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डॊ. सौरभ मालवीय
फागुन आते ही चहुंओर होली के रंग दिखाई देने लगते हैं. जगह-जगह होली मिलन समारोहों का आयोजन होने लगता है. होली हर्षोल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है. यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है. दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथा धूलिवंदन कहा जाता है. लोग एक-दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल लगाते हैं. रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं. ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षोल्लास से खेलते हैं.  विदेशी लोग भी होली खेलते हैं. सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं.

पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है. नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है. होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं. सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. वह स्वयं को भगवान मानने लगा था.  उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था. जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे. अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया. भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है. इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था.

देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है. बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. मथुरा का प्रसिद्ध 40 दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है. इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है. वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं. यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है. मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं. ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं. कुल्लू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है. लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी. कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है. हरियाणा की धुलंडी में भाभी पल्लू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं. पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है. यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है. गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं. तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है. मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है. दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं. छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है.  मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं. भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है.

होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है. प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है. श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है. इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं. भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है. भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष महत्व दिया है. प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं. भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है. अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं.

होली आपसी ईर्ष्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं. रंगों की जगह एक-दूसरे में कीचड़ डालते हैं. काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते. रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं. इससे आपसी कटुता बढ़ती है. होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए. पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है. होली खुशियों का पर्व है, इसे शोक में न बदलें.

फ़िरदौस ख़ान
सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है... हमारे पीर की ख़ानकाह में बसंत पंचमी मनाई गई... बसंत का साफ़ा बांधे मुरीदों ने बसंत के गीत गाए... हमने भी अपने पीर को मुबारकबाद दी...

बसंत पंचमी के दिन मज़ारों पीली चादरें चढ़ाई जाती हैं, पीले फूल चढ़ाए जाते हैं... क़व्वाल पीले साफ़े बांधकर हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीत गाते हैं...
कहा जाता है कि यह रिवायत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने शुरू की थी... हुआ यूं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) को अपने भांजे सैयद नूह की मौत से बहुत सदमा पहुंचा और वह उदास रहने लगे. हज़रत अमीर ख़ुसरो से अपने पीर की ये हालत देखी न गई... वह उन्हें ख़ुश करने के जतन करने लगे... एक बार हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे... उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पास हिन्दू श्रद्धालु नाच-गा रहे हैं... ये देखकर हज़रत अमीर ख़ुसरो को बहुत अच्छा लगा... उन्होंने इस बारे में मालूमात की कि तो श्रद्धालुओं ने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वे लोग देवी सरस्वती पर पीले फूल चढ़ाने जा रहे हैं, ताकि देवी ख़ुश हो जाए...
इस पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने सोचा कि वह भी अपने औलिया को पीले फूल देकर ख़ुश करेंगे... फिर क्या था. उन्होंने पीले फूलों के गुच्छे बनाए और नाचते-गाते हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) के पास पहुंच गए... अपने मुरीद को इस तरह देखकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई... तब से हज़रत अमीर ख़ुसरो बसंत पंचमी मनाने लगे..

डॊ. सौरभ मालवीय
आओ आओ कहे वसंत धरती पर, लाओ कुछ गान प्रेमतान
लाओ नवयौवन की उमंग नवप्राण, उत्फुल्ल नई कामनाएं घरती पर
कालजयी रचनाकार रवींद्रनाथ टैगोर की उक्त पंक्तियां वसंत ऋतु के महत्व को दर्शाती हैं. प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में ऋतुओं का विशेष महत्व रहा है. इन ऋतुओं ने विभिन्न प्रकार से हमारे जीवन को प्रभावित किया है. ये हमारे जन-जीवन से गहरे से जुड़ी हुई हैं. इनका अपना धार्मिक और पौराणिक महत्व है. वसंत  ऋतु का भी अपना ही महत्व है. भारत की संस्कृति प्रेममय रही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण वसंत पंचमी का पावन पर्व है. वसंत पंचमी को वसंतोत्सव और मदनोत्सव भी कहा जाता है. प्राचीन काल में स्त्रियां इस दिन अपने पति की कामदेव के रूप में पूजा करती थीं, क्योंकि इसी दिन कामदेव और रति ने सर्वप्रथम मानव हृदय में प्रेम और आकर्षण का संचार किया था. यही प्रेम और आकर्षण दोनों के अटूट संबंध का आधार बना, संतानोत्पत्ति का माध्यम बना.

वसंत पंचमी का पर्व माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है, इसलिए इसे वसंत पंचमी कहा जाता है.  माघ माह की अनेक विशेषताएं हैं. इस माह को भगवान विष्णु का स्वरूप माना जाता है. शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा अत्यंत प्रबल रहता है. गुप्त नवरात्री सिद्धी,साधना,गुप्त साधनाके लिए मुख्य समय है. उत्तरायण सूर्य अर्थात देवताओं का दिन इस समय सूर्य देव पृथ्वी के अत्यधिक निकट रहते हैं. इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है. भारत सहित कई देशों में यह पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इस दिन घरों में पीले चावल बनाए जाते हैं, पीले फूलों से देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. महिलाएं पीले कपड़े पहनती हैं. बच्चे पीली पतंगे उड़ाते हैं. विद्या के प्रारंभ के लिए ये दिन शुभ माना जाता है.  कलाकारों के लिए इस दिन का विशेष महत्व है.

प्राचीन भारत में पूरे वर्ष को जिन छह ऋतुओं में विभाजित किया जाता था, उनमें वसंत जनमानस की प्रिय ऋतु थी. इसे मधुमास भी कहा जाता है. इस दौरान सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश कर लेता है. इस ऋतु में खेतों में फ़सलें पकने लगती हैं, वृक्षों पर नये पत्ते आ जाते हैं. आम पर की शाख़ों पर बौर आ जाता है. उपवनों में रंग-बिरंगे पुष्प खिलने लगते हैं. चहुंओर बहार ही बहार होती है. रंग-बिरंगी तितलियां वातावरण को और अधिक सुंदर बना देती हैं.

वसंत का धार्मिक महत्व भी है.  वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ मास के पांचवे दिन महोत्सव का आयोजन किया जाता था. इस उत्सव में भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा होती थी.  शास्त्रों में वसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है. मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों की रचना की, परंतु इससे वे संतुष्ट नहीं थे. भगवान विष्णु ने अपने कमंडल से जल छिड़का, जिससे एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री प्रकट हुई, जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था. अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी. ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया. जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, वैसे ही संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई. जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया. पवन चलने से सरसराहट होने लगी. तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती के नाम से पुकारा. सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है. वे विद्या और बुद्धि प्रदान करती हैं. संगीत की उत्पत्ति करने के कारण वे संगीत की देवी कहलाईं. वसंत पंचमी को उनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं. ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए उल्लेख गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात ये परम चेतना हैं. सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं. हममें जो आचार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं. इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है.

मान्यता है कि वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती पूजा करने और व्रत रखने से वाणी मधुर होती है, स्मरण शक्ति तीव्र होती है, प्राणियों को सौभाग्य प्राप्त होता है तथा विद्या में कुशलता प्राप्त होती है.
"यथा वु देवि भगवान ब्रह्मा लोकपितामहः।
त्वां परित्यज्य नो तिष्ठंन, तथा भव वरप्रदा।।
वेद शास्त्राणि सर्वाणि नृत्य गीतादिकं चरेत्।
वादितं यत् त्वया देवि तथा मे सन्तुसिद्धयः।।
लक्ष्मीर्वेदवरा रिष्टिर्गौरी तुष्टिः प्रभामतिः।
एताभिः परिहत्तनुरिष्टाभिर्मा सरस्वति।।

अर्थात् देवी! जिस प्रकार लोकपितामह ब्रह्मा आपका कभी परित्याग नहीं करते, उसी प्रकार आप भी हमें वर दीजिए कि हमारा भी कभी अपने परिवार के लोगों से वियोग न हो. हे देवी! वेदादि सम्पूर्ण शास्त्र तथा नृत्य गीतादि जो भी विद्याएं हैं, वे सभी आपके अधिष्ठान में ही रहती हैं, वे सभी मुझे प्राप्त हों. हे भगवती सरस्वती देवी! आप अपनी- लक्ष्मी, मेधा, वरारिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा तथा मति- इन आठ मूर्तियों के द्वारा मेरी रक्षा करें.

पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने सरस्वती से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी. इस तरह भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी. त्रेता युग में जिस दिन श्रीराम शबरी मां के आश्रम में पहुंचे थे, वह वसंत पंचमी का ही दिन था. श्रीराम ने भीलनी शबरी मां के झूठे बेर खाए थे. गुजरात के डांग जिले में जिस स्थान पर शबरी मां के आश्रम था, वहां आज भी एक शिला है. लोग इस शिला की पूजा-अर्चना करते हैं. बताया जाता है कि श्रीराम यहीं आकर बैठे थे. इस स्थान पर शबरी माता का मंदिर भी है, जहां दूर-दूर से श्र्द्धालु आते हैं.

वसंत पंचमी के दिन मथुरा में दुर्वासा ऋषि के मंदिर पर मेला लगता है. सभी मंदिरों में उत्सव एवं भगवान के विशेष शृंगार होते हैं. वृंदावन के श्रीबांके बिहारीजी मंदिर में बसंती कक्ष खुलता है. शाह जी के मंदिर का बसंती कमरा प्रसिद्ध है. मंदिरों में वसंती भोग रखे जाते हैं और वसंत के राग गाये जाते हैं वसंम पंचमी से ही होली गाना शुरू हो जाता है. ब्रज का यह परम्परागत उत्सव है.
इस दिन हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के पौराणिक नगर पिहोवा में सरस्वती की विशेष पूजा-अर्चना होती है. पिहोवा को सरस्वती का नगर भी कहा जाता है, क्योंकि यहां प्राचीन समय से ही सरस्वती सरिता प्रवाहित होती रही है. सरस्वती सरिता के तट पर इस क्षेत्र में अनेक प्राचीन तीर्थ स्थल हैं. यहां सरस्वती सरिता के तट पर विश्वामित्र जी ने गायत्री छंद की रचना की थी. पिहोवा का सबसे मुख्य तीर्थ सरस्वती घाट है, जहां सरस्वती नदी बहती है. यहां देवी सरस्वती का अति प्राचीन मंदिर है. इन प्राचीन मंदिरों में देशभर के श्रद्धालु आते हैं. यहां भव्य शोभायात्रा निकलती है.

वसंत पंचमी का साहित्यिक महत्व भी है. इस दिन हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस भी है. 28 फरवरी, 1899 को जिस दिन निराला जी का जन्म हुआ, उस दिन वसंत पंचमी ही थी. वंसत कवियों की अति प्रिय ऋतु रही है.

हिंदी साहित्य में छायावादी युग के महान स्तंभ सुमित्रानंदन पंत वसंत का मनोहारी वर्णन करते हुए कहते हैं-
चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह मग वन में आया वसंत।
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।

वसंत पंचमी हमारे जीवन में नव ऊर्जा का संचार करती है. ये निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है. जिस तरह वृक्ष पुराने पत्तों को त्याग कर नये पत्ते धारण करते हैं, ठीक उसी तरह हमें भी अपने अतीत के दुखों को त्याग कर आने वाले भविष्य के स्वप्न संजोने चाहिए. जीवन निरंतर चलते रहने का नाम है, यही वसंत हमें बताता है.

-सरफ़राज़ ख़ान
भारत में समय-समय पर अनेक त्योहार मनाए जाते हैं. इसलिए भारत को त्योहारों का देश कहना गलत न होगा. कई त्योहारों का संबंध ऋतुओं से भी है. ऐसा ही एक पर्व है . मकर संक्रान्ति. मकर संक्रान्ति पूरे भारत में अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है. पौष मास में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तब इस त्यौहार को मनाया जाता है. दरअसल, सूर्य की एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने की प्रक्रिया को संक्रांति कहते हैं. सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इसे मकर संक्रांति कहा जाता है. यह इकलौता ऐसा त्यौहार है, जो हर साल एक ही तारीख़ पर आता है. दरअसल यह सौर्य कैलेंडर के हिसाब से मनाया जाता है. इस साल 28 साल के बाद मकर संक्रांति पर महायोग बन रहा है. 14 जनवरी को दोपहर 1.51 बजे सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेगा और सूर्य उत्तरायण हो जाएगा. मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति शुरू हो जाती है. इसलिये इसको उत्तरायणी भी कहते हैं. तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाया जाता है. हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जाता है. इस दिन लोग शाम होते ही आग जलाकर अग्नि की पूजा करते हैं और अग्नि को तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति देते हैं. इस पर्व पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेवड़ियां आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं. देहात में बहुएं घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मांगती हैं. बच्चे तो कई दिन पहले से ही लोहड़ी मांगना शुरू कर देते हैं. लोहड़ी पर बच्चों में विशेष उत्साह देखने को मिलता है.
यह त्यौहार सर्दी के मौसम के बीतने की ख़बर देता है. मकर संक्रांति पर दिन और रात बराबर अवधि के माने जाते हैं. इसके बाद से दिन लंबा होने लगता है और रातें छोटी होने लगती हैं. मौसम में भी गरमाहट आने लगती है.

उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से दान का पर्व है. इलाहाबाद में यह पर्व माघ मेले के नाम से जाना जाता है. 14 जनवरी से इलाहाबाद में हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है. 14 दिसम्बर से 14 जनवरी का समय खर मास के नाम से जाना जाता है. और उत्तर भारत मे तो पहले इस एक महीने मे किसी भी अच्छे कार्य को अंजाम नही दिया जाता था. मसलन विवाह आदि मंगल कार्य नहीं किए जाते थे पर अब तो समय के साथ लोग काफी बदल गए है. 14 जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से अच्छे दिनों की शुरुआत होती है. माघ मेला पहला नहान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि तक यानी आख़िरी नहान तक चलता है. संक्रान्ति के दिन नहान के बाद दान करने का भी चलन है. उत्तराखंड के बागेश्वर में बड़ा मेला होता है. वैसे गंगा स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं. इस दिन गंगा स्नान करके, तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है. इस पर्व पर भी क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े मेले लगते है. समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है और इस दिन खिचड़ी सेवन एवं खिचड़ी दान का अत्यधिक महत्व होता है. इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है.

महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, तेल, नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं. ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा भी है. लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं :- `तिल गुड़ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला` अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो. इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं.

बंगाल में इस पर्व पर स्नान पश्चात तिल दान करने की प्रथा है. यहां गंगासागर में हर साल विशाल मेला लगता है. मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं. मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत किया था. इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीड़ होती है. लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं.

तमिलनाडु में इस त्यौहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाया जाता है.पहले दिन भोगी-पोंगल, दूसरे दिन सूर्य-पोंगल, तीसरे दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल, चौथे व अंतिम दिन कन्या-पोंगल. इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकट्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है. पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं. इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है. उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं. असम में मकर संक्रांति को माघ-बिहू या भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं. राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएं अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद लेती हैं. साथ ही महिलाएं किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन व संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं. अन्य भारतीय त्यौहारों की तरह मकर संक्रांति पर भी लोगों में विशेष उत्साह देखने को मिलता है. 

