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सरफ़राज़ ख़ान
विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में एक नहीं दो नहीं, बल्कि अनेक नववर्ष मनाए जाते हैं. यहां के अलग-अलग समुदायों के अपने-अपने नववर्ष हैं. अंग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष एक जनवरी को शुरू होता है. इस दिन ईसा मसीह का नामकरण हुआ था. दुनियाभर में इसे धूमधाम से मनाया जाता है.

मोहर्रम महीने की पहली तारीख़ को मुसलमानों का नया साल हिजरी शुरू होता है. मुस्लिम देशों में इसका उत्साह देखने को मिलता है. इस्लामी या हिजरी कैलेंडर, एक चंद्र कैलेंडर है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में इस्तेमाल होता है, बल्कि दुनियाभर के मुसलमान भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए इसी का इस्तेमाल करते हैं. यह चंद्र-कैलेंडर है, जिसमें एक वर्ष में बारह महीने, और 354 या 355 दिन होते हैं, क्योंकि यह सौर कैलेंडर से 11 दिन छोटा है इसलिए इस्लामी तारीखें, जो कि इस कैलेंडर के अनुसार स्थिर तिथियों पर होतीं हैं, लेकिन हर वर्ष पिछले सौर कैलेंडर से 11 दिन पीछे हो जाती हैं. इसे हिजरी इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसका पहला साल वह वर्ष है जिसमें हज़रत मुहम्मद की मक्का शहर से मदीना की ओर हिज्ऱ या वापसी हुई थी. हिंदुओं का नववर्ष नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा में पहले नवरात्र से शुरू होता है. इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी. जैन नववर्ष दीपावली से अगले दिन होता है. भगवान महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन यह शुरू होता है. इसे वीर निर्वाण संवत कहते हैं. बहाई धर्म में नया वर्ष ‘नवरोज’ हर वर्ष 21 मार्च को शुरू होता है. बहाई समुदाय के ज्यादातर लोग नव वर्ष के आगमन पर 2 से 20 मार्च अर्थात् एक महीने तक व्रत रखते हैं. गुजराती 9 नवंबर को नववर्ष ‘बस्तु वरस’ मनाते हैं. अलग-अलग नववर्षों की तरह अंग्रेजी नववर्ष के 12 महीनों के नामकरण भी बेहद दिलचस्प है. जनवरी : रोमन देवता 'जेनस' के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं. एक से वह आगे और दूसरे से पीछे देखता है. इसी तरह जनवरी के भी दो चेहरे हैं. एक से वह बीते हुए वर्ष को देखता है और दूसरे से अगले वर्ष को. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया. जेनस जो बाद में जेनुअरी बना जो हिन्दी में जनवरी हो गया.
फ़रवरी : इस महीने का संबंध लैटिन के फैबरा से है. इसका अर्थ है 'शुद्धि की दावत' . पहले इसी माह में 15 तारीख को लोग शुद्धि की दावत दिया करते थे. कुछ लोग फरवरी नाम का संबंध रोम की एक देवी फेबरुएरिया से भी मानते हैं. जो संतानोत्पत्ति की देवी मानी गई है इसलिए महिलाएं इस महीने इस देवी की पूजा करती थीं.
मार्च : रोमन देवता 'मार्स' के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ. रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता था. मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. सर्दियों का मौसम खत्म होने पर लोग शत्रु देश पर आक्रमण करते थे, इसलिए इस महीने का नाम मार्च रखा गया.
अप्रैल : इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'एस्पेरायर' से हुई. इसका अर्थ है खुलना. रोम में इसी माह बसंत का आगमन होता था इसलिए शुरू में इस महीने का नाम एप्रिलिस रखा गया. इसके बाद वर्ष के केवल दस माह होने के कारण यह बसंत से काफ़ी दूर होता चला गया. वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के सही भ्रमण की जानकारी से दुनिया को अवगत कराया तब वर्ष में दो महीने और जोड़कर एप्रिलिस का नाम पुनः सार्थक किया गया.
मई : रोमन देवता मरकरी की माता 'मइया' के नाम पर मई नामकरण हुआ. मई का तात्पर्य 'बड़े-बुजुर्ग रईस' हैं. मई नाम की उत्पत्ति लैटिन के मेजोरेस से भी मानी जाती है.
जून : इस महीने लोग शादी करके घर बसाते थे. इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ. एक अन्य मान्यता के मुताबिक रोम में सबसे बड़े देवता जीयस की पत्नी जूनो के नाम पर जून का नामकरण हुआ.
जुलाई : राजा जूलियस सीजर का जन्म एवं मृत्यु दोनों जुलाई में हुई. इसलिए इस महीने का नाम जुलाई कर दिया गया.
अगस्त : जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया.
सितंबर : रोम में सितंबर सैप्टेंबर कहा जाता था. सेप्टैंबर में सेप्टै लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है सात और बर का अर्थ है वां यानी सेप्टैंबर का अर्थ सातवां, लेकिन बाद में यह नौवां महीना बन गया.
अक्टूबर : इसे लैटिन 'आक्ट' (आठ) के आधार पर अक्टूबर या आठवां कहते थे, लेकिन दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्टूबर ही चलता रहा.
नवंबर : नवंबर को लैटिन में पहले 'नोवेम्बर' यानी नौवां कहा गया. ग्यारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला एवं इसे नोवेम्बर से नवंबर कहा जाने लगा.
दिसंबर : इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया. वर्ष का बारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला. 

फ़िरदौस ख़ान
ग़रीबों के मसीहा और इंसानियत परस्त अब्दुल सत्तार ईधी जनसेवा के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. उन्होंने जनसेवा को अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बनाया और मानवता को अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी.  वे कहते थे, " मेरा मज़हब इंसानियत है, जो हर मज़हब का मूल है. लोग शिक्षित तो हो गए, लेकिन इंसान न बन सके." वे देश की सरहदों, मज़हब और जात-पांत की परवाह किए बग़ैर इंसानियत के काम करते थे. वे कहा करते थे, "आपको हर उस प्राणी की देखभाल करनी है, जिसे अल्लाह ने बनाया है. मेरा मक़सद हर ज़रूरतमंद की मदद करना है. उन्होंने भूखों को खाना दिया, बेघरों को छत दी, मरीज़ों का इलाज कराया. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने हज़ारों यतीम बच्चों की परवरिश की. सादगी पसंद ईधी दो जोड़े कपड़ों और एक जोड़ी चप्पल में बरसों गुज़ार देते थे.  अमेरिका ने उन्हें दुनिया के महान मानवतावादियों में शुमार क़रार दिया है.

उनका जन्म 1 जनवरी 1928 को गुजरात के बंटवा में हुआ था. उनके पिता अब्दुल शकूर ईधी का जूनाग़ढ़ में कपड़े का कारोबार था. अब्दुल सत्तार ईधी बचपन से ही दूसरों का भला चाहने वाले थे. बचपन में उनकी मां ग़ुरबा ईधी उन्हें दो पैसे दिया करती थीं. एक पैसे वे ख़ुद पर ख़र्च करते और एक पैसा किसी ज़रूरतमंद को दे दिया करते थे. वे जब सिर्फ़ 11 साल के थे, तब उनके मां को लकवा मार गया था, जिससे उनके दिमाग़ पर भी असर हुआ. उन्होंने अपनी मां की जी-जान से ख़िदमत की.

साल 1947 में बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. वहां उन्होंने ठेला लगाकर कपड़े बेचे, फेरी भी लगाई. फिर वे कराची के थोक बाज़ार में कपड़ों के एजेंट बन गए. कुछ वक़्त बाद उनकी मां का इंतक़ाल हो गया. मां की मौत का उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. उन्होंने काम छोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी समाज को समर्पित कर दी. वे दिन रात मेहनत-मज़दूरी करके जनसेवा के लिए पैसे इकट्ठे करते. उनके एक दोस्त हाजी ग़नी उस्मान ने उनकी मदद की. उनसे मिलने वाले पैसों से उन्होंने एक गाड़ी ली, एक डिस्पेंसरी खोली और एक तंबू में चार बिस्तरों का अस्पताल स्थापित किया. उन्होंने गाड़ी चालनी सीखी और इसी गाड़ी को एम्बुलेंस के तौर पर इस्तेमाल करने लगे. वे कहते थे, "मैंने ज़िंदगी में कभी कोई और गाड़ी नहीं चलाई, 48 साल तक सिर्फ़ एंबुलेंस चलाई." अस्पताल में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता था.  उन्हें दवाइयां भी मुफ़्त दी जाती थीं. वे अपनी एंबुलेंस में दिन भर शहर के चक्कर लगाते रहते और जब भी किसी ज़रूरतमंद या ज़ख़्मी को देखते, तो उसे फ़ौरन अपने अस्पताल ले आते. अस्पताल के ख़र्च पूरे करने के लिए वे रात को शादियों में जाकर बर्तन धोते थे, दूध बेचते थे, अख़बार बेचते थे. उन्हें लोगों की मदद मिलने लगी. उन्होंने पत्नी बिलकिस के साथ मिलकर ईधी फ़ाउंडेशन की स्थापना की. किसी भी तरह के भेदभाव के बिना फ़ाउंडेशन की सेवाओं सभी को दी जाती हैं.  वे कहते थे, " कई सालों तक लोग मुझसे शिकायत करते और पूछते थे कि " आप ईसाई और हिन्दुओ को क्यों अपनी एम्बुलेंस में ले जाते हो? और तब मैं कहता, " क्योंकि मेरी एम्बुलेंस तुम लोगो से ज़्यादा बड़ी मुस्लिम है." वे कहते थे, "सिर्फ़ मुसलमानों का काम न करो, तमाम इंसानियत का काम करो."
वे कहते थे, "मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

उनकी मदद की पहली सार्वजनिक अपील पर दो लाख रुपये का चंदा इकट्ठा हुआ था. उनका कहना था, "ये मेरी नीयत नहीं थी कि मैं किसी के पास जाकर मांगूं, बल्कि मैं चहता था कि क़ौम को देने वाला बनाऊं. फिर मैंने फ़ुटपाथों पर खड़ा रहकर भीख मांगी. थोड़ी मिली, लेकिन ठीक मिली. जल्द ही लोग आते गए और कारवां बनता गया.

साल 1997 में इदी फ़ाउंडेशन को गिनीज़ बुक में दर्ज किया गया. गिनीज विश्व कीर्तिमान के मुताबिक़ इदी फ़ाउंडेशन के पास दुनिया की सबसे बड़ी निजी एम्बुलेंस सेवा हैं. यह फ़ाउंडेशन पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देशों में सेवाएं दे रही है. इदी फ़ाउंडेशन तक़रीबन 330 कल्याण केंद्र चला रही है, जिनमें अस्पताल, औषधालय, अनाथालय, महिला आश्रम, बुज़ुर्गों का आश्रम और कई पुनर्वास केंद्र शामिल है. ईधी फ़ाउंडेशन ने तक़रीबन 40 हज़ार नर्सों को प्रशिक्षण दिया है. फ़ाउंडेशन के अनाथालय में 50 हज़ार बच्चे हैं.

सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें साल 1986 रमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके बाद उन्हें साल 1988 में लेनिन शांति पुरस्कार, 1992 में पाल हैरिस फ़ेलो रोटरी इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन सम्मान मिला. फिर उन्हें साल 2000 में अंतर्राष्ट्रीय बालजन पुरस्कार और 26 मार्च 2005 को आजीवन उपलब्धि पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे कई बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए. इस साल भी उन्हें नोबेल के लिए नामांकित किया गया था.

