फ़िरदौस ख़ान
समय बदला, हालात बदले लेकिन नहीं बदली तो नारी की नियति. नारी सदैव प्रेम के नाम पर छली गई. उसने पुरुष से प्रेम किया, मन से, विचारों से और तन से. मगर बदले में उसे क्या मिला धोखा और स़िर्फ धोखा. पुरुष शायद प्रेम के महत्व को जानता ही नहीं, तभी तो वह नारी के साथ प्रेम में रहकर भी प्रेम से वंचित रह जाता है, जबकि नारी प्रेम में पूर्णता प्राप्त कर लेती है. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित डॉ. प्रतिभा रॉय की पुस्तक महामोह अहल्या की जीवनी में नारी जीवन के संघर्ष की इसी कथा-व्यथा को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है. डॉ. प्रतिभा रॉय कहती हैं कि अहल्या एक पात्र नहीं, एक प्रतीक है. जब प्रतीक व्याख्यायित होता है, तब एक पात्र बन जाता है. जब पात्र विमोचित होता है, तब दिखने लगता है प्रतीक में छिपा अंतर्निहित तत्व. अहल्या सौंदर्य का प्रतीक है, इंद्र भोग का, गौतम अहं का प्रतीक है, तो राम त्याग एवं भाव का प्रतीक है. महामोह की अहल्या वैदिक नहीं है, पौराणिक नहीं है, ब्रह्मा की मानसपुत्री नहीं है, वह ईश्वर की कलाकृति हैं, चिरंतन मानवी हैं. वैदिक से लेकर अनंतकाल तक है उनकी यात्रा. वे अतीत में थीं, वर्तमान में हैं, भविष्य में रहेंगी. मोक्ष अहल्या की नियति नहीं, संघर्ष ही है उनकी नियति. अहल्या के माथे से कलंक का टीका नहीं मिटता. अत: अहल्या देवी नहीं है, अहल्या है मानवीय क्रांति. अहल्या का संघर्ष केवल नारी का संघर्ष नहीं है, न्याय के अधिकार के लिए मनुष्य का संघर्ष है.
अहल्या अपने द्वार पर आए इंद्र से पूछती है-क्या वरदान चाहिए प्रभु?
मैं हाथ जो़डे ख़डी थी. अपने मनोरम हाथ ब़ढाकर उन्होंने मेरी हथेली को स्पर्थ किया. स्पर्श के अहसास से ज़ड में भी जान आ जाती है. यह कैसा मधुकंपन होने लगा मेरे भीतर? अनुभूत सुख ढूंढते-ढूंढते मानो मैं परमानंद प्राप्त करने का जा रही थी. अपने हाथ का स्पर्श देने से अधिक भला मैं और क्या कर सकती थी? एक स्पर्श में ही अथाह शक्ति होती है? मेरा लौहबंधन तार-तार हो गया स्पर्श की शक्ति से. महाकाल के वक्ष पर वे अभिलाषा पूर्ण घ़िडयां थीं नि:शर्त. वहां लाभ-हानि, यश-अपयश, अतीत-भविष्य, स्वर्ग-नर्क, वरदान-अभिशाप का द्वंद्व नहीं था, जबकि प्रतिश्रुति, वरदान और प्रतिदान की कठोर शय्या पर पैर रखकर उतर आई थीं वे घ़िडयां देह से मनोभूमि में.