फ़िरदौस ख़ान
तीज-त्यौहार हमारी तहज़ीब और रवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. ये ख़ुशियों के ख़ज़ाने भी हैं. ये हमें ख़ुशी के मौक़े देते हैं. ख़ुश होने के बहाने देते हैं. ये लोक जीवन का एक अहम हिस्सा हैं. इनसे किसी भी देश और समाज की संस्कृति व सभ्यता का पता चलता है. मगर बदलते वक़्त के साथ तीज-त्यौहार भी पीछे छूट रहे हैं. कुछ दशकों पहले तक जो त्यौहार बहुत ही धूमधाम के साथ मनाए जाते थे, अब वे महज़ रस्म अदायगी तक ही सिमट कर रह गए हैं. इन्हीं में से एक त्यौहार है लोहड़ी.
लोहड़ी उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा और पंजाब का एक प्रसिद्ध त्यौहार है. लोहड़ी के की शाम को लोग सामूहिक रूप से आग जलाकर उसकी पूजा करते हैं. महिलाएं आग के चारों और चक्कर काट-काटकर लोकगीत गाती हैं. लोहड़ी का एक विशेष गीत है. जिसके बारे में कहा जाता है कि एक मुस्लिम फ़कीर था. उसने एक हिन्दू अनाथ लड़की को पाला था. फिर जब वो जवान हुई तो उस फ़क़ीर ने उस लड़की की शादी के लिए घूम-घूम के पैसे इकट्ठे किए और फिर धूमधाम से उसका विवाह किया. इस त्यौहार से जुड़ी और भी कई किवदंतियां हैं. कहा जाता है कि सम्राट अकबर के जमाने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाकों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर ग़रीबों की मदद करता था.
जो भी हो, लेकिन इस गीत का नाता एक लड़की से ज़रूर है. यह गीत आज भी लोहड़ी के मौक़े पर खूब गया जाता है.
लोहड़ी का गीत
सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूं बधाइयां...
यह गीत आज भी प्रासंगिक हो, जो मानवता का संदेश देता है.

एक अन्य किवदंती के मुताबिक़ क़रीब ढाई हज़ार साल पहले पूर्व पंजाब के एक छोटे से उत्तरी भाग पर एक लोहड़ी नाम के राजा-गण का राज्य था. उसके दो बेटे थे, जो वे हमेशा आपस में लड़ते और इसी तरह मारे गए. राजा बेटों के वियोग में दुखी रहने लगा. इसी हताशा में उसने अपने राज्य में कोई भी ख़ुशी न मनाए की घोषणा कर दी. प्रजा राजा से दुखी थी. राजा के अत्याचार दिनों-दिन बढ़ रहे थे. आखिर तंग आकर जनता ने राजा हो हटाने का फैसला कर लिया. राजा के बड़ी सेना होने के बावजूद जनता ने एक योजना के तहत राजा को पकड़ लिया और एक सूखे पेड़ से बांधकर उसे जला दिया. इस तरह अत्याचारी राजा मारा गया और जनता के दुखों का भी अंत हो गया. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)


फ़िरदौस ख़ान
बचपन से सुनते आए हैं कि क्रिसमस के दिन सांता क्लाज आते हैं. अपने साथ बहुत सारे तोहफ़े और खुशियां लाते हैं. बचपन में बस संता क्लाज को देखने की ख़्वाहिश थी. उनसे कुछ पाने का ख़्याल कभी ज़हन में आया तक नहीं, क्योंकि हर चीज़ मुहैया थी. जिस चीज़ की तरफ़ इशारा कर दिया कुछ ही पलों में मिल जाती थी. किसी चीज़ का अभाव क्या होता है. कभी जाना ही नहीं. मगर अब सांता क्लाज़ से पाना चाहते हैं- मुहब्बत, पूरी कायनात के लिए, ताकि हर तरफ़ बस मुहब्बत का उजियारा हो और नफ़रतों का अंधेरा हमेशा के लिए छंट जाए... हर इंसान ख़ुशहाल हो, सबका अपना घरबार हो, सबकी ज़िन्दगी में चैन-सुकून हो, आमीन.. संता क्लाज वही हैं, मगर उम्र बढ़ने के साथ ख़्वाहिशें भी बढ़ जाती हैं...

यह हमारे देश की सदियों पुरानी परंपरा रही है कि यहां सभी त्यौहारों को मिलजुल कर मनाया जाता है. हर त्यौहार का अपना ही उत्साह होता है- बिलकुल ईद और दिवाली की तरह.  क्रिसमस  ईसाइयों के सबसे मह्त्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है. इसे ईसा मसीह के जन्म की ख़ुशी में मनाया जाता है. क्रिसमस को बड़े दिन के रूप में भी मनाया जाता है. क्रिसमस से 12 दिन का उत्सव क्रिसमसटाइड शुरू होता है. ‘क्रिसमस’ शब्द ‘क्राइस्ट्स और मास’ दो शब्दों से मिलकर बना है, जो मध्य काल के अंगेजी शब्द ‘क्रिस्टेमसे’ और पुरानी अंगेजी शब्द ‘क्रिस्टेसमैसे’ से नक़ल किया गया है. 1038 ई. से इसे ‘क्रिसमस’ कहा जाने लगा. इसमें ‘क्रिस’ का अर्थ ईसा मसीह और ‘मस’ का अर्थ ईसाइयों का प्रार्थनामय समूह या ‘मास’ है. 16वीं शताब्दी के मध्य से ‘क्राइस्ट’ शब्द को रोमन अक्षर एक्स से दर्शाने की प्रथा चल पड़ी. इसलिए अब क्रिसमस को एक्समस भी कहा जाता है. भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में क्रिसमस 25 दिसंबर को मनाया जाता है, लेकिन रूस, जार्जिया, मिस्त्र, अरमेनिया, युक्रेन और सर्बिया आदि देशों में 7 जनवरी को लोग क्रिसमस मनाते हैं, क्योंकि पारंपरिक जुलियन कैलंडर का 25 दिसंबर यानी क्रिसमस का दिन गेगोरियन कैलंडर और रोमन कैलंडर के मुताबिक़ 7 जनवरी को आता है. हालांकि पवित्र बाइबल में कहीं भी इसका ज़िक्र नहीं है कि क्रिसमस मनाने की परंपरा आख़िर कैसे, कब और कहां शुरू हुई. एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म, 7 से 2 ई.पू. के बीच हुआ था. 25 दिसंबर यीशु मसीह के जन्म की कोई ज्ञात वास्तविक जन्म तिथि नहीं है.शोधकर्ताओं का कहना है कि ईसा मसीह के जन्म की निश्चित तिथि के बारे में पता लगाना काफी मुश्किल है. सबसे पहले रोम के बिशप लिबेरियुस ने ईसाई सदस्यों के साथ मिलकर 354 ई. में 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाया था. उसके बाद 432 ई. में मिस्त्र में पुराने जुलियन कैलंडर के मुताबिक 6 जनवरी को क्रिसमस मनाया गया था. उसके बाद धीरे-धीरे पूरे संसार में जहां भी ईसाइयों की संख्या अधिक थी, यह त्योहार मनाया जाने लगा. छठी सदी के अंत तक इंग्लैंड में यह एक परंपरा का रूप ले चुका था.

गौरतलब है ईसा मसीह के जन्‍म के बारे में व्यापक रूप से स्‍वीकार्य ईसाई पौराणिक कथा के मुताबिक़ प्रभु ने मैरी नामक एक कुंवारी लड़की के पास गैब्रियल नामक देवदूत भेजा. गैब्रियल ने मैरी को बताया कि वह प्रभु के पुत्र को जन्‍म देगी और बच्‍चे का नाम जीसस रखा जाएगा. व‍ह बड़ा होकर राजा बनेगा, तथा उसके राज्‍य की कोई सीमाएं नहीं होंगी. देवदूत गैब्रियल, जोसफ के पास भी गया और उसे बताया कि मैरी एक बच्‍चे को जन्‍म देगी, और उसे सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करे व उसका परित्‍याग न करे. जिस रात को जीसस का जन्‍म हुआ, उस वक़्त लागू नियमों के मुताबिक़ अपने नाम पंजीकृत कराने के लिए मैरी और जोसफ बेथलेहेम जाने के लिए रास्‍ते में थे. उन्‍होंने एक अस्‍तबल में शरण ली, जहां मैरी ने आधी रात को जीसस को जन्‍म दिया और उसे एक नांद में लिटा दिया. इस प्रकार प्रभु के पुत्र जीसस का जन्‍म हुआ. क्रिसमस समारोह आधी रात के बाद शुरू होता है. इसके बाद मनोरंजन किया जाता है. सुंदर रंगीन वस्‍त्र पहने बच्‍चे ड्रम्‍स, झांझ-मंजीरों के आर्केस्‍ट्रा के साथ हाथ में चमकीली छड़ियां  लिए हुए सामूहिक नृत्‍य करते हैं.

क्रिसमस का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि ईसा मसीह के जन्म की कहानी का संता क्लॉज की कहानी के साथ कोई रिश्ता नहीं है. वैसे तो संता क्लॉज को याद करने का चलन चौथी सदी से शुरू हुआ था और वे संत निकोलस थे, जो तुर्किस्तान के मीरा नामक शहर के बिशप थे. उन्हें बच्चों से अत्यंत प्रेम था और वे गरीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों को तोहफ़े दिया करते थे.

पुरानी कैथलिक परंपरा के मुताबिक क्रिसमस की रात को ईसाई बच्चे अपनी तमन्नाओं और ज़रूरतों को एक पत्र में लिखकर सोने से पूर्व अपने घर की खिड़कियों में रख देते थे. यह पत्र बालक ईसा मसीह के नाम लिखा जाता था. यह मान्यता थी कि फ़रिश्ते उनके पत्रों को बालक ईसा मसीह से पहुंचा देंगे. क्रिसमस ट्री की कहानी भी बहुत ही रोचक है. किवदंती है कि सर्दियों के महीने में एक लड़का जंगल में अकेला भटक रहा था. वह सर्दी से ठिठुर रहा था. वह ठंड से बचने के लिए आसरा तलाशने लगा. तभी उसकी नजर एक झोपड़ी पर पड़ी. वह झोपडी के पास गया और उसने दरवाजा खटखटाया. कुछ देर बाद एक लकड़हारे ने दरवाजा खोला. लड़के ने उस लकड़हारे से झोपड़ी के भीतर आने का अनुरोध किया. जब लकड़हारे ने ठंड में कांपते उस लड़के को देखा तो उसे लड़के पर तरस आ गया और उसने उसे अपनी झोपड़ी में बुला लिया और उसे गर्म कपड़े भी दिए. उसके पास जो रूख-सूखा था, उसने लड़के को बभी खिलाया. इस अतिथि सत्कार से लड़का बहुत खुश हुआ. वास्तव में वह लड़का एक फरिश्ता था और लकड़हारे की परीक्षा लेने आया था. उसने लकड़हारे के घर के पास खड़े फर के पेड़ से एक तिनका निकाला और लकड़हारे को देकर कहा कि इसे ज़मीन में बो दो. लकड़हारे ने ठीक वैसा ही किया जैसा लड़के ने बताया था. लकडहारा और उसकी पत्नी इस पौधे की देखभाल अकरने लगे. एक साल बाद क्रिसमस के दिन उस पेड़ में फल लग गए. फलों को देखकर लकड़हारा और उसकी पत्नी हैरान रह गए, क्योंकि ये फल, साधारण फल नहीं थे बल्कि सोने और चांदी के थे. कहा जाता है कि इस पेड़ की याद में आज भी क्रिसमस ट्री सजाया जाता है. मगर मॉडर्न क्रिसमस ट्री शुरुआत जर्मनी में हुई. उस समय एडम और ईव के नाटक में स्टेज पर फर के पेड़ लगाए जाते थे. इस पर सेब लटके होते थे और स्टेज पर एक पिरामिड भी रखा जाता था. इस पिरामिड को हरे पत्तों और रंग-बिरंगी मोमबत्तियों से सजाया जाता था. पेड़ के ऊपर एक चमकता तारा लगाया जाता था. बाद में सोलहवीं शताब्दी में फर का पेड़ और पिरामिड एक हो गए और इसका नाम हो गया क्रिसमस ट्री अट्ठारहवीं सदी तक क्रिसमस ट्री बेहद लोकप्रिय हो चुका था. जर्मनी के राजकुमार अल्बर्ट की पत्नी महारानी विक्टोरिया के देश इंग्लैंड में भी धीरे-धीरे यह लोकप्रिय होने लगा. इंग्लैंड के लोगों ने क्रिसमस ट्री को रिबन से सजाकर और आकर्षक बना दिया. 19वीं शताब्दी तक क्रिसमस ट्री उत्तरी अमेरिका तक जा पहुंचा और वहां से यह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया. क्रिसमस के मौके पर अन्य त्योहारों की तरह अपने घर में तैयार की हुई मिठाइयां और व्यंजनों को आपस में बांटने व क्रिसमस के नाम से तोहफ़े देने की परंपरा भी काफ़ी पुरानी है. इसके अलावा बालक ईसा मसीह के जन्म की कहानी के आधार पर बेथलेहम शहर के एक गौशाले की चरनी में लेटे बालक ईसा मसीह और गाय-बैलों की मूर्तियों के साथ पहाड़ों के ऊपर फरिश्तों और चमकते तारों को सजा कर झांकियां बनाई जाती हैं, जो दो हज़ार साल पुरानी ईसा मसीह के जन्म की याद दिलाती हैं.

दिसंबर का महीना शुरू होते ही क्रिसमस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं . गिरजाघरों को सजाया जाता है. भारत में अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के उत्सव में शामिल होते हैं. क्रिसमस के दौरान प्रभु की प्रशंसा में लोग कैरोल गाते हैं. वे प्‍यार व भाईचारे का संदेश देते हुए घर-घर जाते हैं. भारत में विशेषकर गोवा में कुछ लोकप्रिय चर्च हैं, जहां क्रिसमस बहुत जोश व उत्‍साह के साथ मनाया जाता है. इनमें से ज़्यादातर चर्च भारत में ब्रि‍टिश व पुर्तगाली शासन के दौरान बनाए गए थे. इनके अलावा देश के अन्य बड़े भारत के कुछ बड़े चर्चों मे सेंट जोसफ कैथेड्रिल, आंध्र प्रदेश का मेढक चर्च, सेंट कै‍थेड्रल, चर्च ऑफ़ सेंट फ्रांसिस ऑफ़ आसीसि और गोवा का बैसिलिका व बोर्न जीसस, सेंट जांस चर्च इन विल्‍डरनेस और हिमाचल में क्राइस्‍ट चर्च, सांता क्‍लाज बैसिलिका चर्च, और केरल का सेंट फ्रासिस चर्च, होली क्राइस्‍ट चर्च, महाराष्‍ट्र में माउन्‍ट मेरी चर्च, तमिलनाडु में क्राइस्‍ट द किंग चर्च व वेलान्‍कन्‍नी चर्च, और आल सेंट्स चर्च और उत्तर प्रदेश का कानपुर मेमोरियल चर्च शामिल हैं. बहरहाल, देश के सभी छोटे-बड़े चर्चों में रौनक़ है.

डॊ. सौरभ मालवीय
छठ सूर्य की उपासना का पर्व है. यह प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण को अर्घ्य देकर पूर्ण किया जाता है.  सूर्य उपासना का पावन पर्व छठ कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने जाता है. इसलिए इसे छठ कहा जाता है. हिन्दू धर्म में सूर्य उपासना का बहुत महत्व है. छठ पूजा के दौरान क केवल सूर्य देव की उपासना की जाती है, अपितु सूर्य देव की पत्नी उषा और प्रत्यूषा की भी आराधना की जाती है अर्थात प्रात:काल में सूर्य की प्रथम किरण ऊषा तथा सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्यूषा को अर्घ्य देकर उनकी उपासना की जाती है. पहले यह पर्व पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता था, लेकिन अब इसे देशभर में मनाया जाता है. पूर्वी भारत के लोग जहां भी रहते हैं, वहीं इसे पूरी आस्था से मनाते हैं.

