Showing posts with label विचार. Show all posts
Showing posts with label विचार. Show all posts

फ़िरदौस ख़ान
कालेधन पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सबकी नज़र सियासी दलों के चंदे पर है.  देश की अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सामाजिक अंकेक्षण की मांग उठ रही है. जब नोटबंदी, कैश लेस ट्रांजेक्शन, सोना, रियल स्टेट में कैश लेस ख़रीद-बिक्री को लेकर आम जनता प्रभावित है, तो फिर जनता द्वारा भरे गए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से मिली रक़म का इस्तेमाल करने वाले नेताओं और सियासी दलों को भी पारदर्शिता बरतनी होगी.

इस बाबत चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को क़ानून में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसके लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को तीन सुझाव भी दिए हैं. पहला सियासी दलों के दो हज़ार रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदा लेने पर रोक लगाई जाए, दूसरा चुनाव न लड़ने वाले सियासी दलों को आयकर से छूट नहीं दी जाए और तीसरा सियासी दल कूपन के ज़रिये चंदा देने वाले लोगों की भी पूरी जानकारी रखें. क़ाबिले-ग़ौर है कि फ़िलहाल गुप्त चंदे पर क़ानूनी रोक नहीं है. जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29(सी) के तहत 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा के चंदे की सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है. इससे नीचे की रक़म का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता. आमदनी के मामले में कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बताया कि एक दशक में उसे दो-तिहाई रकम 20 हज़ार रुपये से नीचे के चंदे के ज़रिये हुई है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 44 फ़ीसद आमदनी को 20 हज़ार रुपये से नीचे की मदद को बताया है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुताबिक़  उन्हें 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए उनमें यह दर 100 फ़ीसद है. ऐसे में नियामक एजेंसियां यह पता लगाने में नाकाम रहती हैं कि सियासी दलों के पास आख़िर इतनी बड़ी रक़म कहां से आई है. सियासी दलों को आयकर भरने से भी छूट है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के तहत  संपत्ति, चंदा, या दूसरे स्रोतों से हुई आमदनी पर कोई कर नहीं देना पड़ता. कूपन या रसीद के ज़रिये चंदा देने वालों का ब्यौरा देना भी ज़रूरी नहीं है. इस तरह छोटी-छोटी रक़म के कूपनों के ज़रिये कितनी भी रक़म दिखाई जा सकती है. सियासी दल चुनाव आयोग को जिस रक़म का ब्यौरा देते हैं, वह पैसा कॊरपोरेट घरानों से चंदे के तौर पर आता है, जो पूरी तरह आयकर से मुक्त है. इसके अलावा सियासी आरटीआई के दायरे में नहीं आते. सियासी दलों की आमदनी और ख़र्च दोनों ही में पारदर्शिता नहीं होती. चुनाव आयोग भी अपने लेखा विभाग से इसकी जांच नहीं करा सकता. ऐसी हालत में कालेधन को बहुत ही आसानी से सफ़ेद किया जा सकता है. सियासी दलों पर आरोप लग रहे हैं कि नोटबंदी के बाद उनके खातों में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के पुराने नोट जमा हुए हैं. यह भी आरोप है कि बहुत से छोटे सियासी दल 25 फ़ीसद कमीशन पर कालेधन को सफ़ेद बनाने में लगे हैं. साथ ही सियासी गलियारे में चर्चा थी कि नोटबंदी के बाद सियासी दलों के खातों में जमा हुए पुराने नोटों की जांच नहीं होगी. हालांकि विवाद बढ़ने पर राजस्व सचिव हंसमुख अढिया को सफ़ाई देनी पड़ी कि नोटबंदी के बाद कोई भी सियासी दल 500 और 1000 रूपये में चंदा स्वीकार नहीं कर सकता. अगर उन्होंने ऐसा किया, तो उन पर भी कार्रवाई होगी.

ग़ौरतलब है कि चुनावों में कालेधन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भी यही कहना है कि काला धन सबसे ज़्यादा चुनावों में ही खपता है. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सियासी दलों को मिली रियायत का ग़लत फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला रहता है. बड़ी रक़म को ज़्यादा हिस्सों में बांटकर कालेधन को सफ़ेद बनाया जा सकता है. आयकर में छूट हासिल करने के मक़सद से ही ज़्यादतर सियासी दलों का गठन हुआ है. फ़िलहाल देश में 1900 से ज़्यादा सियासी दल हैं, जिनमें से तक़रीबन 1400 सियासी दलों ने किसी भी चुनाव में अपना एक उम्मीदवार भी मैदान में नहीं उतारा. हालत यह है कि पिछले आम चुनाव में महज़ 45 दलों ने ही चुनाव लड़ा. चंदे के कूपन का भी कोई नियम नहीं है. कितने भी कूपन छपवाकर कितनी भी रक़म का चंदा दिखाया जा सकता है.

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॊर्म्स (एडीआर) की साल 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सियासी दलों को 75 फ़ीसद से ज़्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला. पिछले दस सालों में सियासी दलों के चंदे में 478 की बढ़ोतरी हुई. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में 38 दलों को 253.46 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जो साल 2014 में बढ़कर 1463.63 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में 44 फ़ीसद चंदा नक़दी के तौर पर था. लोकसभा चुनावों के अलावा इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों में भी सियासी दलों ने चंदे के तौर पर करोड़ों रुपये जुटाये.  साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों को 3368.06 करोड़ रुपये मिले. इसमें से 63 फ़ीसद रक़म नक़दी के तौर पर मिली. चुनाव आयोग में जमा किए गए चुनावी ख़र्च के विवरण के मुताबिक़ पिछले तीन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा रक़म खर्च भी की है. साल 2004 और 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा पैसे ख़र्च किए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2014-15 में चुनावी ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ चंदे के तौर पर जुटाये हैं और उनमें से 177.40 करोड़ अलग-अलग सियासी दलों को चंदे के रूप में दिए गए.

अफ़सोस की बात है कि अपनी आमदनी के मामले में सियासी दल पारदर्शिता नहीं चाहते. सनद रहे कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब साल 2013 में पार्टियों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए उन्हें सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का आदेश दिया था, तब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और वामदलों से लेकर तक़रीबन सभी बड़े-छोटे दलों ने एक सुर में इसका विरोध किया था. पिछले सरकार केंद्र की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि सियासी दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से उनके संचालन पर असर पड़ेगा और सियासी विरोधी भी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. सियासी दल भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि चुनाव के दौरान कालाधन बाहर आ जाता है. कालेधन के मामले में सख़्ती होने से उनकी आमदनी पर भी इसका असर पड़ेगा. सियासी दलों के इसी विरोध की वजह से ही चुनाव आयोग और लॊ कमीशन के सुझावों की तमाम फ़ाइलें दफ़्तरों में पड़ी धूल फांक रही हैं. चुनाव आयोग ने सियासी दलों के लिए कई और भी सिफ़ारिशें की थीं, जिनमें सियासी दलों को आरटीआई का जवाब देने, उनके दान खातों का ऒडिट करने, एक उम्मीदवार के एक ज़्यादा सीटों से चुनाव लड़ने और निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव लड़ने आदि पर रोक लगाना शामिल है.

दरअसल, कालेधन से जुड़ा मुद्दा चुनावी सुधारों से भी जुड़ा हुआ है. अगर सरकार कालेधन के मामले में वाक़ई गंभीर है, तो उसे चुनाव सुधारों की दिशा में भी सख़्त फ़ैसले लेने होंगे. उसे चुनाव में धन-बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगानी होगी. सियासी दलों को चाहिए कि वे भी कैश लेस चंदा लेना शुरू करें और साथ ही अपनी आमदनी को सार्वजनिक करें. विदेशों की तर्ज़ पर भारत को भी इस दिशा में कारगर क़दम उठाने होंगे. अमेरिका, ब्रिटेन्, जर्मनी, फ़्रांस, ऒस्ट्रेलिया और आयरलैंड आदि देशों ने सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर सख़्त नियम बनाए हुए हैं. सियासी दलों को अपनी आमदनी का ब्यौरा देना होता है. फ़्रांस में चुनाव का सारा ख़र्च सरकार ही वहन करती है.

बहरहाल, कालेधन पर पारदर्शिता बरतने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ जनता की ही नहीं है, सरकार और सियासी दलों को भी अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना होगा.

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं, बुरी घड़ी कहकर नहीं आती. बुरा वक़्त कभी भी आ जाता है. मौत या हादसों का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं होता. जब कोई हादसा होता है, जान या माल का नुक़सान होता है, तो किसी भी व्यक्ति को इसका सदमा लग सकता है. ऐसे में व्यक्ति के जिस्म में ताक़त नहीं रहती और शारीरिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं. दिमाग़ रक्त वाहिनियों की पेशियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, जिससे दिमाग़ और जिस्म का तालमेल गड़बड़ा जाता है. दिल की धड़कन भी धीमी हो जाती है. व्यक्ति क चक्कर आने लगते हैं, वह बेहोश हो जाता है, कई बार उसकी मौत भी हो जाती है. मौत कभी पूरा न होने वाला नुक़सान है. मौत के सदमे से उबरना आसान नहीं है. सदमे का ताल्लुक़ भावनाओं से है, संवेदनाओं से है. अगर कोई इन संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करे, तो उसे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सियासी हलक़े में मौत और सदमे पर भी सियासत की बिसात बिछा ली जाती है. फिर अपने फ़ायदे के लिए शह और मात का खेल खेला जाता है. इन दिनों तमिलनाडु में भी यही सब देखने को मिल रहा है.
तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी अन्नाद्र्मुक दावा कर रही है कि जयललिता की मौत के सदमे से 470 लोगों की मौत हो चुकी है. पार्टी ने मृतकों के परिवार को तीन लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया है. पार्टी ने ऐसे लोगों की फ़ेहरिस्त जारी की है, जिनकी मौत सदमे की वजह से हुई है. पार्टी का यह भी कहना है कि जयललिता के निधन के बाद अब तक छह लोग ख़ुदकुशी की कोशिश कर चुके हैं. ऐसे चार लोगों का ब्यौरा भी जारी किया गया है. जयललिता की मौत की ख़बर सुनने पर ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले एक व्यक्ति को पार्टी ने 50 हज़ार रुपये देने की घोषणा की है. इतना ही नहीं जयललिता की मौत की ख़बर सुनकर अपनी उंगली काटने वाले व्यक्ति को भी 50 हज़ार रुपये की मदद देने का ऐलान किया जा चुका है.

इसमें कोई शक नहीं है कि ’अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध जयललिता तमिलनाडु की लोकप्रिय नेत्री थीं. उन्होंने राज्य की ग़रीब जनता के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं. उन्होंने साल 2013 में चेन्नई में ‘अम्मा कैंटीन’ शुरू की, जहां बहुत कम दाम पर भोजन मुहैया कराया जाता है. अब पूरे राज्य में 300 से ज़्यादा ऐसी कैंटीन हैं, जिनमें एक रुपये में एक इडली और सांभर दिया जाता है, और पांच रुपये में चावल और सांभर परोसा जाता है. ग़रीब तबक़े के लोग इन कैंटीन में नाममात्र के दाम पर भरपेट भोजन करते और ’अम्मा’ के गुण गाते हैं. ये कैंटीन सरकारी अनुदान पर चलती हैं. इसके अलावा ग़रीबी रेखा के नीचे के परिवारों को हर महीने 25 किलो चावल, दालें, मसाले और खाने का अन्य सामान मुफ़्त दिया जाता है. सरकारी अस्पतालों में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता है. उन्होंने पालना बेबी योजना, अम्मा मिनरल वॉटर, अम्मा सब्ज़ी की दुकान, अम्मा फ़ार्मेसी, बेबी केयर किट, अम्मा मोबाइल जैसी कई योजनाएं भी चलाई. इतना ही नहीं उन्होंने मुफ़्त में भी कई सुविधाएं लोगों को दीं, जिनमें ग़रीब औरतों को मिक्सर ग्राइंडर, लड़कियों को साइकिलें, छात्रों को स्कूल बैग, किताबें, यूनिफॉर्म और मुफ़्त में मास्टर हेल्थ चेकअप आदि शामिल हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि चुनाव के वक़्त लोगों को लुभाने के लिए उन्हें  रोज़मर्रा के काम आने वाली चीज़ें ’तोहफ़े’ में दी जाती हैं, जिनमें टेलीविज़न, एफ़एम रेडियो,  इडली-डोसा बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली पिसाई मशीन, साइकिल, लैपटॉप वग़ैरह शामिल हैं. अपने इन्हीं ग़रीब हितैषी कार्यों की वजह से जयललिता जनप्रिय हो गईं. उनकी लोकप्रिय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बाक़ी राज्यों में भाजपा की लहर चल रही थी, उस वक़्त उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत का परचम लहराया था. वह अपने सियासी गुरु एमजी रामचंद्रन के बाद सत्ता में लगातार दूसरी बार आने वाली तमिलनाडु में पहली राजनीतिज्ञ थीं.

ग़ौरतलब है कि 68 वर्षीय जयललिता को 22 सितंबर को अस्पताल में दाख़िल कराया, तो बहुचर्चित सबरीमाला मंदिर ने उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना के साथ तक़रीबन 75 हज़ार श्रद्धालुओं को मुफ़्त भोजन कराना शुरू कर दिया था. लोग उनके लिए दुआएं कर रहे थे. 5 दिसंबर को उनकी मौत के बाद राज्य में शोक की लहर दौड़ गई. जन सैलाब उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ. सरकार ने पांच दिन का शोक घोषित कर दिया.  जगह-जगह शोक सभाओं का आयोजन कर उनकी आत्मिक शांति के लिए प्रार्थनाएं होने लगीं. फिर ख़बरें आने लगीं कि जयललिता की मौत के सदमे में फ़लां-फ़लां व्यक्ति की मौत हो गई. अन्नाद्रमुक ने मृतकों के लिए सहायता राशि देने की घोषणा कर डाली. इस काम में राज्य सरकार भी पीछे नहीं रही.  इन मरने वाले लोगों की मौत सदमे से हुई है या नहीं ? ये बात अलग है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ डालना सही है, क्या करदाताओं की मेहनत की कमाई, जिसका बड़ा हिस्सा करों के रूप में राज्य को मिलता है, उसका इस्तेमाल इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा देने में होना भी चाहिए था? जयललिता की लोकप्रियता के बाद भी इस सवाल का जवाब ’न’ ही है. तमिलनाडु सरकार को सरकारी ख़ज़ाने के पैसे का इस तरह से दुरुपयोग करने से बचना चाहिए था.

