लोगों की उम्मीद आईएमएफ़ वाले रघुराम राजन के पास है, क्योंकि आख़िर इन सबकी नीतियाँ एक ही हैं – पूँजीपति वर्ग की सेवा! और सिर्फ ब्याज की दरें घटाने-बढ़ाने से बाज़ार माँग को नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि जिसकी जेब में पैसा है वही ब्याज के बारे में सोच सकता है ना भाई! ग़रीब मज़दूर-किसानों की कंगाली की हालत तो हम पहले से ही जानते हैं लेकिन थोड़ी बेहतर हालत वाले मध्यम वर्गीय लोग जो पहले कुछ बचत कर लेते थे उनकी स्थिति भी अब ऐसी हो गयी है कि बैंकों में जमा होने वाले धन की वृद्धि दर घटकर पिछले 60 सालों में सबसे कम सिर्फ़ 9% पर आ गयी है! अर्थव्यवस्था की ऐसी स्थिति में न नये उद्योग धन्धे लगने वाले हैं, न नये रोज़गार मिलने वाले हैं. यही है ‘अच्छे दिनों’ की हक़ीक़त; बाकी भाषण तो बस भाषण हैं, उनका क्या! उनसे जनता की ज़िन्दगी नहीं सुधरती.

फ़िरदौस ख़ान
गंगा-जमुनी तहज़ीब हमारे देश की रूह है. संतों-फ़क़ीरों ने इसे परवान चढ़ाया है. प्रेम और भाईचारा इस देश की मिट्टी के ज़र्रे-ज़र्रे में है.  कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारे देश की संस्कृति के कई इंद्रधनुषी रंग देखने को मिलते हैं. प्राकृतिक तौर पर विविधता है, कहीं बर्फ़ से ढके पहाड़ हैं, कहीं घने जंगल हैं, कहीं कल-कल करती नदियां हैं, कहीं दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान है, तो कहीं नीले समन्दर का चमकीला किनारा है. विभिन्न इलाक़ों के लोगों की अपनी अलग संस्कॄति है, अलग भाषा है, अलग रहन-सहन है और उनके खान-पान भी एक-दूसरे से काफ़ी अलग हैं. इतनी विभिन्नता के बाद भी सबमें एकता है, भाईचारा है, समरसता है. लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं. देश के किसी भी इलाक़े में कोई मुसीबत आती है, तो पूरा देश इकट्ठा हो जाता है. कोने-कोने से मुसीबतज़दा इलाक़े के लिए मदद आने लगती है. मामला चाहे, बाढ़ का हो, भूकंप का हो या फिर कोई अन्य हादसा हो. सबके दुख-सुख सांझा होते हैं.

लेकिन अफ़सोस की बात है कि पिछले दो सालों में कई ऐसे वाक़ियात हुए हैं, जिन्होंने सामाजिक समरस्ता में ज़हर घोलने की कोशिश की है, सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने की कोशिश की है. अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को और गहरा करने की कोशिश की है, मज़हब के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश की है, जात-पांत के नाम पर एक-दूसरे को लड़ाने की कोशिश की है. इसके कई कारण हैं, मसलन अमीरों को तमाम तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं, उन्हें टैक्स में छूट दी जा रही है, उनके टैक्स माफ़ किए जा रहे हैं, उनके क़र्ज़ माफ़ किए जा रहे हैं. ग़रीबों पर नित-नये टैक्स का बोझ डाला जा रहा है. आए-दिन खाद्यान्न और रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ों के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. ग़रीबों की थाली से दाल तक छीन ली गई. हालत यह है कि अब उनकी जमा पूंजी पर भी आंखें गड़ा ली गई हैं. पाई-पाई जोड़ कर जमा किए गए पीएफ़ और ईपीफ़ पर टैक्स लगा कर उसे भी हड़प लेने की साज़िश की गई. नौकरीपेशा लोगों के लिए पीएफ़ और ईपीएफ़ एक बड़ा आर्थिक सहारा होता है. मरीज़ों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है. दवाओं यहां तक कि जीवन रक्षक दवाओं के दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ा दिए गए हैं, ऐसे में ग़रीब मरीज़ अपना इलाज कैसे करा पाएंगे. इसकी सरकार को कोई फ़िक्र नहीं है.  
समाज में हाशिये पर रहने वाले तबक़ों की आवाज़ को भी कुचलने की कोशिश की जा रही है. आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है. जल, जंगल और ज़मीन के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को नक्सली कहकर प्रताड़ित करने का सिलसिला जारी है. हद तो यह है कि सेना के जवान तक आदिवासी महिलाओं पर ज़ुल्म ढहा रहे हैं, उनका शारीरिक शोषण कर रहे हैं. दलितों पर अत्याचार बढ़ गए हैं. ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बोलने पर दलितों को देशद्रोही कहकर उन्हें सरेआम पीटा जाता है. गाय के नाम पर मुसलमान निशाने पर हैं. अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने पर उन्हें दहशतगर्द क़रार दे दिया जाता है.