छठ पूजा चार दिवसीय पर्व है. इसका प्रारंभ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा कार्तिक शुक्ल सप्तमी को यह समाप्त होता है. इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का कठोर व्रत रखते हैं. इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते. पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खाय के रूप में मनाया जाता है. सबसे पहले घर की साफ-सफाई की जाती है. इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र विधि से बना शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत आरंभ करते हैं. घर के सभी सदस्य व्रती के भोजन करने के उपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं. भोजन के रूप में कद्दू-चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है. दूसरा दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी खरना कहा जाता है. व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के पश्चात संध्या को भोजन करते हैं. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को बुलाया जाता है. प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर, दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है. इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है. तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद के रूप में ठेकुआ और चावल के लड्डू बनाए जाते हैं. चढ़ावे के रूप में लाया गया सांचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में सम्मिलित होते हैं. संध्या के समय बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं. सभी छठ व्रती नदी या तालाब के किनारे एकत्रित होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं. सूर्य देव को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है. चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. व्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं, जहां उन्होंने संध्या के समय सूर्य को अर्घ्य दिया था और सूर्य को अर्घ्य देते हैं. इसके पश्चात व्रती कच्चे दूध का शीतल पेय पीकर तथा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं. इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्जित है. जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां छठ के गीत गाए जाते हैं.

छठ का व्रत बहुत कठोर होता है. चार दिवसीय इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है. इस दौरान व्रती को भोजन तो छोड़ना ही पड़ता है. इसके अतिरिक्त उसे भूमि पर सोना पड़ता है. इस पर्व में सम्मिलित लोग नये वस्त्र धारण करते हैं, परंतु व्रती बिना सिलाई वाले वस्त्र पहनते हैं. महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ पूजा करते हैं. इसकी एक विशेषता यह भी है कि प्रारंभ करने के बाद छठ पर्व को उस समय तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसे आरंभ नहीं करती. उल्लेखनीय है कि परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है.

छठ पर्व कैसे आरंभ हुआ, इसके पीछे अनेक कथाएं हैं. एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और सीता मैया ने उपवास रखकर सूर्यदेव की पूजा की थी. सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था. एक अन्य  कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी थी. इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ, परंतु वह मृत पैदा हुआ. प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. तभी भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई. उसने कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण वह षष्ठी है. उसने राजा से कहा कि वह उसकी उपासना करे, जिससे उसकी मनोकामना पूर्ण होगी. राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी. एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व का आरंभ महाभारत काल में हुआ था. सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की थी. वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था.  आज भी छठ में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है.

पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाता था. भारत में वैदिक काल से ही सूर्य की उपासना की जाती रही है. देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है. विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में इसकी विस्तार से चर्चा की गई है. उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना की जाने लगी.  कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा की जाने लगी. अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए. कोणार्क का सूर्य मंदिर विश्व प्रसिद्ध है.

छठ महोत्सव के दौरान छठ के लोकगीत गाए जाते हैं, जिससे सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता है.
’कईली बरतिया तोहार हे छठी मैया’ जैसे लोकगीतों पर मन झूम उठता है.

डॊ. सौरभ मालवीय
भारत एक विशाल देश है. इसकी भौगोलिक संरचना जितनी विशाल है, उतनी ही विशाल है इसकी संस्कृति. यह भारत की सांस्कृतिक विशेषता ही है कि कोई भी पर्व समस्त भारत में एक जैसी श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है, भले ही उसे मनाने की विधि भिन्न हो. ऐसा ही एक पावन पर्व है दशहरा, जिसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है. दशहरा भारत का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है. विश्वभर में हिन्दू इसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. यह अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु के अवतार राम ने रावण का वध कर असत्य पर सत्य की विजय प्राप्त की थी. रावण भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण करके लंका ले गया था. भगवान राम देवी दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिन तक मां दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन रावण का वध कर अपनी पत्नी को मुक्त कराया. दशहरा वर्ष की तीन अत्यंत महत्वपूर्ण तिथियों में से एक है, जिनमें चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा भी सम्मिलित है. यह शक्ति की पूजा का पर्व है. इस दिन देवी दुर्गा की भी पूजा-अर्चना की जाती है. इस दिन लोग नया कार्य प्रारंभ करना अति शुभ माना जाता है. दशहरे के दिन नीलकंठ के दर्शन को बहुत ही शुभ माना जाता है. नवरात्रि में स्वर्ण और आभूषणों की खरीद को शुभ माना जाता है.

दशहरा नवरात्रि के बाद दसवें दिन मनाया जाता है. देशभर में दशहरे का उत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. जगह-जगह मेले लगते हैं. दशहरे से पूर्व रामलीला का आयोजन किया जाता. इस दौरान नवरात्रि भी होती हैं. कहीं-कहीं रामलीला का मंचन होता है, तो कहीं जागरण होते हैं. दशहरे के दिन रावण के पुतले का दहन किया जाता है. इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद के पुतले जलाए जाते हैं. कलाकार राम, सीता और लक्ष्मण के रूप धारण करते हैं और अग्नि बाण इन पुतलों को मारते हैं. पुतलों में पटाखे भरे होते हैं, जिससे वे आग लगते ही जलने लगते हैं.

समस्त भारत के विभिन्न प्रदेशों में दशहरे का यह पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. कश्मीर में नवरात्रि के नौ दिन माता रानी को समर्पित रहते हैं. इस दौरान लोग उपवास रखते हैं. एक परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं. यह मंदिर एक झील के बीचोबीच स्थित है.  हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है. रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित पहाड़ी लोग अपनी परंपरा के अनुसार अपने ग्रामीण देवता की शोभायात्रा निकालते हैं. इस दौरान वे तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े आदि वाद्य बजाते हैं तथा नाचते-गाते चलते हैं. शोभायात्रा नगर के विभिन्न भागों में होती हुई मुख्य स्थान तक पहुंचती है. फिर ग्रामीण देवता रघुनाथजी की पूजा-अर्चना से दशहरे के उत्सव का शुभारंभ होता है. हिमाचल प्रदेश के साथ लगते पंजाब तथा हरियाणा में दशहरे पर नवरात्रि की धूम रहती है. लोग उपवास रखते हैं. रात में जागरण होता है. यहां भी रावण-दहन होता है और मेले लगते हैं. उत्तर प्रदेश में भी दशहरा श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है. यहां रात में रामलीला का मंचन होता है और दशहरे के दिन रावण दहन किया जाता है.

बंगाल, ओडिशा एवं असम में दशहरा दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है.  बंगाल में पांच दिवसीय उत्सव मनाया जाता है. ओडिशा और असम में यह पर्व चार दिन तक चलता है. यहां भव्य पंडाल तैयार किए जाते हैं तथा उनमें देवी दुर्गा की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. देवी दुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है. दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है. महिलाएं देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं. इसके पश्चात देवी की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है. विसर्जन यात्रा में असंख्य लोग सम्मिलित होते हैं.

गुजरात में भी दशहरे के उत्सव के दौरान नवरात्रि की धूम रहती है. कुंआरी लड़कियां सिर पर मिट्टी के रंगीन घड़े रखकर नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहा जाता है. पूजा-अर्चना और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन किया जाता है. महाराष्ट्र में भी नवरात्रि में नौ दिन मां दुर्गा की उपासना की जाती है तथा दसवें दिन विद्या की देवी सरस्वती की स्तुति की जाती है. इस दिन बच्चे आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मां सरस्वती की पूजा करते हैं.

तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरे के उत्सव के दौरान लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती है. पहले तीन दिन धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी का पूजन होता है. दूसरे दिन कला एवं विद्या की देवी सरस्वती-की अर्चना की जाती है तथा और अंतिम दिन शक्ति की देवी दुर्गा की उपासना की जाती है. कर्नाटक के मैसूर का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है. मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को प्रकाश से ससज्जित किया जाता है और हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण का दहन का नहीं किया जाता.

छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी दशहरा का बहुत ही अलग तरीके से मनाया जाता है. यहां इस दिन देवी दंतेश्वरी की आराधना की जाती है. दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं. यहां यह त्यौहार 75 दिन यानी श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है. प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोह आरंभ करने की अनुमति ली जाती है. देवी कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहा जाता है. यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं. बताया जाता है कि यह समारोह लगभग पंद्रहवीं शताब्दी में आरंभ हुआ था. काछिन गादि के बाद जोगी-बिठाई होती है, तदुपरांत भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) निकाली जाती है. अंत में मुरिया दरबार का आयोजन किया जाता है.इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है.

दशहरे के दिन वनस्पतियों का पूजन भी किया जाता है. रावण दहन के पश्चात शमी नामक वृक्ष की पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है.
इसके साथ ही अपराजिता (विष्णु-क्रांता) के पुष्प भगवान राम के चरणों में अर्पित किए जाते हैं. नीले रंग के पुष्प वाला यह पौधा भगवान विष्णु को प्रिय है.

दशहरे का केवल धार्मिक महत्व ही नहीं है, अपितु यह हमारी सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है.

लेखक का परिचय
उत्तरप्रदेश के देवरिया जनपद के पटनेजी गांव में जन्मे डाॅ.सौरभ मालवीय बचपन से ही सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण की तीव्र आकांक्षा के चलते सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए है. जगतगुरु शंकराचार्य एवं डाॅ. हेडगेवार की सांस्कृतिक चेतना और आचार्य चाणक्य की राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित डाॅ. मालवीय का सुस्पष्ट वैचारिक धरातल है. ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया’ विषय पर आपने शोध किया है. आप का देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर समसामयिक मुद्दों पर निरंतर लेखन जारी है. उत्कृष्ट कार्याें के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है, जिनमें मोतीबीए नया मीडिया सम्मान, विष्णु प्रभाकर पत्रकारिता सम्मान और प्रवक्ता डाॅट काॅम सम्मान आदि सम्मिलित हैं.
संप्रति-
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
मोबाइल : +919907890614
ईमेल : [email protected]
वेबसाइट-www.sourabhmalviya.com


फ़िरदौस ख़ान
ज़िंदगी की जद्दोजहद ने इंसान को जितना मसरूफ़ बना दिया है, उतना ही उसे अकेला भी कर दिया है. हालांकि आधुनिक संचार के साधनों ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है. मोबाइल, इंटरनेट के ज़रिये सात समंदर पार किसी भी पल किसी से भी बात की जा सकती है. इसके बावजूद इंसान बहुत अकेला दिखाई देता है. बहुत ही अकेला, क्योंकि आज के दौर में 'अपनापन' जैसे जज़्बे कहीं पीछे छूट गए हैं. अब रिश्तों में वह गरमाहट नहीं रही, जो पहले कभी हुआ करती थी. पहले लोग संयुक्त परिवार में रहा करते थे. पुरुष बाहर कमाने जाया करते थे और महिलाएं मिल जुलकर घर-परिवार का कामकाज किया करती थीं. परिवार के सदस्यों में एक-दूसरे के लिए आदर-सम्मान और अपनापन हुआ करता था. लेकिन अब संयुक्त परिवार टूटकर एकल हो रहे हैं. महिलाएं भी कमाने के लिए घर से बाहर जा रही हैं. उनके पास बच्चों के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं है. बच्चों का भी ज़्यादा वक़्त घर से बाहर ही बीतता है. सुबह स्कूल जाना, होम वर्क करना, फिर ट्यूशन के लिए जाना और उसके बाद खेलने जाना. जो वक़्त मिलता है, उसमें भी बच्चे मोबाइल या फिर कंप्यूटर पर गेम खेलते हैं. ऐसे में न माता-पिता के पास बच्चों के लिए वक़्त है और न ही बच्चों के पास अपने बड़ों के लिए है.

ज़िंदगी की आपाधापी में रिश्ते कहीं खो गए हैं. शायद, इसीलिए, अब लोग परछाइयों यानी वर्चुअल दुनिया में रिश्ते तलाशने लगे हैं. लेकिन अफ़सोस यहां भी वे रिश्तों के नाम पर ठगे जा रहे हैं. सोशल नेटवर्किंग साइट पर ज़्यादातर प्रोफ़ाइल फ़ेक होते हैं, या फिर उनमें ग़लत जानकारी दी गई होती है. झूठ की बुनियाद पर बनाए गए रिश्तों की उम्र बस उस वक़्त तक ही होती है, जब तक झूठ पर पर्दा पड़ा रहता है. लेकिन जैसे ही सच सामने आता है, वह रिश्ता भी दम तोड़ देता है.  अगर किसी इंसान को कोई अच्छा लगता है और वह उससे उम्रभर का रिश्ता रखना चाहता है, तो उसे सामने वाले व्यक्ति से झूठ नहीं बोलना चाहिए. जिस दिन उसका झूठ सामने आ जाएगा. उस वक़्त उसका रिश्ता तो टूट ही जाएगा, साथ ही वह हमेशा के लिए नज़रों से भी गिर जाएगा. कहते हैं- इंसान पहाड़ से गिरकर तो उठ सकता है, लेकिन नज़रों से गिरकर कभी नहीं उठ सकता. ऐसा भी देखने में आया है कि कुछ अपराधी प्रवृति के लोग ख़ुद को अति सभ्य व्यक्ति बताते हुए महिलाओं से दोस्ती गांठते हैं, फिर प्यार के दावे करते हैं. बाद में पता चलता है कि वे शादीशुदा हैं और कई बच्चों के बाप हैं. दरअसल, ऐसे बाप टाईप लोग हीन भावना का शिकार होते हैं. अपराधी प्रवृति के कारण उनकी न घर में इज्ज़त होती है और न ही बाहर. उनकी हालत धोबी के कुत्ते जैसी होकर रह जाती है यानी धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का. ऐसे में वे सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपना अच्छा-सा प्रोफ़ाइल बनाकर ख़ुद को महान साबित करने की कोशिश करते हैं. वे ख़ुद को अति बुद्धिमान, अमीर और न जाने क्या-क्या बताते हैं, जबकि हक़ीक़त में उनकी कोई औक़ात नहीं होती. ऐसे लोगों की सबसे बड़ी 'उपलब्धि' यही होती है कि ये अपने मित्रों की सूची में ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को शामिल करते हैं. कोई महिला अपने स्टेट्स में कुछ भी लिख दे, फ़ौरन उसे 'लाइक' करेंगे, कमेंट्स करेंगे और उसे चने के झाड़ पर चढ़ा देंगे.  ऐसे लोग समय-समय पर महिलाएं बदलते रहते हैं, यानी आज इसकी प्रशंसा की जा रही है, तो कल किसी और की. लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती.

वक़्त दर वक़्त ऐसे मामले सामने आते रहते हैं. ब्रिटेन में हुए एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि ऑनलाइन रोमांस के चक्कर में तक़रीबन दो लाख लोग धोखा खा चुके हैं. धोखा देने वाले लोग अपनी असली पहचान छुपाकर रखते थे और आकर्षक मॉडल और सेना अधिकारी की तस्वीर अपनी प्रोफ़ाइल पर लगाकर लोगों को आकर्षित किया करते थे. ऐसे में सोशल नेटवर्किंग साइटों का इस्तेमाल करने वाले लोगों का उनके प्रति जुड़ाव रखना स्वाभाविक ही था, लेकिन जब उन्होंने झूठे प्रोफ़ाइल वाले लोगों से मिलने की कोशिश की, तो उन्हें सारी असलियत पता चल गई. कई लोग अपनी तस्वीर तो असली लगाते हैं, लेकिन बाक़ी जानकारी झूठी देते हैं. झूठी प्रोफ़ाइल बनाने वाले या अपनी प्रोफ़ाइल में झूठी जानकारी देने वाले लोग महिलाओं को फांसकर उनसे विवाह तक कर लेते हैं. सच सामने आने पर उससे जुड़ी महिलाओं की ज़िन्दगी बर्बाद होती है. एक तरफ़ तो उसकी अपनी पत्नी की और दूसरी उस महिला की जिससे उसने दूसरी शादी की है.