इससे बेहतर यह होता कि अन्नाद्रमुक जन कल्याण की कोई और योजना शुरू करती, जिससे ग़रीबों का भला होता ही, वह योजना जयललिता के प्रशंसकों-समर्थकों के मन में उनकी स्मृतियों को भी तरोताज़ा किए रहती. इसके साथ-साथ उन योजनाओं को जारी रखने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए था, जो जयललिता ने अपने कार्यकाल में शुरू की थीं. अन्नाद्रमुक और पन्नीर सेल्वम की सरकार को समझना होगा कि हथकंडे अपनाकर कुछ वक़्त के लिए ही जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता है, पर इस तरह खींचा गया ध्यान स्थाई नहीं होता है. यह तो तभी होता है, जब जन कल्याण के कार्य एक संकल्प के तौर पर किए जाएं. जयललिता यही करती थीं, इसीलिए उन्हें ’अम्मा’ कहा जाता है, जबकि पन्नीर सेल्वम सरकारी ख़ज़ाने का दुरुपयोग ही कर रहे हैं. यह उन मौतों को गरिमा प्रदान करनी भी है, जो जयललिता के निधन के बाद सदमा लगने से हुई बताई जा रही हैं. इंसान का जीवन अनमोल होता है. अलबत्ता अल्पकाल में होने वाली मौतों को महिमा-मंडित करना भी प्रकृति और उसके नियमों के ख़िलाफ़ है.



फ़िरदौस ख़ान
भारत दवाओं का एक ब़डा बाज़ार है. यहां बिकने वाली तक़रीबन 60 हज़ार ब्रांडेड दवाओं में महज़ कुछ ही जीवनरक्षक हैं. बाक़ी दवाओं में ग़ैर ज़रूरी और प्रतिबंधित भी शामिल होती हैं. ये दवाएं विकल्प के तौर पर या फिर प्रभावी दवाओं के साथ मरीज़ों को ग़ैर जरूरी रूप से दी जाती हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से जिन दवाओं पर अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित लगा हुआ है, उन्हें भारत में खुलेआम बेचा जा रहा है. समिति ने कहा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के कई अधिकारियों के बीच मिलीभगत है. इसलिए कई दवाओं की जांच किए बिना उन्हें मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी जा रही है. इनकी वजह से आए दिन लोगों की मौत हो रही है. तीन विवादस्पद दवाएं पीफ्लोकेसील, होम्पलोकेसीन और स्परफ्लोकेसीन के तो दस्ताव़ेज तक ग़ायब हैं. स्थायी समिति के सदस्य डॉ. संजय जायसवाल का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे पर हमने सरकार को स्थायी समिति की ओर से पत्र लिखकर दवा परीक्षण और घटिया दवाओं की बिक्री को अनदेखा करने पर सख्त ऐतराज़ जताया है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रतिबंधित दवाओं में शरीर को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्व होते हैं. इसलिए विकसित देश इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा देते हैं. ऐसे में दवा कंपनियां ग़रीब और विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर वहां अपनी प्रतिबंधित दवाओं के लिए बाज़ार तैयार करती हैं. इन दवाओं का परीक्षण भी इन्हीं देशों में किया जाता है. अंतराष्ट्रीय क्लीनिकल परीक्षण और शोध का बाज़ार तक़रीबन 20 अरब डॉलर का है. भारत में यह बाज़ार तक़रीब दो अरब डॉलर का है और दिनोदिन इसमें त़ेजी से ब़ढोत्तरी हो रही है. ज़्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन ये देश अपने देश के लोगों पर दवाओं का परीक्षण न करके ग़रीब और विकासशील देशों के लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. इनमें एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और अफ्रीकी देश शामिल हैं.

हालांकि क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणा-पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इस घोषणा-पत्र में छह बार संशोधन भी किए गए. घोषणा-पत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुना़फे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो. दवाओं का परीक्षण दबाव और लालच देकर नहीं कराया जाए, लेकिन इस पर असरदार तरीक़े से अमल नहीं किया जा रहा है. साल 2008 से 2011 के बीच भारत में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 2031 लोगों की मौत हुई है. 2008 में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 288 लोगों की जान जान चुकी है, जबकि 2009 में 637 लोगों, 2010 में 668 लोगों और 2011 में 438 लोगों की मौत हुई थी. हाल में मध्य प्रदेश में भोपाल गैस हादसे के पीडि़तों और इंदौर में कई मरीज़ों पर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा था. एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर कर मध्य प्रदेश समेत देश भर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के आरोप लगाए हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के प्रतिनिधियों द्वारा ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात सामने आई थी कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में 2004 से 2008 के बीच विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 279 मरीज़ों पर दवाओं का परीक्षण किया गया है. इनमें से 13 मरीज़ों की दवा परीक्षण के बाद बीमारी बढ़ने से मौत हो गई. मरने वालों में से 12 गैस पीड़ित थे. देश भर में दवा परीक्षण के दौरान में चार साल में 2031 लोगों मौत हुई है. इनमें से केवल 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है, जबकि बाक़ी लोगों के परिवार वाले आज तक इंसा़फ की राह देख रहे हैं.
दरअसल, हमारे देश की लचर क़ानून व्यवस्था का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता कंपनियां ग़रीब मरीज़ों को मुफ्त में इलाज कराने का झांसा देकर उन पर दवा परीक्षण करती हैं. ग़रीब लोग ठगे जाने पर इनके खिला़फ आवाज़ भी नहीं उठा पाते. पिछले दिनों तक़रीबन 13 हज़ार दवाओं के परीक्षण भारत में किए गए. भारत प्रतिबंधित दवाओं का भी ब़डा बाज़ार है. विदेशों में प्रतिबंधित एक्शन 500, निमेसूलाइड और एनालजिन जैसी दवाएं भारत में ज़्यादा बिकने वाली दवाओं में शामिल हैं. फिनलैंड, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों ने निमेसूलाइड के जिगर पर हानिकारक प्रभाव की रिपोर्टों के मद्देनज़र इस पर पाबंदी लगाई हुई है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में भी यह दवा प्रतिबंधित है. इसके अलावा दवाओं के साइड इफेक्ट से भी लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अनेक दवाएं ऐसी हैं जो फायदे की बजाय नुक़सान ज़्यादा पहुंचाती हैं. कुछ दवाएं रिएक्शन करने पर जानलेवा तक साबित हो जाती हैं, जबकि कुछ दवाएं मीठे ज़हर का काम करती हैं. क़ब्ज़ की दवा से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. सर्दी, खांसी, ज़ुकाम, सरदर्द और नींद न आने के लिए ली जाने वाली एस्प्रीन में सालि सिलेट नामक रसायन होता है, जो श्रवण केंद्रीय के ज्ञान तंतु पर विपरीत प्रभाव डालता है. कुनेन का अधिक सेवन कर लेने पर व्यक्ति बहरा हो सकता है. ये दवाएं एक तरह से नशे का काम करती हैं. नियमित रूप से एक ही दवा का इस्तेमाल करते रहने से दवा का असर कम होता जाता है और व्यक्ति दवा की मात्रा में बढ़ोतरी करने लगता है. दवाओं में अल्कोहल का भी अधिक प्रयोग किया जाता है, जो फेफड़ों को नुक़सान पहुंचाती है.

अधिकांश दवाएं शरीर के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे ये शरीर में घुलमिल कर खाद्य पदार्थों की भांति पच नहीं पाती हैं. नतीजतन, ये शरीर में एकत्रित होकर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. दवाओं में जड़ी-बूटियों के अलावा खनिज लोहा, चांदी, सोना, हीरा, पारा, गंधक, अभ्रक, मूंगा, मोती और संखिया आदि का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही कई दवाओं में अफ़ीम, जानवरों का रक्त और चर्बी आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है. सर्लें तथा एंटीबायोटिक दवाओं के लंबे समय तक सेवन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. चिकित्सकों का कहना है कि मेक्साफार्म, प्लेक्वान, एमीक्लीन, क्लोरोक्लीन और नियोक्लीन आदि दवाएं बहुत ख़तरनाक हैं. इनके ज़्यादा सेवन से जिगर और तिल्ली बढ़ जाती है, स्नायु दर्द होता है, आंखों की रोशनी कम हो सकती है, लकवा मार सकता है और कभी-कभी मौत भी हो सकती है. दर्द, जलन और बुख़ार के लिए दी जाने वाली ऑक्सीफेन, बूटाजोन, एंटीजेसिक, एमीडीजोन, प्लेयर, बूटा प्रॉक्सीवोन, जेक्रिल, मायगेसिक, ऑसलजीन, हैडरिल, जोलांडिन और प्लेसीडीन आदि दवाएं भी ख़तरनाक हैं. ये ख़ून में कई क़िस्म के विकार उत्पन्न करती हैं. ये दवाएं स़फेद रक्त कणों को ख़त्म कर देती हैं. इनसे अल्सर हो जाता है तथा साथ ही जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं. एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली दवा इफेविरेंज से नींद नहीं आना, पेट दर्द और चक्कर आने लगते हैं. नेविरापिन से खून की कमी हो जाती है, आंख में धुंधलापन, मुंह का अल्सर आदि रोग हो जाते हैं. मिर्गी के लिए दी जाने वाली फेनिटोइन और कार्बेमेजीपिन से मुंह में छाले और खाने की नली में जख्म हो जाते हैं. डायबिटीज के लिए दिए जाने वाले इंसुलिन से खुजली की शिकायत हो जाती है. कैंसर के लिए दी जाने वाली पेक्लीटेक्सिल से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं और कीमोथैरेपी की दवा साइक्लोसपोरिन से शरीर में खून की कमी हो जाती है और त्वचा भी संक्रमित होती है. चमड़ी के संक्रमण के लिए दी जाने वाली एजीथ्रोमाइसिन से पेट संबंधी समस्या पैदा हो जाती है. एलर्जी के लिए दी जाने वाली स्रिटेजीन से शरीर में ददोड़े प़ड जाते हैं. मेक्लिजीन से डायरिया हो जाता है. एंटीबायोटिक सेफट्राइजोन और एम्पीसिलीन से सांस की नली में सूजन आ जाती है. नॉरफ्लोक्सेसिन और ओफ्लोक्सेसिन से खुजली हो जाती है. टीबी के लिए दी जाने वाली इथेमबूटोल से आंखों की नसों में कमज़ोरी आ जाती है. मानसिक रोगी को दी जाने वाली हेलोपेरीडॉल से शरीर में अकड़न, जोड़ों में दर्द और बेहोशी की समस्या पैदा हो जाती है. इसी तरह दर्द निवारक दवा आईब्रूफेन, एस्प्रिन, पैरासिटामॉल से शरीर में सूजन आ जाती है. एक र्फार्मास्टि के मुताबिक़, स्टीरॉयड और एनाबॉलिक्स जैसे डेकाडयराबोलिन, ट्राइएनर्जिक आदि दवाएं पौष्टिक आहार कहकर बेची जाती हैं, जबकि प्रयोगों ने यह साबित कर दिया है कि इनसे बच्चों की हड्डियों का विकास रुक जाता है. इनके सेवन से लड़कियों में मर्दानापन आ जाता है. उनका मासिक धर्म अनियमित या बहुत कम हो जाता है. उनके चेहरे पर दा़ढीनुमा बाल उगने लगते हैं और कई बार उनकी आवाज़ में भारीपन भी आ जाता है. जलनशोथ आदि से बचने के लिए दी जाने वाली चाइमारोल तथा खांसी रोकने के लिए दी जाने वाली बेनाड्रिल, एविल, केडिस्टिन, साइनोरिल, कोरेक्स, डाइलोसिन और एस्कोल्ड आदि दवाएं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. इसी तरह एंसिफैड्रिल आदि का मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है. एक चिकित्सक के मुताबिक़, दवाओं के दुष्प्रभाव का सबसे बड़ा कारण बिना शारीरिक परीक्षण किए हुए दी जाने वाली दवाओं की निर्धारित मात्रा से अधिक ख़ुराक है. अनेक चिकित्सक अपनी दवाओं का जल्दी प्रभाव दिखाने के लिए प्राइमरी की बजाय थर्ड जेनेरेशन दे देते हैं, जो अक्सर कामयाब तो हो जाती हैं, लेकिन दूसरे असर छोड़ जाती हैं. दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं, जिनसे अन्य बीमारियां पैदा हो जाती हैं. जयपुर के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज के एडवर्स ड्रग रिएक्शन मॉनिटरिंग सेंटर (एएमसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले डे़ढ साल में 40 दवाओं के साइड से 445 मरीज़ प्रभावित हुए हैं. इनमें गंभीर बीमारियां एचआईवी, कैंसर, डायबिटीज और टीबी से लेकर बु़खार और एलर्जी के लिए दी जाने वाली दवाएं शामिल हैं. मरीज़ों ने ये दवाएं लेने के बाद पेट दर्द, सरदर्द, एनीमिया, बु़खार, त्वचा संक्रमण और सूजन आदि की शिकायतें कीं.

स्वास्थय विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टर को चाहिए कि वे दवा के बारे में मरीज़ को ठीक से समझाएं, मरीज़ की उम्र और उसके वज़न के हिसाब से दवा लिखे तथा दवा का कोई भी दुष्प्रभाव होने पर फौरन डॉक्टर को सूचित करे. मरीज़ों को चाहिए कि वे हमेशा डॉक्टर की सलाह से ही पर्ची पर दवा लें, अप्रशिक्षित लोगों और दवा विक्रेताओं के कहने पर किसी भी दवा का इस्तेमाल न करें. सरकार को भी चाहिए कि वह डॉक्टरों को सेंटर पर सूचना देने के लिए पाबंद करे, अस्पतालों में पोस्टर, बैनर और कार्यशालाओं के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करे. किसी भी दवा के दुष्प्रभाव मिलने पर उन्हें प्रतिबंधित करने की स़िफारिश की जाती है. किसी भी अस्पताल या सेंटर से दवा से दुष्प्रभाव और नुक़सान की रिपोर्ट को सीडी एससीओ नई दिल्ली को भेजा जाता है. यहां पर पूरे देश के सभी राज्यों से रिपोर्टें आती हैं. इसके बाद विशेषज्ञों की ड्रग टेक्नीकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) और ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी के सदस्यों द्वारा इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के बाद इसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को उस दवा की रिपोर्ट भेजी जाती है. इसके बाद केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेकर ग़ज़ट नोटिफिकेशन करते हैं. देश में पहले ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है. केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है. ऐसे में मरीज़ों के साथ खिलवा़ड किया जाना बेहद गंभीर और चिंता का विषय है. देश भर के सरकारी अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की कमी है. डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं. आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं. अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है. न तो पर्याप्त संख्या में नए स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं और न मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं. इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती. स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है. चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं. उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं. घटिया स्तर की दवाएं मुहैया कराए जाने के भी आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं नौ दिन चले अढाई कोस नामक कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आती हैं. हालांकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दवाओं को मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया में अनियमितता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तीन सदस्यीय समिति क्लीनिकल परीक्षण के बिना नई दवाओं को दी गई मंज़ूरी की वैज्ञानिक और वैधानिक आधार पर जांच करने के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. वह मंज़ूरी प्रक्रिया में प्रणालीगत सुधार के लिए सुझाव पेश करेगी और दवा नियंत्रक कार्यालय की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए भी सुझाव देगी.