अब्दुल सत्तार ईधी दूसरे मज़हबों का सम्मान करते थे. वे कहते थे, मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

ग़लती से भारत से पाकिस्तान पहुंचने वाली मूक-बधिर गीता को ईधी फ़ाउंडेशन ने ही आसरा दिया था. ईधी ने गीता भारत वापसी में अहम मदद की थी. उन्होंने ही गीता को उनका नाम दिया था. गीता का कहना है कि ईधी साहब मुझसे पिता की तरह स्नेह करते थे और मेरा अच्छी तरह ख़्याल रखते थे. उन्होंने मुझे रहने के लिए अलग कमरा भी दिया था. इसके साथ ही मेरी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए मुझे हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें भी लाकर दी थीं, ताकि मैं पूजा-अर्चना कर सकूं.
गीता का ख़्याल रखने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने ईधी फ़ाउंडेशन को  एक करोड़ रुपये का दान देने की घोषणा की थी, लेकिन फ़ाउंडेशन के संस्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने इस रक़म को लेने से साफ़ इंकार कर दिया था. उनका कहना था कि वे ख़िदमत के बदले पैसे क़ुबूल नहीं कर सकते.

उन्होंने एक बार कहा था - "मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं हूं, लेकिन मैंने मार्क्स और लेनिन की किताबें पढ़ी हैं. कर्बला वालों की ज़िन्दगी भी पढ़ी है. मैं तुम्हें बताता हूं असल जंग किसकी है. अस्ल जंग अमीर और ग़रीब की है, ज़ालिम और मज़लूम की है."

उन्होंने अपने अंगों को दान करने की भी वसीयत की थी. उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनकी आंखें दान कर दी गईं, लेकिन जिस्म के दूसरे हिस्से दान करने लायक़ नहीं रह गए थे, इसलिए वे दान नहीं किए जा सके. साल 2013 से वे गुर्दों की बीमारी से पीड़ित थे. सिंध इंस्टीट्यूट ऑफ़ यूरोलॉजी एंड ट्रांसप्लांटेशन में उनका इलाज चल रहा था, जहां 8 जुलाई को उनका इंतक़ाल हो गया. अगले दिन 9 जुलाई को उन्हें राजकीय सम्मान के साथ सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. उन्हें उसी क़ब्र में दफ़नाया गया, जो उन्होंने अपने लिए खोद कर रखी थी.  उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उन्हीं कपड़ों में उन्हें दफ़नाया गया, जिन कपड़ों में उनका इंतक़ाल हुआ था.  उन्होंने औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी. वे कहते थे, "दुनिया के ग़म ही मेरे उस्ताद हैं और ये ही मेरी बुद्धि और ज्ञान का स्त्रोत हैं."

अब्दुल सत्तार ईदी के नाम से संचालित अकाउंट से बताया गया कि उनके आख़िरी शब्द थे, “मेरे मुल्क के ग़रीबों का ख़्याल रखना.” एक और ट्वीट में कहा गया, "उन्होंने अपने एकमात्र सक्रिय अंग आंखों को दान कर दिया. अपना सबकुछ वो पहले ही दान कर चुके थे."

उनका कहना था, " पवित्र किताब सिर्फ़ हमारी गोद ही में खुली नहीं रहनी चाहिए, बल्कि वह हमारे दिमाग़ में भी खुली रहनी चाहिए. अपने दिल को खोलिये और अल्लाह के बनाये लोगो को देखिये, उनकी सेवा में तुम उसे पा लोगे. ख़ाली लफ़्ज़ और लम्बी दुआएं अल्लाह को मुतासिर नहीं करतीं. अपने आमाल से भी अपने ईमान को दिखाना चाहिए."

अब्दुल सत्तार ईदी को सच्ची ख़िराजे-अक़ीदत यही होगी कि उनकी तरह हम भी ख़ुदा के उन बंदों की मदद करें, जिन्हें मदद की ज़रूरत है और उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिल पा रही है. ख़ुदा की मख़्लूक की ख़िदमत करके ही खु़दा को पाया जा सकता है.

अमनदीप
वर्ष 2008 में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक ऐसे संकट की चपेट में है जिसमें से यह अभी तक निकल नहीं सकी है और भविष्य में भी निकल सकने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही. पर पूँजीपति वर्ग अपने संकट का बोझ हमेशा से आम मेहनतकश लोगों पर डालता आया है. वैसे तो संसार की व्यापक मेहनतकश आबादी पूँजीवादी व्यवस्था में सदा महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी आदि समस्याओं से जूझती रहती है पर मन्दी के दौर में ये समस्याएँ और बड़ी आबादी को अपने शिकंजे में ले लेती हैं. बेरोज़गारों की लाइनें और तेज़ी से लम्बी होती हैं और रोज़गारशुदा आबादी की आमदनी में गिरावट आती है. इसी कारण से आज संसार के सबसे विकसित मुल्कों में भी आम लोगों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है. पूँजीवादी व्यवस्था की बिगड़ती हालत को उजागर करते हुए रोज़ नये आँकड़े सामने आ रहे हैं. ब्रिटेन के नामी अखबार ‘गार्जियन’ की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, इटली, स्पेन और जर्मनी में 2008 के संकट के बाद के ‘मन्द मन्दी’ के दौर में लोगों की, ख़ास तौर पर नौजवानों का जीवन स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है. इन मुल्कों में 22 से 35 वर्ष आयु की नौजवान मेहनतकश आबादी बेरोज़गारी और कम वेतन के कारण कर्ज़ों में डूबी हुई है. इन्हीं आठ में से पाँच देशों के नौजवान जोड़ों और परिवारों की आमदनी बाकी वर्गों से 20 फ़ीसदी कम है. जबकि इससे पिछली पीढ़ी के लोग 1970 और 1980 के दशक में औसत राष्ट्रीय आमदनी से कहीं ज़्यादा कमाते थे. युद्धों या प्राकृतिक आपदाओं के बाद, पूँजीवाद के इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ है जब नौजवान आबादी की आमदनी समाज के बाकी वर्गों से बहुत नीचे गिरी है.
विकसित मुल्कों के लोग अपने भविष्य को लेकर काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. ‘इप्सोस मोरी’ नामक ब्रिटिश एजेंसी के सर्वेक्षण के अनुसार 54 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि आने वाली पीढ़ी की हालत पिछली पीढ़ी से भी बदतर होगी. इसका कारण है कि एक तरफ तो क़ीमतों और किरायों में निरन्तर वृद्धि हो रही है और दूसरी तरफ व्यापक आबादी के लिए रोज़गार के अवसर और वेतन लगातार कम होते जा रहे हैं. सन् 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित पूँजीवादी देशों में लगभग 3 करोड़ नौजवान शिक्षा और रोज़गार से वंचित हैं. यूनान जो कि इस रिपोर्ट का हिस्सा नहीं है, उसके हालात तो और भी भयानक हैं. यूनान की 60 फ़ीसदी से भी ज़्यादा नौजवान आबादी बेरोज़गार है. मकान की क़ीमतें पिछले 20 वर्षों में किसी भी और समय से ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं. इन देशों में जल्दी ही ऐसे लोगों की गिनती 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हो जायेगी जिनके पास अपना घर नहीं है. इस आर्थिक तंगी का असर लोगों के सामाजिक जीवन में भी दिख रहा है. 1980 के मुकाबले एक औरत विवाह करने के लिए 7.1 वर्ष ज़्यादा इन्तज़ार करती है और बच्चा पैदा करने की औसत आयु 4 वर्ष बढ़ गयी है. ज़्यादातर लोग यह जानकर परेशान हैं कि वह सारी उम्र काम करके भी कर्ज़दार रहेंगे और अपना घर नहीं खरीद सकेंगे.
आम तौर पर पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सापेक्षिक रूप से मज़दूरों और अन्य कामगारों के वेतन कम करता है. उदाहरण के लिए मज़दूरों का वेतन बढ़ाये बिना जब उनके द्वारा तैयार माल की क़ीमत बढ़यी जाती है तो सापेक्षिक रूप में उनका वेतन कम कर दिया जाता है. पर अमेरिका और इटली में निरपेक्ष तौर पर भी वेतन कम हुआ है. अमेरिका में औसत मज़दूरी 1979 में 29,638 यूरो से गिरकर 2010 में 27,757 यूरो हो गयी. फ्रांस, अमेरिका और इटली में नौजवान मेहनतकश लोगों की आमदनी पैंशन ले रहे रिटायर वर्ग से कम है.
‘गार्जियन’ अख़बार के लेखकों ने जिस तरह ये आँकड़े पेश किये हैं, उन्होंने लोगों के ग़ुस्से को ग़रीबी, बेरोज़गारी और ख़राब होती जीवन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार इस आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था से हटाकर इनके मुकाबले पेंशन पर जी रहे रिटायर वर्ग की ओर मोड़ने की कोशिश की है. उन्होंने ‘यूरोपीय केंद्रीय बैंक’ के प्रमुख मारियो द्राघी के हवाले से कहा है कि ”कई देशों में सख़्त श्रम क़ानून पक्की नौकरियों और ज़्यादा वेतन वाले कुछ पुराने लोगों को बचाने के लिए बनाये गये हैं. इसका नुकसान नौजवानों को होता है. जो कम वेतन और ठेके पर काम करने के लिए मजबूर हैं और मन्दी की हालतों में सबसे पहले बेरोज़गार होते हैं”. पक्की नौकरियाँ, ज़्यादा वेतन और सभी के लिए उच्च जीवन स्तर की माँग करने के बजाय नौजवानों को पेंशन ले रहे रिटायर वर्ग के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा है.
यह कोई नयी घटना नहीं है. मौजूदा लुटेरी व्यवस्था इसी तरह काम करती है. आर्थिक संकट के दौर में यह घटना और तेज़ हो जाती है और ज़्यादा स्पष्ट नज़र आती है. असल में दूसरे विश्व युद्ध के बाद मज़दूर इंकलाब के डर से जो सहूलियतें इन मुल्कों की हुकूमतों ने ‘पब्लिक सेक्टर’ खड़ा करके पिछली पीढ़ियों को दी थीं, उससे विकसित देशों की आम आबादी की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हुईं और उनका जीवन स्तर ऊँचा उठा था. पर आज किसी समाजवादी राज और किसी बड़े जन-आन्दोलन की नामौजूदगी की हालत में पूँजीवादी सत्ता आर्थिक संकट से निपटने के लिए जन कल्याण के वे सारे पैकेज, पेंशनें, बेरोज़गारी भत्ते आदि ख़त्म कर रही है और सारे क्षेत्र मुनाफ़ाख़ोर पूँजीपतियों के हाथों में दे रही है. साथ ही इन नीतियों के परिणाम स्वरूप लोगों में पैदा हो रहे आक्रोश को कुचलने के लिए फासीवादियों को सत्ता में तैनात कर रही है.
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट के कारण पूँजी की अपनी चाल में ही समाये हुए हैं. इस समय विश्व पूँजीवादी-साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था भीषण संकट का शिकार है और इसमें से निकलने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही. यह संकट आने वाले समय में और भी गहरा होगा और लोगों की बेचैनी भी बढ़ेगी. इंक़लाबी ताक़तों की कमज़ोरी की हालत में फासीवादियों का उदय हो रहा है. विश्व भर में ये फासीवादी लोगों के ग़ुस्से को धार्मिक अल्पसंख्यकों, कम्युनिस्टों, मज़दूरों और मेहनतकशों के विरुद्ध मोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं. आज ज़रूरी है कि इंक़लाबी ताक़तें मज़दूरों और मेहनतकशों को उनके ऐतिहासिक मिशन से परिचित करवाएं. वह मिशन पूँजीवाद को जड़ से मिटाने के लिए समाजवादी इंकलाब करने का है क्योंकि सिर्फ़ समाजवादी व्यवस्था ही लोगों को इस लुटेरी व्यवस्था की मुसीबतों से आज़ाद कर सकती है.