एक ख़बर के मुताबि़क़,  अमेरिका में एक महिला ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर अपने पति की दूसरी पत्नी को खोज निकाला. फेसबुक पर बैठी इस महिला ने साइड में आने वाले पॉपअप ‘पीपुल यू मे नो’ में एक महिला को दोस्त बनाया. उसकी फेसबुक पर गई, तो देखा कि उसके पति की वेडिंग केक काटते हुए फोटो थी. समझ में नहीं आया कि उसका पति किसी और के घर में वेडिंग केक क्यों काट रहा है? उसने अपने पति की मां को बुलाया, पति को बुलाया. दोनों से पूछा, माजरा क्या है? पति ने पहली पत्नी को समझाया कि ज़्यादा शोर न मचाये, हम इस मामले को सुलझा लेंगे. मगर इतने बड़े धोखे से आहत महिला ने घर वालों को इसकी जानकारी दी. उसने अधिकारियों से इस मामले की शिकायत की. अदालत में पेश दस्तावेज़ के मुताबिक़  दोनों अभी भी पति-पत्नी हैं. उन्होंने तलाक़ के लिए भी आवेदन नहीं किया.  पियर्स काउंटी के एक अधिकारी के मुताबिक़, एलन ओनील नाम के इस व्यक्ति ने 2001 में एलन फल्क के अपने पुराने नाम से शादी की. फिर 2009 में पति ओनील ने नाम बदलकर एलन करवा लिया था और किसी दूसरी महिला से शादी कर ली थी. उसने  पहली पत्नी को तलाक़ नहीं दिया था.

दरअसल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से रिश्ते तेज़ी से टूट रहे हैं. अमेरिकन एकेडमी ऑफ मैट्रीमोनियल लॉयर्स के एक सर्वे में यह बात सामने आई है. सर्वे के मुताबिक़ तलाक़ दिलाने वाले क़रीब 80 फ़ीसद वकीलों ने माना कि उन्होंने तलाक़ के लिए सोशल नेटवर्किंग पर की गई बेवफ़ाई वाली टिप्पणियों को अदालत में बतौर सबूत पेश किया है. तलाक़ के सबसे ज़्यादा मामले फेसबुक से जुड़े हैं. 66 फ़ीसद मामले फेसबुक से, 15 फ़ीसद माईस्पेस से, पांच फ़ीसद ट्विटर और 14 फ़ीसद मामले बाक़ी दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े हैं. इन डिजिटल फुटप्रिंट्स को अदालत में तलाक़ के एविडेंस के रूप में पेश किया गया.  अभिनेत्री इवा लांगोरिया ने बास्केट बाल  खिलाड़ी अपने पति टोनी पार्कर का तलाक़ दे दिया. इवा का आरोप है कि फेसबुक पर उसके पति टोनी और एक महिला की नज़दीकी ज़ाहिर हो रही थी. ब्रिटेन में भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से तलाक़ के मामले तेज़ी से बढ़े हैं. अपने साथी को धोखा देकर ऑनलाइन बात करते हुए पकड़े जाने की वजह से तलाक़ के मामलों में इज़ाफ़ा हुआ है. ब्रिटिश न्यूज पेपर 'द सन' के मुताबिक़  पिछले एक साल में फेसबुक पर की गईं आपत्तिजनक टिप्पणियां तलाक़ की सबसे बड़ी वजह बनीं. रिश्ते ख़राब होने और टूटने के बाद लोग अपने साथी के संदेश और तस्वीरों को तलाक़ की सुनवाई के दौरान इस्तेमाल कर रहे हैं.

सोशल नेटवर्किंग साइट की वजह से खु़दकशी के मामले भी सामने आए हैं. एक चर्चित मामला है जमशेदपुर की 22 वर्षीय आदिवासी छात्रा मालिनी मुर्मू का, जिसने अपने प्रेमी के रवैये से आहत होकर ख़ुदकुशी कर ली थी. उसका बेंगलूर में ही रहने वाले उसके ब्वायफ्रेंड से कथित तौर पर कुछ मनमुटाव और कहासुनी हुई थी. इसके बाद लड़के ने फेसबुक में अपने वॉल पर एक संदेश में लिखा था- 'मैं आज बहुत आराम महसूस कर रहा हूं. मैंने अपनी गर्लफ्रेंड को छोड़ दिया है. अब मैं स्वतंत्र महसूस कर रहा हूं. स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं.'  मामले की जांच कर रहे अधिकारियों के मुताबिक़ सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर मालिनी के ब्वॉयफ्रैंड ने उससे संबंध तोड़ लिए थे. इससे उसे गहरा आघात लगा और उसने क्लास में भी जाना छोड़ दिया. क्लास में उसे नहीं पाकर जब उसके दोस्त हॉस्टल के कमरा नंबर 421 में गए, तो उसने दरवाज़ा नहीं खोला. गार्ड्स को बुलाकर दरवाज़ा तुड़वाया गया. कमरे के भीतर मालिनी का शव पंखे से झूलता मिला. मालिनी ज़िन्दगी में एक बड़ा मुक़ाम हासिल करना चाहती थी. उसने साकची के राजेंद्र विद्यालय से दसवीं की पढ़ाई की थी. इसके बाद उसने उड़ीसा के आईटीई से बारहवीं पास की. वह आईआईएम बेंगलुरू में एमबीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी. लैपटॉप में छोड़े अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा है- ‘उसने मुझे छोड़ दिया, इसलिए आत्महत्या कर रही हूं.’ माना ज़िन्दगी में प्रेम की भी अपनी अहमियत है. मगर प्रेम ही तो सबकुछ नहीं है. ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है...और उससे भी ख़ूबसूरत होते हैं हमारे इंद्रधनुषी सपने .हमें अपनी भावनाएं ऐसे व्यक्ति से नहीं जोड़नी चाहिए, जो इस क़ाबिल ही न हो. जिस तरह पूजा के फूलों को कूड़ेदान में नहीं फेंका जा सकता, उसी तरह अपने प्रेम और इससे जुडी कोमल भावनाओं को किसी दुष्ट प्रवृति के व्यक्ति पर न्योछावर नहीं किया जा सकता.

दरअसल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जहां कुछ फ़ायदें हैं, वहीं नुक़सान भी हैं. इसलिए सोच-समझ कर ही इनका इस्तेमाल करें. अपने आसपास के लोगों को वक़्त दें, उनके साथ रिश्ते निभाएं. सोशल नेटवर्किंग साइट्स के आभासी मित्रों से परस्पर दूरी बनाकर रखें.  कहीं ऐसा न हो कि आभासी फ़र्ज़ी दोस्तों के चक्कर में आप अपने उन दोस्तों को खो बैठें, जो आपके सच्चे हितैषी हैं.

वाल्ट व्हिटमेन के शब्दों में " ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई, तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...


डॊ. सौरभ मालवीय
मध्यप्रदेश के उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ कुंभ के दौरान 12 से 14 मई तक निनौरा में तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ का आयोजन किया गया. इस दौरान धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर भी खुलकर चर्चा की गई. वक्ताओं ने कृषि, पर्यावरण, शिक्षा, संस्कृति, भाषा, चिकित्सा, स्वच्छता, महिला सशक्तिकरण आदि विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए देश और समाज के उत्थान पर बल दिया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विचार कुंभ को संबोधित करते हुए संत-महात्माओं से आग्रह किया कि वे धरती की समस्याओं पर प्रतिवर्ष सात दिन का विचार कुंभ आयोजित करें. उन्होंने कहा कि आदिकाल से चले आ रहे कुंभ के समय और कालखंड को लेकर अलग-अलग मत है, लेकिन इतना निश्चित है कि यह मानव की सांस्कृतिक यात्रा की पुरातन व्यवस्था में से एक है. इस विशाल भारत को अपने में समेटने का प्रयास कुंभ मेले के माध्यम से ही होता है. उन्होंने कहा कि समाज की चिंता करने वाले ऋषि-मुनि 12 वर्ष में एक बार प्रयाग में कुंभ में एकत्रित होते थे, जिसमें वे विचार विमर्श करते हुए विगत वर्ष की सामाजिक स्थिति का अध्ययन करते थे, उसका विश्लेषण करते थे. इसके साथ ही समाज के लिए आगामी 12 वर्षों की दिशा तय करके योजना बनाते थे. उन्होंने कहा कि प्रयाग से अपने-अपने स्थान पर जाकर संत महात्मा योजना पर कार्य करने लगते थे. इतना ही नहीं तीन वर्ष में उज्जैन, नासिक, इलाहाबाद में होने वाले कुंभ में जब वे एकत्रित होते थे, तब विमर्श करते थे कि प्रयाग में जो योजना बनाई गई थी, उस पर क्या कार्य हुआ और क्या नहीं हुआ. तत्पश्चात आगामी तीन वर्ष की योजना बनाई जाती थी. यह एक अद्भुत सामाजिक संरचना थी,  परंतु समय के साथ इसके रूप में परिवर्तन आया. अब कुंभ केवल डुबकी लगाने, पाप धोने और पुण्य कमाने तक ही सीमित होकर रह गया है.   उन्होंने कहा कि विचार कुंभ के माध्यम से उज्जैन में एक नया प्रयास प्रारंभ हुआ है. यह प्रयास शताब्दियों पुरानी परंपरा का आधुनिक रूप है. इस आयोजन में वैश्विक चुनौतियों और मानव कल्याण के क्या प्रयास हो सकते हैं, इस पर विचार हुआ है. इस मंथन से जो 51 अमृत बिंदु निकले है, अब उन पर कार्य होना चाहिए. उन्होंने उपस्थित साधु-संतों और अखाड़ों के प्रमुख से आह्वान किया कि वे इन 51 अमृत बिंदुओं पर प्रतिवर्ष एक सप्ताह का विचार कुंभ अपने भक्तों के बीच करने पर विचार अवश्य करें, ताकि विचारों को मूर्त रूप दिया जा सके.

विचार कुंभ को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि विकास करते समय प्रत्येक देश की प्रकृति का विचार करना चाहिए. ऐसा ही परिवर्तन दुनिया की वैचारिकता में दिखाई दे रहा है. विविधता को स्वीकार किया जा रहा है और दुनिया कहने लगी है कि विविधता को अलंकार के रूप में देखना चाहिए, दोष के रूप में नहीं. अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि विविधता को स्वीकार कर सम्मानित करना चाहिए, केवल सहिष्णुता नहीं, उससे भी आगे जाना है. उन्होंने कहा कि अस्तित्व के लिए संघर्ष करने के बजाय अब समन्वय की ओर जाना पड़ेगा, धीरे-धीरे सभी लोग यह मानने लगे हैं. व्यवस्था समतायुक्त और शोषणमुक्त होनी चाहिए. जब तक सभी को सुख प्राप्त नहीं होता, तब तक शाश्वत सुख दिवास्वप्न है. उन्होंने यह भी कहा कि भारत में जन्म लेने वाले लोगों की दो माताएं हैं, एक जन्म देने वाली और दूसरी भारत माता. जन्म देने वाली माता के कारण शरीर मिला, मातृभूमि के कारण संस्कार मिला, पोषण मिला. उन्होंने कहा कि भारत की परंपरा के अनुसार सारे जीव सृष्टि की संतानें हैं. मनुष्यता का संस्कार देने वाली सृष्टि है. मध्य प्रदेश में कुंभ की वैचारिक परंपरा को पुनर्जीवित किया जा रहा है. आज विश्वभर के चिंतक, विचारक एक हो गए हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से कहा गया है कि सनातन परंपरा में इन सत्यों की बहुत पूर्व से जानकारी है. आज के परिपेक्ष्य में हमें सनातन मूल्यों के प्रकाश में विज्ञान के साथ जाना होगा. यह करके विश्व की नई रचना कैसी हो, इसका मॉडल अपने देश के जीवन में देना होगा.

जूना पीठाधीश्वर महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि ने कहा कि अगली सदी भारत की सदी है, क्योंकि जब पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति थक जाएगी, तब भारत के आध्यात्मिक नेतृत्व की आवश्यकता होगी. भारत की भूमि से ही आध्यात्मिक मार्ग निकलेगा, जो विश्व का मार्गदर्शन करेगा. उन्होंने कहा कि मनुष्य की दो विशेषता प्रधान हैं कर्म की स्वायत्तता और चिंतन की स्वतंत्रता. मनुष्य का संकल्प जैसा होगा उसकी सिद्धि भी वैसी ही होगी. संकल्प की पवित्रता से सकारात्मकता आती है. उन्होंने कहा कि विश्व में गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए अच्छा वातावरण उत्पन्न करने की आवश्यकता है. अधिकारों के प्रति जाग्रति तो बढ़ी है, परंतु कर्त्तव्यों के प्रति विस्मृति भी बढ़ी है. वर्तमान समय में परोपकार की प्रवृत्ति पैदा करने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि यह विचार-कुंभ विश्व को अधिक से से अधिक वृक्ष लगाने और पृथ्वी को हरा-भरा बनाने का संदेश देगा. उन्होंने क्षिप्रा नदी के किनारे वृहद वृक्षारोपण का आह्वान किया,  ताकि हरित क्षेत्र बढ़ सके. श्री चिदानंद स्वामी ने कहा कि नदियों के किनारे इतना पेड़ लगाएं कि हरित क्षेत्र बन जाए. जन्मदिन पर पेड़ लगाएं और पेड़ लगाने का बहाना तलाशें.

योगगुरु और पतंजलि आयुर्वेद के प्रमुख बाबा रामदेव ने कृषि एवं कुटीर उद्योग पर चर्चा करते हुए कहा कि देश की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए कुटीर उद्योग की वस्तुओं को अपनाना होगा. कुटीर उद्योग का बहुत बड़ा क्षेत्र है और यह आवश्यक है कि इसे आम जनता प्रोत्साहित करे. उन्होंने कहा कि अगर हम हाथ से बने सामान का ही उपयोग करने लगें, तो इसका लाभ कर्मकारों के साथ देश को भी होगा, क्योंकि तब देश की मुद्रा बाहर नहीं जाएगी.  हमें सूती कपड़े पहनने चाहिए, जिससे भारतीय बुनकरों, कामगारों को काम मिल सके. उन्होंने कहा कि स्वदेशी को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां बनाई जानी चाहिए. उन्होंने लोगों से आह्वान किया कि वे भी कुटीर उद्योग की ओर बढ़ें और जो लोग प्रशिक्षण हासिल करके शैम्पू, साबुन आदि बनाना चाहते हैं, उन्हें वह प्रशिक्षण देंगे.

इस अवसर पर भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव ने कहा कि जीवन को सुलभ और सरल बनाने के लिए भारतीय पुरातन शास्त्रों का परायण करना चाहिए. सर्वे भवन्तु सुखिनः की अवधारणा का पालन का करना चाहिए. अच्छे के साथ अच्छा और बुरे का साथ भी अच्छा करना चाहिए.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विचार महाकुंभ के उद्देश्य की चर्चा करते हुए कहा कि कुंभ का संबंध ही विचार-मंथन से है. उन्होंने कहा कि संतों की विचार प्रक्रिया से कल्याणकारी राज्य का कल्याण हो, यही उददेश्य है. भारत में सभी तरह के विचारों, विचार-पक्रियाओं और दर्शन का आदर किया गया है. सभी को पर्याप्त आदर और सम्मान है. आज के समय में सबसे बडी चिंता यह है कि मानव जीवन गुणवत्तापूर्ण कैसे हो. कौन से तरीके और व्यवहार हैं, जिनसे मानव जीवन सुखी और अर्थपूर्ण बन सकता है. विज्ञान और आध्यात्मिकता या दोनों के परस्पर मेल से यह संभव है. इसलिए इस पर विचार करना आवश्यक है. विज्ञान और अध्यात्म दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. उन्होंने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग, परंपरागत खेती, मूल्य आधारित जीवन, धर्म और आध्यात्म जैसे विषयों का वैश्विक महत्व है. उन्होंने महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने पर बल दिया. इसके साथ ही उन्होंने राज्य सरकार की योजनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि सत्ता के सूत्र शक्ति रूपा महिलाओं हाथ में सौंपेंगे. पुलिस सहित अन्य विभागों की भर्ती में 33 प्रतिशत महिलाओं को आरक्षण मिलेगा. अगले शैक्षणिक सत्र से शिक्षा के पाठ्यक्रम में महिला सशक्तिकरण, आत्म निर्भरता, स्वाभिमान, संवेदनशीलता के पाठ शामिल किए जाएंगें. किसी भी विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन को प्रतिबंधित किया जाएगा और इसके लिए हम कानून भी बनाएंगे. महिला मजदूरों को समान कार्य का समान वेतन दिया जाएगा. मध्यप्रदेश में शराब की कोई भी नई दुकान नहीं खोली जाएगी और नशामुक्ति अभियान चलाया जाएगा. राज्य को शक्ति प्रदेश बनाएंगे, जिसमें महिलाओं को संपूर्ण अधिकार दिए जाएंगे. बेटा-बेटी बराबर हैं, यह जनअभियान चलाया जाएगा.