स्वस्थ नागरिक किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं. हमें इस बात को समझना होगा. देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के साथ-साथ प्रतिबंधित दवाओं पर सख्ती से रोक लगाने और ग़ैर क़ानूनी रूप से मरीज़ों पर किए जा रहे दवा परीक्षणों पर भी रोक लगानी होगी. इसके अलावा दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा. इसके कई फ़ायदे हैं, पहला लोगों को रोजगार मिलेगा, दूसरा मरीज़ों को वाजिब क़ीमत में दवाएं मिल सकेंगी और तीसरा फायदा यह है कि मरीज़ विदेशी दवाओं के रूप में ज़हर खाने से बच जाएंगे.

इलाज से परहेज़ बेहतर है
लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति काफ़ी सचेत रहने की ज़रूरत है, वरना एक बीमारी का इलाज कराते-कराते वे किसी दूसरी बीमारी का शिकार हो जाएंगे. शरीर में स्वयं रोगों से मुक्ति पाने की क्षमता है. बीमारी प्रकृति के साधारण नियमों के उल्लंघन की सूचना मात्र है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने से बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करने तथा पौष्टिक भोजन लेने से मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहता है. यही सेहत की निशानी है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल का कहना है कि स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी है कि लोग अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें जैसे अपना ब्लड कोलेस्ट्रॉल 160 एमजी प्रतिशत से कम रखें. कोलेस्ट्ररॉल में एक प्रतिशत की भी कमी करने से हार्ट अटैक में दो फ़ीसदी कमी होती है. अनियंत्रित मधुमेह और उच्च रक्तचाप से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए इन पर क़ाबू रखें. कम खाएं, ज़्यादा चलें. नियमित व्यायाम करना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. सोया के उत्पाद स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. खुराक में इन्हें ज़रूर लिया जाना चाहिए. जूस की जगह फल का सेवन करना बेहतर होता है. ब्राउन राइस पॉलिश्ड राइस से और स़फेद चीनी की जगह गुड़ लेना कहीं अच्छा माना जाता है. फाइबर से भरपूर खुराक लें. शराब पीकर कभी भी गाड़ी न चलाएं. गर्भवती महिलाएं तो शराब बिल्कुल न पिएं. इससे होने वाले बच्चे को नुक़सान होता है. साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की जांच ज़रूर करवाएं. ज़्यादा नमक से परहेज़ करें.


फ़िरदौस ख़ान
देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था. एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए. बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा- पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,  लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं. नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- इसके तीन कारण हैं.  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं. उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं., इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं. दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं. मैं इनके साथ में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं. तीसरी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं. मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता. यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े.
पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवंबर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे. इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया. इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी. वह जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फ़ौरन बाद शुरू हुआ. उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया. स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग ज़ख़्मी हुए.

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए. अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज़्यादा वक़्त जेलों में गुज़ारा. अपने मिज़ाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है.  कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला. 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने. उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौक़ा दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया. हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था. 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया.
वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया. वह 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए. गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे.

1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा. इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया. उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया. नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल की क़ैद की सज़ा दी गई.

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई. इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे. संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया.

1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था. 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे. इसके कुछ ही वक़्त  बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई. उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा. हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है.
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए. कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया.

अक्तूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था. नेहरू को गिरफ़्तार करके चार साल की क़ैद की सज़ा दी गई. एक साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया. इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई. 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया  तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया. प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा. सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स  युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे. क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आज़ादी से कम कुछ भी मंज़ूर करने के पक्ष में नहीं थे.

कांग्रेस में अब नेतृव्य गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो  प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए. लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था. उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया. अब सवाल भारत की आज़ादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आज़ाद राज्य होगा या एक से ज़्यादा होंगे. गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए  मौन सहमति दे दी. 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आज़ाद देश बने. नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.

फिर 1952 में आज़ाद भारत में चुनाव हुए. ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव के वक़्त मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फ़ीसदी साक्षर थे. इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे. संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए.  देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है. कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया. उन्होंने 25,000 मील का सफ़र किया यह सफ़र 18,000 मील हवाई जहाज़ से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया. ख़ास बात यह भी रही कि देशभर में 60  फ़ीसदी मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थीं.

नेहरू के वक़्त एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था. इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया. आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था. इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई. इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला. संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला.

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई. संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया. इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई. आज़ादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था. 1962 में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी. नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की. नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा. कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था. संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्ज़े की कोशिश की. भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे. हालांकि दिसंबर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नराज़गी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी. हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया. नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए. चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे. पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक़्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी. उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा. कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश  के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा 1936  में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है  तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने. विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

नेहरू जी ने कहा था- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है. आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें. हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें. निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए. पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं.

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी. कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता.
बेशक, नेहरू के विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं. बस ज़रूरत है उनको अपनाने की. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

फ़िरदौस ख़ान
नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सरकार ने बेनामी संपत्तियों और सोने पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का मन बनाया है, जो यह अनायास नहीं है. सरकार को पता है कि देश में काला धन नग़दी के रूप में कम, संपत्तियों और आभूषणों के रूप में ज़्यादा है. इसीलिए सरकार ने पिछले दिनों इन पर भी सख़्ती करने का फ़ैसला किया है. बेनामी संपत्तियों के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई शुरू भी हो चुकी है. अब बारी सोना रखने वालों की है. ऐसी ख़बर है कि सरकार घरों में सोना रखने की सीमा तय कर सकती है. इस फ़ैसले से जुड़ी ख़बरें पहली बार शुक्रवार को सुनने को मिली थीं, हांकि रात तक वित्त मंत्रालय के आला अफ़सरों के हवाले से इस ख़बर को ग़लत भी साबित कर दिया गया था, मगर अभी तक इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. इसलिए यह सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि सरकार सोने के ख़िल्दाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक नहीं करेगी. ऐसे में मानना चाहिए कि सरकार इस बाबत कभी भी ऐलान कर सकती है. एक तरह से देखा जाए, तो देश में नोटबंदी के फ़ैसले ए बाद रातों रात जिस तरह से सोने की बिक्री हुई है, वह यह साबित करती है कि देश में सोने के रूप में कालेधन का बड़ा भंडार है, जिसे बाहर लाना ज़रूरी है. नोटबंदी के जितना भी काला धन बाहर आया है, उससे भी ज़्यादा लोगों के घरों में है. अगर इसे करंसी में देखें, तो मुश्किल से दो-तीन फ़ीसद करंसी काले धन में शुमार होती है. हक़ीक़त में काला धन जायदाद के तौर पर रहता है. काला धन बेशक़ीमती हीरे-जवाहारात, सोना-चांदी, ज़मीन जायदाद, गगन चुंबी इमारतों, आलीशान कोठियों और बड़े-बड़े कारख़ानों में बदल जाता है, इनमें खप जाता है. सियासत में भी काले धन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. यहां ये काला धन चंदे का रूप धर कर सामने आता है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि पिछले आठ नवंबर को नोटबंदी के बाद लोगों ने अपने कालेधन को करेंसी से सोने में बदलने का काम शुरू कर दिया था. ख़बरें आ रही थीं कि लोगों ने कालेधन को खपाने के लिए 70 हज़ार रुपये तोला तक सोना ख़रीदा है. सोने और चांदी की बढ़ती मांग की वजह से इन धातुओं की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई. बड़े पैमाने पर सोने की ख़रीद की ख़बरों के बाद इस चर्चा ने ज़ोर पकड़ लिया था कि सरकार व्यक्तिगत स्तर पर सोना रखने की सीमा तय करने वाली है. ख़बर है कि फ़िलवक़्त घर में सोना रखने की सीमा तय करने के बारे में सरकार का कोई इरादा नहीं है. अगर सरकार वाक़ई कालेधन को लेकर संजीदा है,  तो उसे सोने की जमाख़ोरी पर पाबंदी लगानी चाहिए. लोग एक सीमा के बाद अपने कालेधन को सोने-चांदी के तौर पर ही जमा करते हैं. महंगाई के इस दौर में महिलाएं भी सोने-चांदी के ज़ेवरात की जगह नक़ली ज़ेवरात को ही पसंद करती हैं. लूटपाट की घटनाओं की वजह से भी सोने के ज़ेवरात पहनने का चलन कम हुआ है. शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार जैसे ख़ास मौक़ों पर ही महिलाएं सोने के ज़ेवरात पहनाती हैं. अमूमन कालेधन को ठिकाने लगाने के लिए ही सोना ख़रीदा जाता है. छापा पड़ने पर करोड़ों का सोना पकड़े जाने की ख़बरें आए-दिन सामने आती रहती हैं.

नोटबंदी से पहले सरकार ने बेनाम जायदाद को लेकर सख़्त रवैया अपनाया था. पिछले दिनों गोवा में प्रधानमंत्री ने कहा था कि अब सरकार ऐसी संपत्तियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने जा रही है, जो किसी और व्यक्ति के नाम पर ख़रीदी गई है, क्योंकि बेनामी देश की संपत्ति है. बेनामी संपत्ति उस जायदाद को कहते हैं, जिसका ख़रीददार संपत्ति के लिए के लिए भुगतान तो ख़ुद करता है, लेकिन संपत्ति किसी और के नाम पर ख़रीदता है. ऐसी जायदाद बेनामी कहलाती है.  ये बेनामी जायदाद चल, अचल या वित्तीय दस्तावेज़ों के तौर पर हो सकती है. अमूमन लोग कालेधन को बेनामी जायदाद में लगाते हैं. क़ाबिले-ग़ौर है कि बीते अगस्त माह में संसद में बेनामी सौदा निषेध क़ानून को पारित किया गया था. यह इसके प्रभाव में आने के बाद मौजूदा बेनामी सौदे (निषेध) क़ानून 1988 का नाम बदलकर बेनामी संपत्ति लेन-देन क़ानून 1988 कर दिया गया है. यह क़ानून बीते एक नवंबर से लागू हो गया है. इस क़ानून की वजह से सरकार बेनामी जायदाद को ज़ब्त कर सकती है. इसके तहत बेनामी लेन-देन करने वाले को कम से कम एक साल क़ैद की सज़ा हो सकती है. इस मामले में दोषी व्यक्ति को ज़्यादा से ज़्यादा सात साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 25 फ़ीसद तक जुर्माना देने का प्रावधान है. बेनामी जायदाद के मामले में जानबूझकर ग़लत जानकारी देने पर कम से कम छह महीने की क़ैद की सज़ा भी हो सकती है. इस मामले में ज़्यादा से ज़्यादा पांच साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 10 फ़ीसद तक का जुर्माना भी हो सकता है.

देखा जाए, तो भारत सोना ख़रीदने वाले देशों में दसवें स्थान पर है. वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूसीजी) की तरफ़ से जारी एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा सोने के भंडार वाले देशों में अमेरिका दुनिया में पहले स्थान पर है. अमेरिका के पास आठ हज़ार 133.5 टन सोना है, जबकि भारत के पास 1.6 टन सोना है. इस फ़ेहरिस्त में जर्मनी दूसरे, इटली तीसरे, फ़्रांस चौथे, रूस पांचवें, चीन छठे, स्विट्ज़रलैंड सातवें, जापान आठवें और नीदरलैंड नौवें स्थान पर है. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो भारत में सोने का भंडार इस बात को साबित करता है कि यहां कालेधन के रूप में सोना बड़ी मात्रा में हो सकता है. लिहाज़ा अगर सरकार इस दिशा में क़दम उठाती है, तो वह एक साहसिक क़दम होगा, जिसका जनता निश्चित तौर पर स्वागत करेगी.

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं कि मुहब्बत और अक़ीदत का कोई मुल्क नहीं होता, कोई मज़हब नहीं होता. लेकिन जब बात सियासत की आ जाए, मुल्क की आ जाए, तो मुहब्बत और अक़ीदत के पाक जज़्बे पर सियासत ही भारी पड़ती है.  दरगाह आला हज़रत को लें. आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान साहब, जिन्होंने दुनिया को मुहब्बत और भाईचारे का पैग़ाम दिया, अब उन्हीं की दरगाह पर उनके ज़ायरीनों को आने से रोका जा रहा है. दरअसल, भारत-पाक तनाव के मद्देनज़र बरेली में दरगाह आला हज़रत के प्रबंधन ने 24 नवंबर को शुरू हो रहे उर्स में पाकिस्तान के उलेमाओं को शामिल न करने का फ़ैसला किया है. हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए दरगाह प्रबंधन का यह फ़ैसला सही है.

बताया जा रहा है कि पाकिस्तान से छह उलेमाओं की जानिब से उर्स में शिरकत करने की गुज़ारिश आई है, लेकिन दरगाह प्रबंधन ने उन्हें उर्स में शामिल न करने का फ़ैसला किया है. पिछले साल दरगाह प्रबंधन ने पाकिस्तान के 12 उलेमाओं को बुलावा भेजा था, जिसमें से पांच उलेमाओं ने अपनी हाज़िरी दर्ज कराई थी. दरगाह आला हज़रत के उर्स प्रबंधन को ख़ौफ़ है कि अगर किसी ने उसके दावतनामे का ग़लत इस्तेमाल कर किसी कर वीज़ा हासिल कर लिया और देश में कोई वारदात कर दी, तो इससे जानमाल का नुक़सान तो होगा ही, साथ ही दरगाह की भी बदनामी होगी. वैसे भी पाकिस्तान लगातार संघर्षविराम का उल्लंघन कर रहा है, जिससे दोनों मुल्कों के बीच तनाव पैदा हो गया है. दरगाह प्रबंधन का यह भी मानना है कि देश में जब भी कोई आतंकी घटना होती है, तो यहां के मुसलमानों को शक की नज़र से देखा जाता है. इन्हीं सब हालात को देखते हुए दरगाह प्रबंधन को पाकिस्तान के उलेमाओं का बहिष्कार करना पड़ा. ग़ौरतलब है कि तीन दिन तक चलने वाले इस विश्व प्रसिद्ध दरगाह के उर्स में दुनिया भर से ज़ायरीन आते हैं. इस बार भी मॉरीशस, ब्रिटेन, दुबई, ओमान, दक्षिण अफ्रीका, फ्रांस, सऊदी अरब, नीदरलैंड, श्रीलंका, मलावी और जिम्बाब्वे से बड़ी तादाद में उलेमा शिरकत करने के लिए यहां आ रहे हैं.