पेरिस. गरमा-गरम चाय, कॊफ़ी, सूप या हॉट चॉकलेट के शौक़ीन लोगों के लिए एक बुरी ख़बर है. हॉट बेवरेजेस की वजह से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी हो सकती है. संयुक्त राष्ट्र की कैंसर एजेंसी और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह ख़ुलासा किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इस अलर्ट में उस कॉफ़ी को शामिल नहीं किया गया है, जो सामान्य तापमान पर पी जाती है.
इंटर नेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर के निर्देशक क्रिस्टोफर वाइल्ड ने कहा कि रिसर्च के नतीजों से पता चला कि अगर आप बहुत गर्म पेय पदार्थ पीते है,. तो आपको भोजन पदार्थ वाली नली का कैंसर हो सकता है. इसकी वजह शरीर के सामान्य तापमान से ज़्यादा गर्म पेय पदार्थ का लेना है. तक़रीबन एक हज़ार वैज्ञानिकों के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकला है.
कुछ ऐसे तथ्य सामने आए हैं कि अगर पेय पदार्थों को 65 डिग्री से ज़्यादा गर्म हॉट बेवरेज अगर कोई लेता है, तो उसे भोजन की नली में कैंसर की आशंका बढ़ जाती है. हालांकि यह रिसर्च भारत में नहीं की गई है, लेकिन चीन, ईरान, टर्की और दक्षिण अमेरिका में किया गया, जहां चाय व अन्य पेय पदार्थ गर्म पीने का चलन है. वैसे भारत में ज़्यादा गर्म पेय के शौक़ीनों की कमी नहीं है.


वॉशिंगटन. पहली मुस्लिम मिस यूएसए का खिताब जीतने वाली रीमा फकीह इस्लाम धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने जा रही हैं. उन्हें 2010 में मिस यूएसए का ख़िताब मिला था. उन्होंने ट्विटर पर इसकी घोषणा की है.
मूल रूप से लेबनान की रीमा फकीह ने अपने प्रेमी वसीम सलीबी से शादी करने के लिए इस्लाम धर्म छोड़ा है. उनके प्रेमी भी ईसाई हैं और पेशे से म्यूजिक प्रड्यूसर हैं. उन्होंने न्यू टेस्टामेंट से एक वर्स भी ट्विटर पर शेयर किया है.

जब उन्होंने मिस यूएसए का ख़िताब जीता था, तो अपनी स्पीच में कहा था, मैं कहना चाहती हूं कि मैं सबसे पहले अमेरिकी हूं. मैं अरब-अमेरिकन, लेबनीज-अमेरिकन और मुस्लिम अमेरिकन हूं.
फकीह अपने कॉलेज के दिनों में मुस्लिम धर्म से जुड़ पाईं. मिस फकीह ने बताया- मैं अपने कॉलेज के दिनों में इस्लाम को क़रीब से जान पाई. जब मैं मिशिगन यूनिवर्सिटी गई, तो मुझे रमज़ान और अन्य बहुत सी चीज़ों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता था. मिशिगन यूनिवर्सिटी में मुस्लिम समुदाय की मौजूदगी काफ़ी संख्या में है, इसलिए मेरे पिता चाहते थे कि मैं इस अवसर का लाभ उठाते हुए इस्लाम को अच्छी तरह समझूं.

फकीह शिया परिवार में बड़ी हुई हैं. पूर्व मिस यूएसए ने कहा कि धर्म के मामले में उनके परिवार का दृष्टिकोण उदार है. उन्होंने मुस्लिम और ईसाई धर्म में से एक का पक्ष लेने से इनकार करते हुए कहा कि वह दोनों धर्म के त्योहार मनाएंगी.
उन्होंने कहा- धर्म मुझे और मेरे परिवार को परिभाषित नहीं करता है. हम सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करते हैं. हम ईस्टर पर चर्च जाया करते थे. हम हमेशा क्रिसमस सेलिब्रेट करते थे. इसके साथ ही इस्लाम के कुछ त्योहार भी मनाते थे.

उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई बेरूत के नज़दीक कैथोलिक स्कूल में की थी. उनकी बड़ी बहन के पति भी ईसाई हैं. उनकी बहन और उनके दो बच्चों ने भी ईसाई धर्म अपना चुके हैं.
मिस अमेरिका का ख़िताब जीतने के बाद फकीह तब काफ़ी विवादों में आ गई थीं, जब एक रेडियो स्टेशन के स्ट्रिपर 101 कॉन्टेस्ट की उनकी कुछ तस्वीरें वायरल हो गई थीं. साल 2012 में उन्हें शराब पीकर ड्राइविंग करने का भी आरोप लगा था.


“कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका प्रभा में सन 1923 में प्रेमचंद का एक लेख हज़रत अली शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. यह लेख अब तक असंकलित है.”
ज़रत अली की कीर्ति जितनी उज्ज्वल और चरित्र जितना आदर्श है उतना और किसी का न होगा. वह फ़क़ीर, औलिया नहीं थे. उनकी गणना राजनीतिज्ञों या विजेताओं में भी नहीं की जा सकती. लेकिन उन पर जितनी श्रद्धा है, चाहे शिया हो चाहे सुन्नी, उतनी और किसी पर नहीं. उन्हें सर्वसम्मति ने 'शेरे-ख़ुदा’, 'मुश्किल कुशा’ की उपाधियां दे रखी हैं. समरभूमि में मुस्लिम सेना धावा करती है, तो 'या अली’ कहकर. उनकी दीन-वत्सलता की सहस्त्रों किवदंतियां प्रचलित हैं. इस सर्वप्रियता, भक्ति का कारण यही है कि अली शांत प्रकृति, गंभीर,  धैर्यशील और उदार थे.

हज़रत अली हज़रत मुहम्मद के दामाद थे. विदुषी फ़ातिमा का विवाह अली से हुआ था. वह हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई थे. मर्दों में सबसे पहले वही हज़रत मुहम्मद पर विश्वास लाए थे. इतना ही नहीं मुहम्मद का पालन-पोषण उन्हीं के पिता अबूतालिब ने किया था. मुहम्मद साहब को उनसे बहुत प्रेम था और उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनके बाद अली ही ख़िलाफ़त की मसनद पर बिठाए जाएं. पर नियम से बंधे होने के कारण वह इसे स्पष्ट रूप से न कह सकते थे. अली में अमर, अधिकार-भोग की लालसा होती, तो वह मुहम्मद के बाद अपना हक अवश्य पेश करते, लेकिन वह तटस्थ रहे और जनता ने अबूबक्र को ख़लीफ़ा चुन लिया. अबूबक्र के बाद उमर फ़ारूक़ ख़लीफ़ा हुए, तब भी अली ने अपना संतोष-व्रत न छोड़ा. फ़ारूक़ के बाद उस्मान की बारी आई. उस वक़्त अली के ख़लीफ़ा चुने जाने की बहुत संभावना थी, किंतु यह अवसर भी निकल गया, पक्ष बहुत बलवान होने पर भी ख़िलाफ़त न मिल सकी. इस घटना का स्पष्टीकरण इतिहासकारों ने यों किया कि जब निर्वाचक मंडल के मध्यस्थ ने अली से पूछा, 'आप पर ख़लीफ़ा होकर शास्त्रानुसार शासन करेंगे न?’ अली ने कहा, 'यथासाध्य.’ मध्यस्थ ने यही प्रश्न उस्मान से भी किया. उस्मान ने कहा,  'ईश्वर की इच्छा से, अवश्य करूंगा।’ मध्यस्थ ने उस्मान को ख़लीफ़ा बना दिया. मगर अली को अपने असफल होने का लेशमात्र भी दुख नहीं हुआ. वह राज्य कार्य से पृथक रहकर पठन पाठन में प्रवृत्ति हो गए. इतिहास और धर्मशास्त्र में वह पारंगत थे. साहित्य के केवल प्रेमी ही नहीं, स्वयं अच्छे कवि थे. उनकी कविता का अरबी भाषा में आज भी बड़ा मान है, किंतु राज्यकार्य से अलग रहते हुए भी वह ख़लीफ़ा उस्मान को कठिन अवसरों पर उचित परामर्श देते रहते थे.

अरब जाति को इस बात का गौरव है कि उसने जिस देश की विजय की सबसे पहले कृषकों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया. ईराक, शाम, ईरान सभी देशों में कृषकों पर भूपतियों के अत्याचार होते थे. मुसलमानों ने इन देशों में पदार्पण करते ही प्रजा को भूपतियों की निरकुंशता से निवृत्त किया. यही कारण था कि प्रजा मुसलमान विजेताओं को अपना उद्धारक समझती थी और सहर्ष उनका स्वागत करती थी. यही लोग पहुंचते ही नहरे बनवाते थे, कुएं खुदवाते थे, भूमि कर घटाते थे और भांति-भांति की बेगारों की प्रथा को मिटा देते थे. यह नीति ख़लीफ़ा अबूबक्र और ख़लीफ़ा उमर दोनों ही के शासनकाल में होती रही. यह सब अली के ही सत्परामर्शों का फल था. वह पशुबल से प्रजा पर शासन करना पाप समझते थे. उनके हृदयों पर राज्य की भित्ति बनाना ही उन्हें श्रेयस्कर जान पड़ता था.

ख़लीफ़ा उस्मान धर्मपरायण पुरुष थे, किंतु उनमें दृढ़ता का अभाव था. वह निष्पक्षभाव से शासन करने में समर्थ न थे. वह शीघ्र ही अपने कुल वालों के हाथ की कठपुतली बन गए. विशेषत: मेहवान नाम के एक पुरुष ने उन पर अधिपत्य जमा लिया. उस्मान उसके हाथों में हो गए. सूबेदारों ने प्रांतों में प्रजा पर अत्याचार करने शुरू किए. उन दिनों शाम (सीरिया) की सूबेदारी पर मुआविया नियत थे, जो आगे चलकर अली के बाद ख़लीफ़ा हुए. मुआविया के कर्मचारियों ने प्रजा को इतना सताया कि समस्त प्रांत में हाहाकार मच गया. प्रजावर्ग के नेताओं ने ख़लीफ़ा के यहां आकर शिकायत की. मेहवान ने इन लोगों का अपमान किया और उन पर राज-विद्रोह का लांछन लगाया. लेकिन दूतों ने कहा कि जब तक हमारी फ़रियाद न सुनी जाएगी और हमको अत्याचारों से बचाने का वचन न दिया जाएगा हम यहां से कदापि न जाएंगे. ख़लीफ़ा उस्मान को भी ज्ञात हो गया कि समस्या इतनी सरल नहीं है, दूतगंग असंतुष्ट होकर लौटेंगे तो संभव है, समस्त देश में कोई भीषण स्थिति उत्पन्न हो जाए. उन्होंने हज़रत अली से इस विषय में सलाह पूछी. हज़रत अली ने दूतों का पक्ष लिया और ख़लीफ़ा को समझाया कि इन लोगों की विनय-प्रार्थना को सुनकर वास्तविक स्थिति का अन्वेषण करना चाहिए और यदि सूबेदार और उस के कर्मचारियों का अपराध सिद्ध हो जाए, तो धर्मशास्त्र के अनुसार उन्हें दंड देना चाहिए. हम यह कहना भूल गए कि उस्मान बनू उस्मानिया वंश के पूर्व पुरुष थे. इस वंश में चिरकाल तक ख़िलाफ़त रही. लेकिन यह वंश बनू हाशिमिया का सदैव से प्रतिद्वंद्वी था जिसमें हज़रत मुहम्मद उमर अली आदि थे. अतएव उस्मान के अधिकांश सूबेदार सेनानायक बनू उस्मिया वंश के ही थे और वह सब हज़रत अली को सशंक नेत्रों से देखते थे और मन ही मन द्वेष भी रखते थे. हज़रत अली की सलाह इन लोगों को पक्षपातपूर्ण मालूम हुई और वह इस की अवहेलना करना चाहते थे, किंतु ख़लीफ़ा को अली पर विश्वास था, उनकी सलाह मान ली, नेताओं को आश्वासन दिया कि हम शीघ्र ही सूबेदार के अत्याचारों की तहक़ीक़ात करेंगे और तुम्हारी शिकायतें दूर कर दी जाएंगी. उस्मान के बाद हज़रत अली ख़लीफ़ा चुने गए. यद्यपि उन्हें हज़रत मुहम्मद के बाद ही चुना जाना चाहिए था.

ख़िलाफ़त की बागडोर हाथ में लेते ही अली ने स्वर्गवासी उस्मान के नियत किए हुए सूबेदारों को, जो प्रजा पर अभी तक अत्याचार कर रहे थे, पदच्यूत कर दिया और उनकी जगह पर धर्मपरायण पुरुषों को नियुक्त किया. कितनों की ही जागीरें ज़बरदस्ती कर प्रजा को दे दीं, कई कर्मचारियों के वेतन घटा दिए.