साध्वी ऋतम्भरा ने कहा कि नारी निकेतन किसी समस्या का हल नहीं है. नारी को आंतरिक और बाहरी रूप से सशक्त बनाने के लिए नीति बनाने की आवश्यकता है. महिलाओं को रोटी कमाने लायक बनाए.
श्रीमती मृदुला सिंन्हा ने कहा कि महिलाओं के लिए विशेष योजनाओं की महती आवश्यकता है. शिक्षा पाठ्यक्रमों में नारी उत्थान के पाठ शामिल किए जाने चाहिए. बच्चों को चाहिए कि वे माता-पिता को वृद्धाश्रम नहीं भेजें. उन्होंने कहा कि विवाह करना अनिवार्य नहीं, बल्कि आवश्यक है. इस संबंध को निभाना चाहिए.
सुश्री साध्वी भगवती ने कहा कि बड़ा होना जरूरी नहीं, बल्कि बढ़िया होना जरूरी है, यह भाव भारतीय जनमानस में पैदा करने हेतु अभियान चलाया जाना चाहिए. नारी के अंदर विद्यमान अच्छे संस्कारों को प्रोत्साहित करने हेतु शुभ शक्ति नामक योजना संचालित की जानी चाहिए.

शिव भरत गुप्त ने कहा कि स्त्री के चरित्र को लांक्षित करने वाले लोगों और कथनों को रोकने के लिए एक विशेष कानून होना चाहिए. स्त्री की प्रकृति के अनुरूप रॊल मॊडल तैयार करना चाहिए, जो उनके अनुकूल हो. स्त्रियों के सशक्तिकरण के लिए केवल आरक्षण एक मात्र समाधान नहीं है, उसके लिए एक सोशल रॊल मॊडल तैयार करना होगा, ऐसी सामाजिक और नई संस्थाएं बनानी होंगी, जिससे परिवार और बच्चों के साथ-साथ महिलाओं के अकेलेपन को दूर किया जा सके, इसके लिए भी महिलाओं को ही जिम्मेदारी सौंपनी होंगी.
यूएन वीमेन की सदस्य अंजू पांडे ने कहा कि कार्यशील महिलाओं के कार्य या गृह कार्य का भी मूल्यांकन होना चाहिए. महिलाओं के अनपेड वर्क पर ध्यान केन्द्रित कर उस पर भी विमर्श होना चाहिए. पुरुषों की मानसिक स्थिति बदलने के लिए भी सरकारी प्रयास किए जाने चाहिए.
सुश्री निवेदिता बिड़े ने कहा कि समाज में महिलाओं के प्रति सोच बदलने एवं उनका आदर करने के लिए जनजाग्रति हेतु योजनाएं बनाई जाएं. स्त्री-पुरूष में समानता एवं भ्रूण हत्या रोकने से समाज में एकात्मता एवं आत्मीयता का भाव उत्पन्न होगा.
सुश्री गीता बलवंत गुण्डे ने कहा कि समाज में लिंग भेद के प्रति सामाजिक संवेदना पैदा करने की आवश्यकता है. भारतीय विकास की अवधारणा के आधार पर बाल विकास को मॊडल बनाया जाना चाहिए. शिक्षा के द्वारा महिलाओं में आत्मविश्वास को बढ़ाए जाने की नीति बनाने की आवश्यकता है.
स्वामिनी विमला नंदनी ने कहा कि बच्चों में बाल्यकाल की आयु में संपूर्ण विकास की कार्ययोजना बने. मां के गर्व से ही कन्या के प्रोत्साहन को बढ़ावा दिया जाए.

विचार कुंभ में 45 देशों से आए प्रतिनिधियों ने भाग लिया. विभिन्न मुद्दों पर विदेशी वक्ताओं ने भी अपने विचार रखे. श्रीलंका के वरिष्ठ सलाहकार सतत विकास एवं वन मंत्रालय मिस्टर उच्चिता डि जोयसा ने पर्यावरण परिवर्तन और सतत विकास पर चर्चा करते हुए कहा कि हमें विकास के साथ संरक्षण पर बल देना चाहिए. सतत स्थाई विकास पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए. भविष्य की पीढ़ी और पर्यावरण को ध्यान में रखकर ही विकास करना चाहिए. विश्व के 193 देशों के द्वारा न्यूयार्क में किए गए पर्यावरणीय विमर्श और उसके निष्कर्षों को संपूर्ण विश्व में लागू किए जाने के प्रयास किए जाने चाहिए. पृथ्वी के भविष्य पर चिंतन करना अनिवार्य है. पर्यावरणीय स्तर पर नवीन विश्व नीति को तैयार करना चाहिए. गरीबी के लिए भोजन, स्वास्थ्य, स्वच्छ जल, प्रदान करने हेतु प्रयास किए जाने चाहिए.

अमेरिका के न्यूयार्क स्थित सिटी यूनिवर्सिटी की प्रो. रेबेक्का ब्रेट्सपीस ने कहा कि भोजन के मानकीकरण और फूड सिक्योरिटी को बढ़ावा देने के साथ ही भोजन की बर्बादी को राकने हेतु विशेष प्रयास किए जाने चाहिए.
अमेरिका की ओक्लाहामा यूनिवर्सिटी के डॊ. सुभाष ने कहा कि प्राचीन धंधों या प्राचीन व्यवसाय पद्धतियों को लुप्त होने से बचाने का प्रयास करना चाहिए. भारतीय संस्कृति के पर्यावरणीय पक्षों को उजागर करने पर बल देना चाहिए. आत्म विद्या और प्राचीन भारतीय विज्ञान को प्रसारित करना चाहिए. जड़-चेतनमय विज्ञान के विकास पर बल देना चाहिए.
संयुक्त राज्य अमेरिका से आए वैदिक शिक्षाविद डेविड फ्राले (पंडित वामदेव शास्त्री) ने कहा कि आयुर्वेद और योग वेदांत का आधुनिकीकरण करना चाहिए, ताकि वह अत्यधिक प्रभावी बन सके. एलोपैथिक की अपेक्षा आयुर्वेद पर विशेष बल दिया जाना चाहिए. आयुर्वेद और योग की शिक्षा प्रत्येक बच्चे को बाल्यावस्था से दिया जाना अनिवार्य होना चाहिए. संयुक्त राज्य अमेरिका के ही वैदिकवेत्ता माइकल ए. क्रीमो (धु्रपद कर्मा) ने कहा कि वैदिक ज्ञान और संस्कृति के अध्ययन को बढ़ावा देना चाहिए. शांति और सद्भाव के गुरुकुल शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.
अमेरिका से आई योगिनी साम्भवी ने कहा कि समझ हमारी मूल प्रकृति है, सबसे पहले हमें अपने आप को ही समझने की आवश्यकता है.
दक्षिण कोरिया के प्रो. गी लोंग ली ने कहा कि दर्द से हमें भागना नहीं चाहिए, हम इसी के माध्यम से विवेक, मुक्ति और निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं.
जापान से आए यसुआ कामाता ने कहा कि हर किसी को पूर्णतावादी सोच की ओर बढ़ना चाहिए. संकीर्ण मानसिक स्थिति से बचना चाहिए.
थाइलैंड से आए पर्यावरणविद् बिक्कुनी धर्मनंदा ने कहा कि महिलाओं पहले से ही सशक्त हैं, बस उनकी शक्ति को छीना न जाए, उन्हें आगे बढ़ने का भरपूर मौका दिया जाना चाहिए. उन्हें आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए.
कम्बोडिया के गेसी सम्पटेन ने कहा कि योग मनुष्य का अंतिम सत्य है, और किसी किताब से आप इसे नहीं सीख सकते, इसे केवल अभ्यास से ही सीखा जा सकता है. अतः योग और ध्यान के व्यावहारिक पहलू पर ध्यान देना चाहिए.
कम्बोडिया के ही सॊन सुबर्ट ने कहा कि किसान जो हमारा पेट भरते हैं, उनके आत्म सम्मान और गरिमा का सरकार विशेष ध्यान रखना चाहिए.

बांग्लादेश के मुख्य सूचना आयुक्त मोहम्मद ग़ुलाम रहमान ने कहा कि मीडिया को महिलाओं के सकारात्मक स्वरूप और उनके लिए अनुकूल वातावारण को तैयार करने हेतु भरसक प्रयास करने चाहिए.
डॊ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि मीडिया की स्वतंत्रता के साथ उसकी विश्वसनीयता बनी रहे, इसके लिए भारतीय प्रेस परिषद की तरह एथिकल रेगुलेटरी अथॊरिटी बनाने की आवश्यकता है. बार काउंसिल ऒ इंडिया की तरह ही पत्रकारों का भी पंजीकरण जरूरी होना चाहिए. पत्रकार बनने के लिए न्यूनतम मानदंड स्थापित करने की आवश्यकता है.
श्री सक्रांत सानु ने कहा कि पारम्परिक शिक्षा पद्धति को पुनर्जीवित करना होगा. मीडिया की विश्वसनीयता को बढ़ाने के लिए पत्रकारों को प्राप्त सुविधाओं का पत्रकारों द्वारा खुलासा किया जाना चाहिए. कोई भी देश अपनी भाषा के बिना विकसित नहीं हो सकता, लिहाजा मातृभाषा में शिक्षण तंत्र को विकसित करने की आवश्कता है.
प्रो. टीएन सिंह ने कहा कि शिक्षात्मक उपलब्धियों को जनमाध्यमों द्वारा सही माध्यम से सही लोगों तक पहुंचाना चाहिए. मीडिया को खबरें उन्हीं संदर्भों में दिखानी चाहिए, जो समाज के लिए उपयोगी हैं. शिक्षा के क्षेत्र में जो अच्छा काम कर रहे हैं, उन्हें मीडिया द्वारा महत्व दिया जाना चाहिए.

डॊ. विनय सहस्त्रबुद्धे ने स्वच्छता पर चर्चा करते हुए कहा कि जिस ग्रामीण परिवार के पास अपना शौचालय नहीं होगा, उसे चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि किसी भी कीमत पर पानी को खुला न छोड़ा जाए.
पांडिचेरी स्थित अरविन्दो आश्रम के श्रद्धालु रनाडे ने कहा कि हर किसी को चाहिए कि वह अपने में सातत्य भाव, एकत्व भाव, अनन्तता बोध और भारतीय बोध का विस्तार करता करे.

विचार कुंभ आयोजन समिति के अध्यक्ष अनिल माधव दवे ने जैविक खेती को प्रोत्साहित करने पर बल देते हुए कहा कि किसानों को शून्य बजट खेती के लिए (सुभाष पालेकर मॊडल) प्रेरित किया जाए. देशी गायों को प्रत्येक परिवार में पाल कर कृषि को संबल दिया जा सकता है.

अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ के आयोजन के माध्यम से भारत की गौरवशाली परंपरा को जीवित रखने का प्रयास किया गया. जिस प्रकार वक्ताओं ने देश और समाज से जुड़े विषयों पर विचार-विमर्श किया और जनहित में कार्य करने का आह्वान किया, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि विचार महाकुंभ अपने उद्देश्य में सफ़ल रहा है.


फ़िरदौस ख़ान
भारत विभिन्न संस्कृतियों का देश है. हर संस्कृति की अपनी-अपनी परंपराएं और अपने रीति-रिवाज हैं. यहां अमूमन सभी त्योहारों और मांगलिक कार्यों में पूरी आस्था के साथ परंपराओं और रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है. यहां जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक संस्कार होते हैं. इन्हीं में से एक संस्कार है पाणिग्रहण. हिंदू धर्म में इसे सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना जाता है. पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है. हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच सात जन्मों का रिश्ता माना जाता है. मंत्रोच्चारण के बीच अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर स्त्री-पुरुष तन और मन से एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं. भारतीय विवाह ख़ास होते हैं, क्योंकि इनमें ढेर सारे रीति-रिवाज होते हैं. ये रस्में विवाह से पहले शुरू हो जाती हैं और विवाह के बाद तक चलती हैं. ये परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं और इनके बिना विवाह पूर्ण नहीं होते, वह चाहे सगाई की रस्म हो, हल्दी- मेहंदी की रस्म हो या फिर दुल्हन की मुंह दिखाई की रस्म. हर परंपरा का अपना अलग महत्व है, अपनी अलग गरिमा और पहचान है. ये रस्में ही तो हैं, जो विवाह को और भी ज़्यादा यादगार बना देती हैं. छोटी-छोटी रस्में यादों में हमेशा के लिए बस जाती हैं.

विवाह से जुड़ी एक अहम रस्म है हल्दी लगाना. विवाह से पहले दुल्हन और दूल्हा हो सुहागिनें हल्दी यानी उबटन लगाती हैं. दुल्हन को उबटन लगाने के लिए दूल्हा के घर से महिलाएं आती हैं. इस उबटन में बेसन, हल्दी, चंदन, केसर और खु़शबू वाला तेल मिलाया जाता है. आजकल तो बाज़ार में तैयार उबटन मिलते हैं. बस उसमें तेल मिलाना होता है. उबटन से दूल्हा और दुल्हन की त्वचा कोमल हो जाती है और रंग भी निखर जाता है. इस रस्म के वक़्त दुल्हन को पीले कपड़े पहनाये जाते हैं और उसे फूलों के गहनों से सजाया जाता है. इसी तरह दुल्हन के घर की महिलाएं दूल्हे को हल्दी लगाने के लिए उसके घर जाती हैं. इस रस्म के बाद दूल्हा और दुल्हन के एक-दूसरे से मिलने पर रोक लग जाती है और यह पाबंदी विवाह तक रहती बनी है. विवाह से एक दिन पहले दूल्हा और दुल्हन को मेहंदी लगाई जाती है. दुल्हन को दूल्हा के घर से आई हुई मेहंदी लगती है. महिलाएं रतजगा करती हैं. रातभर संगीत की महफ़िल सजती है, जिसमें नाच-गाना शामिल होता है. इस दौरान सजी-धजी महिलाएं अपने-अपने हुनर का प्रदर्शन करती हैं. इसी तरह दूल्हा के हाथ पर भी शगुन के तौर पर मेहंदी लगाई जाती है. इस दौरान दूल्हे के घर भी जश्न का माहौल होता है. दूल्हे के दोस्त ख़ूब नाच-गाना करते हैं. अगले दिन शुभ मुहूर्त में मंत्रोच्चारण के बीच स्त्री-पुरुष विवाह के पवित्र बंधन में बंध जाते हैं. वर-वधू अपने बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं. वर-वधू के नाते-रिश्तेदार और मित्र विवाह में शामिल होते हैं. विवाह समारोह के दौरान अनेक छोटी-छोटी रस्में होती हैं. लड़की हमेशा के लिए अपने मायके से जा रही होती है, इसलिए माहौल थोड़ा गंभीर होता है, लेकिन जीजा-सालियों की हंसी-ठिठोली माहौल को ख़ुशनुमा बना देती हैं. वर-वधू का द्वार सालियां व बहनें रोकती हैं. फिर दूल्हे द्वारा उन्हें नेग दिया जाता है. विवाह के बाद दुल्हन की मुंह दिखाई की रस्म होती है, जिसमें ससुराल की महिलाएं दुल्हन का घूंघट खोलकर उसका चेहरा देखती हैं और उसे नेग देती हैं.