मुझे यह अनुभूति हुई कि सारी सीमाएं अनुशासित होते हुए भी मेरे भीतर ऐसा कोई नहीं था, जिसने मुझे अगम्य स्थान की ओर उ़ड जाने को प्रेरित किया. उस शक्ति ने सारे बंधन और बेडियां तो़ड डालीं. बे़डियां तो़डना मनुष्य का सहज स्वभाव है. रिश्ते जब बे़डियां बन जाते हैं, तभी वे रिश्ते टूटते हैं, बंधन टूटते हैं. बंधन टूटने के विषाद और मुक्ति के उद्‌घोष एवं विषाद-प्रफुल्लित भावावेग से वे घ़िडयां थीं मधुर पी़डादायी. वह घ़डी, निष्कपट समर्पण की घ़डी है. स्वयं को दूसरे के लिए उ़डेल देने की घ़डी. वह घ़डी थी प्रेम की घ़डी, जिस प्रेम मंं दूसरा पक्ष नहीं होता. लेन-देन का हिसाब नहीं होता. उस घ़डी का आकर्षण दुर्दम्य होता है कि वहां पाम-पुण्य, नीति-नियम अंधे और बहरे हो जाते हैं. उस घ़डी मेरे भीतर छल-कपट नहीं था. वह घ़डी निष्कपट, विशुद्ध प्रेम की घ़डी थी. उस समय मैं विभाजित नहीं थी. पूरी की पूरी इंद्र की थी. वह घ़डी भ्रांति की घ़डी नहीं थी, क्रांति की घ़डी थी. उस घ़डी ने प्रलय को स्तब्ध कर दिया था.
मैं नहीं जानती, प्रेम की वह घ़डी इंद्र के लिए नि:शर्त और निष्कपट थी या नहीं, किंतु नारी के लिए प्रेम नि:शर्त होता है. देह भोग की वासना उस प्रेम की शर्त नहीं होती, किंतु क्या पुरुष के लिए देह भोग प्रेम की शर्त है? अत: प्रेम की उपलब्धि से इंद्र की अपूर्णता पूर्ण हुई या नहीं, मैं नहीं जानती. किंतु मैं पूर्ण, परिपूर्ण हो गई थी. मैं इंद्रलुब्धा नहीं थी-मैं थी इंद्रमुग्धा. मैं इंद्र से होकर उत्तरण के सोपानों पर च़ढती जा रही थी, पृथ्वी की अतल में, आकाश से होते हुए आकाश से भी ऊंची. इंद्रिय आनंद से इंद्रानंद में-परमानंद की उपलब्धि में. इंद्रानंद सोमरस पान की तरह अपार्थिव है.
आत्म मुक्ति या जगत की मुक्ति? इस प्रश्न का उत्तर इंद्र पा चुके थे. आत्म मुक्ति के द्वार पर इंद्र सदैव बाधा उत्पन्न करते हैं. क्या गौतम के यक्ष का लक्ष्य आत्म मुक्ति था? अपरिपक्व, ज्ञान, साधना और अनुभूति के बिना उत्तरण, मुक्ति और अमरत्व की कामना करना विडंबना है. देवतागण मनुष्य की इस बुरी आकांक्षा का विरोध करते हैं. संभवत: इसलिए इंद्र ने गौतम का विरोध किया और मुझे प्रदान की सत्य की अंतरंग अनुभूतियां. स्वाहा है यक्ष की आत्मा. यक्ष के मंत्र का अंतिम और श्रेष्ठ भाग है स्वाहा. सु-आहुति स्वाहा का श्रेष्ठ गुण है. मैंने इंद्रदेव के लिए स्वयं को स्वाहा कर दिया. मेरी मिथ्या देह है सत्य की सिद्धिभूमि. मैं थी कन्या, पत्नी, गृहिणी, किंतु मैं नारी नहीं बन पाई थी. इंद्र के स्पर्श से मैं नारी बन गई. मैं पूर्ण हो गई. पूर्ण से पूर्ण निकालने की शक्ति भला किसमें है? यदि किसी में हुई तो पूर्ण से पूर्ण निकल जाने पर भी मैं पूर्ण ही रहूंगी.
हे, इंद्रदेव! मैं कृतज्ञ हूं. आपने मुझे पूर्णता का अहसास कराया. आपने मेरे ज़ड बन चुके नारीत्व में फिर से प्राण फूंक दिए.