मुआविया ने शाम में बहुत बड़ी शक्ति संचित कर ली थी. इसके उपरांत वह सभी आदमी जो परलोकवासी ख़लीफ़ा उस्मान के ख़ून का बदला लेना चाहते थे और हज़रत अली को इस हत्या का प्रेरक समझते थे, मुआविया के पास चले गए थे. 'आस’ का पुत्र 'अमरो’ इन्हीं द्वेषियों में था. अतएव जब अली शाम की तरफ़ बढ़े तो मुआविया एक बड़ी सेना से उनका प्रतिकार करने को तैयार था. हज़रत अली की सेना में कुल 8 हज़ार योद्धा थे. जब दोनों सेनाएं निकट पहुंच गईं, तो ख़लीफ़ा ने फिर 'मुआविया’ से समझौता करने की बातचीत की. पर जब विश्वास हो गया कि लड़ाई के बग़ैर कुछ निश्चय न होगा, तो उनने 'अशतर’ को अपनी सेना का नायक बना कर लड़ाई की घोषणा कर दी. यह शत्रुओं की लड़ाई नहीं, बंधुओं की लड़ाई थी. मुआविया की सेना ने फ़रात नदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और ख़लीफ़ा की सेना को प्यासा मार डालने की ठानी. अशतर ने देखा पानी के बिना सब हताश हो रहे हैं, तो उसने कहला भेजा, 'पानी रोकना युद्ध के नियमों के अनुकूल नहीं है, तुम नदी किनारे से सेना हटा लो.’ मुआविया की भी राय थी कि इतनी क्रूरता न्याय विहीन है, पर उसके दरबारियों ने जिनमें 'आस’ का बेटा 'अमरो’ प्रधान था, उस का विरोध किया. अंत में अशतर ने विकट संग्राम के बाद शत्रुओं को जल तट से हटा कर अपना अधिकार जमा लिया. अब इन लोगों की भी इच्छा हुई कि शत्रुओं को पानी न लेने दें पर हज़रत अली ने इस पाशविक रणनीति का तिरस्कार किया और अशतर को जल तट से हटने की आज्ञा दी.

इसके बाद मुहर्रम का पवित्र मास आ गया. इस महीने में मुसलमान जाति के लड़ाई करना निषिद्ध है. हज़रत अली ने तीन बार अपने दूत भेजे, लेकिन मुआविया ने हर बार यही जवाब दिया कि अली ने उस्मान की हत्या कराई है. वह ख़िलाफ़त छोड़ दें और उस्मान के घातकों को मेरे सुपुर्द कर दें. मुआविया वास्तव में इस बहाने से स्वयं ख़लीफ़ा बनना चाहता था. वह अली के मित्रों को भांति-भांति के प्रलोभनों से फोड़ने की चेष्टा किया करता था. जब मुहर्रम का महीना यों ही गुज़र गया, तो ख़लीफ़ा ने रिसालों की तैयारी की अज्ञा दी और सेना को उपदेश किया कि जब तक वे लोग तुम से न लड़े तुम उन पर कदापि आक्रमण न करना. जब वह पराजित हो जाए, तो भागने वालों का पीछा न करना और न ही उनका वध करना. घायलों का धन न छीनना, किसी को नग्न मत करना और न किसी स्त्री का सतीत्व भ्रष्ट करना, चाहे वे तुम लोगों को गालिया भी दें. दूसरे ही दिन लड़ाई शुरू हुई और 20 दिनों तक जारी रही. एक बार वह शाम की सेना की सफ़ों को चीरते हुए मुआविया के पास जा पहुंचे और उसे ललकार कर कहा, ञ्चयों व्यर्थ दोनों तरफ़ के वीरों का रक्त बहाते हो, आओ हम और तुम अकेले आपस में निपट लें. पर मुआविया अली के बाहुबल को ख़ूब जानता था. अकेले निकलने का साहस न हुआ.

दसवें दिन सारी रात लड़ाई होती रही. शुक्र का दिन था. मध्याह्न काल बीत गया, किंतु दोनों सेनाएं युद्धस्थल में अचल खड़ी थीं. सहसा अशतर ने अपनी समग्र शक्ति को एकत्र करके ऐसा धावा किया कि शामी सेना के क़दम उखड़ गए. इतने में आस के बेटे अमरो को एक उपाय सूझा. उसने मुआविया से कहा अब क्या देखते हो, मैदान तुम्हारे हाथ से जाना चाहता है, लोगों को हुक्म दो कि क़ुरान शरीफ़ अपने भालों पर उठाएं और उच्च स्वर से कहें, 'हमारे और तुक्वहारे बीच में क़ुरान है.’ अगर वह लोग क़ुरान की मर्यादा रखेंगे, तो यह मारकाट इसी दम बंद हो जाएगी. अगर न मानेंगे, तो उनमें मतभेद अवश्य हो जाएगा. इसमें भी हमारा ही फ़ायदा है. क़ुरान नेज़ों पर उठाए गए. अली समझ गए कि शत्रुओं ने चाल चली. सिपाहियों ने आगे बढ़ने से इनकार किया और कहने लगे हमको हार जीत की चिंता नहीं है, हम तो केवल न्याय चाहते हैं. यदि वह लोग न्याय करना चाहते हैं, तो हम तैयार हैं. अशतर ने सेना को समझाया, मित्रों, यह शत्रुओं की कपटनीति है, इनमें से एक भी क़ुरान का व्यवहार नहीं करता, इन्होंने केवल अपनी प्राण रक्षा के लिए यह उपाय किया है. किंतु कौन सुनता.

जब चारों ओर शांति छा गई, तो कीस के बेटे 'आशअस’ ने हज़रत अली से कहा कि अब मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं जाकर मुआविया से पूछूं कि तुमने क्यों शरण मांगी है. जब वह मुआविया के पास आए, तो उसने कहा, मैंने इसलिए शरण मांगी है कि हम और तुम दोनों अल्लाहताला से न्याय की प्रार्थना करें. दोनों तरफ़ से एक-एक मध्यस्थ चुन लिया जाए. लोगों ने 'अबूमूसा अशअरी’ को चुना. अली ने इस निर्वाचन को अस्वीकार किया और कहा मुझे उन पर विश्वास नहीं है, वह पहले कई बार मेरी अमंगल कामना कर चुके हैं. पर लोगों ने एक स्वर से अबूमूसा को ही चुना. निदान अली को भी मानना पड़ा. दोनों मध्यस्थों में बड़ा अंतर था. आस का बेटा अमरो बड़ा राज-नीति कुशल दांव-पेंच जानने वाला आदमी था. इसके प्रतिकूल अबूमूसा सीधे-सादे मौलवी थे और मन में अली से द्वेष भी रखते थे. अभी यहां यह विवाद हो ही रहा था कि अमरो ने आकर पंचायतनामे की लिखा-पढ़ी कर ली. फ़ैसला सुनाने का समय और स्थान निश्चित कर दिया गया और हज़रत अली अपनी सेना के साथ कूफ़ा को चले. इस अवसर पर एक विचित्र समस्या आ खड़ी हुई, जिसने अली की कठिनाइयों को द्विगुण कर दिया. वही लोग लड़ाई बंद करने के पक्ष में थे, अब कुछ सोच-समझ कर लड़ाई जारी रखने पर आग्रह करने लगे. पंचों की नियुक्ति भी उन्हें सिद्धांतों के विरुद्ध जान पड़ती थी, लेकिन ख़लीफ़ा अपने वचन पर दृढ़ रहे. उन्होंने निश्चय रूप से कहा कि जब लड़ाई बंद कर दी गई, तो वह किसी प्रकार जारी नहीं रखी जा सकती. इस पर उनकी सेना के कितने ही योद्धा रुष्ट होकर अलग हो गए. उन्हें ’ख़ारिजी’ कहते हैं. इन ख़ारीजियों ने आगे चलकर बड़ा उपद्रव किया और हज़रत अली की हत्या के मुख्य कारण हुए.

इधर ख़ारिजीन ने इतना सिर उठाया कि ख़लीफ़ा ने जिन महानुभावों को उनको समझाने-बुझाने भेजा, उन्हें कत्ल कर दिया. इस पर अली ने उन्हें दंड देना आवश्यक समझा. नहरवां की लड़ाई में उनके सरदार मारे गए और बचे हुए लोग ख़लीफ़ा के प्रति कट्टïर बैरभाव लेकर इधर-उधर जा छिपे. अब अली ने शाम पर आक्रमण करने की तैयारी की, लेकिन सेना लड़ते-लड़ते हतोत्साहित हो रही थी. कोई साथ देने पर तैयार न हुआ. उधर मुआविया ने मिस्र देश पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया. ख़लीफ़ा की तरफ़ से 'मुहक्वमद बिन अबी बक्र’ नियुक्त थे. मआविया ने पहले उसे रिश्वत देकर मिलाना चाहा, लेकिन जब इस तरह दाल न गली, तो अमरो को एक सेना देकर मिस्र की ओर भेजा. अमरो ने मिस्र के स्थायी सूबेदार को निर्दयता से मरवा डाला.

अली की सत्यप्रियता ने उनके कितने ही मित्रों और अनुगामियों को उनका शत्रु बना दिया. यहां तक कि इस महासंकट के समय उनके चचेरे भाई 'अबदुल्लाह’ के बेटे भी जो उनके दाहिने हाथ बने रहते थे, उनसे नाराज होकर मक्का चले गए. अबदुल्लाह के चले जाने के थोड़े ही दिन बाद ख़ारीजियों ने अली की हत्या करने के लिए एक षड्यंत्र रचा. मिस्र निवासी एक व्यक्ति जिसे मलजम कहते थे, अली को मारने का बीड़ा उठाया. इनका इरादा अली और मुआविया दोनों को समाप्त कर कोई दूसरा ख़लीफ़ा चुनने का था.

शुक्र का दिन दोनों हत्याओं के लिए निश्चित किया गया. थोड़ी रात गई थी. अली मस्जिद में नियमानुसार नमाज़ पढ़ाने आए. मलजम मसजिद के द्वार पर छिपा बैठा था. अली को देखते ही उन पर तलवार चलाई. माथे पर चोट लगी. वहीं गिर पड़े. मलजम पकड़ लिया गया. ख़लीफ़ा को लोग उठाकर मकान पर लाए. मलजम उनके सम्मुख लाया गया. अली ने पूछा तुमने किस अपराध के लिए मुझे मारा? मलजम ने कहा, तुमने बहुत से निरपराध मनुष्यों को मारा है. तब अली ने लोगों से कहा कि यदि मैं मर जाऊं तो तुम भी इसे मार डालना, लेकिन इसी की तलवार से और एक ही वार करना. इसके सिवा और किसी को क्रोध के वश होकर मत मारना. इसके बाद उन्होंने अपने दोनों पुत्रों हसन और हुसैन को सदुपदेश दिया और थोड़ी देर बाद परलोक सिधारे. उन्होंने अपने पुत्रों में से किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने की चेष्टा तक न की.
साभार


फ़िरदौस ख़ान
अब्राहम लिंकन को अमेरिका के प्रभावशाली राष्ट्रपतियों में गिना जाता है. उनकी ज़िन्दगी बड़ी जद्दोजहद के बाद मिली कामयाबी की दास्तान बयान करती है. उनका कार्यकाल 1861 से 1865 तक था. उन्होंने अमेरिका को उसके सबसे बड़े संकट यानी गृहयुद्ध से पार लगाया. अमेरिका में अमानवीय दास प्रथा को ख़त्म करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.

अब्राहम लिंकन का जन्म 12 फ़रवरी 1809 को अमेरिका के हार्डिन केंटकी में एक अश्वेत परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम थॉमस और मां का नाम नैंसी हैंक्स लिंकन था. उनकी दो ही संतानें थीं, बेटी सारा और बेटा अब्राहम. उनके पिता को कारोबार में नुक़सान हुआ और वह रोज़गार की तलाश में इंडियाना के पेरी काउंटी में आ गए और फिर यहीं बस गए. अब्राहम लिंकन जब सिर्फ़ नौ साल के थे, उनकी मां की मौत हो गई. उनके पिता ने विधवा सारा बुश जॉनसन से शादी कर ली और उसके तीन बच्चों के सौतेले पिता बन गए. अब्राहम को सौतेली मां ने उन्हें सगी मां की ही तरह प्यार दिया.