ख़ास बात यह भी है कि विवाह की रस्मों में जिन चीज़ों का इस्तेमाल किया जाता है, उनका भी विशेष महत्व होता है, जैसे हल्दी, बेसन, केसर, घी, नारियल, पान, दूध, दही, पानी आदि. विवाह में चावल का भी ख़ूब काम आता है. चावल को शुद्ध और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है. नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद देने के लिए उनके ऊपर चावल छिड़का जाता है. मान्यता है कि चावल शुद्ध होने की वजह से नकारात्मक चीज़ों को दूर भगाता है, इसलिए विवाह के दौरान दूल्हा प्रज्जवलित अग्नि में चावल भी डालता है. कुलदेवी को भी चावल अर्पित किया जाता है. विवाह के बाद विदाई के वक़्त दुल्हन अपने हाथों में चावल भरकर सिर के पीछे की ओर फेंकती है. फिर दुल्हन ससुराल पहुंचकर चावल से भरे कलश को अपने पैरों से गिराकर घर में दाख़िल होती है. इन दोनों रस्मों के ज़रिये दुल्हन यह दुआ करती है कि उसके मायके और ससुराल दोनों में ख़ुशहाली हमेशा बनी रहे. इसी तरह धार्मिक रीति-रिवाजों में पान और सुपारी का भी इस्तेमाल किया जाता है. सुपारी को देवी का प्रतीक माना जाता है, जबकि पान ताज़गी और समृद्धि का प्रतीक है. पान को दूल्हा और दुल्हन के सिर पर लगाया जाता है. दूल्हे के परिवार का स्वागत भी पान से किया जाता है. विवाह की कई रस्मों में पान काम आता है. नारियल भी समृद्धि का प्रतीक माना जाता है. मेहमानों को धन्यवाद के प्रतीक के रूप में पान के साथ नारियल भी दिया जाता है. विवाह के विभिन्न रीति-रिवाजों में पानी का भी ख़ूब इस्तेमाल होता है. पानी शुद्ध नदियों का प्रतीक है. यह जीवन का आधार है. इसके अलावा आम, केला, नीम और तुलसी के पत्तों का इस्तेमाल भी विवाह के विभिन्न रीति-रिवाजों में किया जाता है. इनके पत्ते शुद्धता के प्रतीक हैं. जब दुल्हन गृह-प्रवेश करती है, तो उस वक़्त गुड़ खिलाकर उसका स्वागत किया जाता है, ताकि रिश्तों में हमेशा मिठास बनी रहे. घी को पवित्र माना जाता है और विवाह की रस्मों के दौरान इसका भी ख़ूब इस्तेमाल होता है. विवाह के बाद की कई रस्मों में दही का इस्तेमाल भी होता है. कई रस्मों में दूध भी उपयोग में आता है.

 दरअसल, इन परंपराओं और रीति-रिवाजों के बिना विवाह की खु़शी अधूरी है. ये रस्में माहौल में ख़ुशियों के रंग भर देती हैं. विदेशी भी इन रस्मों के आकर्षण में बंधे यहां विवाह करने के लिए चले आते हैं. ऐसे बहुत से उदाहरण हैं. 23 अक्टूबर, 2010 को ब्रिटिश हास्य अभिनेता रसेल ब्रांड और गायिका कैटी पेरी ने रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान के नज़दीक वैदिक रीति-रिवाज से विवाह किया था. इससे पहले मार्च 2007 में अभिनेत्री लिज हर्ले और व्यापारी अरुण नायर ने जोधपुर में पारंपरिक भारतीय पद्धति से विवाह किया था. हाल में 31 दिसंबर, 2013 को आगरा में फ्रांसीसी जोड़े ने वैदिक रीति से विवाह किया. फ्रांस के रहने वाले जेन क्लाउड और उनकी महिला मित्र नथालिया भारत भ्रमण पर आए थे. दोनों 30 दिसंबर को आगरा पहुंचे. वह ताजमहल देखने गए और शहंशाह शाहजहां और उनकी बेगम मुमताज़ की मोहब्बत की दास्तान सुनकर मुग्ध हो गए. इस प्रेमकथा से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भारतीय रीति-रिवाज से विवाह करने का फ़ैसला कर लिया. जेन क्लाउड और नथालिया दूल्हा, दुल्हन के लिबास में सज-संवर कर कैलादेवी मंदिर में पहुंचे. जेन क्लाउड ने नथालिया को मंगलसूत्र पहनाया और अग्नि के सात फेरे लिए. विवाहित जोड़े का कहना है कि वे भारत की संस्कृति से बहुत प्रभावित हैं. यहां आकर उन्हें पता चला कि भारत में वैदिक रीति से विवाह को सात जन्मों का बंधन माना जाता है. यहां रिश्तों की मिठास और रीति-रिवाजों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया, इसीलिए उन्होंने वैदिक रीति से विवाह किया. इससे पहले 25 दिसंबर, 2013 को मध्य प्रदेश के इंदौर में तीन विदेशी जोड़ों ने हिंदू रीति-रिवाजों के साथ विवाह किया. सभी वर-वधू भारतीय परिधानों में सजे-धजे थे. दूल्हों ने शेरवानी पहनी और साफ़ा बांधा. दुल्हनों ने लाल साड़ी पहनी और खु़द को पारंपरिक गहनों से सजाया. मंडप भी सजा और मंत्रोच्चारण के बीच सात फेरे लेकर वे विवाह के पवित्र बंधन में बंध गए. मैक्सिको की मारिया फ्लांडेज कैस्टिलो ने मैक्सिको के ही डेमियन उगाल्डे को वरमाला पहनाई. इंग्लैंड की लूसी हॉवेल ने आयरलैंड के डर्मोट ग्रीन को वरमाला पहनाई और स्पेन की मेंचू हर्नाडेज ने इंग्लैंड के ओलिवर एलिस को वरमाला पहनाकर हमेशा के लिए अपना बना लिया. इससे क़रीब एक माह पहले 19 नवंबर, 2013 को रूस के सेंट पीर्ट्सबर्ग से आए तीन जोड़ों ने उत्तराखंड के कनखल में वैदिक रीति से विवाह किया. ततियाना शूबेएकोव अपने मंगेतर ऑटोमोबाइल इंजीनियर सरनोव के साथ सात फेरे लिए. उनका कहना है कि उनकी दादी का विवाह धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने कराया था और मां का विवाह प्रख्यात योगाचार्य बीकेएस आयंगर ने संपन्न कराया था. वह भी अपनी दादी और मां की तरह वैदिक रीति-रिवाज के साथ विवाह करना चाहती थीं, इसलिए भारत आईं. प्रोफेसर मैक्सीम ने अपनी मंगेतर येकटरीना से विवाह किया. मैक्सीम और येकटरीना का मानना है कि उनकी शादीशुदा ज़िंदगी ख़ुशहाल रहेगी. उनका कहना है कि भारत ऐसा अद्भुत देश है, जहां एक बार पाणिग्रहण संस्कार हो जाने के बाद जोड़ो को मौत ही जुदा करती है. आना कालीनीना का विवाह उनके मंगेतर व्यापारी अलेक्जेंडर के साथ संपन्न हुआ. आना कालीनीना और उनके मंगेतर अलेक्जेंडर भी वैदिक रीति-रिवाज के साथ विवाह करके बहुत ख़ुश हैं. तीन जोड़ों के विवाह को संपन्न कराने में चार भाषाएं इस्तेमाल की गई थीं. मंत्र संस्कृत में पढ़े गए और उनका अर्थ पंडितजी ने हिंदी में बताया. बाद में इसका अंग्रेजी अनुवाद किया गया, जबकि एक रूसी दुभाषिये ने जोड़ों को रूसी भाषा में मंत्रों का अर्थ समझाया. ये तीनों जोड़े वास्तु सीखने के लिए हरिद्वार आते रहे हैं, इसलिए इस इलाक़े उन्हें लगाव हो गया है. वे कहते हैं कि विवाह के बाद इस जगह से उनका रिश्ता अब और भी गहरा हो गया है.

 इसी तरह 11 मार्च, 2012 को वाराणसी में एक विदेशी जोड़े ने वैदिक रीति से विवाह किया. वाराणसी के कबीरचौरा स्थित एक लॊन में यह विवाह संपन्न हुआ. पेशे से पत्रकार अमेरिका (वाशिंगटन प्रांत) के सिएटल शहर निवासी डोरिक जानसन घोड़ी पर सवार होकर विवाह स्थल पर पहुंचे, जहां सिएटल की एक कंपनी में सीईओ शैरी डांटोनियो लाल जोड़े में सजी उनका का इंतजार कर रही थी. इस मंडप में सरोद वादक विकास महाराज के पुत्र बालम महाराज और वधू सुहाना मिश्रा का विवाह हुआ था. इसी विवाह मंडप में विदेशी युगल ने भी फेरे लिए. विदेशी युगल ने विकास महाराज से हिंदू रीति से विवाह की इच्छा जताई थी. डोरिक के माता-पिता के रूप में भी रस्में विकास महाराज और उनकी पत्नी ने ही निभाईं. 7 मार्च, 2009 में राजस्थान के पुष्कर में स्विट्जरलैंड के पहले से ही शादीशुदा जोड़े ने अपने रिश्ते को और भी मज़बूत करने के लिए वैदिक रीति से विवाह किया. स्विट्जरलैंड निवासी विनसेंट और उसकी पत्नी किकि ने पुष्कर के रावणा राजपूत समाज के चारभुजा मंदिर में वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच अग्नि के समक्ष सात फेरे लगाए और एक दूसरे को वरमाला पहनाई. दोनों से आठ साल पहले प्रेम विवाह किया था. उनका कहना थी कि यह दिन उनके लिए यादगार रहेगा. जून 2004 में जयपुर में स्विटज़लैंड के मारकोस और अलम्सा ने वैदिक रीति से विवाह किया था.  स्विटज़रलैंड के एक ऐसे ही प्रेमी जोड़े ने जयपुर में स्थानीय रीति रिवाज़ से विवाह किया. अलाम्सा का मानना था कि भारत में विवाह ज़्यादा कामयाब हैं, क्योंकि विवाह का अपना पारंपरिक तरीक़ा है. मारकोस का कहना था कि भारतीय विवाह में रौनक़ बहुत होती है, जो उन्हें बहुत पसंद आई. क़ाबिले-ग़ौर है कि सभी विदेशी दुल्हनें भारतीय दुल्हनों की तरह सजती-संवरती हैं. लाल लिबास, मांग में सिंदूर, मेहंदी से सजे हाथों में चूड़ियां, पारंपरिक गहने और फूलों के गजरे लगाए ये दुल्हनें किसी अप्सरा से कम नहीं लगतीं. दूल्हे भी पारंपरिक शेरवानी और साफ़ों में नज़र आते हैं.

इसे विडंबना ही कहेंगे कि आज जब भारतीय युवा अपनी संस्कृति से विमुख होकर पश्चिम की लहर में बह रहे हैं, वहीं विदेशियों में भारतीय संस्कृति और परंपराओं में आस्था बढ़ रही है. हर सल सैकड़ों विदेशी जोड़े भारत आते हैं और वैदिक रीति से विवाह करते हैं. भारतीय प्राच्य विद्या सोसायटी के अध्यक्ष डॉ. प्रतीक मिश्रपुरी के मुताबिक़ वह खु़द साठ विदेशी जोड़ों का वैदिक रीति से विवाह करा चुके हैं. उनका कहना है कि विदेशियों के मन में तलाक़ का डर रहता है. इसलिए वे ऐसी पद्धतियों की तलाश में रहते हैं, जिनसे उनका विवाह लंबे वक़्त तक चल सके. एक अनुमान के मुताबिक़ अकेले राजस्थान में हर साल तक़रीबन तीन सौ विदेशी जोड़े विवाह करते हैं.

यह भारतीय परंपराओं और रीति-रिवाजों का आकर्षण ही है, जो विदेशियों को भी भारत आकर वैदिक रीति से विवाह रचाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. बेशक, यही परंपराएं और रीति-रिवाज हमारी गौरवशाली संस्कृति का प्रतीक हैं. 

सरफ़राज़ ख़ान
अरावली की मनोरम पर्वत मालाओं के अंचल में स्थित सोहना अपने गर्म पानी के चश्मों के लिए प्राचीनकाल से ही प्रसिध्द है. दिल्ली से करीब 50 किलोमीटर दिल्ली-अलवर मार्ग पर हरियाणा में बसा यह नगर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर होने के कारण तीर्थ यात्रियों व पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. दिल्ली, जयपुर, अलवर, पलवल व गुड़गांव से आने वाली सड़कों का मुख्य केंद्र होने के कारण यहां सालभर श्रध्दालुओं का जमघट लगा रहता है.

किवदंती है कि सोहना को महर्षि सोनक ने बनाया था.  इसलिए उन्हीं के नाम पर स्थल का नाम सोहना पड़ा. कुछ विद्वानों का मानना है कि प्राचीनकाल में यहां की पहाड़ियों से सोना मिलता था. इस वजह से इस स्थल को सुवर्ण कहा जाता था, जो बाद में सोहना के नाम से जाना जाने लगा. वैसे बरसात के दिनों में पहाड़ी नालों की रेत में अकसर सोने के कण दिखाई देते हैं. इस सोने को लेकर एक और किस्स मशहूर है जिसके मुताबिक वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आख़िरी मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र के परिजनों को दिल्ली छोड़कर जाना पड़ा. अंग्रेज़ फ़ौज से बचने के लिए उन्होंने सोहना इलाके के गांव में डेरा डाला और अपने ख़ज़ाने को पहाड़ियों की किसी सुरक्षित गुफ़ा में दबा दिया. बाद में अंग्रेजी सेना ने उनकी हत्या कर दी.

इस घटना के करीब चार दषक बाद वर्ष 1895 में के.एम. पॉप नामक अंग्रेज कर्नल ने उस खजाने की तलाश में लंबे समय तक पहाड़ियों की ख़ाक छानी. मगर जब उसे कोई कामयाबी नहीं मिली, तो उसने इलाक़े के कुछ लोगों को साथ लेकर नए सिरे से ख़ज़ाने की खोज शुरू की. उन्हें ख़ज़ाने वाली गुफ़ा भी मिल गई, लेकिन भूत-प्रेत के ख़ौफ़ से ग्रामीणों ने गुफा में जाने से इंकार कर दिया. इसके बावजूद कर्नल ने हार नहीं मानी और अकेले ही ख़ज़ाने तक जाने का फ़ैसला किया. गुफ़ा के अंदर जाने पर उन्हें अस्थि पंजर दिखाई दिए, लेकिन इसके बाद भी वह आगे बढ़ते रहे. अंधेरी गुफा की जहरीली गैस से उनका दम घुटने लगा और वह बाहर की ओर दौड़ पड़े. इस गैस का उनकी सेहत पर गहरा असर पड़ा. स्वास्थ्य लाभ होने पर वे दोबारा गुफ़ा में गए, लेकिन तब तक सारा ख़ज़ाना चोरी हो चुका था. प्राचीनकाल में यहां ठंडे पानी के चश्मे भी थे, जो प्राकृतिक आपदाओं या परिवर्तन की वजह से धरती के नीचे समा गए. इनके बारे में ख़ास बात यह है कि इन चश्मों का संबंध जितना प्राचीन कथा से जुड़ा है, उतना ही इनकी खोज का विषय भी विवादास्पद रहा है. कुछ लोगों के मुताबिक़ ये चश्मे करीब तीन सौ साल पहले खोजे गए, जबकि बुजुर्गों का कहना है कि इन पर्वत मालाओं के नीचे से होकर गुजरने वाले व्यापारी और तीर्थ यात्रियों ने इन चश्मों की खोज की थी.