आख़िर क्यों हो रहा है ये सब? क्या सिर्फ़ सत्ता के लिए, सत्ता बचाए रखने के लिए? शासन के मामले में समाज में चार तबक़े होते हैं. शासक वर्ग कहता है कि हमें सत्ता चाहिए, बदले में तमाम सुविधाएं लो.
व्यापारी वर्ग कहता है कि हमसे धन लो और तुम शासन करो, लेकिन हमें व्यापार करने दो, हमारी धन-दौलत की सुरक्षा करो. धार्मिक वर्ग कहता है कि तुम शासन करो, बस हमें सुख-सुविधाएं देते रहो, हम जनता को उलझाए रखेंगे, ताकि वह अपने अधिकारों के लिए आवाज़ न उठा सके. और बेचारी जनता वही देखती, सुनती और करती है, जो ये तीनों वर्ग उससे चाहते हैं.

दादरी के अख़्लाक कांड में जिस तरह एक बेक़सूर व्यक्ति पर बीफ़ खाने का इल्ज़ाम लगाकर उसका क़त्ल किया गया, उसने मुसलमानों के दिल में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी. उन्हें लगने लगा कि वे अपने देश में ही महफ़ूज़ नहीं हैं. देश के कई हिस्सों में बीफ़-बीफ़ कहकर कुछ असामाजिक तत्वों ने समुदाय विशेष के लोगों के साथ अपनी रंजिश निकाली. जिस तरह मुस्लिम देशों में ईश निन्दा के नाम पर ग़ैर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता रहा है, वैसा ही अब हमारे देश में भी होने लगा है.  दरअसल, भारत का भी तालिबानीकरण होने लगा है. दलितों पर अत्याचार के मामले आए-दिन देखने-सुनने को मिलते रहते हैं. आज़ादी के इतने दशकों बाद भी दलितों के प्रति लोगों की सोच में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. गांव-देहात में हालात बहुत ख़राब हैं. दलित न तो मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं और न ही शादी-ब्याह के मौक़े पर दूल्हा घोड़ी पर चढ़ सकता है. उनके साथ छुआछूत का तो एक लंबा इतिहास है. पिछले दिनों आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा में हुए उग्र जाट आंदोलन ने सामाजिक समरसता को चोट पहुंचाई है. आरक्षण के नाम पर लोग जातियों में बट गए हैं. जो लोग पहले 36 बिरादरी को साथ लेकर चलने की बात करते थे, अब वही अपनी-अपनी जाति का राग आलाप रहे हैं.