अब्राहम लिंकन का परिवार बहुत ग़रीब था. उनकी पढ़ाई बहुत ही मुश्किल से हुई. किताबें ख़रीदने के लिए उन्हें दिन-रात मेहनत करनी पड़ती थी. साल 1830 में वह परिवार के साथ इलिनोइस आ गए. उन्होंने यहां भी ख़ूब मेहनत की. खेतों में काम किया, दुकान पर काम किया, पोस्ट मास्टर का काम किया और भी न जाने कितने ही काम किए.  वह जल्द ही सियासत में आ गए और 25  साल की उम्र में इलिनोइस विधानमंडल में एक सीट जीती. वह इलिनोइस राज्य विधानमंडल के लिए कई बार चुने गए.  इस दौरान उन्होंने वकालत की पढ़ाई की और बतौर वकील काम भी शुरू कर दिया.

अब्राहम लिंकन ने साल 1842 में  मैरी टोड से विवाह किया. उनके चार बेटे हुए, जिनमें से 1843 में जन्मा रॉबर्ट टोड वयस्कता तक पहुंच सका, बाक़ी सभी बच्चों की मौत हो गई. अब्राहम लिंकन ने साल 1845 में अमेरिकी कांग्रेस के लिए चुनाव लड़ा. वह चुनाव जीते और एक कार्यकाल के लिए एक कांग्रेसी नेता के तौर पर काम किया. फिर उन्होंने अमेरिकी सीनेट के लिए चुनाव लड़ा. वह चुनाव हार गए, लेकिन बहस के दौरान ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ अपने तर्क से राष्ट्रीय स्तर पर एक ख़ास पहचान हासिल कर ली. उन्होंने साल 1860 में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए चुनाव लड़ा. वह न्यू रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य थे, जिसने दक्षिणी राज्यों में से किसी को भी अलग करने की अनुमति का सख़्ती से विरोध किया. रिपब्लिकन भी ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ थे. अब्राहम लिंकन चुनाव जीत गए और 1861 के मार्च में राष्ट्रपति बने.
दक्षिणी राज्य नहीं चाहते थे कि अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बनें, इसलिए उनके ख़िलाफ़ दक्षिण कैरोलिना सहित छह राज्यों ने साथ मिलकर एक नया महासंघ बना लिया. अब्राहम लिंकन के राष्ट्रपति का दायित्व संभालने के महज़ एक महीने बाद ही 12 अप्रैल 1861 को  दक्षिण कैरोलिना में फ़ोर्ट सम्टर में गृह युद्ध शुरू हो गया. अब्राहम लिंकन ने राज्यों के ’संघ’ को बनाए रखना तय किया हुआ था. अमेरिका में चार साल गृहयुद्ध चला, लेकिन अपनी कुशलता से वह देश को एकजुट रखने में कामयाब रहे. आख़िर 9 अप्रैल 1865 को गृह युद्ध ख़त्म हो गया. मगर एक नये ख़ुशहाल अमेरिका को देखने के लिए वह ज़िन्दा न रहे. वह 14 अप्रैल 1865 फ़ोर्ड थियेटर में एक नाटक देख रहे थे, तभी जॉन विल्केस बूथ नाम के एक अभिनेता ने उन्हें गोली मार दी और अगले दिन 15 अप्रैल 1865 को उनकी मौत हो गई.

अब्राहम लिंकन ने 1 जनवरी, 1863 को अमेरिका को ग़ुलाम प्रथा से आज़ाद करने का ऐलान किया. यह संघीय राज्यों में ग़ुलामों को आज़ाद करने का एक आदेश था. हालांकि सभी ग़ुलाम फ़ौरन आज़ाद नहीं हुए थे. इसने 13 वें संशोधन के लिए मार्ग प्रशस्त किया, जिसके तहत संयुक्त राज्य अमेरिका में कुछ साल बाद सभी ग़ुलाम आज़ाद होंगे. अब्राहम लिंकन 1 नवंबर, 1863 को गेटिसबर्ग में दिए अपने एक संक्षिप्त भाषण के लिए याद किए जाते हैं. यह गेटिसबर्ग उद्बोधन कहलाता है. यह छोटा ज़रूर था, लेकिन यह अमेरिकी इतिहास में महान भाषणों में से एक माना जाता है.

अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से पहले अब्राहम लिंकन ने बीस साल तक वकालत की. इस दौरान उन्होंने दौलत भले ही नहीं कमाई हो, लेकिन उन्हें लोगों का बहुत मान-सम्मान मिला. उनके वकालत के दिनों के सैंकड़ों क़िस्से उनकी दरियादिली ईमानदारी की गवाही देते हैं.  लिंकन अपने ग़रीब मुवक्किलों से ज़्यादा फ़ीस नहीं लेते थे. एक बार उनके एक मुवक्किल ने उन्हें पच्चीस डॉलर भेजे, तो उन्होंने उसमें से दस डॉलर यह कहकर लौटा दिए कि पंद्रह डॉलर काफ़ी हैं. अमूमन वह अपने मुवक्किलों को अदालत के बाहर ही राज़ीनामा करके मामला निपटा लेने की सलाह देते थे, ताकि दोनों पक्षों का वक़्त और पैसे मुक़दमेबाज़ी में बर्बाद होने से बच जाएं. हालांकि ऐसा करने से उन्हें नुक़सान ही होता था और उन्हें न के बराबर ही फ़ीस मिलती थी. एक शहीद सैनिक की विधवा को उसकी पेंशन के 400 डॉलर दिलाने के लिए एक पेंशन एजेंट 200 डॉलर फ़ीस में मांग रहा था. लिंकन ने उस महिला के लिए न सिर्फ़ मुफ़्त में वकालत की, बल्कि उसके होटल में रहने का ख़र्च और घर वापसी का किराया भी ख़ुद ही दिया. एक बार लिंकन और उनके सहयोगी वकील ने एक मानसिक रोगी महिला की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने वाले व्यक्ति को अदालत से सज़ा दिलवाई. मामला अदालत में सिर्फ़ पंद्रह मिनट ही चला. मुक़दमा जीतने के बाद फ़ीस बटवारे को लेकर उन्होंने अपने सहयोगी वकील को डांटा. सहयोगी वकील का कहना था कि उस महिला के भाई ने पूरी फ़ीस चुका दी थी और सभी अदालत के फ़ैसले से ख़ुश थे, मगर लिंकन का कहना था कि वह ख़ुश नहीं हैं. वह पैसा एक बेचारी मरीज़ महिला का है और वह ऐसा पैसा लेने की बजाय भूखे मरना पसंद करेंगे. इसलिए उनके हिस्से की फ़ीस की रक़म महिला के भाई को वापस कर दी जाए.

वह मानवता को सर्वोपरि मानते थे. मज़हब के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने अपने एक दोस्त को जवाब दिया था- “बहुत पहले मैं इंडियाना में एक बूढ़े आदमी से मिला, जो यह कहता था ‘जब मैं कुछ अच्छा करता हूं, तो अच्छा महसूस करता हूं और जब बुरा करता हूं तो बुरा महसूस करता हूं’. यही मेरा मज़हब है’.

अब्राहम लिंकन ने यह पत्र अपने बेटे के स्कूल प्रिंसिपल को लिखा था. लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं, जो वह अपने बेटे को सिखाना चाहते थे.
सम्माननीय महोदय,
मैं जानता हूं कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं. यह बात मेरे बेटे को भी सीखनी होगी, लेकिन मैं चाहता हूं कि आप उसे यह बताएं कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा दिल होता है. हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा रहनुमा बनने की क्षमता होती है. मैं चाहता हूं कि आप उसे सिखाएं कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है. ये बातें सीखने में उसे वक़्त लगेगा, मैं जानता हूं. लेकिन पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पांच रुपये के नोट से ज़्यादा क़ीमती होता है.

आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाए. साथ ही यह भी कि खुलकर हंसते हुए भी शालीनता बरतना कितना ज़रूरी है. मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएंगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्‍छी बात नहीं है. यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए.

आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को धूप, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा. मैं समझता हूं कि ये बातें उसके लिए ज़्यादा काम की हैं.
मैं मानता हूं कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखनी होगी कि नक़ल करके पास होने से फ़ेल होना अच्‍छा है. किसी बात पर चाहे दूसरे उसे ग़लत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर क़ायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए. दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख़्ती से पेश आना चाहिए. दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीज़ों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा.
आप उसे बताना मत भूलिएगा कि उदासी को किस तरह ख़ुशी में बदला जा सकता है. और उसे यह भी बताइएगा कि जब कभी रोने का मन करे, तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे. मेरा सोचना है कि उसे ख़ुद पर यक़ीन होना चाहिए और दूसरों पर भी, तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा.

ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी, लेकिन आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएं उतना उसके लिए अच्छा होगा. फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी.
आपका
अब्राहम लिंकन

बहरहाल, अब्राहम लिंकन की ज़िन्दगी एक ऐसी मिसाल है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है.


विश्वभर में कम से कम 20 करोड ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जिनका खतना किया गया है. इनमें से आधी लड़कियां और महिलाएं मिस्र, इथोपिया और इंडोनेशिया में रह रही हैं. संयुक्त राष्ट्र के बाल कोष यूनीसेफ की एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है. महिला खतना के खिलाफ 'जीरो टॉलरेंस' अंतरराष्ट्रीय दिवस से पहले यूनीसेफ की जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि महिला खतने के मामलों के लिहाज से विश्व में सोमालिया, गिनी और जिबूती में सबसे अधिक खराब स्थिति है जहां ऐसे मामलों की संख्या सर्वाधिक है.
लेकिन करीब 30 देशों में इसकी समग्र दर में गिरावट आई है. संयुक्त राष्ट्र ने अपने नए विकास अजेंडे के तहत महिला खतने की कुप्रथा को समाप्त करने के लिए साल 2030 तक का लक्ष्य निर्धारित किया है और वह इस लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में काम कर रहा है. इस एजेंडे को संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों ने सितंबर में स्वीकार किया था.
जिन 20 करोड़ महिलाओं का खतना कराया गया है उनमें से चार करोड़ 40 लाख लड़कियों की उम्र 14 साल या उससे भी कम है. यूनीसेफ ने इस प्रथा को बाल अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन करार देते हुए कहा कि यह प्रथा जिन 30 देशों में सर्वाधिक फैली हुई है वहां अधिकतर लड़कियों का खतना उनके पांचवें जन्मदिन से पूर्व ही करा दिया जाता है.
इस रिपोर्ट की मुख्य लेखिका क्लाउडिया काप्पा ने कहा, 'सोमालिया, गिनी और जिबूती जैसे देशों में तो यह कुप्रथा व्यावहारिक रूप से सार्वभौमिक है.' उन्होंने कहा कि इन देशों में 10 में से 9 लड़कियों को इस दर्दनाक प्रथा से गुज़रना पड़ता है. सोमालिया, गिनी और जिबूती में महिला खतने की दर हैरान कर देने वाली है. सोमालिया में इसकी दर 98 प्रतिशत, गिनी में 97 प्रतिशत और जिबूती में 93 प्रतिशत है.
इंडोनेशिया द्वारा मुहैया कराए गए नए आंकड़े और कुछ देशों में जनसंख्या वृद्धि के कारण महिला खतने के नए ग्लोबल आंकड़े में वर्ष 2014 की तुलना में करीब सात करोड़ और लड़कियों, महिलाओं को शामिल किया गया है. हालांकि 30 देशों में किशोरियों के खतने की दर 1985 में 51 प्रतिशत की तुलना में गिरकर 37 प्रतिशत हो गई है. लाइबेरिया, बुर्किना फासो, केन्या और मिस्र में महिला खतना समाप्त करने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है.
क्लाउडिया ने उन सर्वे की ओर इशारा करते हुए लोगों के रवैये में बदलाव आने की बात कही, जिनमें दिखाया गया है कि इन देशों में अधिकतर लोग इस प्रथा को समाप्त करना चाहते हैं. उन्होंने कहा, 'हमें इस प्रथा की समाप्ति को प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने चाहिए.' 2008 के बाद से 15000 से अधिक समुदायों ने महिला खतने की कुप्रथा बंद कर दी है, जिसमें से 2000 समुदायों ने तो पिछले वर्ष ही यह कदम उठाया. केन्या, युगांडा, गिनी बिसाउ और हाल में नाइजीरिया और गाम्बिया ने इस प्रथा को अपराध की श्रेणी में डालने के लिए कानून पारित किए हैं.
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खतना एक ऐसी पुरानी परंपरा है जिसे अक़्सर मुसलमानों से जोड़कर देखा जाता है लेकिन सच्चाई ये है कि इसका चलन ईसाइयों और यहूदियों में भी है ख़तना यानी Circumcision में पुरुष के शिश्न की आगे की त्वचा को पूरी तरह या आंशिक रूप से हटाया जाता है. “खतना लैटिन भाषा का शब्द है.