अरावली पर्वत की शाखाएं यहां से अजमेर तक फैली हैं. इन पहाड़ियों में दस-दस मील की दूरी तक कोई न कोई कुंड या झरना मौजूद है. इन झरनों व चश्मों की आखिरी कड़ी अजमेर में 'पुष्कर' सरोवर के नाम से विख्यात है. इन चश्मों की खोज के बारे में कई दंत कथाएं प्रचलित हैं. कहा जाता है कि एक बार चतुर्भुज नामक एक बंजारा ऊंटों, भेड़ों और खच्चरों पर नमक डालकर सोहना इलाक़े से गुज़र रहा था. गर्मी का मौसम था. इसलिए प्यास से व्याकुल होने पर उसने अपने कुत्ते को पानी की तलाश के लिए भेजा. थोड़ी देर बाद कुत्ता वापस आया. उसके पैर पानी से भीगे हुए थे. यह देखकर बंजारा बहुत खुश हुआ और कुत्ते के साथ पानी के चश्मे की ओर गया. उसने देखा कि निर्जन स्थलों पर शीतल जल का चश्मा है. उसने सोचा कि दैवीय शक्ति के कारण ही वीरान चट्टानों में पानी का चश्मा है. इसलिए उसने देवी से अपने कारोबार में मुनाफ़ा होने की मन्नत मांगी और उसे बहुत लाभ हुआ.

लौटते समय उसने अपने गुरु के नाम पर साखिम जाति नाम के गुम्बद और कुंडों का निर्माण करवाया। बाद में लक्खी नामक बंजारे ने इन कुंडों का जीर्णोद्वार करवाया. साखिम जाति के गुम्बद पर लगा सोने का कलम क़रीब आठ दशक पुराना है. इसे केशावानंद जी ने इलाके के लोगों से एकत्रित घन से चढ़वाया था. आईने-अकबारी में भी यहां के गर्म पानी के चश्मों का ज़िक्र आता है. किवदंती है कि योग दर्शन के रचयिता महार्षि पतंजलि का इस स्थल पर अनेक बार आगमन हुआ. संत महात्मा ऐसे ही स्थलों के आसपास अपने आश्रम बनाते थे. आधुनिक समय (1872 ई.) में अंग्रेजों ने इन चश्मों का पता लगाया था. ये चश्मे शहर के मध्य स्थित एक सीधी चट्टान के तल में स्थित हैं. इन चश्मों की तीर्थ के रूप में माना जाता है.

संदीप माथुर
मथुरा (उत्तर प्रदेश). क्या आपने कभी भूतों का मंदिर देखा या सुना है? अगर नहीं तो आज हम आपको बताएंगे कि भूतों ने भी एक मंदिर बनाया है.
आज से 2100 वर्ष पहले मथुरा से 10 -12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वृंदावन में भूतों ने एक मंदिर बनाया था, जिसे गोविन्द देव जी का मंदिर कहा जाता है. यहां पर रहने वालों का कहना है कि इस मंदिर को भूतों ने बनाया है. तभी इसे तों के मंदिर के नाम से जाना जाता है. जब हमने इस मंदिर के पुजारी से बात की तो उन्होंने बताया कि यह मंदिर गोविन्द देव जी का है, लेकिन यह कहा जाता है कि इस मंदिर को आधी रात के समय भूत बना रहे थे. तभी सुबह के समय किसी महिला ने चक्की चला दी और उसकी आवाज़ सुनकर भूत मंदिर को अधूरा बना हुआ छोड़कर भाग गए. तब से ही ये मंदिर अधूरा ही है. बताया जाता है कि इस मंदिर में पहले गोविन्द देव जी की असली प्रतिमा थी, लेकिन अब वह असली प्रतिमा भी नहीं है. इसका कारण यह है कि जब औरंगज़ेब का शासन आया तो उस समय औरंगज़ेब हिन्दुओं के मंदिरों को ख़त्म करवा रहा था. उस समय औरंगज़ेब ने इस मंदिर को तुड़वाना शुरू किया. इस मंदिर के चार मंज़िल को वह तुड़वा चुका था और मंदिर की नक्काशियों में जड़े हुए जवाहरातों को वह निकालकर ले गया था. मंदिर की असली प्रतिमा को मंदिर के पुजारी औरंगज़ेब के डर के कारण जयपुर लेकर चले गए थे. फिर जयपुर के राजा ने जयपुर में ही गोविन्द देव का मंदिर बनवा कर उस असली प्रतिमा को स्थापित करवा दिया जो आज भी जयपुर के उस मंदिर में मौजूद है.


डॊ. सौरभ मालवीय
प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में ऋतुओं का विशेष महत्व रहा है. इन ऋतुओं ने विभिन्न प्रकार से हमारे जीवन को प्रभावित किया है. ये हमारे जन-जीवन से गहरे से जुड़ी हुई हैं. इनका अपना धार्मिक और पौराणिक महत्व है. वसंत  ऋतु का भी अपना ही महत्व है. भारत की संस्कृति प्रेममय रही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण वसंत पंचमी का पावन पर्व है. वसंत पंचमी को वसंतोत्सव और मदनोत्सव भी कहा जाता है. प्राचीन काल में स्त्रियां इस दिन अपने पति की कामदेव के रूप में पूजा करती थीं, क्योंकि इसी दिन कामदेव और रति ने सर्वप्रथम मानव हृदय में प्रेम और आकर्षण का संचार किया था. यही प्रेम और आकर्षण दोनों के अटूट संबंध का आधार बना, संतानोत्पत्ति का माध्यम बना.

वसंत पंचमी का पर्व माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है, इसलिए इसे वसंत पंचमी कहा जाता है. इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है. भारत सहित कई देशों में यह पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इस दिन घरों में पीले चावल बनाए जाते हैं, पीले फूलों से देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. महिलाएं पीले कपड़े पहनती हैं. बच्चे पीली पतंगे उड़ाते हैं. विद्या के प्रारंभ के लिए ये दिन शुभ माना जाता है.  कलाकारों के लिए इस दिन का विशेष मह्त्व है.

प्राचीन भारत में पूरे वर्ष को जिन छह ऋतुओं में विभाजित किया जाता था, उनमें वसंत जनमानस की प्रिय ऋतु थी. इसे मधुमास भी कहा जाता है. इस दौरान सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश कर लेता है. इस ऋतु में खेतों में फ़सलें पकने लगती हैं, वृक्षों पर नये पत्ते आ जाते हैं. आम पर की शाख़ों पर बौर आ जाता है. उपवनों में रंग-बिरंगे पुष्प खिलने लगते हैं. चहुंओर बहार ही बहार होती है. रंग-बिरंगी तितलियां वातावरण को और अधिक सुंदर बना देती हैं.

वसंत का धार्मिक महत्व भी है.  वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ मास के पांचवे दिन महोत्सव का आयोजन किया जाता था. इस उत्सव में भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा होती थी.  शास्त्रों में वसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है. मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों की रचना की, परंतु इससे वे संतुष्ट नहीं थे. भगवान विष्णु ने अपने कमंडल से जल छिड़का, जिससे एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री प्रकट हुई, जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था. अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी. ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया. जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, वैसे ही संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई. जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया. पवन चलने से सरसराहट होने लगी. तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती के नाम से पुकारा. सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है. वे विद्या और बुद्धि प्रदान करती हैं. संगीत की उत्पत्ति करने के कारण वे संगीत की देवी कहलाईं. वसंत पंचमी को उनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं. ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए उल्लेख गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात ये परम चेतना हैं. सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं. हममें जो आचार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं. इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है.

मान्यता है कि वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती पूजा करने और व्रत रखने से वाणी मधुर होती है, स्मरण शक्ति तीव्र होती है, प्राणियों को सौभाग्य प्राप्त होता है तथा विद्या में कुशलता प्राप्त होती है.
"यथा वु देवि भगवान ब्रह्मा लोकपितामहः।
त्वां परित्यज्य नो तिष्ठंन, तथा भव वरप्रदा।।
वेद शास्त्राणि सर्वाणि नृत्य गीतादिकं चरेत्।
वादितं यत् त्वया देवि तथा मे सन्तुसिद्धयः।।
लक्ष्मीर्वेदवरा रिष्टिर्गौरी तुष्टिः प्रभामतिः।
एताभिः परिहत्तनुरिष्टाभिर्मा सरस्वति।।

अर्थात् देवी! जिस प्रकार लोकपितामह ब्रह्मा आपका कभी परित्याग नहीं करते, उसी प्रकार आप भी हमें वर दीजिए कि हमारा भी कभी अपने परिवार के लोगों से वियोग न हो. हे देवी! वेदादि सम्पूर्ण शास्त्र तथा नृत्य गीतादि जो भी विद्याएं हैं, वे सभी आपके अधिष्ठान में ही रहती हैं, वे सभी मुझे प्राप्त हों. हे भगवती सरस्वती देवी! आप अपनी- लक्ष्मी, मेधा, वरारिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा तथा मति- इन आठ मूर्तियों के द्वारा मेरी रक्षा करें.

पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने सरस्वती से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी. इस तरह भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी. त्रेता युग में जिस दिन श्रीराम शबरी मां के आश्रम में पहुंचे थे, वह वसंत पंचमी का ही दिन था. श्रीराम ने भीलनी शबरी मां के झूठे बेर खाए थे. गुजरात के डांग जिले में जिस स्थान पर शबरी मां के आश्रम था, वहां आज भी एक शिला है. लोग इस शिला की पूजा-अर्चना करते हैं. बताया जाता है कि श्रीराम यहीं आकर बैठे थे. इस स्थान पर शबरी माता का मंदिर भी है, जहां दूर-दूर से श्र्द्धालु आते हैं.

वसंत पंचमी के दिन मथुरा में दुर्वासा ऋषि के मंदिर पर मेला लगता है. सभी मंदिरों में उत्सव एवं भगवान के विशेष शृंगार होते हैं. वृंदावन के श्रीबांके बिहारीजी मंदिर में बसंती कक्ष खुलता है. शाह जी के मंदिर का बसंती कमरा प्रसिद्ध है. मंदिरों में वसंती भोग रखे जाते हैं और वसंत के राग गाये जाते हैं वसंम पंचमी से ही होली गाना शुरू हो जाता है. ब्रज का यह परम्परागत उत्सव है.
इस दिन हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के पौराणिक नगर पिहोवा में सरस्वती की विशेष पूजा-अर्चना होती है. पिहोवा को सरस्वती का नगर भी कहा जाता है, क्योंकि यहां प्राचीन समय से ही सरस्वती सरिता प्रवाहित होती रही है. सरस्वती सरिता के तट पर इस क्षेत्र में अनेक प्राचीन तीर्थ स्थल हैं. यहां सरस्वती सरिता के तट पर विश्वामित्र जी ने गायत्री छंद की रचना की थी. पिहोवा का सबसे मुख्य तीर्थ सरस्वती घाट है, जहां सरस्वती नदी बहती है. यहां देवी सरस्वती का अति प्राचीन मंदिर है. इन प्राचीन मंदिरों में देशभर के श्रद्धालु आते हैं. यहां भव्य शोभायात्रा निकलती है.

वसंत पंचमी का साहित्यिक महत्व भी है. इस दिन हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस भी है. 28 फरवरी, 1899 को जिस दिन निराला जी का जन्म हुआ, उस दिन वसंत पंचमी ही थी. वंसत कवियों की अति प्रिय ऋतु रही है. कालजयी रचनाकार रवींद्रनाथ टैगोर ने वसंत ऋतु के महत्व को दर्शाते हुए लिखा है-
आओ आओ कहे वसंत धरती पर, लाओ कुछ गान प्रेमतान
लाओ नवयौवन की उमंग नवप्राण, उत्फुल्ल नई कामनाएं घरती पर

हिंदी साहित्य में छायावादी युग के महान स्तंभ सुमित्रानंदन पंत वसंत का मनोहारी वर्णन करते हुए कहते हैं-
चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह मग वन में आया वसंत।
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।

वसंत पंचमी हमारे जीवन में नव ऊर्जा का संचार करती है. ये निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है. जिस तरह वृक्ष पुराने पत्तों को त्याग कर नये पत्ते धारण करते हैं, ठीक उसी तरह हमें भी अपने अतीत के दुखों को त्याग कर आने वाले भविष्य के स्वप्न संजोने चाहिए.

लेखक का परिचय
उत्तरप्रदेश के देवरिया जनपद के पटनेजी गाँव में जन्मे डाॅ.सौरभ मालवीय बचपन से ही सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण की तीव्र आकांक्षा के चलते सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए है. जगतगुरु शंकराचार्य एवं डाॅ. हेडगेवार की सांस्कृतिक चेतना और आचार्य चाणक्य की राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित डाॅ. मालवीय का सुस्पष्ट वैचारिक धरातल है. ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया’ विषय पर आपने शोध किया है. आप का देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर समसामयिक मुद्दों पर निरंतर लेखन जारी है. उत्कृष्ट कार्याें के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है, जिनमें मोतीबीए नया मीडिया सम्मान, विष्णु प्रभाकर पत्रकारिता सम्मान और प्रवक्ता डाॅट काॅम सम्मान आदि सम्मिलित हैं. संप्रति- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक, जनसंचार विभाग के पद पर कार्यरत हैं. मोबाइल-09907890614 ई-मेल- [email protected]  [email protected]
वेबसाइट-www.sourabhmalviya.com



सुभाशिष के. चंदा
 लहरदार पगडंडियां, घने जंगल और घाटियां और संकरी नदियां और सोतों के मनोरम दृश्‍य, अनोखी वनस्‍पतियां और वन्‍य जीवों के आसपास होने का अहसास, और अपनी शहरी जिंदगी  की रेलमपेल से भागे हुए जंगल के अभयारण्‍यक। ऐसा ही है उनाकोटि का प्राकृतिक भंडार, जो इतिहास, पुरातत्‍व और धार्मिक खूबियों के रंग, गंध से पर्यटकों को अपनी ओर इशारे से बुलाता है। यह एक औसत ऊंचाई वाली पहाड़ी श्रृंखला है, जो उत्‍तरी त्रिपुरा के हरे-भरे शांत और शीतल वातावरण में स्थित है।

राज्य की राजधानी से 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित उनाकोटि की पहाड़ी पर हिन्दू देवी-देवताओं की चट्टानों पर उकेरी गई अनगिनत मूर्तियां और शिल्‍प मौजूद हैं। बड़ी-बड़ी चट्टानों पर ये विशाल नक्‍काशियों की तरह दिखते हैं, और ये शिल्‍प छोटे-बड़े आकार में और यहां-वहां चारों तरफ फैले हैं। पौराणिक कथाओं में इसके बारे में दिलचस्प कथा मिलती है, जिसके अनुसार यहां देवी-देवताओं की एक सभा हुई थी। भगवान शिव, बनारस जाते समय यहां रुके थे, तभी से इसका नाम उनाकोटि पड़ा है।

उनाकोटि में चट्टानों पर उकेरे गए नक्‍का‍शी के शिल्‍प और पत्‍थर की मूर्तियां हैं। इन शिल्‍पों का केंद्र शिव और गणेश हैं। 30 फुट ऊंचे शिव की विशालतम छवि खड़ी चट्टान पर उकेरी हुई है, जिसे ‘उनाकोटिस्‍वर काल भैरव’ कहा जाता है। इसके सिर को 10 फीट तक के लंबे बालों के रूप में उकेरा गया है। इसी के पास शेर पर सवार देवी दुर्गा का शिल्‍प चट्टान पर उकेरी हुई है, वहां दूसरी तरफ मकर पर सवार देवी गंगा का शिल्‍प भी है। यहां नंदी बैल की जमीन पर आधी उकेरे हुए शिल्‍प भी हैं।