क़ाबिले-ग़ौर है कि बरेली के सौदागरन मोहल्ले में स्थित दरगाह-ए-आला-हज़रत पर साल भर ज़ायरीनों की भीड़ लगी रहती है. आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान फ़ाज़िले का जन्म 4 जून, 1856 को बरेली में हुआ था और 28 अक्टूबर, 1921 को वे इस दुनिया से पर्दा कर गए. लोग उन्हें आला हज़रत के नाम से पुकारते थे. उनके पूर्वज कंधार के पठान थे, जो मुग़लों के शासनकाल में हिंदुस्तान आए थे. आला हज़रत बहुत बड़े मुफ़्ती, आलिम, क़ुरान हाफ़िज़, लेखक, शायर, उलेमा और कई भाषाओं के जानकार थे. उन्होंने कई किताबें लिखीं, जिनमें अद्दौलतुल मक्किया है जिसे उन्होंने महज़ आठ घंटों में हरम-ए-मक्का में लिखा था. इस्लामी क़ानून पर उनकी एक और बेहतरीन किताब फ़तावा रज़्विया है.  

बहरहाल, सरहद पर भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का असर दोनों देशों की अवाम और उनके रिश्तों पर भी पड़ने लगा है. इससे जहां अवाम रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं, वहीं कारोबारियों को भी काफ़ी नुक़सान हो रहा है. शादी-ब्याह के लिए लोग अब पाकिस्तान में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को बुलावा नहीं भेज रहे हैं और न ही वहां से शादी-ब्याह के दावतनामे आ रहे हैं. इस तनाव की वजह से बहुत से लोग अपनों से नहीं मिल पा रहे हैं. बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के आफ़ताब की पत्नी शाहीना कराची में अपनी बेटी के साथ वापसी का इंतज़ार कर रही है. दिसंबर 2012 में आफ़ताब की शादी कराची की रहने वाली शाहीना कौसर से हुई थी. शाहीना 2013 में मुज़फ़्फ़रपुर आई और वीज़ा बढ़ाते रहने के साथ लांग टर्म वीज़ा के लिए आवेदन दिया. तभी उसकी मां की बीमार हो गई और वह 22 फ़रवरी 2016 को अपनी बेटी को लेकर कराची चली गई. उसने 10 जुलाई को वीज़ा के लिए पाकिस्तान के भारतीय दूतावास में आवेदन दिया था, लेकिन उसे यह कहकर वीज़ा देने ने मना कर दिया गया कि दोनों देशों के बीच रिश्ते ठीक नहीं चल रहे हैं.

भारत-पाक तनाव की वजह से पाकिस्तान से होने वाला कारोबार भी ठप हो गया है. पाकिस्तान के कारोबारी अब भारत से कपास की ख़रीद नहीं कर रहे हैं, जिससे देश के तक़रीबन 82.2 करोड़ डॉलर के कपास उद्योग पर असर पड़ा है. पाकिस्तान भारतीय कपास कारोबारियों के लिए एक बड़ी मंडी है. भारत से कपास का आयात रुकने से पाकिस्तान में कपास के दाम बढेंगे. इससे अमेरिका, ब्राज़ील और अफ़्रीकी देशों के कपास निर्यातकों को ख़ासा मुनाफ़ा होगा. मौजूदा हालात को देखते हुए दोनों ही देशों के व्यापारी नये कारोबारी सौदे भी नहीं कर रहे हैं. साल 2015-16 में पाकिस्तान से भारत को निर्यात घटकर 40 करोड़ डॉलर रह गया, जबकि उससे पहले साल 2014-15 में निर्यात 41.5 करोड़ डॉलर का था. हालांकि इसी अवधि में भारत का पाकिस्तान को निर्यात 27 फ़ीसद बढ़कर 1.8 अरब डॉलर पहुंच गया.

हालांकि अमेरिका व दुनिया के कई अन्य देश चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बाच तनाव ख़त्म हो और हालात सामान्य हो जाएं. अलबत्ता, नफ़रत से किसी का भला नहीं होता. यह बात पाकिस्तान को भी समझनी होगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि फिर से दोनों देशों के रिश्ते बेहतर होंगे,  मुहब्बत और अक़ीदत की जीत होगी.

राधा मोहन सिंह
भारत की आत्मा गांवों में बसती है, जिसमें जान भरने और अपनी मेहनत से सींचने का काम हमारे किसान भाई करते रहे हैं. देश में कृषि के विकास पर नजर डालें तो आजादी के समय या उसके बाद के दशकों में कृषि की दशा के साथ-साथ खाद्य उत्पादन भी दयनीय अवस्था में था. बढ़ती आबादी, कुदरत की मार, वैज्ञानिक साधनों एवं कृषि अनुसंधानों के अभाव में अनाज उत्पादन इतना कम था कि हम विदेश से अनाज आयात करने को मजबूर थे. आगे चलकर 1960 के दशक में देश में गेहूं और धान जैसे फसलों को केंद्र में रखते हुए वैज्ञानिक उपायों और कृषि अनुसंधानों के जरिए हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ, लेकिन इसका दायरा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले से ही उन्नत जिलों और दक्षिण-पूर्व के तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित रहा. बीच के दशकों में तात्काजलीन सरकारों द्वारा खेती के विकास और किसानों के कल्याण की बातें तो बहुत हुईं, यहां तक कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात भी हुई, लेकिन उस रफ्तार से काम नहीं किया गया, जिससे कृषि का तीव्र विकास हो, हमारे किसान खुशहाल हों, उनकी आमदनी बढ़े और देश खाद्य सुरक्षा को पूरा करने में समर्थ हो.
माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में केंद्रीय कृषि एवं किसान मंत्रालय अपने किसान भाइयों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए कई स्तरों पर प्रयास कर रहा है. जब तक किसानों की आमदनी नहीं बढ़ेगी, उन्हें उनके उत्पाद का बेहतर मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक उनका जीवन खुशहाल नहीं हो सकता. माननीय प्रधानमंत्री जी ने लक्ष्य रखा है कि मार्च 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना है. इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जा रहे हैं. इसके लिए कृषि, सहकारिता एवं किसान विभाग के अपर सचिव की अध्यक्षता में एक अंतर मंत्रालय समिति का गठन किया गया है. इस समिति ने खरीफ 2016 से अपना काम शुरू कर दिया है. वर्ष 2021-22 तक किसानों/कृषि मजदूरों की आमदनी कैसे दोगुनी हो सकती है और इसके लिए कितनी विकास दर आवश्यक होगी, लक्ष्य पूर्ति के लिए क्या रणनीति हो एवं इससे जुड़े अन्य मुद्दों पर समिति राय देगी. हमारे किसान भाइयों की आमदनी का प्रमुख जरिया खेती-बाड़ी ही है. बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए फसल का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है. इसके लिए केंद्र सरकार ने पूर्वोत्त र राज्यों में दूसरी हरित क्रांति का आगाज किया है. देश के सात राज्यों- असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दूसरी हरित क्रांति चलाई जा रही है. दूसरी हरित क्रांति सिर्फ अनाज, दलहन व तिलहन तक सीमित नहीं रहेगी. श्वेत क्रांति, नीली क्रांति में भी पूर्वी राज्यों में विकास और उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं. सरकार ने दलहन उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए न्यूवनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया है, ताकि दलहन की आपूर्ति और खपत के बीच के अंतर को पाटा जा सके. कृषि पर दबाव कम हो और किसान भाइयों की आमदनी बढ़े, इसके लिए गौ पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन आदि को भी बढ़ावा दिया जा रहा है.
केवल फसल उत्पादन बढ़े, इतना ही पर्याप्त नहीं है. हमारे किसान भाइयों को फायदा तभी होगा जब उत्पादन बढ़ने के साथ ही उत्पादन लागत कम रहे, उसे उसकी फसल का बेहतर मूल्य मिले, बाजार की सुविधा हो, किसान को सही समय पर खाद व बीज मिले, प्राकृतिक आपदा की स्थिति में राहत का प्रबंध हो और उन्हें फसल बीमा मिले. केंद्र सरकार ने किसानों के कल्याण के लिए कई योजनाएं बनाई हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना, कृषि वानिकी और नीम लेपित यूरिया, राष्ट्रीय कृषि बाजार, किसानों के लिए मोबाइल एप की शुरूआत, कृषि विज्ञान केंद्रों को मजबूत करना, केवीके पोर्टल की शुरूआत, कृषि शिक्षा एवं अनुसंधान को बढ़ावा देना, मेरा गांव, मेरा गौरव योजना की शुरूआत, सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए दीन दयाल अंत्योबदय मिशन, किसान की जरूरतों के अनुरूप स्टूडेंट रेडी कार्यक्रम शुरू करना आदि कदम उठाए गए हैं. इसके अलावा पशुपालन, डेयरी और चिकित्सा शिक्षा में बदलाव भी किए गये हैं. कृषि के अलावा बागवानी कृषि पर सरकार का पूरा जोर है. बागवानी कृषि हमारे किसान भाइयों की आमदनी बढ़ाने में काफी सहायक है.
हालांकि, हमारी अधिकांश कृषि प्रकृति पर निर्भर है. कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी ओला वृष्टि, तो कभी अन्य आपदा. अपने अन्नदाताओं की इसी परेशानी को ध्यान में रखते हुए हमारी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ शुरू की है, ताकि वे खुशहाल हों. सरकार अगले 2-3 वर्षों में 50 फीसदी किसानों को फसल बीमा के दायरे में लाना चाहती है. अभी मात्र 20 फीसदी किसानों को ही फसल बीमा के दायरे में लाया जा सका है. इस योजना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हमारे किसान भाई बीमा की कम प्रीमियम राशि चुकाकर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. शेष भार सरकार खुद वहन करेगी. यहां तक कि 90 फीसदी से ज्यादा शेष भार होने पर भी सरकार द्वारा ही वहन किया जाएगा. किसानों को रबी फसलों के लिए 1.5 फीसदी और खरीफ के लिए 2 फीसदी की दर से प्रीमियम देना होगा. इतना ही नहीं, बीमा पर भुगतान की सीमा हटा दी गयी है. खेत से लेकर खलिहान तक किसानों को बीमा सुरक्षा दिए जाने का प्रावधान किया गया है.
प्रधानमंत्री जी ने लक्ष्य रखा है कि हमें प्रति बूंद ज्यादा फसल उगानी है. यह तभी संभव होगा जब प्रत्येक खेत को पानी मिले और सिंचाई की व्यवस्था हो. इसके लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शुरू की गयी है, जिसे मिशन मोड में चलाया जा रहा है, ताकि सूखे की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढा जा सके. इसके लिए देश के सभी जिलों में जिला सिंचाई योजना तैयार करने के लिए राशि दी गई है.
किसान खेती करता था, लेकिन उसे यह पता नहीं होता था कि उसके खेत में कितनी दवा या उर्वरक देना है. इसके लिए सरकार ने देश में पहली बार सॉयल हेल्थ कार्ड स्कीम की शुरूआत की है. इस स्कीेम के तहत फसल उत्पादन के लिए उपयुक्त संस्कृति, पोषक तत्वों की मात्रा का प्रयोग करने और मृदा स्वास्थ्य और उर्वरता में सुधार के लिए देश के सभी 14 करोड़ किसानों को दो वर्ष में सॉयल हेल्थ कार्ड उपलब्ध कराया जाएगा.
देश में अभी तक यूरिया को लेकर मारामारी रहती थी, लेकिन यह पहला वर्ष है जब यूरिया की कोई कमी नहीं है. हमने अपने किसान भाइयों के लिए नीम लेपित यूरिया की व्यवस्था की. इससे किसानों को 100 किलोग्राम की जगह 90 किलोग्राम यूरिया का ही इस्तेमाल करना होगा, जिससे लागत मूल्य में कमी आने के साथ ही अब यूरिया का गलत उपयोग भी नहीं हो पाएगा.  साथ ही सरकार ने पोटाश व डीएपी के दाम भी कम किए हैं. इसके साथ ही मोदी सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना शुरू की है. 2016-17 के बजट में योजना के माध्यम से 3 साल में 5 लाख एकड़ क्षेत्र में जैविक खेती करने का लक्ष्य रखा गया है. सिक्किम पूरी तरह से जैविक खेती करने वाला राज्य बन गया है.
किसानों को उनके उत्पाद का सही मूल्य मिले, इसके लिए सरकार ने किसानों के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार शुरू किया है. अब कोई भी व्यक्ति अपने घर के नजदीक स्थित राष्ट्रीय कृषि बाजार केन्द्र में जाकर कम्प्यूटर पर देश भर की मंडियों पर नजर डाल सकता है. 14 अप्रैल, 2016 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंती पर ई-ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म का पायलट प्रोजेक्ट लांच कर दिया गया है. आजादी का सपना तब पूरा होगा, जब किसान होंगे खुशहाल और इस समय आठ राज्यों की 23 मंडियों में 11 जिंसों की खरीद-बिक्री शुरू हो रही है. अप्रैल 2016 से सितंबर 2016 के मध्य तक 200 मंडियों को ई-ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर से जोड़ दिया जाएगा. फिर अक्तूबर, 2016 से 31 मार्च 2017 के मध्य तक 200 मंडियों को इसमें शामिल कर लिया जाएगा. मार्च 2018 तक देश की 585 मंडियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया जाएगा.
किसानों को सही समय पर सूचना देने के कृषि एवं किसान कल्यामण मंत्रालय के कई पोर्टल हैं, जिनके जरिए हमारे किसान भाई सूचना प्राप्त कर सकते हैं. भारत सरकार का किसान पोर्टल- http://farmer.gov.in , भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की वेबसाइट http://www.icar.org.in, केवीके की विभिन्न गतिविधियों की जानकारी प्रदान करने एवं उसकी उच्च स्तर पर निगरानी एवं प्रबंधन हेतु बनाए गए पोर्टलhttp://kvk.icar.gov.in/ पर किसानों के लिए योजनाओं की जानकारी उपलब्ध है. विभिन्न तरह के मोबाइल एप मसलन किसान सुविधा एप, पूसा कृषि एप, भुवन ओलावृष्टि एप, फसल बीमा एप, एग्री मार्केट एप, पशु पोषण एप हैं. ये सभी एप्स   www.mkisan.gov.in  के अलावा गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड किए जा सकते हैं.
माननीय प्रधानमंत्री जी की स्टूमडेंट रेडी (Rural Entrepreneurship Awareness Development Yojana) वर्ष 2015 में शुरू हुई थी जो वर्ष 2016-17 से लागू होगी. कृषि स्नातकों में व्यावहारिक अनुभव तथा उद्यमिता कौशल प्राप्त करने के लिए अवसर प्रदान करने हेतु यह एक नया कार्यक्रम है. हमने कृषि विज्ञान के पाठ्यक्रम और विषय-वस्तु में सुधार के लिए गठित पांचवीं डीन कमेटी की सिफारिश को मंजूरी दी है. कृषि-विज्ञान के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में भारी बदलाव किए गये हैं और इन्हें अब व्यावहारिक अनुभव के साथ व्यावसायिक और रोजगारोन्मुख बना दिया गया है. दो नये केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी है. कृषि विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ है. देश के संघीय ढांचे में राज्यों की अहम भूमिका है. कृषि राज्य का विषय है. कृषि व किसान कल्याण का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है, जब राज्यों का पूरा सहयोग मिले और यह मिलता भी रहा है. लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भारत के सभी राज्यों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी. राज्य सरकार के प्रयासों में और तेजी लाने के उद्देश्य से केन्द्र द्वारा पोषित कई योजनाएं भी समय-समय पर लागू की गईं जिससे कि देश के कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हो सके और किसान खुशहाल हो.
सरकार के उपरोक्त सभी कार्यक्रमों व प्रयासों का एकमात्र लक्ष्य है किसान भाइयों की आमदनी को 2022 तक दोगुना करना और इसके लिए जो भी कदम उठाना है, सरकार उसके लिए कृतसंकल्प है. इसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए आजाद भारत में खुशहाल किसान का लक्ष्य पाया जा सकता है.
(लेखक केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री हैं)