ख़तना के बारे में जानकारी गुफा के चित्रों और प्राचीन मिस्र की कब्रों से मिलती है. यहूदी संप्रदाय में पुरुषों की ख़तना को ईश्वर का आदेश माना जाता है. इस्लाम में हालांकि क़ुरान में इसकी चर्चा नहीं की गई है लेकिन यह व्यापक रूप से प्रचलित है और अक्सर इसे सुन्नत यानी अनिवार्य माना जाता है.। यह अफ्रीका में कुछ ईसाई चर्चों में भी प्रचलित है, जिनमें कुछ ओरिएंटल ऑर्थोडॉक्स चर्च भी शामिल हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार विश्व में 30 प्रतिशत पुरूषों की ख़तना हो चुकी है जिनमें से 68 प्रतिशत मुसलमान हैं. ख़तना का प्रचलन अधिकांशतः धार्मिक संबंध और कभी-कभी संस्कृति, के साथ बदलता है. अमूमन ख़तना सांस्कृतिक या धार्मिक कारणों से किशोरवस्था में की जाती है और कुछ देशों में इसे शैशवावस्था में ही किया जाता है.


पाकिस्तान ने दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ सख़्त क़दम उठाते हुए 182 मदरसों को बंद कर दिया है. गुज़श्ता 20 जनवरी को ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत में पेशावर के पास बाचा ख़ान यूनिवर्सिटी पर एक जघन्य हमले में 20 लोग मारे गए थे, जिनमें अधिकतर छात्र थे. इससे पहले दिसंबर, 2014 में पेशावर के सैनिक स्कूल पर भी आंतकी हमला किया गया था. इस हमले में क़रीब 150 लोग मारे गए थे, जिनमें ज़्यादातर छात्र थे.

रिपोर्ट के मुताबिक़ यह कार्रवाई राष्ट्रीय कार्रवाई योजना (एनएपी) के तहत की गई है. साल 2014 के दिसंबर में सेना के स्कूल पर आतंकवादी हमले के बाद एनएपी ने यह योजना बनाई गई थी.
इस बीच, पाकिस्तानी मदरसों को सऊदी अरब से आर्थिक मदद मिलने की ख़बर सामने आने के बाद  स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान (एसबीपी) ने 126 बैंक खातों में तक़रीबन एक अरब रुपये के परिचालन पर रोक लगा दी है. इन खातों का संबंध प्रतिबंधित आतंकवादी समूहों के साथ था. पिछले दिनों अमेरिकी सीनेटर क्रिस मर्फ़ी ने ख़ुलासा किया था कि सऊदी के पैसों की मदद से मदरसे आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं.

क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों ने भी 25 करोड़ 10 लाख रुपये नक़द बरामद किए. सरकार ने 8,195 लोगों का नाम चौथी अनुसूची में डाल दिया है, जबकि 188 लोगों का नाम एग्ज़िट कंट्रोल लिस्ट पर डाला गया है. 2052 कट्टर आतंकवादियों की गतिविधियों पर रोक लगा दी गई है. इसी तरह सरकार ने संदिग्ध आतंकवादियों के ख़िलाफ़ 1026 मामले दर्ज किए हैं और 230 संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ़्तार किया है. पाकिस्तान में 64 प्रतिबंधित संगठन हैं.


होकाइदो (जापान). एक बच्ची को स्कूल से लाने-छोड़ने के लिए जापान सरकार एक ट्रेन चला रही है, जो अपने आप में एक मिसाल बन गई है. एक तरफ़ जहां इसको सोशल मीडिया पर ख़ूब वाहवाही मिल रही है, तो दूसरी तरफ़ कुछ देशों के लिए एक सीख भी है. इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं, सोशल मीडिया पर एक शख़्स ने कमेंट किया है-
"क्यों न हम उस देश के लिए मरना पसंद करें, जो मेरे लिए इतना कुछ करता है."
इसके विपरीत भारत में तो बच्चे ऐसी सड़कों से स्कूल जाते हैं, वहां ये पता नहीं चलता कि सड़क में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क. इस वक़्त भी भारत में बहुत से गांवों के बच्चे ऊबड़-खाबड़ रास्ते से पैदल स्कूल जाते हैं, क्योंकि सड़कें ख़राब हैं, यातायात के साधन भी नहीं हैं, लेकिन जापान सरकार सिर्फ़ एक लड़की के लिए ट्रेन चला रही है, ताकि वह घर से स्कूल आ-जा सके.
ग़ौरतलब है कि जापान में कामी शिराताकी नाम का एक गांव हैं. इस गांव से कहीं आने जाने के लिए ख़ुद की गाड़ी के अलावा सिर्फ़ एक ट्रेन थी पर सरकार ने तीन साल पहले यहां के रेलवे स्टेशन को बंद करने का फ़ैसला लिया था. सरकार ने इसकी वजह वहां पर लोगों की कम आवाजाही को बताया, लेकिन जब रेलवे के अधिकारियों को पता चला कि उस गांव से एक लड़की पढ़ने जाती है और अगर यह ट्रेन बंद कर दी जाएगी, तो उस लड़की के लिए स्कूल में जाने आने के लिए परेशानी हो जाएगी.
अफ़सरों ने इसकी सूचना रेलवे मिनिस्ट्री को दी. सरकार ने फ़ौरन लड़की के लिए ट्रेन को दोबारा शुरू करने का ऑर्डर देते हुए कहा कि जब तक लड़की ग्रेजुएशन पास नहीं कर लेती, तब तक ट्रेन जारी रहेगी.
साथ ही सरकार ने ट्रेन का शेड्यूल भी लड़की के स्कूल की टाइमिंग पर ही कर दिया. जिस दिन स्कूल में छुट्‌टी होती है, उस दिन ये ट्रेन भी नहीं चलती. इसके बाद से रोज़ यह ट्रेन लड़की को लेकर स्कूल जाती है और दोबारा स्कूल से गांव पहुंचाती है. यह स्टेशन मार्च में बंद हो जाएगा, क्योंकि लड़की का ग्रेजुएशन कम्प्लीट हो जाएगा.


रियाद (सऊदी अरब). सऊदी अरब में जिन लोगों को मौत की सज़ा दी गई है, उनमें अहम शिया नेता शेख़ निम्र अल निम्र भी शामिल है. मारे गए लोगों पर आतंकवाद से जुड़ा होने का आरोप था. शनिवार को गृह मंत्रालय ने यह जानकारी दी.
सऊदी अरब में शिया नेता निम्र अल निम्र को मौत की सज़ा दिए जाने पर ईरान ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई है. ईरान शिया बहुल देश है और उसे सुन्नी बहुल सऊदी अरब का राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माना जाता है. ईरानी विदेश मंत्रालय ने कहा है कि सऊदी अरब को इसकी क़ीमत चुकानी होगी.
प्रभावशाली शिया धर्मगुरु अयातुल्ला अहमद खातमी ने इसे ऐसा 'अपराध' करार दिया, जिससे सऊदी अरब के शाही परिवार का ख़ात्मा हो जाएगा. दूसरी ओर, ख़बर है कि शिया नेता को मौत की सज़ा देने के ख़िलाफ़ बहरीन में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े. लेबनान की शिया परिषद ने निम्र को मौत की सज़ा देने की निंदा करते हुए इसे बहुत बड़ी ग़लती कहा है.

शिया धर्मगुरु शेख़ निम्र अल निम्र ईस्ट सऊदी अरब में 2011 में भड़के सरकार विरोधी प्रदर्शन के निम्र अहम ज़िम्मेदार थे. इन इलाक़ों में शिया बहुसंख्यकों को खु़द के लंबे अरसे से हाशिये पर रहने की शिकायत थी.
शेख़ निम्र को अक्टूबर, 2014 में मौत की सज़ा सुनाई गई थी. रिपोर्ट के मुताबिक़ मारे गए लोगों में से कई पर 2003-06 के बीच अल क़ायदा द्वारा किए गए हमलों में शामिल होने का आरोप था.
ग़ौरतलब है कि 1995 में सबसे ज़्यादा 157 लोगों को सज़ा-ए-मौत दी थी. उससे पहले साल 2014 में 90 लोगों को मौत की सज़ा दी थी. सऊदी ने 2016 के शुरुआत में 47 लोगों को मौत की सज़ा दी है.
इसे 1995 के बाद सबसे बड़े लेवल पर मास एक्जीक्यूशन के तौर पर देखा जा रहा है. तब 192 लोगों को मौत की सज़ा दी गई थी.