अंग्रेज़ों की नीति थी- फूट डालो और राज करो. अंग्रेज़ तो विदेशी थे. उन्होंने इस देश के लोगों में फूट डाली और और एक लंबे अरसे तक शासन किया. उन्हें इस देश से प्यार नहीं था. लेकिन इस वक़्त जो लोग सत्ता में हैं, वे तो इसी देश के वासी हैं. फिर क्यों वे सामाजिक सद्भाव को ख़राब करने वाले लोगों का साथ दे रहे हैं. उन्हें यह क़तई नहीं भूलना चाहिए कि जब कोई सियासी दल सत्ता में आता है, तो वह सिर्फ़ अपनी विचारधारा के मुट्ठी भर लोगों पर ही शासन नहीं करता, बल्कि वह एक देश पर शासन करता है. इसलिए यह उसका नैतिक दायित्व है कि वह उन लोगों को भी समान समझे, जो उसकी विपरीत विधारधारा के हैं. सरकार पार्टी विशेष की नहीं, बल्कि देश की समूची जनता का प्रतिनिधित्व करती है. सरकार को चाहिए कि वह जनता को फ़िज़ूल के मुद्दों में उलझाए रखने की बजाय कुछ सार्थक काम करे. सरकार का सबसे पहला काम देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने और देश में चैन-अमन का माहौल क़ायम रखना है. इसके बाद जनता को बुनियादें सुवाधाएं मुहैया कराना है. बाक़ी बातें बाद की हैं. सुनहरे भविष्य के ख़्वाब देखना बुरा नहीं है, लेकिन जनता की बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके उसे सब्ज़ बाग़ दिखाने को किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता. बेहतर तो यह होगा कि चुनाव के दौरान जनता से किए गए वादों को पूरा करने का काम शुरू किया जाए.

गोपेन्द्र नाथ भट्ट
राजस्थान राज्य पथ परिवहन निगम (राजस्थान रोडवेज) देश का पहला निगम हो गया है जिसने अपनी बसों में महिला सुरक्षा के लिये पैनिक बटन के साथ ही स्टिल एवं सी.सी.टीवी कैमरा और जी.पी.एस. व्हीक्ल ट्रेकिंग सिस्टम लगाने का प्रयोग शुरु कर दिया है. इन बसों को महिला गौरव एक्सप्रेस बस का नाम दिया गया है.
केन्द्रीय सड़क परिवहन एवं राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्री श्री नितिन गडकरी ने नई दिल्ली के बीकानेर हाउस में निर्भया फंड के अन्तर्गत मदद से राजस्थान रोडवेज की 20‘‘महिला गौरव’’ बसों का शुभारंभ किया. ‘महिला गौरव’बसों को ‘‘पैनिक बटन’’ के साथ-साथ स्टील कैमरा, सी.सी.टी.वी  वीडियो रिकोर्डिंग और जी.पी.एस. व्हीक्ल ट्रेकिंग सिस्टम तथा पैंसेजर इन्फॉमेशन सिस्टम (वी.टी.एस/पी.आई.एस. सोल्युशन) सुविधाओं से लैस किया गया है. इन बसों में  महिलाओं यात्रियों की सुरक्षा को और अधिक सुरक्षित बनाया गया है. विपरीत परिस्थितियों में महिला यात्री सहित अन्य यात्री भी पैनिक बटन के माध्यम से तत्काल कंट्रोल रूम अथवा संबंधित अधिकारी के मोबाइल पर आपात परिस्थिति की जानकारी पहुंचा सकेगे.
जैसे ही बस में लगे लाल रंग के पैनिक बटन को  दबाया जायेगा तो बस का नम्बर उसकी लोकेशन संबंधित सम्पूर्ण जानकारी तुरंत मुख्य प्रबन्धक के पास पहुंच जायेगी और रोडवेज के अधिकारी उनकी सहायता के लिए तुरंत आवश्यक कार्यवाही कर सकेगें. इस पैनिक बटन को भविष्य में महिला सहायता हैल्थ लाइन से भी जोड़ा जायेगा. वाहन के भीतर हाई रिज्यूलेशन एवं नाईट विजन युक्त सीसीटीवी वीडियो कैमरे लगाये गये है, जो वाहन के अन्दर की समस्त गतिविधियों को रिकार्ड कर सकेंगे. बस यात्रा की सम्पूर्ण गतिविधियों को सहेज कर रखने के लिए इसमें स्टील व वीडियो रिकार्डिंग की सुविधा भी है जिसका डाटा 30 दिन तक सुरक्षित रखा जा सकेगा तथा विशेष परिस्थितियों से इसका उपयोग किया सकेगा.
 महिला गौरव एक्सप्रेस बस शुभारंभ पर केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री श्री मेनका गांधी, नेशनल वुमन कमीशन की अध्यक्ष श्रीमती ललिता कुमारमंगलम, राजस्थान के सार्वजनिक निर्माण एवं परिवहन मंत्री श्री युनूस खान, केन्द्रीय सड़क परिवहन एवं राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय के सचिव श्री संजय मित्रा और राजस्थान रोडवेज के अध्यक्ष एवं राज्य के प्रमुख परिवहन सचिव श्री शेैलेन्द्र अग्रवाल भी उपस्थित थे.
     इस मौके पर केन्द्रीय सड़क परिवहन एवं राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्री श्री नितिन गडकरी ने कहा कि केन्द्र सरकार राजस्थान रोडवेज की सभी बसों में सी.सी.टीवी कैमरा व व्हीक्ल ट्रेकिंग सिस्टम तथा पैंसजर इन्फोर्मेशन सिस्टम विकसित करने के लिए राज्य सरकार को निर्भया फंड के अन्तर्गत मदद प्रदान करेगी. उन्होंने कहा कि भविष्य में सभी बसों में उनके निर्माण के स्तर पर ही यह सुविधाएं उपलब्ध हो ऎसे प्रयास होने चाहिए.  उन्होंने राज्य की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को रोडवेज की बसों में देश में सबसे पहले महिला सुरक्षा के लिए किये गये अभिनव प्रयास के लिए बधाई दी.
     महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती मेनका संजय गांधी ने इस नये सिस्टम की जानकारी देने के लिए हर बस और सार्वजनिक स्थलों पर पैम्पलेट और पोस्टर चस्पा करने का सुझाव दिया और राजस्थान रोड़वेज द्वारा की गई पहल को महिला सुरक्षा की दृष्टि से मील का पत्थर बताया. नेशनल वुमन कमीशन की अध्यक्ष श्रीमती ललिता कुमारमंगलम ने कहा कि निर्भया फंड का इससे बेहतर उपयोग नहीं हो सकता.
     इस अवसर पर राजस्थान के परिवहन मंत्री श्री युनूस खान ने बताया कि राज्य सरकार द्वारा रोड़वेज की बसों में महिलाओं को किराये में 30 प्रतिशत  छूट प्रदान की जा रही है.  उन्होने बताया कि मुख्यमंत्री महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बहुत ही संवेदनशील है. उन्होने बताया कि महिलाओं को सस्ती सुलभ एवं सुरक्षित यात्रा सुविधा प्रदान करने की दृष्टि से शुरू की गई महिला गौरव एक्सप्रेस बसों में पैनिक बटन और अन्य तकनीकी का  प्रयोग  आरंभ में बीस बसों में किया गया है. उन्होने बताया कि भारत सरकार के 50 प्रतिशत सहयोग से पहले चरण में रोड़वेज की 2382 बसों में इस तकनीक का प्रयोग किया जायेगा. बाद में इसका विस्तार रोड़वेज की सभी 4500 बसों में किया जायेगा.  उन्होने बताया कि राजस्थान रोड़वेज महिला कल्याण के लिए काफी प्रभावी कार्य कर रही है. रोड़वेज की बसों में करीब 33 प्रतिशत महिला सवारी यात्रा करती है. जिनमें से करीब 10प्रतिशत महिला अकेली होती है उनकी सुविधा एवं सुरक्षा हेतु यह पैनिक बटन एवं वीडियो रिकॉर्डिंग की सुविधा काफी महत्वपूर्ण है. श्री खान ने बताया कि रोड़वेज की प्रीमियम बसों में आगे की चार सीटे अकेली महिला यात्रियों के लिए रिजर्व रखी जाती है. इसी तरह राजस्थान रोड़वेज देश की एकमात्र सार्वजनिक परिवहन सेवा प्रदाता है जो सभी आयु की महिलाओं को रियायत दरों पर यात्रा सुविधा प्रदान करती है तथा महिला दिवस एवं रक्षा बंधन पर महिला यात्रियों को पूर्ण रूप निशुल्क यात्रा सेवा प्रदान की जाती है.
(लेखक  राजस्थान सूचना केन्द्र, नई दिल्ली में अतिरिक्त निदेशक हैं)


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