फ़िरदौस ख़ान
पिछले काफ़ी अरसे से कांग्रेस अंदरूनी कलह और बग़ावत से जूझ रही है. इसी अंदरूनी कलह की वजह से कांग्रेस केंद्र और कई राज्यों से सत्ता गंवा चुकी है. उत्तराखंड में भी कांग्रेस अपने ही विधायकों की वजह से सत्ता से बाहर हो गई थी. हालांकि काफ़ी जद्दोजहद के बाद उसे खोयी हुई सत्ता वापस मिल गई. अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी पार्टी को छोड़कर जा रहे हैं. अब कांग्रेस को तीन और राज्यों से झटका लगा है. मुंबई में निकाय चुनाव से पहले महाराष्ट्र के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री गुरुदास कामत ने पार्टी से इस्तीफ़ा देते हुए राजनीति से संन्यास का ऐलान कर दिया है. गुरुदास कामत को गांधी परिवार का भरोसेमंद माना जाता है. पार्टी कार्यकर्ताओं को भेजे संदेश में उन्होंने लिखा है, "कई महीनों से मैंने महसूस किया कि मुझे नये लोगों को आगे आने के लिए पीछे हट जाना चाहिए. दस दिन पहले मैं कांग्रेस अध्यक्ष से मिला और इस्तीफ़ा देने की मंशा ज़ाहिर की. इसके बाद मैंने उन्हें और राहुल जी को पत्र लिखकर बता दिया कि मैं पार्टी छोड़ना चाहता हूं. इसके बाद से कोई जवाब नहीं आया. मैंने राजनीति से संन्यास लेने के बारे में बता दिया है." सियासी गलियारे में चर्चा है कि गुरुदास कामत मुंबई इकाई में अपनी उपेक्षा से नाराज़ थे. वह पार्टी में सुधार चाहते थे. इसके लिए उन्होंने पार्टी हाईकमान को कुछ सुझाव भी दिए, जिस पर कोई तवज्जो नहीं दी गई. कहा यह भी जा रहा है राहुल गांधी की मुंबई कांग्रेस प्रमुख संजय निरुपम से नज़दीकी और अपनी अनदेखी ने उन्हें चोट पहुंचाई.

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के क़द्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पार्टी का साथ छोड़ कर अपनी अलग सियासी पार्टी बना ली है. राज्यसभा का टिकट नहीं मिलने से अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान से नाराज़ थे. बेटे अमित को पार्टी से निकाले जाने पर भी उनमें कांग्रेस के लिए आक्रोश था. ग़ौरतलब है कि अमित जोगी अंतागढ़ टेप कांड में कांग्रेस से निकाले गए थे. उन्होंने अपने पैतृक गांव मरवाही में कांग्रेस पर कांग्रेस छोड़ने का ऐलान करते हुए कहा, "मैं अब कांग्रेस से आज़ाद हूं." इस मौक़े पर कांग्रेस के तीन विधायक और कई पूर्व विधायक भी मौजूद थे. अजीत जोगी का कहना है कि अब राज्य के फ़ैसले दिल्ली से नहीं होंगे. उनका कहना है कि कांग्रेस अब नेहरू, इंदिरा और राजीव-सोनिया गांधी वाली कांग्रेस नहीं रह गई है. इसमें जनाधार वाले नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है.

पूर्वोत्तर में भी कांग्रेस एक बार फिर संकट में घिर गई है. अरुणाचल प्रदेश, असम और मेघालय के बाद त्रिपुरा पूर्वोत्तर का चौथा राज्य है, जहां कांग्रेस को बग़ावत का सामना करना पड़ा है.यहां पार्टी के छह बाग़ी विधायक कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. इनमें त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन के पुत्र सुदीप राय बर्मन, बिस्वबंधु सेन, दिबा चंद्र हृंखाव्ल, आशीष साहा, दिलीप सरकार और प्राणजीत सिन्हा रॉय शामिल हैं. समीर रंजन बर्मन पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं.  इससे राज्य की 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस की विधायकों की संख्या दस से घटकर तीन रह जाएगी. त्रिपुरा में वाम की सरकार है. विधानसभा की 50 सीटों पर वाम का क़ब्ज़ा है. यहां अब तृणमूल मुख्य विपक्षी पार्टी बन जाएगी. कांग्रेस के बाग़ी नेताओं का कहना है कि पश्चिम बंगाल चुनाव में वाम के साथ भागीदारी करने के पार्टी के फ़ैसले के ख़िलाफ़ उन्होंने इस्तीफ़ा दिया है. पिछले चुनावों में कांग्रेस की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार समीर रंजन बर्मन ने कहा है, " तृणमूल में शामिल होने का हमारा मक़सद वाम की इस भ्रष्ट, जन विरोधी सरकार को हराना है." उन्होंने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस-वाम गठबंधन के विरोध में नेता विपक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. अब त्रिपुरा कांग्रेस में अध्यक्ष बिरजीत सिन्हा और दो अन्य विधायक हैं. ग़ौरतलब है कि त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव 2018 में होगा. माकपा के प्रदेश सचिव बिजन धर ने दावा किया है कि विधानसभा से इस्तीफ़ा देने वाले कांग्रेस के एक अन्य असंतुष्ट विधायक जितेन सरकार ने सत्तारूढ़ माकपा में शामिल होने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की है. उनका यह भी कहना है कि दिलीप सरकार माकपा के पूर्व सदस्य हैं, जो माकपा के टिकट पर पांच बार विधानसभा पहुंचे और वह नौ साल तक विधानसभा के अध्यक्ष रहे हैं. उन्हें माकपा में वापस लाया जाएगा.

ग़ौरतलब है कि कांग्रेस के लिए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में नतीजे मायूस करने वाले रहे. सिर्फ़ पुड्डुचेरी में ही कांग्रेस सरकार बना पाने में कामयाब रही है. असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस में बग़ावत के लिए कौन ज़िम्मेदार है. क्या कांग्रेस नेताओं का पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से विश्वास कम हो रहा है या फिर राज्यों के पार्टी नेताओं का असंतोष बग़ावत के तौर पर सामने आ रहा है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि कांग्रेस में बग़ावत के सुर उस वक़्त मुखर हो रहे हैं, जब राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने की बात चल रही है. पार्टी के दिग्गज नेता पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप देना चाहते हैं. राहुल की टीम में युवा चेहरों को तरजीह दिए जाने की भी पूरी उम्मीद है.

हालांकि कांग्रेस की अंदरूनी दिक़्क़तों को दूर करने के लिए पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने एक 'एडवाइज़र्स ब्लॉक' का गठन करने की सलाह दी है. इसमें दस नेता और उद्योगपतियों को शामिल किया जाएगा, जो पार्टी के अहम मुद्दों पर फ़ैसले लेंगे. बताया जा रहा है कि यह भारतीय जनता पार्टी के पार्लियामेंट्री बोर्ड जैसा होगा. राहुल गांधी इसमें पी. चिदंबरम और ग़ुलाम नबी आज़ाद जैसे वरिष्ठ नेताओं को शामिल करना चाहते हैं.  कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को मलाल है कि पार्टी नेतृत्व उनकी बात नहीं सुनता. राहुल गांधी को चाहिए कि वे अपनी पहुंच पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक बनाएं. अगर वे ऐसा पर पाए, तो कांग्रेस को उसका खोया रुतबा वापस दिला पाएंगे.

बहरहाल, कांग्रेस चाहती, तो गुरुदास कामत को उसी वक़्त मना लेती, जब उन्होंने इस्तीफ़ा देने की पेशकश की थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. कांग्रेस को चाहिए कि वह भले ही पार्टी की बागडोर युवा टीम के हवाले कर दे, लेकिन पार्टी के विश्वसनीय और पुराने उन नेताओं की अनदेखी न करे, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी कांग्रेस को समर्पित कर दी. वही दरख़्त फलता-फूलता है, जिसकी जड़ें मज़बूत हों, कांग्रेस को भी अपनी जड़ों की मज़बूती को बरक़रार रखना होगा, वरना पार्टी को बिखरने में देर नहीं लगेगी.

फ़िरदौस ख़ान
रेलमंत्री सुरेश प्रभु आए दिन रेलवे को लेकर लुभावने घोषनाएं करते रहते हैं, कभी बच्चों को विशेष सुविधाएं देने की, तो कभी महिलाओं को. वे उस सरकार के रेलमंत्री हैं, जो जनता को बुलेट ट्रेन का सब्ज़ ख़्वाब भी दिखाती रहती है. उसने इसे पूरा करने के लिए देश पर एक बड़े कर्ज़ को बोझ भी डाल दिया है. जनता की ख़ून-पसीने की कमाई से भारत को 50 साल तक जापान के 79 हजार करोड़ रुपये के क़र्ज़ की क़िस्तें चुकानी पड़ेंगी. भूखे को ताज की नहीं रोटी की ज़रूरत होती है. आख़िर ये बात सरकार की समझ में क्यों नहीं आती. या फिर अपने नाम बुलेट ट्रेन दर्ज करवाने के लालच में सरकार ने जनता को क़र्ज़ के बोझ तले दबा डाला? देश में रेल सुविधाओं की हालत कितनी बदतर है, सब जानते हैं. हालांकि सरकार यात्रियों को सुविधाएं मुहैया कराने के तमाम दावे करती है,  लेकिन हक़ीक़त यह है कि यात्री सुविधा के नाम पर सिर्फ़ किराया बढ़ जाता है, जबकि यात्रियों की परेशानी ज्यों की त्यों की बरक़रार रहती हैं. ऐसा इसलिए होता है कि जो काम पहले होना चाहिए, वह काम तो होता ही नहीं, जो बाद में होना चाहिए, उसे तरजीह दी जाती है. बहुत से काम किए ही नहीं जाते, सिर्फ़ ख़ानापूरी ही की जाती है.

देश की आबादी और यात्रियों की तादाद के हिसाब से रेलों की संख्या बहुत कम है. रेल के सामान्य कोच की संख्या भी नहीं बढ़ाई जाती. हालत यह है कि सामान्य डिब्बे यात्रियों से खचाखच भरे रहते हैं और इनमें पैर रखने तक की जगह नहीं होती. लोग रेल के शौचालयों तक में खड़े होकर सफ़र करते देखे जा सकते है. कितने ही यात्री डिब्बों के दरवाज़ों में लटक कर सफ़र करते हैं. यात्री जान की परवाह किए बिना रेल की छत पर भी चढ़ जाते हैं. कई बार हादसों में उनकी जान तक चली जाती है. इसके बावजूद रेलवे कोई बेहतर इंतज़ाम नहीं करता. महिला डिब्बे की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है. इनमें पुरुष यात्री घुस जाते हैं, जिससे महिलाओं को काफ़ी परेशानी होती है. अगर कोई महिला यात्री उनका विरोध करती है, तो वे झगड़ना शुरू कर देते हैं. कई बार मामला गाली-गलौच तक पहुंच जाता है.  इसके अलावा महिला डिब्बा कभी आगे लगाया जाता है, तो कभी सबसे पीछे और कभी बीच में. ऐसी हालत में महिलाओं को डिब्बे तक पहुंचने में दिक़्क़त का सामना करना पड़ता है. इस चक्कर में उनकी रेल तक छूट जाती है.

रेलों में सुरक्षा व्यवस्था की हालत भी ख़स्ता ही है. महिलाओं की सुरक्षा का भी कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं है. रेलों में आपराधिक घटनाएं होती रहती हैं.  कई मामलों में रेलवे कर्मी और आरपीएफ़ तक शामिल पाए गए हैं. किन्नर व अन्य मांगने वाले लोग भी मुसाफ़िरों को तंग करते देखे जा सकते हैं. पैसे न देने पर वे यात्रियों के साथ अभद्रता पर उतर आते हैं. इन लोगों पर रेलवे प्रशासन को कोई अंकुश नहीं है.