शिव के शिल्‍पों से कुछ ही मीटर दूर भगवान गणेश की तीन शानदार मूर्तियां हैं। चार-भुजाओं वाले गणेश की दुर्लभ नक्‍काशी के एक तरफ तीन दांत वाले साराभुजा गणेश और चार दांत वाले अष्‍टभुजा गणेश की दो मूर्तियां स्थित हैं। इसके अलावा तीन आंखों वाला एक शिल्‍प भी है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह सूर्य या विष्णु भगवान का है। चतुर्मुख शिवलिंग, नांदी, नरसिम्‍हा, श्रीराम, रावण, हनुमान, और अन्‍य अनेक देवी-देवताओं के शिल्‍प और मूर्तियों यहां हैं। एक किंवदंती है कि अभी भी वहां कोई चट्टानों को उकेर रहा है, इसीलिए इस उनाकोटि-बेल्‍कुम पहाड़ी को देवस्‍थल के रूप में जाना जाता है, आप कहीं से भी, किधर से भी गुजर जाइए आपको शिव या किसी देव की चट्टान पर उकेरी हुई मूर्ति या शिल्‍प मिलेगा। पहाडों से गिरते हुए सुंदर सोते उनाकोटि के तल में एक कुंड को भरते हैं, जिसे ‘’सीता कुंड’’ कहते हैं। इसमें स्‍नान करना पवित्र माना जाता है। हर साल यहां अप्रैल के महीने में ‘अशोकाष्‍टमी मेला’ लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु आते हैं और ‘सीता कुंड’ में स्‍नान करते हैं।

इसे एक आदर्श पर्यटन स्‍थल के रूप में विकसित करने के लिए केंद्रीय पर्यटन मंत्री ने 2009-10 में उनाकोटि डेस्टिनेशन डेवलेपमेंट प्रोजेक्‍ट के तहत यहां 5 किलोमीटर के दायरे में पर्यटक सूचना केंद्र, कैफेटेरिया, सार्वजनिक सुविधाएं, प्राकृतिक दृष्‍यों के लिए व्‍यूप्‍वाइंट आदि के निर्माण के लिए 1.13 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। त्रिपुरा पर्यटन विकास के योजना अधिकारियों के अनुसार, यह योजना एएसआई को सौंप दी गई है, और जल्‍दी ही इस पर काम शुरू होने की संभावना है।

माना जाता है कि उनाकोटि पर भारतीय इतिहास के मध्यकाल के पाला-युग के शिव पंथ का प्रभाव है। इस पुरातात्विक महत्‍व के स्‍थल के आसपास तांत्रिक, शक्ति, और हठ योगी जैसे कई अन्य संप्रदायों का प्रभाव भी पाया जाता है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) के अनुसार उनाकोटि का काल 8वीं या 9वीं शताब्दी का है। हालांकि, इसके शिल्‍पों के बारे में, उनके समय-काल के बारे अनेक मत हैं।

देखा जाए तो ऐतिहासिक रूप से और उनकोटि की कथाएं अभी भी एएसआई और ऐसी ही अन्‍य संस्‍थाओं से इस पर समन्वित अनुसंधान की मांग कर रही हैं, ताकि भारतीय सभ्‍यता के लुप्‍त अध्‍याय के रहस्‍य को उजागर किया जा सके।
(लेखक पीआईबी, अगरतला में मीडिया एवं संचार अधिकारी हैं)


तनवीर जाफ़री
फतवा जारी करने में महारत रखने वाले तमाम नीम-हकीम मुल्लओं द्वारा समय-समय पर इस्लाम धर्म के हवाले से ऐसे विवादित फतवे जारी किए जाते रहे हैं जिन्हें सुनकर आम लोग विचलित हो जाया करते हैं. ऐसे ही विवादित फतवों में एक है मोलवियों द्वारा समय-समय पर दिया जाने वाला गीत-संगीत विरोधी फतवा. ऐसे फतवे हालांकि पहले भी कई देशों के तमाम 'नीम-हकीम' मोलवियों द्वारा विभिन्न देशों में जारी किए जा चुके हैं. परंतु पिछले दिनों कश्मीर के एक रॉक बैंड में मुस्लिम युवाओं की भागीदारी के विरुद्ध जब एक मोलवी ने इस्लामी दलीलें पेश करते हुए एतराज़ जताया तो एक बार फिर भारत में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि वास्तव में इस्लाम धर्म में संगीत का क्या स्थान है? इस्लाम में संगीत की प्रासंगिकता क्या है और संगीत, इस्लाम की नज़रों में जायज़ है या हराम और नाजायज़? क्या मोलवियों को समय-समय पर ऐसे विषयों पर अपने फतवे जारी भी करने चाहिए या नहीं?
आइए इस विषय पर इस्लामी इतिहास में झांकने की कोशिश की जाए. गौरतलब है कि इस्लाम धर्म को हज़रत मोह मद साहब के समय से जोड़कर देखा जाता है. परंतु इस्लामी मान्यताएं यह हैं कि हज़रत मोह मद जोकि इस्लाम के आिखरी पैग बर माने जाते हैं उनके समय से उनकी उ मत या अनुयायी जिस पंथ का अनुसरण करने लगे उसका नाम इस्लाम था. परंतु  इस्लामी मान्यताओं के अनुसार इस्लाम की शुरुआत धरती के प्रथम मानव व प्रथम पैगंबर हज़रत आदम से हुई बताई जाती है. गोया हज़रत आदम से लेकर हज़रत मोह मद तक एक लाख चौबीस हज़ार पैगंबर पृथ्वी पर खुदा की ओर से अवतरित किए गए. इनमें केवल चार पैग बर ऐसे थे जिनपर खुदा ने अपनी हिदायतें अता कीं और बाद में इन्हीं हिदायतों का संकलन पुस्तकों के रूप में सामने आया. इनमें हज़रत मोह मद पर कुरान शरीफ नाजि़ल हुआ तो हज़रत ईसा पर इंजील(बाईबल),हज़रत मूसा पर तौरेत उतरी तो हज़रत दाऊद पर ज़ुबूर. यानी हज़रत दाऊद की गिनती एक लाख 24 हज़ार में से सर्वोच्च या सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले चार साहब-ए-किताब(पुस्तकधारी) पैगंबरों (अवतारों) में की जाती है. अब यदि हम पैगंबर हज़रत दाऊद की सबसे बड़ी विशेषता एवं उनके सबसे प्रमुख आकर्षण पर नज़र डालें और उनसे जुड़े इतिहास के पन्नों को पलटें तो हम यहां पाएंगे कि खुदा ने हज़रत दाऊद को मूसीक़ी का शहंशाह बनाकर पृथ्वी पर अवतरित किया था. बताया जाता है कि जब वे अपने सुर लगाते थे तो पर्वत और जंगल मस्ती में आकर उनके सुर से अपना सुर मिलाने लगते थे. इतना ही नहीं बल्कि तमाम पक्षी व जानवर सभी हज़रत दाऊद की सुरीली आवाज़ की ओर खिंचे चले आते थे. गोया हज़रत दाऊद का रागों, साज़ों व सुरों पर संपूर्ण नियंत्रण था.

ज़ुबूर में यह भी लिखा हुआ है कि कौन-कौन से रागों में गाकर तथा किन-किन साज़ों को बजाकर हज़रत दाऊद ने खुदा की शान में कसीदे पढ़े. यदि अल्लाह की नज़रों में संगीत हराम या नाजायज़ होता तो वह अपने प्यारे पैग बर हज़रत दाऊद को क्योंकर गीत-संगीत की इतनी बड़ी दौलत व हुनर से नवाज़ता? हराम चीज़ें खुदा क्योंकर अपने पैग बर को अता करता? इतिहास है कि खुद पैगंबर हज़रत मोह मद ने अपने एक सहाबी अबु मूसा अशरी की आवाज़ सुनकर प्रसन्न होकर कहा था कि लगता है तु हारे गले में दाऊद का साज़ है. आज पूरी दुनिया में कुरान शरीफ की तिलावत(पढऩा)की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं. इसमें केवल साज़ नहीं होते बाकी सुर,धुन और गले का पूरा हुनर दिखाया जाता है. और पूरे विश्व में ऐसे प्रतियोगियों को स मानित भी किया जाता है. हज़रत मोह मद के समय में अज़ान देने वाले हज़रत बिलाल अपनी गुलूकारी के लिए इतने प्रसिद्ध व लोकप्रिय थे कि आज तक अज़ान-ए-बिलाल का जि़क्र मौलवियों द्वारा किया जाता है. और तमाम इस्लामी किताबों में उनके अज़ान पढऩे की कला का जि़क्र है. हज़रत मोहम्मद को भी हज़रत बिलाल की अज़ान अत्यंत प्रिय थी. खुदा या अपने पीर-ओ-मुर्शिद की उपासना करने का एक प्राचीन माध्यम गीत-संगीत ही है. कहा जा सकता है कि इसकी शुरुआत पैग बर हज़रत दाऊद के साज़ से हुई जो आज के युग में चलते-चलते नुसरत फतेह अली खां और बिस्मिल्ला खां जैसे संगीत के महारथियों तक पहुंची. बिस्मिल्लाह खां व नुसरत फतेह अली खां दानों ही के बारे में बताया जाता है यह पांच वक़्त के नमाज़ी थे और दिमागी तौर पर हर समय खुदा की याद में खोए रहते थे. और उनका यही चिंतन उन्हें गीत व संगीत की दुनिया में उस बुलंदी पर ले गया पर ले गया जहां दुनिया का कोई दूसरा शहनाई वादक या गायक नहीं पहुंच सका. बड़े आश्चर्य की बात है कि शहनाई जैसे साज़ पर अपना एकछत्र नियंत्रण रखने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को तो उनकी अभूतपूर्व शहनाईवादन जैसी कला के लिए सरकार भारत रत्न से नवाज़ती है तो कठमुल्लों को वही संगीत इस्लाम विरोधी या नाजायज़ दिखाई देता है.

इसी प्रकार नुसरत फतेह अली खां एक सच्चे मुसलमान भी थे. नमाज़ी व परहेज़गार भी. उन्होंने अपनी आवाज़, संगीत व निराली व आकर्षक गायन शैली की बदौलत संगीत की दुनिया में वह याति अर्जित की जिसका कभी कोई मुकाबला नहीं कर सकता. गुरु नानक, बुल्लेशाह,फरीद,हज़रत मोह मद,हज़रत इमाम हुसैन, हज़रत अली सहित तमाम पीरों-फकीरों की शान में अपने विशेष अंदाज़ में कव्वालियां, कसीदे, हम्द, नात व कॉफी आदि गाकर फतेहअली खां ने दुनिया में इस्लामी पीरों-फक़ीरों, पैगंबरों व संतों के कसीदे पढ़े. मज़ारों, खाऩक़ाहों, दरगाहों में कव्वालियां गाने तथा गीत-संगीत के माध्यम से अपने मुर्शिद को खुश करने, उसे श्रद्धांजलि देने  या उसकी शान में कसीदे पढऩे का सिलसिला बेशक हज़रत दाऊद के समय से शुरु हुआ परंतु मध्ययुगीनकाल में हज़रत अमीर खुसरू के ज़माने से इस कला को पुन: संजीवनी मिली है. यदि इस्लाम में संगीत हराम या नाजायज़ होता तो हज़रत अमीर खुसरू की गीत-संगीत के प्रति क्योंकर इतनी दिलचस्पी होती? अजमेर शरीफ, हज़रत निज़ामुदीन औलिया जैसे महान सूफी-संतों की दरगाहें हर वक्त ढोलक, तबले और हारमोनियम की आवाज़ों से सराबोर रहती हैं. क्या इनमें शिरकत करने वाले, गाने या सुनने वाले सभी गैर इस्लामी, हराम और नाजायज़ अमल करते हैं?

मोहर्रम के अवसर पर हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद कर उन्हें कई धर्मों के कई वर्गों द्वारा अलग-अलग तरीके से श्रद्धांजलि दी जाती है. इनमें कहीं मरसिए पढ़े जाते हैं तो कहीं सोज़, कहीं नौहा तो कहीं रुबाई. सभी कलाम बाकायदा सुर और गुलूकारी पर आधारित होते हैं. नौहा-मातम की तो बाकायदा धुनें तैयार की जाती हैं. बिस्मिल्लाह खां अपनी शहनाई बजाकर ही हज़रत इमाम हुसैन को श्रद्धांजलि दिया करते थे. उनकी शहनाई सुनकर तो पत्थर दिल इंसान भी रो पड़ता था. क्या यह सब इस्लाम में संगीत के हराम होने के लक्षण कहे जा सकते हैं? जिस हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लाम धर्म को बचाने के लिए करबला में अपने पूरे परिवार की कुर्बानी दी हो उस हुसैन के चाहने वाले क्या गैर इस्लामी तरीके अपना कर अपने प्रिय हुसैन को याद करना चाहेंगे? शायद कभी नहीं. बड़े आश्चर्य की बात है कि कठमुल्लों को इस्लाम में संगीत हराम और नाजायज़ दिखाई देता है. तो दूसरी तरफ अल्लाह ने मुस्लिम घरानों में ही बड़े व छोटे गुलाम अली, डागर बंधु, बिस्मिल्लाह खां, फतेह अली, मेंहदी हसन, गुलामी अली सहित तमाम ऐसे उस्ताद फनकार पैदा किए जिनकी प्रसिद्धि की पताका हमेशा दुनिया में गीत-संगीत के क्षेत्र में लहराती रहेगी. कहना ग़लत नहीं होगा कि किसी भी व्यक्ति का संगीत से रिश्ता तो उसके पैदा होने के साथ ही उसी वक्त शुरु हो जाता है जबकि एक नवजात शिशु की मां अपने बच्चे को सुरीली आवाज़ में लोरियां गाकर उसे सुलाने का प्रयास करती है.

दरअसल, इस्लामी नीम-हकीम कट्टरपंथियों द्वारा संगीत के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्कों का कारण यह है कि संगीत का जादू किसी इंसान पर नशा सा चढ़ा देता है और गीत-संगीत में डूबा हुआ इंसान अपनी वास्तविकता से दूर हो जाता है. यही तर्क इस्लाम में नशे के विरुद्ध भी दिया गया है और संगीत को नशे की श्रेणी में रखा गया है. परंतु संगीत के पैरोकार इस तर्क को खारिज करते हैं और सुर-साज़ और साज़ों से निकलने वाले संगीत को खुदा की ही ब शी हुई एक सौग़ात मानते हैं. इसके पक्ष में संगीत प्रेमी मुसलमान हज़रत दाऊद से लेकर अमीर खुसरो और आगे नुसरत फतेह अली खां जैसे सुर सम्राटों के तर्क पेश करते हैं. जहां तक गीत-संगीत में मदहोशी छाने का प्रश्र है तो इसे भी संगीत प्रेमी अपने पक्ष में ही देखते हैं. उनका मानना है कि यदि अपने आराध्य की याद में खो जाने व उसका नशा अपने आप पर हावी होने देने के लिए गीत और संगीत का सहारा लिया जा सकता है तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है. इन सब बातों व तर्कों के बावजूद यह सत्य है कि इस्लाम धर्म के तमाम वर्गों में अब भी रूढ़ीवादी लोग गीत-संगीत से नफरत करते हैं. उनका संगीत से फासला बनाकर रखना या नफरत करना उन्हें मुबारक हो. परंतु इस विषय पर सार्वजनिक रूप से इस्लाम का नाम लेकर  गीत-संगीत के विरुद्ध फतवे नहीं जारी करने चाहिए. संगीत के अतिरिक्त तमाम और भी ऐसी बातें हैं जिन्हें लेकर मुसलमानों के अलग-अलग वर्गों में मतभेद बने हुए हैं. परंतु किसी वर्ग या किसी विचारधारा को दूसरों पर अपनी बातें जबरन थोपने का अधिकार किसी को हरगिज़ नहीं होना चाहिए.
लेखक का परिचय

वरिष्ठ पत्रकार, समीक्षक और कॊलम लेखक तनवीर जाफ़री वर्तमान में हरियाणा साहित्य अकादमी के सदस्य है. बेबाक लेखन के लिए जाने जाते हैं. लेखन के अलावा सांप्रदायिक सौहार्द कायम करन के सामाजिक कामों में भी सक्रिय हैं.


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