मैंने इंद्रदेव को प्रणाम किया. प्रभात हो चला था. क्या पक्षियों ने रात का महाप्रलय का सामना नहीं किया? उनके कलरव में कहीं कोई अस्वाभाविकता नहीं थी. इंद्रदेव प्रस्थान करने को उतावले थे. विदा की घ़डी आ गई. इंद्रदेव निर्लिप्त-निराकार थे. किंतु वे तृप्त थे, यह स्वीकारने में उनमें कोई झिझक नहीं थी.
अहल्या, मैं तृप्त हुआ. तुम्हारा दान अतुलनीय है. प्रेम की चिर-आराध्या देवी बनकर तुम मेरी अंतरवेदी में सदैव पूजी जाओगी. आज के इस देह-संगम की स्मृतियां, तुम्हारी देह की सारी सुरभित सुगंध मेरी देह की समस्त ग्रंथियों में सदा भाव-तरंग बनाते रहेंगे. तुम्हारे पति के पदचाप सुनाई देने लगे हैं. मैं तुम्हारा मुक्तिदाता नहीं, मैं तुम्हारा भाग्य और नियति नहीं. मैं तुम्हारी परीक्षा भी नहीं. तुम स्वयं ही अपनी परीक्षा, भाग्य और नियति हो. साधना का द्वार अब तुम्हारे लिए खुल चुका है. मुझे विदा दो और अपनी रक्षा करो.
इंद्र के विदा होते समय मुझे ठेस नहीं पहुंच रही थी, क्योंकि मैं जानती थी, मैं मर्त्य की नारी हूं. इंद्र मेरे भाग्यविधाता नहीं बन सकते. यह विदाई तय थी. किंतु मुझे ऐसी अवस्था में छो़डकर, गौतम के पहुंचने से पहले किसी लम्पट पुरुष की तरह जल्दी-जल्दी वहां से भागने लगना मुझे बहुत कष्ट दे रहा था. तो क्या इंद्र भाव के सम्राट नहीं हैं, क्या वे भोग-लम्पट हैं, एक सामान्य पुरुष? क्या मेरे क्षणभंगुर सुंदर देहभूमि पर विजय पताका फहराकर गौतम को नीचा दिखाना था इस प्रेम का लक्ष्य? तब तो यह प्रेम नहीं था, एक भ्रांति थी. क्या मैं इंद्रयोग्या नहीं थी, इंद्रभोग्या थी? यह सोचकर दुख और आत्मग्लानि से उदास हो उठी. इंद्र ने गर्व के साथ गौतम का सामना किया होता तो मैं इंद्र को परम प्रेमी के स्थान पर रखकर बाक़ी का जीवन पूर्णता से रंग लेती. प्रेम निर्भीक होता है, प्रेम निरहंकार होता है, प्रेम नि:स्वार्थ होता है, जबकि एक कामुक पुरुष की तरह अपने स्वार्थ को ब़डा करके ऋषि के कोप के भय से मुझे असहाय अवस्था में छोड कर वहां से खिसक लेने के कारण मेरे सच्चे अहसास पर एक काली रेखा खींच दी उन्होंने. यह प्रेम है या भ्रम, पाप है या पुण्य? उचित है या अनुचित?
किंतु मैंने जो कुछ किया, जान-बूझकर किया. जब आत्मा प्रेम के लिए समर्पित हो जाती है, तब देह अपनी सत्ता खो देती है और आत्मा के साथ देह भी समर्पित हो जाती है. इसलिए उस क्षण मुझमें ग्लानि या पापबोध नहीं हुआ. मिलन के सुख और विरह के दुख दोनों से मेरा नारीत्व आज परिपूर्ण था.
बहरहाल, यह किताब बेहद रोचक है. लेकिन संस्कृतनिष्ठ हिंदी होने के कारण पाठकों को कुछ शब्दों को समझने में द़िक्क़त पेश आ सकती है. अगर भाषा थो़डी सरल होती तो सोने पे सुहागा होता.


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