रेलवे में तत्काल टिकट का गोरखधंधा बदस्तूर जारी है. लोगों को शिकायत रहती है कि वे तत्काल टिकट लेने जाते हैं, तो दलालों के आगे उनकी एक नहीं चलती. लोगों को लाइन में लगने के बाद भी टिकट नहीं मिलता, जबकि दलाल काउंटर की बजाय सीधे बुकिंग क्लर्क के केबिन में जाकर टिकट बुक करा लेते हैं और बाद में इन्हें मुंह मांगे दाम पर बेचते हैं. कहने के लिए रेलवे ने सीसीटीवी कैमरे भी लगा रखे हैं, इसके बावजूद दलालों पर कोई शिकंजा नही कसा जाता. वेटिंग टिकट की समस्या से भी यात्री परेशान हैं. ऐसे में दलाल यात्रियों की मजबूरी का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं.  दलाल पहले ही टिकट बुक करा लेते हैं, ऐसे में यात्रियों के हिस्से में आए टिकट वेटिंग लिस्ट में रहते हैं. टिकट कंफ़र्म कराने के लिए भी दलाल यात्रियों से अच्छे ख़ासे पैसे लेते हैं.

बर्थ के किराये को लेकर भी असमानता है. मसलन अगर कोई यात्री एसी 2 में सफ़र करता है, तो उसे साइड बर्थ मिल जाने पर भी वही किराया देना पड़ता है, जो इनर बर्थ के मुसाफ़िर देते हैं,  जबकि एसी 2 और एसी 3 दोनों की साइड बर्थ एक समान असुविधाजनक होती हैं. दोनों की ही साइड बर्थ का किराया एक सामान एसी 3 की तरह ही होना चाहिए.
इसके अलावा बुज़ुर्ग यात्रियों के लिए सुविधाजनक बर्थ होनी चाहिए. कंप्यूटरीकृत आरक्षण व्यवस्था में यह इंतज़ाम होना चाहिए कि 60 साल से ज़्यादा के सीनियर सिटिज़न को स्लीपर, एसी 1, 2, 3 सभी जगह लोअर बर्थ ही मिले. ऊपर की बर्थ में बुज़ुर्गों को काफ़ी दिक़्क़त होती है.

प्रीमियम तत्काल में रेलवे का टिकट हवाई जहाज़ से भी महंगा है. मसलन बीते सोमवार को भोपाल एक्सप्रेस से हबीबगंज से दिल्ली का एसी सेकेंड स्लास का किराया 4456  रुपये था, जबकि एयर इंडिया की फ़्लाइट का किराया 3679 रुपये था.
रेल यात्रियों को तीन से पांच गुना ज़्यादा किराया देना पड़ रहा है. जिस स्लीपर क्लास का साधारण किराया 265 रुपये लगता है, प्रीमियम तत्काल में उसके पांच गुना ज़्यादा यानी 1000 रुपये तक चुकाने पड़ सकते हैं. इसी तरह भोपाल एक्सप्रेस में 1500 का एसी टिकट 4500 रुपये में और पुष्पक एक्सप्रेस में 2300 का टिकट 7200 रुपये में यानी तीन गुना ज़्यादा दाम पर मिल रहा है. ग़ौरतलब है कि प्रीमियम तत्काल कोटा अक्टूबर 2014 में शुरू किया गया था. यह टिकट रेल का चार्ट बनने से पहले तक बुक कराया जा सकता है. यह टिकट सिर्फ़ ऑनलाइन ही बुक होता है. इसे रद्द करने पर पैसे नहीं मिलते. इसमें सामान्य तत्काल में स्लीपर किराये पर दूरी के हिसाब से 90 से 175 रुपये ज़्यादा देने पड़ते हैं. इसमें एसी 3 में साधारण किराये से 250 से 300 रुपये और एसी 2 में 300 से 400 रुपये ज़्यादा चुकाने पड़ते हैं. प्रीमियम तत्काल के दाम कम होती सीटों के हिसाब से बढ़ जाते हैं.

सरकार ने स्वच्छता का नारा देते हुए जनता पर कर के तौर पर आर्थिक बोझ डाल दिया है. इसके बाद भी रेलवे स्टेशनों और रेलों में गंदगी कम नहीं हुई. रेलवे स्टेशनों पर कूड़ेदान होने के बावजूद स्टेशनों पर यहां-वहां कूड़ा-कर्कट देखा जा सकता है. स्टेशनों पर पीने के पानी की भी व्यवस्था न के बराबर है.  कहीं पेयजल के प्याऊ बने हैं, तो उनका पानी पीने लायक़ नहीं होता. प्याऊ और उसके आसपास काफ़ी गंदगी होती है. लोग वहीं कुल्ला करते हैं, बर्तन धोते हैं. ऐसे में बोतल बंद पानी बेचने वाली कंपनियों को ख़ूब फ़ायदा होता है.
रेलवे की असली समस्याएं यही हैं, पर रेलमंत्री का इनकी तरफ़ ध्यान नहीं है. वे सिर्फ़ ऐसी घोषणाएं करते हैं, जिनसे उन्हें प्रचार मिले. दरअसल वे यात्रियों को सुविधाएं मुहैया कराने से ज़्यादा प्रचार पाने में यक़ीन करते हैं. किसी ने बच्चे के दूध के लिए उन्हें ट्वीट किया, तो उन्होंने चलती ट्रेन में दूध मुहैया करा दिया और वक़्ती वाहवाही लूट ली. क्या रेल मंत्री को मालूम नहीं कि यात्री हर रोज़ किन परेशानियों से जूझते हैं. यात्रियों को इन परेशानियों से निजात दिलाने के लिए उन्होंने क्या कार्रवाई की ? यह सही है कि बच्चों को दूध मिलना चाहिए. ट्वीट पर यात्रियों की समस्याओं का समाधान होना चाहिए. लेकिन सच यह भी है कि इससे पहले रेलगाड़ियों को वक़्त पर चलाया जाना चाहिए. उनमें साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था होनी चाहिए और रेलयात्रियों को सुरक्षा भी मिले. उनकी सीट पर कोई क़ब्ज़ा न कर पाए. सामान्य डिब्बों की संख्या भी बढ़े. मगर ऐसा कुछ नहीं होता, रेल बजट में घोषणाएं करने के बाद भी. रेलमंत्री सुरेश प्रभु वही काम करते हैं, जिससे उनकी तारीफ़ हो. इसलिए रेलवे की समस्याएं बढ़ती चली जा रही हैं.


फ़िरदौस ख़ान
सियासत  के लिहाज़ से देश के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में महज़ कुछ ही महीने रह गए हैं. लेकिन अभी तक कांग्रेस अपने संगठन को मज़बूती से खड़ा तक नहीं कर पाई है.  कभी यहां कांग्रेस जन-जन की पार्टी हुआ करती थी. आज हालत यह है कि पार्टी का बूथ स्तर का संगठन भी उतना मज़बूत नहीं है, जितना होना चाहिए. कांग्रेस को अगर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अच्छे नतीजे हासिल करने हैं, तो इसके लिए उसे बिना वक़्त गंवाये अपने संगठन को मज़बूत करना होगा.  उसे प्रदेश की बागडोर किसी युवा के हाथ में सौंपनी होगी. जतिन प्रसाद और आरपीएन सिंह भी यह ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभा सकते हैं. ये दोनों ही पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के क़रीबी माने जाते हैं.


हालांकि उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनज़र कांग्रेस ने पार्टी की प्रदेश इकाई में बदलाव करना शुरू कर दिया है. हाल ही में पार्टी के प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री को हटाकर ग़ुलाम नबी आज़ाद को प्रभारी बनाया गया है. पार्टी अध्यक्ष निर्मल खत्री को भी बदले जाने के आसार हैं. विधानमंडल के नेता प्रदीप माथुर का बदला जाना भी तय माना जा रहा है.
कांग्रेस में बग़ावत भी थमने का नाम नहीं ले रही है. कांग्रेस के छह विधायकों ने उत्तर प्रदेश राज्यसभा चुनाव में क्रॊस वोटिंग की.  विधायक संजय प्रताप जायसवाल, माधुरी वर्मा, विजय दुबे, मोहम्मद मुसलिम, दिलनवाज़ और नवाब काज़िम अली ख़ान ने पार्टी उम्मीदवार कपिल सिब्बल के ख़िलाफ़ मतदान किया. बाद में राहुल गांधी के निर्देश पर इन सभी विधायकों को निष्कासित कर दिया गया. राहुल गांधी के इस कड़े रुख़ से संगठन को मज़बूती मिलेगी. इस तरह पार्टी के प्रति ईमानदार और आस्थावान नेताओं और कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश जाएगा.

उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर कांग्रेस काफ़ी सतर्क है. चुनावी रण में अपने उम्मीदवारों के नाम तय करने में भी पार्टी काफ़ी सूझबूझ से काम लेना चाहती है. प्रदेश के सभी ज़िलों से 25 तक पैनल भेजे जाने तय किए गए हैं. पार्टी के प्रदेशाध्क्ष निर्मल खत्री ने पत्र जारी कर चुनाव लड़ेने वाले मज़बूत दावेदारों का पैनल ज़िलाध्यक्षों से मांगा हुआ है. जुलाई के पहले हफ़्ते में ही पैनल में से एक नाम पर मुहर लगा दी जाएगी. फिर अगस्त के पहले हफ़्ते में उम्मीदवारों की फ़ेहरिस्त जारी करने तैयारी होगी. फ़िलहाल सिटिंग विधायक वाली सीटों पर  पैनल नहीं बनवाया गया है. छह विधायकों के क्रॊस वोटिंग करने से पार्टी  कशमकश में  है. कांग्रेस विधायकों की सत्यनिष्ठा  को परखने के बाद ही अब टिकट तय करेगी.

कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश की चुनावी नैया पार करना आसान नहीं है. पार्टी की मुश्किल यह है कि वह पिछले काफ़ी अरसे से उत्तर प्रदेश में कोई ख़ास करिश्मा नहीं दिखा पा रही है. पार्टी के पास नेताओं की एक बड़ी फ़ौज होने के बावजूद कोई ऐसा चेहरा नहीं है, पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भर सके. कांग्रेस के मुक़ाबले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का संगठन ज़्यादा मज़बूत नज़र आता है. यहां कांग्रेस को ऐसे नेता की ज़रूरत है, जो सीधा जनमानस और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं से संवाद क़ायम कर सके. यहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार पहले से ही तय है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर पाई है कि उनका मुख्यमंत्री पर का उम्मीदवार कौन होगा. समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, इसमें कोई शक नहीं है. बहुजन समाज पार्टी में मायावती के अलावा कोई और इस पद का उम्मीदवार नहीं है. भारतीय जनता पार्टी में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह हैं, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को भी मौक़ा मिल सकता हैं. वह पार्टी के पिछड़े वर्ग का चेहरा हैं. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग का एक बड़ा वोट बैंक है. पहले कांग्रेस, फिर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी पिछ्ड़े वर्ग के समर्थन की वजह से ही सत्ता तक पहुंच पाई हैं. इनके अलावा भाजपा की तरफ़ से मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी और सांसद योगी आदित्यनाथ के नाम भी लिए जा सकते है. मगर कांग्रेस की तरफ़ से अभी कोई ऐसा चेहरा सामने नहीं आया, जिसे मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जा सके. क़ाबिले-ग़ौर है कि कभी उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस में नारायण दत्त तिवारी के बाद कोई मुख्यमंत्री नहीं बन पाया. वह 1988-1989 तक मुख्यमंत्री रहे.

पिछले दिनों देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह क्षेत्रीय दलों ने बेहतर प्रदर्शन किया है, उसे देखते हुए राष्ट्रीय दलों को यह बात समझ आ गई कि क्षेत्रीय दलों को हल्के में नहीं लिया जा सकता. देश में क्षेत्रीय दलों की महत्ता बढ़ी है. जनता भी अब क्षेत्रीय नेताओं को तरजीह देती है. बाहरी नेताओं के मुक़ाबले क्ष्रेत्रीय नेता अपने इलाक़े की समस्याओं को बेहतर समझते हैं. उन्हें मालूम होता है कि जनता क्या चाहती है. इसके अलावा अपने इलाक़े में उनकी हालत काफ़ी मज़बूत होती है. इलाक़े के कार्यकर्ताओं से भी उनका रिश्ता मज़बूत होता है.

अब कांग्रेस को अपनी चुनावी रणनीति बनाते वक़्त कई बातों को ज़ेहन में रखना होगा. उसे सभी वर्गों का ध्यान रखते हुए अपने पदाधिकारी तक करने होंगे. टिकट बंटवारे में भी एहतियात बरतनी होगी. विधानसभा स्तर के पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी विश्वास में लेना होगा, क्योंकि जनता के बीच तो इन्हीं को जाना है. अगर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का मज़बूत उम्मीदवार चुन लिया और बूथ स्तर तक पार्टी संगठन को मज़बूत कर लिया, तो बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है. राहुल गांधी को चाहिए कि वे पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक से संवाद करें. उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक और कार्यकर्ता की पहुंच राहुल गांधी तक होनी चाहिए, फिर कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा.

फ़िरदौस ख़ान
गंगा-जमुनी तहज़ीब हमारे देश की रूह है. संतों-फ़क़ीरों ने इसे परवान चढ़ाया है. प्रेम और भाईचारा इस देश की मिट्टी के ज़र्रे-ज़र्रे में है.  कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारे देश की संस्कृति के कई इंद्रधनुषी रंग देखने को मिलते हैं. प्राकृतिक तौर पर विविधता है, कहीं बर्फ़ से ढके पहाड़ हैं, कहीं घने जंगल हैं, कहीं कल-कल करती नदियां हैं, कहीं दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान है, तो कहीं नीले समन्दर का चमकीला किनारा है. विभिन्न इलाक़ों के लोगों की अपनी अलग संस्कॄति है, अलग भाषा है, अलग रहन-सहन है और उनके खान-पान भी एक-दूसरे से काफ़ी अलग हैं. इतनी विभिन्नता के बाद भी सबमें एकता है, भाईचारा है, समरसता है. लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं. देश के किसी भी इलाक़े में कोई मुसीबत आती है, तो पूरा देश इकट्ठा हो जाता है. कोने-कोने से मुसीबतज़दा इलाक़े के लिए मदद आने लगती है. मामला चाहे, बाढ़ का हो, भूकंप का हो या फिर कोई अन्य हादसा हो. सबके दुख-सुख सांझा होते हैं.