शकील अख़्तर
क्रिसमस पर पोप ने वेटिकन में चिंता जताई कि मध्य पूर्व के जिस इलाक़े में यीशु मसीह का जन्म हुआ और जहां से ईसाई धर्म पूरी दुनिया में फैला, वहां वह ख़ात्मे की दहलीज़ पर खड़ा है.
अभी कुछ दशक पहले तक इस क्षेत्र में केवल ईसाई ही नहीं यहूदी, पारसी और दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यक बड़ी संख्या में मौजूद थे.
वर्ष 2015 के क्रिसमस के मौक़े पर जंग से जूझ रहे दमिश्क का एक मंज़र टीवी पर पूरी दुनिया में प्रसारित हुआ.
अंधेरे में डूबे इस ख़ूबसूरत ऐतिहासिक शहर में कुछ सहमे हुए बच्चे और उनके माता-पिता आपने पारंपरिक लिबास पहने क्रिसमस मना रहे थे.
जब से अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों ने सीरिया के गृहयुद्ध में हाथ डाला, तब से वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को बेहद अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है.
इस्लामिक स्टेट (आईएस) के रूप में सीरिया और इराक़ के एक बड़े हिस्से पर ऐसे सुन्नी धार्मिक कट्टरपंथियों का क़ब्ज़ा है, जिन्होंने अपने विरोधियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न, अत्याचार, हिंसा और रक्तपात का ऐसा इतिहास रचा है जिसका अतीत में बहुत कम उदाहरण मिलता है.
क्रिसमस से कुछ दिन पहले ब्रुनेई के मुस्लिम शासक ने नया क़ानून लागू किया जिसके तहत उनकी सल्तनत में यदि कोई व्यक्ति क्रिसमस मनाता मिला या किसी के पास ऐसी कोई वस्तु मिली जो क्रिसमस में उपयोग होती है, तो उसे पांच साल की क़ैद हो सकती है.
क्रिसमस पर किसी को बधाई संदेश देने पर भी सज़ा का प्रावधान है.
एक समय था जब सऊदी अरब, सीरिया, इराक़, ईरान, मिस्र, मोरक्को, जॉर्डन, यमन अैर फलस्तीनी क्षेत्रों में मुसलमानों के साथ-साथ बड़ी संख्या में ईसाई, यहूदी, पारसी, यज़ीदी, दरवज़ और कई अन्य धर्मों के लोग मिल-जुलकर रहा करते थे.
लेकिन धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और घृणा के कारण धीरे-धीरे ये अल्पसंख्यक उन देशों से कहीं और चले गए या फिर ख़त्म हो गए.
धार्मिक अल्पसंख्यक ही नहीं मुसलमानों के विभिन्न अल्पसंख्यक समुदाय भी बहुसंख्यकों के अत्याचार और दमन का निशाना बनते रहे हैं.
दो देशों को छोड़कर दुनिया में मुसलमानों की बहुलता वाले किसी भी देश में अल्पसंख्यकों को धार्मिक स्वतंत्रता हासिल नहीं है.
सऊदी अरब ने तो मक्का और मदीना शहर में ही ग़ैर मुसलमानों के प्रवेश पर पाबंदी लगा रखी है.
मुस्लिमबहुल अधिकांश देश सऊदी अरब, कुवैत, जॉर्डन और संयुक्त अरब अमीरात की तरह किसी सुल्तान की सल्तनत हैं.
ईरान जैसे कई देश कट्टरपंथियों की गिरफ़्त में हैं. मिस्र और सीरिया जैसे देश अलग तरह के तानाशाहों के तहत आते हैं.
तुर्की, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश लोकतंत्र, तानाशाही और धार्मिकता के बीच उहापोह से गुज़र रहे हैं.
मध्य पूर्व की तरह ही भारत के उत्तरी इलाक़े में भी दुनिया के कई प्रमुख धर्मों की मौजूदगी रही है.
यहीं हिंदूवाद, बौद्ध धर्म, जैन और सिख धर्मों ने जन्म लिया. उनमें से ज़्यादातर एक दूसरे को चुनौती देते हुए अस्तित्व में आए.
लेकिन हिंदूबहुल भारतीय लोकतंत्र में सभी धर्म फल-फूल रहे हैं. यहां हर धर्म को बराबर का दर्जा ही हासिल नहीं बल्कि उन्हें अपने धर्म के प्रचार और धर्म परिवर्तन का मौलिक अधिकार भी हासिल है. उनमें से कोई धर्म ख़त्म नहीं हुआ.
यही नहीं, सदियों से हर धर्म के लोग रहते हैं जो अपने देशों में सताए गए.
तो क्या मुस्लिम शासक स्वतंत्रता, समानता और अभिव्यक्ति की आज़ादी की अवधारणा से भयभीत हैं?
क्या इन शासकों ने राजनीतिक और व्यक्तिगत लाभ के लिए धर्म को बंधक बना रखा है?
इसका जवाब इस हक़ीकत में छिपा है कि इन देशों की सत्ता में मौजूद लोग हर तरह की स्वतंत्रता और धार्मिक समानता का विरोध कर रहे हैं.
साभार बीबीसी


महिलाओं के साथ अमानवीयता के मामले में सऊदी अरब सर्वोपरि है.  सऊदी अरब एक ऐसा देश है, जहां पीड़ितों के साथ अमानवीय बर्ताव किया जाता है और दोषियों के साथ रहमदिली बरती जाती है.
यहां का क़ानून भी दरिन्दों का ही साथ देता है. सुनने में ये बात अजीब लगे, लेकिन सौ फ़ीसद सही है. अरब की एक अदालत ने बलात्कार पीड़ित एक युवती को 200 कोड़े मारने और जेल भेजे जाने की सज़ा सुनाई है. उसका क़ुसूर सिर्फ़ इतना था कि उसने अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में मीडिया को बताया था.

19 वर्षीय शिया युवती कार में बैठी थी, तभी दो युवक आए और कार को लेकर सुनसान इलाक़े में चले गए, जहां सात लोगों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया. जब उसने इस घटना की शिकायत पुलिस में की, तो अदालत ने सुनवाई के बाद युवती को 90 कोड़े मारने की सज़ा सुनाई. अदालत का कहना था कि युवती एक ऐसे व्यक्ति की कार में बैठी थी, जिससे उसका कोई रिश्ता नहीं था. मामले की ख़बर मीडिया में पहुंची, तो उसकी सज़ा में 110 कोड़े और बढ़ा दिए गए. 90 कोड़े मारने की सज़ा सुनने के बाद युवती ने मीडिया से बातचीत की, जिसे अदालत ने अवमानना माना और उसकी सज़ा को बढ़ा दिया है. अदालत ने कहा कि वह फ़ैसले के ख़िलाफ़ जनरल कोर्ट में जा सकती है, लेकिन उसे मीडिया से बात करने का अधिकार नहीं है.

अदालत ने बलात्कारियों के साथ रहम बरतते हुए उन्हें पांच साल की सज़ा सुनाई है, जबकि सऊदी क़ानून के मुताबिक़ ऐसे मामले में सज़ा-ए-मौत का प्रावधान है.


ग़ौरतलब है कि सऊदी क़ानून के मुताबिक़ महिलाएं परिवार के किसी पुरुष के साथ ही घर से बाहर निकल सकती हैं. बलात्कार मामले में पीड़िता को ही चार गवाह पेश करने होते हैं. अगर वह ऐसा नहीं कर पाती तो बदचलनी का आरोप लगाकर उसे ही सज़ा दी जाती है.



दुनिया के कई इस्लामी देशों ने सार्वजनिक जगहों पर क्रिसमस मनाने पर पाबंदी लगा दी है.  इनमें सऊदी अरब, सोमालिया, ब्रुनेई और  ताजिकिस्तान शामिल हैं. इस देशों का मानना है कि सार्वजनिक तौर पर क्रिसमस मनाए जाने पर मुसलमान भी जश्न में शिरकत कर सकते हैं, जिससे उनके ईमान को ख़तरा है.
दुनिया के चौथे सबसे अमीर देश ब्रुनेई ने सार्वजनिक जगहों पर क्रिसमस मनाने पर पाबंदी लगा दी है. सुल्तान हसनल ने चेतावनी दी है कि कोई भी मुसलमान ऐसा करते दिखा, तो उसे पांच साल की जेल होगी. इसके अलावा 20 हज़ार डॉलर (लगभग 13 लाख रुपये) जुर्माना भी हो सकता है. नए आदेश के तहत कोई भी मुसलमान कार्यालय या सार्वजनिक जगहों पर क्रिसमस सेलिब्रेट नहीं कर पाएगा. सुल्तान का मानना है कि ऐसा करने से मुसलमान भटक जाएंगे. सुल्तान ने यह भी चेतावनी दी है कि अगर कोई मुसलमान इसकी मुबारकबाद देता हुआ भी पाया गया या सांता टोपी पहने दिखा तो उसे भी सज़ा मिलेगी.
ग़ैर-मुसलमानों को हिदायत दी गई है कि वो बेशक क्रिसमस मनाएं, पर सेलिब्रेशन प्लान मुसलमानों से शेयर न करें. कथित तौर पर धार्मिक मामलों के डिपार्टमेंट ने मार्केट में क्रिसमस डेकोरेशन्स (सेंटा कैप और ग्रीटिंग्स) संबंधी चीज़ें वितरित न करने को कहा है. स्थानीय इमामों ने भी पाबंदी का समर्थन किया है. उनके मुताबिक़, कोई भी मुसलमान अगर ईसाई धर्म की मान्यताओं में हिस्सा लेगा या उनकी चीज़ों को सराहेगा वो इस्लाम के मत के ख़िलाफ़ होगा. ग़ौरतलब है कि ब्रुनेई की कुल आबादी 420,000 है. यहां 65 फ़ीसद आबादी मुसलमानों की है.  वहीं, तक़रीबन 20 फ़ीसद आबादी ग़ैर मुसलमान, बौद्ध और क्रिश्चियन समुदाय की है.

सोमालिया सरकार ने भी क्रिसमस का जश्न मनाने पर रोक लगा दी है. सरकार ने चेताया कि इससे देश की मुस्लिम आस्थाओं को ख़तरा हो सकता है. धार्मिक मामलों के मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक़ यह पर्व किसी भी तरह से इस्लाम से जुड़ा हुआ नहीं है.
सुरक्षाकर्मियों को ऐसे किसी भी जश्न पर नज़र रखने की हिदायत दी गई है. हालांकि पर्यटकों को अपने घरों में जश्न मनाने की छूट है, लेकिन होटल और सार्वजनिक स्थलों पर इसकी मनाही है. सोमालिया ने साल 2009 में शरिया क़ानून अपनाया था, जिसके बाद यहां बड़े पैमाने पर क्रिसमस नहीं मनाया जाता. फिर भी अब तक कुछ जगहों पर क्रिसमस के जश्न होते थे, लेकिन अब वे भी बंद हो जाएंगे.

इस पाबंदी का विरोध शुरू हो गया है. लोग MyTreedom हैशटैग लगाकर विरोध दर्ज करा रहे हैं



ब्रिटिश ख़ुफ़िया एजेंसी एमआई-6 के पूर्व प्रमुख ने एक बड़ा रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है कि सऊदी अरब की ख़ुफ़िया एजेंसी के पूर्व अध्यक्ष ने हिटलर की शैली में शिया मुस्मालनों के नरसंहार की योजना बनाई थी.

अल-आलम की रिपोर्ट के मुताबिक़ एमआई-6 के पूर्व प्रमुख ने तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश के गठन की साज़िश से पर्दा उठाते हुए कहा, सऊदी अरब की ख़ुफ़िया एजेंसी के पूर्व प्रमुख बंदर बिन सुल्तान ने कहा था कि नाज़ियों ने जो कुछ यहूदियों के साथ किया था, हम शियों और अलवियों के साथ भी वैसा ही करेंगे.

द इंडीपेंडेट अख़बार ने रिचर्ड डीयरलव के हवाले से लिखा है कि रियाज़ ने उत्तरी इराक़ पर क़ब्ज़े के लिए दाइश की सहायता की, क्योंकि उसका यह क़दम शिया मुसलमानों के जनसंहार की योजना का ही भाग था.

डीयरलव ने पिछले हफ़्ते एक ब्रितानी संस्था से कहा था कि 11 सितम्बर 2001 की न्यूयॉर्क की घटना से पहले बंदर बिन सुल्तान ने मुझसे कहा था कि मध्यपूर्व में वह दिन दूर नहीं है कि जब एक अरब से अधिक सुन्नी शियों को सफ़ाया कर देंगे.

डीयरलव ने उल्लेख किया कि बंदर बिन सुल्तान की योजना व्यवहारिक हो रही है और 2003 के बाद से आत्मघाती बम धमाकों और अन्य आतंकवादी कार्यवाहियों में 10 लाख से अधिक शिया मुसलमान जा चुके हैं.
साभार ईरान हिन्दी रेडियो


बर्न. स्विट्रज़लैंड सरकार ने महिलाओं के बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगा दी है. इसके साथ ही सार्वजनिक जगहों पर बुर्क़ा पहनकर दिखाई देने पर महिलाओं पर तक़रीबन साढ़े छह लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया जाएगा. बताया गया है कि सरकार ने यह फ़ैसला जनमत संग्रह के दौरान आए नतीजों के बाद लिया है.

ग़ौरतलब है कि स्थानीय सरकार ने साल 2013 में बुर्क़ा पहनने पर जनमत संग्रह कराया था. इस जनमत संग्रह में जनता से बुर्क़ा पहनने पर उनकी राय पूछी गई थी. तीन में से दो व्यक्तियों ने सार्वजनिक जगहों पर बुर्क़ा पहनने के ख़िलाफ़ वोट दिया है. स्थानीय नेता के मुताबिक़, टिकिनो सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के बुर्क़ा पहनने पर प्रतिबंध का समर्थन किया था. उन्होंने इसको स्विटज़रलैंड के इतिहास में काला दिन क़रार दिया है.

उन्होंने कहा कि सरकार हमेशा से चाहती थी कि जो मुस्लिम महिलाएं बुर्क़ा पहनकर सार्वजनिक जगह पर घूमती हैं, उनपर बैन लगाया जाए. बुर्क़ा पहनने की यह प्रतिबंध होटलों, रेस्टोरेंट्स, बाज़ार जैसी सार्वजनिक जगहों पर लगाया गया है. सनद रहे कि इससे पहले फ्रांस में भी बुर्क़ा पहनने पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है. फ्रांस में मुस्लिम महिलाओं के बुर्क़ा पहनने पर 3500 से लेकर 15000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था.

ग़ौरतलब है कि फ्रांस की सरकार ने भी इसी तरह का प्रतिबंध लगाया था, जिसको लेकर प्रदर्शन भी हुए थे. पेरिस में हुए हालिया हमले को लेकर कुछ नेताओं ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसकी वजहों में से एक बुर्क़े पर प्रतिबंध लगाना माना था.


रायटर की खबर के अनुसार सऊदी अरब में फ़िलिस्तीनी मूल के 35 वर्षीय कलाकार और कवि अशरफ फ़य्याद को इस्लाम त्यागने के आरोप में मौत की सज़ा सुनाई गई है.

 2013 में फ़य्याद को अबहा शहर में धार्मिक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और 2014 में दुबारा से उन्हें गिरफ़्तार करके सज़ा सुनाई गई. ह्यूमन राइट्स वाच के एडम कुग्ल ने बताया है कि अदालत ने उन्हें चार साल की जेल की और 800 कोड़ों की सज़ा सुनाई थी. इसके बाद अपील में दूसरे जज ने उन्हें मौत की सज़ा सुना दी.

 फ़य्याद पर लगाए गए आरोप एक गवाह के बयान पर आधारित हैं. गवाह के मुताबिक़ फय्याद ने अल्लाह, पैगम्बर मुहम्मद और सऊदी अरब को कोसा.  गवाह ने यह भी कहा है कि इस शायर की कविताओं में नास्तिक विचार हैं. कवि ने उस पर लगाए गए आरोपों का खंडन किया है, और वह अपने आप को आस्थावान मुसलमान मानता है.

 पिछले साल चीन और ईरान के बाद सऊदी अरब में ही सबसे अधिक लोगों को मौत की सज़ा दी गई. यहां मौत की सज़ा सरे-आम सिर काटकर ही दी जाती है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि जनवरी 1985 से अब तक इस देश में 2,200 से अधिक लोगों को मौत की सज़ा दी जा चुकी है.


एक महिला हाथों में घातक हथियार लेकर आईएस आतंकियों से टक्कर लें, तो तस्वीर हैरान कर देती है. आईएस के बर्बर आतंकियों के खिलाफ लड़ने वाली ये कुर्दिश महिलाएं हैं. उत्तर पश्चिमी इराक में सिंजर के पहाड़ी क्षेत्रों में कुर्दिस्तान लेबर पार्टी (पीकेके) में पुरुषों की तरह महिलाएं भी सशस्त्र कार्रवाई के लिए हर समय तैयार रहती हैं.

इराक में आईएस के आतंकियों की बर्बरता को देखते हुए हर वर्ग उनके खिलाफ लड़ने और देश की रक्षा करने के लिए तैयार हो गया है. कुर्द महिलाएं भी इस लड़ाई में शामिल हैं. आतंकियों से लड़ाई के बीच कुर्द महिला सैनिकों की सेल्फी फोटो फोसबुक और ट्वीटर पर बड़े पैमाने पर शेयर की जा रही हैं. तस्वीर में महिलाएं फुर्सत के पलों में अपनी सेल्फी लेती हुई देखी जा सकती हैं. कुर्दिस्तान के लड़ाके पुरुष और महिलाएं दोनों एक दूसरे के साथ बराबरी के आधार पर काम करते हैं और इस लड़ाई में अपने निजी जीवन का बलिदान देते हैं.

इन फाइटर्स में से ज्यादातर की उम्र 18 से 25 साल के बीच की है. इनमें से बहुत सी ऐसी महिलाएं भी हैं, जिनका घर-परिवार है. इसके बावजूद वो अपने परिवार छोड़ आतंकियों के खिलाफ जंग के मैदान में हैं. उन्हें अपनी जमीन बचाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं है. ये फाइटर्स कुर्दिस्तान के अलग-अलग हिस्सों से आई हैं, लेकिन ये सब कुर्दिश ही बोलती हैं, इसीलिए आपस में इनके लिए बातचीत करना भी आसान है. ये आपस में सभी एक-दूसरे को कामरेड कहकर संबोधित करती हैं, जिसका मतलब है कि वो हर चुनौती का सामना मिलकर करेंगी.

सुन्नी इस्लाम के सहाफी धड़े को मानने वाले कुर्द तुर्की, इरान, इराक और सीरिया में सबसे बड़ी तादाद में बसते हैं. इसमें भी तुर्की में कुल कुर्द आबादी में सर्वाधिक 55 फीसद आबादी बसती है। इसके बाद इराक, ईरान और सीरिया हैं. कुर्द कहां से पैदा हुए इसका ठीक इतिहास तो नहीं है लेकिन इनका भूगोल तय है. अपने इसी भूगोल को वे जीते हैं, जिसे कुर्दिस्तान कहते हैं. यह कुर्दिस्तान तुर्की, सीरिया, इराक और ईरान तक फैला हुआ है.
हालांकि इस कुर्दिस्तान का अब तक कोई भौगोलिक अस्तित्व नहीं है, लेकिन इराक में कुर्दिश आटोनॉमस रिजन कुर्दों की अपनी रियासत है. वर्तमान आईएस वार की शुरूआत भी इसी कुर्दिश रीजन से ही शुरू होती है.
आईएस का कब्जा पहले से ही तेल के कई क्षेत्रों पर हो चुका है और यही उसकी कमाई का जरिया भी है. अब उसकी नजर कुर्दी क्षेत्र पर है. कुर्द में तेल का खजाना है, जो एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में छठा सबसे बड़ा आयल रिजर्व है.
आईएस कोबाने पर कब्जा जमाना चाहता है, ताकि वह उसे अपने योजना के मुताबिक इस्लामी राज्य में शामिल कर सके. ऐसा बताया जाता है कि कोबाने पर कब्जा जमा लेने के बाद आतंकियों के हाथ हजारों किलोमीटर लंबी तुर्की और सीरियाई सीमा आ जाएगी.
इन महिलाओं की बहादुरी ही है कि इराक में खूंखार आतंकी संगठन आईएस के लिए ये सबसे बड़ा डर बन गई हैं. आईएस के जिहादियों को इस बात का डर सताता है कि महिला के हाथ से मिली मौत के बाद वो जन्नत नहीं जा पाएंगे.
उत्तरी इराक में कुर्दिस्तान के सुलयमनियाह में 500 की संख्या वाली मजबूत सेना की सेकंड बटालियन की कमान 49 साल की कर्नल नाहिदा अहमद राशिद के हाथों में हैं. नाहिदा ने द सन को बताया था कि आईएस के आतंकी हमारे हाथों नहीं मरना चाहते. हालांकि, नाहिदा ने कहा कि उनकी महिला सिपाही आईएस आतंकियों के हाध जिंदा न पकड़े जाने की पूरी कोशिश करती हैं. पकड़े जाने पर इन फाइटर्स को या तो मार दिया जाता है या बर्बर तरीके से इनके साथ बलात्कर किया जाता है और ये टॉर्चर का भी शिकार बनती हैं. कुर्दी फाइटर्स, अपने हथियार में हमशे एक बुलेट बाकी रखती हैं. ऐसा पकडे जाने के हालात में खुद को मार देने के लिए किया जाता है. महिला फाइटर्स से आईएस का डर उस वक्त भी सामने आया, जब क्रूर आतंकी संगठन ने कुर्दी ब्रिगेड की पोस्टर गर्ल रेहाना का सिर कलम कर देने का दावा किया.

सीरिया में बीते अक्टूबर को आईएस ने यह दावा किया. रेहाना का नाम उनकी विनिंग पोज वाली तस्वीर से दुनिया मे चर्चित हो गया था. उनकी ये तस्वीर खासी वायरल हुई थी. ऐसा बताया जाता है कि सीरिया-तुर्की बॉर्डर पर स्थित कोबाने की लड़ाई में रेहाना ने आईएस के 100 से ज्यादा आतंकियों को मौत के घाट उतारा था.
कुर्दी पत्रकार पवन दुरानी इसे गलत मानते हैं. वह कहते हैं कि रेहाना की मौत की अफवाह फैलाना भी आईएस की रणनीति का हिस्सा है. रेहाना अभी जिंदा है. दुरानी मानते हैं कि आईएस समर्थक मानसिक स्तर पर तोड़ना चाहते हैं. प्रोपैगेंडा और झूठ उनके खून में दौड़ता है.
हालांकि, डेली मेल की रिपोर्ट के अनुसार, सोशल मीडिया पर एक आइएस आतंकी के हाथ में रेहाना का सिर लिए फोटो शेयर किया गया.

नाहिदा कहती हैं, ‘मां, बहनें और बीवियां अपने घरों को छोड़कर देश को बचाने की लड़ाई में उतरती हैं. आप जानते हैं कि यह लड़ाई अपने खौफनाक दौर में पहुंच गई है.’नाहिदा ने हाल ही में कहा कि हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में बचाव की आखिरी लकीर पर खड़े हैं.


अपनी मर्जी के खिलाफ हुए निकाह को ठुकराकर प्रेमी के साथ भागने वाली एक अफगान महिला को लोगों ने पत्थरों से मार मारकर मौत के घाट उतार दिया. इस घटना का एक रिकार्डिड ग्राफिक वीडियो वायरल हुआ है.

स्थानीय अधिकारियों ने अफगान मीडिया में आए वीडियो फुटेज के हवाले से मंगलवार को बताया कि जमीन में गड्ढा खोदकर महिला को गरदन तक गाड़ दिया गया था और लोग भद्दी आवाजों के साथ उसे पत्थर मार रहे थे. यह वीडियो फुटेज फेसबुक पर भी वायरल हो चुका है.

अधिकारियों के मुताबिक, हत्या की यह घटना एक सप्ताह पहले घोर प्रांत की राजधानी फिरोजकोह से करीब 40 किलोमीटर दूर घालमीन इलाके में हुई. घोर की गवर्नर सीमा जोयंदा ने बताया कि तालिबान, स्थानीय धार्मिक नेताओं और हथियारबंद कबीलाई लोगों ने महिला को पत्थर मार मारकर मार डाला.

जोयंदा के प्रवक्ता ने बताया कि मीडिया में दिखाई गई फुटेज रुखसाना की है जिसकी पत्थर मार मारकर जान ले ली गई. अधिकारियों ने इस महिला का नाम केवल रुखसाना बताया है। उसकी उम्र 19 से 21 साल के बीच बताई गई है. वीडियो में दिखता है कि पत्थर मारे जाने के दौरान वह लगातार शहादा (कलमा) पढ़ रही है. अंतिम 30 सेकेंड में उसकी आवाज बेहद तेज सुनाई देती है.

जोयंदा ने कहा कि प्रशासन की सूचना के अनुसार रुखसाना के परिवार ने उसका निकाह उसकी मर्जी के खिलाफ एक व्यक्ति से किया था. लेकिन वह अपनी उम्र के किसी दूसरे व्यक्ति के साथ भाग गई थी. उन्होंने कहा, इस इलाके में यह पहली घटना है, लेकिन यह यहीं पर नहीं रुकेगा. जोयंदा अफगानिस्तान की केवल दो महिला गवर्नरों में से एक हैं. उन्होंने कहा, महिलाओं को आमतौर पर देशभर में समस्याएं हैं, लेकिन घोर प्रांत में यह खास तौर पर है. जोयंदा ने महिलाओं की बदतर हालत पर जोर देते हुए कहा कि जिस आदमी के साथ रुखसाना भागी थी उसे पत्थर नहीं मारे गए.

घोर पुलिस ने बताया कि घटना तालिबान के कब्जे वाले इलाके में हुई. उसके मुताबिक, इस वर्ष यह इस प्रकार की पहली घटना है. शरिया कानून विवाह से इतर यौन संबंध बनाने वाले पुरुषों और महिलाओं को पत्थर मार मारकर मौत की सजा देने (संगसार करने) की बात कहता है. रुखसाना के प्रेमी को कोड़े मार कर छोड़ दिया गया.हालांकि मुस्लिम देशों में इस सजा को बिरले ही अमल में लाया जाता है. लेकिन 1996 से 2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबान के शासन के दौरान इस प्रकार सजा दिया जाना आम बात थी.


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