लेकिन अफ़सोस की बात है कि पिछले दो सालों में कई ऐसे वाक़ियात हुए हैं, जिन्होंने सामाजिक समरस्ता में ज़हर घोलने की कोशिश की है, सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने की कोशिश की है. अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को और गहरा करने की कोशिश की है, मज़हब के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश की है, जात-पांत के नाम पर एक-दूसरे को लड़ाने की कोशिश की है. इसके कई कारण हैं, मसलन अमीरों को तमाम तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं, उन्हें टैक्स में छूट दी जा रही है, उनके टैक्स माफ़ किए जा रहे हैं, उनके क़र्ज़ माफ़ किए जा रहे हैं. ग़रीबों पर नित-नये टैक्स का बोझ डाला जा रहा है. आए-दिन खाद्यान्न और रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ों के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. ग़रीबों की थाली से दाल तक छीन ली गई. हालत यह है कि अब उनकी जमा पूंजी पर भी आंखें गड़ा ली गई हैं. पाई-पाई जोड़ कर जमा किए गए पीएफ़ और ईपीफ़ पर टैक्स लगा कर उसे भी हड़प लेने की साज़िश की गई. नौकरीपेशा लोगों के लिए पीएफ़ और ईपीएफ़ एक बड़ा आर्थिक सहारा होता है. मरीज़ों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है. दवाओं यहां तक कि जीवन रक्षक दवाओं के दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ा दिए गए हैं, ऐसे में ग़रीब मरीज़ अपना इलाज कैसे करा पाएंगे. इसकी सरकार को कोई फ़िक्र नहीं है.  
समाज में हाशिये पर रहने वाले तबक़ों की आवाज़ को भी कुचलने की कोशिश की जा रही है. आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है. जल, जंगल और ज़मीन के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को नक्सली कहकर प्रताड़ित करने का सिलसिला जारी है. हद तो यह है कि सेना के जवान तक आदिवासी महिलाओं पर ज़ुल्म ढहा रहे हैं, उनका शारीरिक शोषण कर रहे हैं. दलितों पर अत्याचार बढ़ गए हैं. ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बोलने पर दलितों को देशद्रोही कहकर उन्हें सरेआम पीटा जाता है. गाय के नाम पर मुसलमान निशाने पर हैं. अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने पर उन्हें दहशतगर्द क़रार दे दिया जाता है.

आख़िर क्यों हो रहा है ये सब? क्या सिर्फ़ सत्ता के लिए, सत्ता बचाए रखने के लिए? शासन के मामले में समाज में चार तबक़े होते हैं. शासक वर्ग कहता है कि हमें सत्ता चाहिए, बदले में तमाम सुविधाएं लो.
व्यापारी वर्ग कहता है कि हमसे धन लो और तुम शासन करो, लेकिन हमें व्यापार करने दो, हमारी धन-दौलत की सुरक्षा करो. धार्मिक वर्ग कहता है कि तुम शासन करो, बस हमें सुख-सुविधाएं देते रहो, हम जनता को उलझाए रखेंगे, ताकि वह अपने अधिकारों के लिए आवाज़ न उठा सके. और बेचारी जनता वही देखती, सुनती और करती है, जो ये तीनों वर्ग उससे चाहते हैं.

दादरी के अख़्लाक कांड में जिस तरह एक बेक़सूर व्यक्ति पर बीफ़ खाने का इल्ज़ाम लगाकर उसका क़त्ल किया गया, उसने मुसलमानों के दिल में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी. उन्हें लगने लगा कि वे अपने देश में ही महफ़ूज़ नहीं हैं. देश के कई हिस्सों में बीफ़-बीफ़ कहकर कुछ असामाजिक तत्वों ने समुदाय विशेष के लोगों के साथ अपनी रंजिश निकाली. जिस तरह मुस्लिम देशों में ईश निन्दा के नाम पर ग़ैर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता रहा है, वैसा ही अब हमारे देश में भी होने लगा है.  दरअसल, भारत का भी तालिबानीकरण होने लगा है. दलितों पर अत्याचार के मामले आए-दिन देखने-सुनने को मिलते रहते हैं. आज़ादी के इतने दशकों बाद भी दलितों के प्रति लोगों की सोच में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. गांव-देहात में हालात बहुत ख़राब हैं. दलित न तो मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं और न ही शादी-ब्याह के मौक़े पर दूल्हा घोड़ी पर चढ़ सकता है. उनके साथ छुआछूत का तो एक लंबा इतिहास है. पिछले दिनों आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा में हुए उग्र जाट आंदोलन ने सामाजिक समरसता को चोट पहुंचाई है. आरक्षण के नाम पर लोग जातियों में बट गए हैं. जो लोग पहले 36 बिरादरी को साथ लेकर चलने की बात करते थे, अब वही अपनी-अपनी जाति का राग आलाप रहे हैं.

अंग्रेज़ों की नीति थी- फूट डालो और राज करो. अंग्रेज़ तो विदेशी थे. उन्होंने इस देश के लोगों में फूट डाली और और एक लंबे अरसे तक शासन किया. उन्हें इस देश से प्यार नहीं था. लेकिन इस वक़्त जो लोग सत्ता में हैं, वे तो इसी देश के वासी हैं. फिर क्यों वे सामाजिक सद्भाव को ख़राब करने वाले लोगों का साथ दे रहे हैं. उन्हें यह क़तई नहीं भूलना चाहिए कि जब कोई सियासी दल सत्ता में आता है, तो वह सिर्फ़ अपनी विचारधारा के मुट्ठी भर लोगों पर ही शासन नहीं करता, बल्कि वह एक देश पर शासन करता है. इसलिए यह उसका नैतिक दायित्व है कि वह उन लोगों को भी समान समझे, जो उसकी विपरीत विधारधारा के हैं. सरकार पार्टी विशेष की नहीं, बल्कि देश की समूची जनता का प्रतिनिधित्व करती है. सरकार को चाहिए कि वह जनता को फ़िज़ूल के मुद्दों में उलझाए रखने की बजाय कुछ सार्थक काम करे. सरकार का सबसे पहला काम देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने और देश में चैन-अमन का माहौल क़ायम रखना है. इसके बाद जनता को बुनियादें सुवाधाएं मुहैया कराना है. बाक़ी बातें बाद की हैं. सुनहरे भविष्य के ख़्वाब देखना बुरा नहीं है, लेकिन जनता की बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके उसे सब्ज़ बाग़ दिखाने को किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता. बेहतर तो यह होगा कि चुनाव के दौरान जनता से किए गए वादों को पूरा करने का काम शुरू किया जाए.

फ़िरदौस ख़ान
कांग्रेस जन-जन की पार्टी है. कांग्रेस का एक गौरवशाली इतिहास रहा है. कांग्रेस नेताओं की क़ुर्बानियों को यह देश कभी भुला नहीं पाएगा. कांग्रेस नेताओं ने अपने ख़ून से इस धरा को सींचा है. महात्मा गांधी को भला कौन नहीं जानता. देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दी. पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने इस देश को संवारा है. कांग्रेस इस देश की माटी में रची-बसी है. जनमानस में कांग्रेस की पैठ है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी कांग्रेस की कट्टर समर्थक रही है. इसके बावजूद कांग्रेस ने केंद्र और कई राज्यों की सत्ता गंवाई है. आख़िर क्या वजह है कि कांग्रेस पर मर मिटने वाले लाखों-करोड़ों समर्थकों के बावजूद कांग्रेस सत्ता में वापस नहीं लौट पा रही है?

हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का जनाधार बढ़ा है. बाक़ी राज्यों में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया. आसाम में पिछ्ले लोकसभा चुनाव 29.6 फ़ीसद के मुक़ाबले कांग्रेस को 31.1 फ़ीसद मत मिले. इसी तरह तमिलनाडु में 4.3 के मुक़ाबले 6.6 फ़ीसद, पश्चिम बंगाल में 9.6 के मुक़ाबले 12.1 फ़ीसद और पुडुचेरी में 24.6 फ़ीसद के मुक़ाबले 30.6 फ़ीसद वोट मिले. भारतीय जनता पार्टी की बात करें, तो पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले उसका जनाधार घटा है. हालांकि इसके बावजूद भाजपा आसाम में सरकार बनाने में कामयाब रही है.

भारतीय जनता पार्टी जिसका अपना कोई इतिहास नहीं है, सिवाय इसके कि उसके मातृ संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कथित कार्यकर्ता ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई. आख़िर ऐसी कौन-सी बात है जो लोकप्रिय पार्टी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसे समझना बहुत आसान है. जो जनता किसी पार्टी को हुकूमत सौंपती है, वही जनता उससे हुकूमत छीन भी सकती है. कांग्रेस नेताओं को यह बात समझनी होगी.

देश की आज़ादी के बाद कांग्रेस सत्ता में आई और कुछ साल पहले तक कांग्रेस की ही हुकूमत रही है. हालांकि आपातकाल और ऒप्रेशन ब्लू स्टार और की वजह से कांग्रेस को नुक़सान भी हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसके लिए सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांगी और अवाम ने उन्हें माफ़ करके सत्ता सौंप दी. कांग्रेस ने फिर से लगातार दस साल तक हुकूमत की. इस दौरान कांग्रेस ने कुछ ऐसे काम किए, जिनसे विरोधियों को उसके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार का मौक़ा मिल गया. मसलन इलेक्ट्रोनिक मीटर, जो तेज़ चलते हैं और बिल ज़्यादा आता है. रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या सीमित कर देना. भाजपा ने इसका जमकर फ़ायदा उठाया. कांग्रेस नेता मामले को संभाल नहीं पाए. हालांकि कांग्रेस ने मनरेगा, आर्टीआई और खाद्य सुरक्षा जैसी अनेक ऐसी कल्याणकारी योजनाएं दीं, जिसका सीधा फ़ायदा आम जनता को हुआ. मगर कांग्रेस नेता चुनाव में इनका कोई फ़ायदा नहीं ले पाए. यह कांग्रेस की बहुत बड़ी कमी रही, जबकि भाजपा जनता से कभी पूरे न होने वाले लुभावने वादे करके सत्ता तक पहुंच गई.

क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सत्ता के मद में चूर कांग्रेस नेता पार्टी कार्यकर्ताओं और जनता से दूर होते चले गए. कांग्रेस की अंदरूनी कलह,  आपसी खींचतान, कार्यकर्ताओं की बात को तरजीह न देना उसके लिए नुक़सानदेह साबित हुआ. हालत यह थी कि अगर कोई कार्यकर्ता पार्टी नेता से मिलना चाहे, तो उसे वक़्त नहीं दिया जाता था. कांग्रेस में सदस्यता अभियान के नाम पर भी सिर्फ़ ख़ानापूर्ति ही की गई. इसके दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए दिन-रात मेहनत की. मुसलमानों और दलितों के प्रति संघ का नज़रिया चाहे, जो हो, लेकिन उसने भाजपा का जनाधार बढ़ाने पर ख़ासा ज़ोर दिया. संघ और भाजपा ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पार्टी से जोड़ा. अगर कोई सड़क चलता व्यक्ति भी भाजपा कार्यालय चला जाए, तो उससे इस तरह बात की जाती है कि वह ख़ुद को भाजपा का अंग समझने लगता है.

पिछले दिनों उत्तराखंड में ख़ूब तमाशा हुआ. हालत यह हो गई कि अब पश्चिम बंगाल के कांग्रेस विधायकों को अपनी वफ़ादारी का हल्फ़नामा देना पड़ रहा है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के विधायको ने 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर लिखकर दस्तख़त किए हैं कि वे कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रति निष्ठा रखेंगे और पार्टी के ख़िलाफ़ की जाने वाली किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे. हल्फ़नामे में यह भी कहा गया है कि वे पार्टी के ख़िलाफ़ कोई नकारात्मक बात नहीं कहेंगे. ऐसे किसी काम को करने की ज़रूरत लगने पर वे पहले ही अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे. इसमें यह भी लिखा है कि वे पार्टी के दिशा-निर्देशों से बंधे हुए हैं. बताया जा रहा है कि विधायकों से दस्तख़त कराने का फ़ैसला चुनाव के बाद हुई एक बैठक में लिया गया था. बैठक में कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष अधीर चौधरी, निर्वाचित विधायकों और जिलाध्यक्षों ने भाग लिया था. इस बारे में चौधरी का कहना है कि यह कोई बॉंड नहीं है. हमने किसी पर कोई दबाव नहीं डाला है कि अगर वे शर्तों को नहीं मानेंगे, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी.  सभी ने पार्टी के प्रति वफ़ादारी दिखाने के लिए मर्ज़ी से दस्तख़त किए हैं. बहरहाल, कांग्रेस का यह क़दम उसके लिए फ़ायदेमंद साबित होगा, इसमें शक है.

वफ़ादारी काग़ज़ के टुकड़ों पर तय नहीं होती. यह तो दिल की बात है. कांग्रेस को अपने नेताओं, अपने सांसदों, अपने विधायकों, अपने कार्यकर्ताओं और अपने समर्थकों से ऐसा रिश्ता बनाना चाहिए, जिसे बड़े से बड़ा लालच तोड़ न पाए. इसके लिए कांग्रेस के नेताओं को ज़मीन पर उतरना पड़ेगा. सिर्फ़ सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के कुछ लोगों के बीच चले जाने से कुछ नहीं होने वाला. कांग्रेस के सभी नेताओं को ह्क़ीक़त का सामना करना चाहिए. उन्हें चाहिए कि वे कार्यकर्ताओं की बात सुनें, जो लोग पार्टी के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, जब तक उनकी बात नहीं सुनी जाएगी, उन्हें तरजीह नहीं दी जाएगी, तब तक कांग्रेस अपना खोया मुक़ाम नहीं पा सकती.


फ़िरदौस ख़ान
देश इस वक़्त बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा है. अवाम बेहाल है. उसे दोहरी मार पड़ रही है, एक क़ुदरत की मार और दूसरी सरकार की मार. सूखे के हालात बने हुए हैं. देश के बारह राज्यों में सूखे का क़हर बरपा है, जिनमें उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. सूखे की वजह से इन राज्यों के 33 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. लोग पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं. खेत सूख चुके हैं. नदियां सूखी पड़ी हैं. कुओं का पानी भी नदारद है, तालाब सूखे पड़े हैं, बावड़ियां भी सूखी हैं. नल भी सूने हैं. भूमिगत पानी भी बहुत नीचे चला गया है. किसानों की हालत तो और भी ज़्यादा बुरी है. किसान सूखे से हल्कान हैं. सूखे की वजह से उनकी खेतों में खड़ी फ़सलें सूख गई हैं. सूखे ने खेत तबाह कर दिए और किसानों को बर्बाद कर दिया. हालात इतने बदतर हो गए कि अन्नदाता किसान ख़ुद दाने-दाने को मोहताज हो गए. क़र्ज़ के बोझ तले दबे किसान अपने घरबार छोड़कर दूर-दराज के इलाक़ों में काम की तलाश में निकल रहे हैं. सूखे से बर्बाद हुए किसानों की ख़ुदकुशी करने की ख़बरें भी आ रही हैं.

इतना ही नहीं, रोज़-रोज़ लगातार आसमान छू रही महंगाई ने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया है. पहली जून से फिर तेल कंपनियों ने पेट्रोल और डीज़ल के दाम में बढ़ोत्तरी कर दी, पेट्रोल के दामों में 2.58 रुपये और डीज़ल के क़ीमत में 2.26 रुपये की बढ़ोत्तरी की गई है. इससे पहले 16 मई को पेट्रोल और डीज़ल के दामों में इज़ाफ़ा किया गया था. तेल व गैस विपणन कंपनियों ने बिना सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर के दाम में 21 रुपये की बढ़ोतरी की है. आईओसीएल के मुताबिक़ दिल्ली में बिना सब्सिडी वाला 14.2 किलो का रसोई गैस सिलेंडर अब 527.50 रुपये की जगह 548.50 रुपये का मिलेगा. एक महीने में रसोई गैस के दाम में लगातार दो बार में 39 रुपये का इज़ाफ़ा किया गया है. इससे पहले एक मई को इसकी क़ीमत 18 रुपये बढ़ाई गई थी.
कर योग्य सभी सेवाओं पर आधा फ़ीसद की दर से नया कृषि कल्याण उपकर (केकेसी) प्रभावी हो गया. इसके लागू होने से कुल सेवा कर बढ़कर 15 फ़ीसद हो गया है. इसकी वजह से रेस्त्रां में खाना खाना, मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल, हवाई और रेल यात्रा, बैंक ड्राफ़्ट, फ़ंड ट्रांसफ़र के लिए आईएमपीएस, एसएमएस अलर्ट, फ़िल्म देखना, माल ढुलाई, पंडाल, इवेंट, कैटरिंग, आईटी, स्पा-सैलून, होटल जैसी सेवाएं महंगी हो गईं. नई कार, घर, हेल्थ पॉलिसी ले रहे हैं या उसे रीन्यू करा रहे हैं, तो भी बढ़ा हुआ सेवा कर देना पड़ेगा. बढ़ती महंगाई की वजह से लोगों के पास पैसा नहीं है. ऐसे में वे ख़रीददारी नहीं कर पा रहे हैं. बाज़ार में भी मंदी छाई है. दुकानदार दिन भर ग्राहकों की बाट जोहते रहते हैं. छोटे काम-धंधे करने वालों के काम ठप्प होकर रह गए हैं. बेरोज़गारी कम होने की बजाय बढ़ रही है.

जब देश की अवाम त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, ऐसे में केंद्र की भाजपा सरकार दो साल पूरे होने पर जश्न मनाते हुए अपनी कथित उपलब्धियां गिनवा रही है. करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जा रहे हैं. भाजपा अपने जश्न को लेकर कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अपने सहयोगी दल शिवसेना के निशाने पर भी है. शिवसेना का कहना है कि मोदी सरकार महंगाई पर लगाम लगाने, सीमा पार से आतंकवाद को रोकने और इस दौरान शुरू की गई योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही है. शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में लिखे संपादकीय में शिवसेना ने प्रधानमंत्री पर अकसर विदेशी दौरे को लेकर निशाना साधते हुए कहा कि पहले उन्हें फ़ैसला करना होगा कि वह देश में रहते हैं या विदेश में. आम आदमी पार्टी का कहना है कि राजग के दो साल के शासनकाल में केवल ‘भ्रष्टाचार’ और ‘उपद्रव’ हुए. प्रधानमंत्री का कार्यालय महज़ ‘अंतरराष्ट्रीय ट्रैवल एजेंसी’ बनकर रह गया है. कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने भाजपा के दावों के ख़िलाफ़ 'प्रगति की थम गई रफ़्तार, दो साल देश का बुरा हाल' नाम की एक बुकलेट जारी की है. उनका कहना है कि सरकार नये रोज़गार देने और कृषि उत्पादन बढ़ाने में फ़ेल हो गई है. चिदंबरम ने कहा कि देश में मुद्रास्फ़ीति उफ़ान पर है और देश की आर्थिक हालत गंभीर है. ऐसे में सरकार का जश्न मनाना समझ से परे है.

आख़िर अवाम को किन चीज़ों की ज़रूरत होती है. देश में चैन अमन का माहौल हो, रहने को मकान हो, खाने को भोजन हो, पीने को पानी हो, रोज़गार हो.  अपना ख़ुद का काम-धंधा न हो, तो कोई नौकरी ही हो, ताकि ज़िन्दगी आराम से बसर हो सके. इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, यातायात जैसी बुनियादी सुविधाएं जनता को चाहिए. पिछले दो साल में मज़हब और जाति के नाम पर समाज में वैमन्य बढ़ा है. देश का चैन-अमन प्रभावित हुआ है. इसका सीधा असर रोज़गार पर पड़ा है. दादरी के अख़्लाक हत्याकांड से मज़हबी कटुता बढ़ी, जबकि हरियाणा में जाट आरक्षण को लेकर चले आंदोलन की वजह से जातिगत वैमन्य बढ़ा. इसके अलावा बहुत से कारोबार भी ठप्प हो गए. राशन महंगा हुआ है. दालों की क़ीमत इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी है कि ग़रीब और मध्य वर्ग की थाली में अब दाल नज़र नहीं आती. ईंधन और अन्य सुविधाएं भी बहुत महंगी हो चुकी हैं. हालत ये है कि अवाम का जीना दूभर होता जा रहा है.

तक़रीबन ढाई साल पहले जब भाजपा ने जनता को सब्ज़ बाग़ दिखाए थे, तब लोगों को लगता था कि देश में ऐसा शासन आएगा, जिसमें सब मालामाल होंगे, कहीं कोई कमी या अभाव नहीं होगा. मगर जब केंद्र में भाजपा की सरकार बन गई और महंगाई ने अपना रंग दिखाना शुरू किया, तो लोगों को लगा कि इससे तो पहले ही वे सुख से थे. अच्छे दिन आने वाले नहीं, बल्कि जाने वाले थे. ऐसा नहीं है कि अच्छे दिन नहीं आए हैं, अच्छे दिन आए हैं, लेकिन मुट्ठी भर लोगों के लिए.  और इन लोगों का जश्न मनाता तो बनता ही है.


-डॉ. सौरभ मालवीय                            
देश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार को दो वर्ष हो गए हैं. इन दो वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विश्वभर के अनेक देशों में यात्रा कर उनसे संबंध प्रगाढ़ बनाने का प्रयास किया है. जनकल्याण की अनेक योजनाएं शुरू की हैं. सरकार ने अनेक कल्याणकारी कार्य किए हैं कि हर जगह मोदी ही मोदी के जयकारे हैं. सरकार ने विकास का नारा दिया और विकास को ही प्राथमिकता दी. चहुंओर विकास की गंगा बह रही है. स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में प्रधानमंत्री का कहना है कि अगर देश के एक करोड़ लोग गैस की सब्स‍िडी छोड़ सकते हैं, तो देश के डॉक्टर भी 12 महीनों में 12 दिन गरीब प्रसूता माताओं को दे सकते हैं. देश में डॉक्‍टरों की कमी है, इसलिए डॉक्‍टरों की रिटायरमेंट की उम्र 60-62 की बजाय 65 साल कर दी जाएगी, ताकि डॉक्‍टरों की सेवा ली जा सकें और नये डॉक्‍टर तैयार किए जा सकें. वह कहते हैं कि यह स्वच्छता अभि‍यान गरीबों के लिए है. गरीब बीमार होते हैं, तो उनका रोजगार छिन जाता है. लोगों ने स्वच्छता अभि‍यान को अपना लिया है. प्रधानमंत्री मुद्रा योजना लेकर आए, ताकि जो लोग छोटा-मोटा काम करते हैं, वे बैंकों से पैसे लेकर अपना कारोबार आगे बढ़ा सकें. प्रधानमंत्री महिला शिक्षा पर बल दे रहे हैं. उनका कहना है कि जब तक देश की हर बेटी नहीं पढ़ेगी, नहीं बढ़ेगी, देश का कर्ज रहेगा. कृषि और किसानों पर भी सरकार विशेष ध्यान दे रही है. जैविक खेती को बढ़ावा देने के साथ-साथ मिट्टी के रखरखाव पर भी बल दिया जा रहा है, इसके लिए सरकार ने मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड योजना शुरू की है. सरकार ऐसी फसल बीमा योजना लाई हैं, जिससे किसान के खेत के अंदर काटकर रखी गई फसल को हानि पहुंचने पर उसे उसकी भी बीमा राशि मिल सकेगी. चीनी मिलें गन्ना किसानों को समय पर भुगतान करें, इस बारे में भी प्रयास किया जाएगा. वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का सरकार का ल्क्ष्य है. गांवों को बिजली. पानी, सड़क जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने पर ध्यान दिया जा रहा है.

वास्तव में ’राष्ट्र सर्वोपरि’ यह कहते नहीं, बल्कि उसे जीते हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी. पिछले कुछ दशकों में भारतीय जनमानस का मनोबल जिस प्रकार से टूटा था और अब मानों उसमें उड़ान का एक नया पंख लग गया है और अपने देश ही नहीं, अपितु विश्वभर में भारत का सीना चौड़ा करके शक्ति संपन्न राष्ट्रों एवं पड़ोसी देशों से कंधे से कंधा मिलाकर कदमताल करने लगा है भारत.

किसी भी देश, समाज और राष्ट्र के विकास की प्रक्रिया के आधारभूत तत्व मानवता, राष्ट्र, समुदाय, परिवार और व्यक्ति ही केंद्र में होता है, जिससे वहां के लोग आपसी भाईचारे से अपनी विकास की नैया को आगे बढ़ाते हैं. अपने दो वर्ष के कार्यकाल में मोदी इसी मूल तत्व के साथ आगे बढ़ रहे हैं.  एक वर्ष पहले जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूर्ण बहुमत से केंद्र में सरकार बनाई तब इनके सामने तमाम चुनौतियां खड़ी थीं और जन अपेक्षाएं मोदी के सामने सर माथे पर. ऐसे में प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद के सहयोगियों के लिए चुनौतियों का सामना करते हुए विकास के पहिये को आगे बढ़ाना आसान राह नहीं थी, परन्तु मात्र 365 दिन में ही मोदी के कार्ययोजना का आधार बताता है कि उनके पास दूर दृष्टि और स्पष्ट दृष्टि है, तभी तो पिछले दो वर्षों से समाचार- पत्रों में भ्रष्टाचार, महंगाई, सरकार के ढुलमुल निर्णय, मंत्रियों का मनमर्जी, भाई-भतीजावाद, परिवारवाद अब नहीं दिखता.

किसी भी सरकार और देश के लिए उसकी छवि महत्त्वपूर्ण होती है. मोदी इस बात को बखूबी समझते हैं. इसलिए विश्व भर के तमाम देशो में जाकर भारत को याचक नहीं, बल्कि शक्तिशाली और समर्थ देश के नाते स्थापित कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी जिस पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में आज प्रधानमंत्री बने हैं, उस भारतीय जनता पार्टी का मूल विचार एकात्म मानव दर्शन एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है और दीनदयाल उपाध्याय भी इसी विचार को सत्ता द्वारा समाज के प्रत्येक तबके तक पहुचाने की बात करते थे.  समाज के सामने उपस्थित चुनौतियों के समाधान के लिए सरकार अलग-अलग समाधान खोजने की जगह एक योजनाबद्ध तरीके से काम करे.  लोगों के जीवन की गुणवत्ता, आधारभूत संरचना और सेवाओं में सुधार सामूहिक रूप से हो. प्रधानमंत्री इसी योजना के साथ गरीबों, वंचितों और पीछे छूट गए लोगों के लिए प्रतिबद्व है और वे अंत्योदय के सिद्धांत पर कार्य करते दिख रहे हैं.
     
भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबरदस्त दौर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चलाया. इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया. परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरुद्ध होता गया. अब अवरुद्ध मार्ग खुलने लगा है. संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो शताब्दियों से चली आ रही है. यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बंधन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है. भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है. उसकी चेतना की देन है. साधना की पूंजी है. उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है. भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है. उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है. अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे को नरेंद्र मोदी इसी रूप में पूरा कर रहे है.
           
पिछले पांच दशकों में भारत के राजनीतिक नेत्तृत्व के पास विश्व में अपना सामर्थ्य बताने के लिए कुछ भी नहीं था. सच तो यह है कि इन राजनीतिक दुष्चक्रों के कारण हम अपनी अहिंसा को अपनी कायरता की ढाल बनाकर जी रहे थे. आज पहली बार विश्व की महाशक्तियों ने समझा है कि भारत की अहिंसा इसके सामर्थ्य से निकलती है, जो भारत को 60 वर्षो में पहली बार मिली है. सवा सौ करोड़ भारतीयों के स्वाभिमान का भारत अब खड़ा हो चुका है और यह आत्मविश्वास ही सबसे बड़ी पूंजी है. तभी तो इस पूंजी का शंखनाद न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन से लेकर सिडनी, बीजिंग, काठमांडू और ईरान तक अपने समर्थ भारत की कहानी से गूंज रहा है. दो वर्षों के काम का आधार मजबूत इरादों को पूरा करता दिख रहा है. नरेंद्र मोदी को अपने इरादे मजबूत कर के भारत के लिए और परिश्रम करने की आवश्यकता है.

मोदी सरकार ने अभी दो वर्ष ही पूरे किए हैं. इस सरकार के तीन वर्ष अभी शेष हैं. आशा है कि मोदी सरकार आगामी वर्षों में भी विकास के नित नये सोपान तय करेगी.


एक नज़र

.

.

कैमरे की नज़र से...

Loading...

.

.

ई-अख़बार

ई-अख़बार

Like On Facebook

Blog

  • Firdaus's Diary
    इश्क़ का रंग - मेरे महबूब ! होली मुझे बहुत अज़ीज़ है क्योंकि इसके इन्द्रधनुषी रंगों में तुम्हारे इश्क़ का रंग भी शामिल है... *-फ़िरदौस ख़ान*
  • Raah-e-Haq
    सबके लिए दुआ... - मेरा ख़ुदा बड़ा रहीम और करीम है... बेशक हमसे दुआएं मांगनी नहीं आतीं... हमने देखा है कि जब दुआ होती है, तो मोमिनों के लिए ही दुआ की जाती है... हमसे कई लोगों न...
  • मेरी डायरी
    लोहड़ी, जो रस्म ही रह गई... - *फ़िरदौस ख़ान* तीज-त्यौहार हमारी तहज़ीब और रवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. ये ख़ुशियों के ख़ज़ाने भी हैं. ये हमें ख़ुशी के मौक़े देते हैं. ख़ुश होने के बहाने देते हैं....

एक झलक

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं