अतुल मिश्र
वे हिंदी के एक ऐसे कवि थे, जिनके नाम से पूरा मौहल्ला घबराता था. कविताओं में छंदों को वे किसी अनारक्षित वर्ग की निगाह से देखते थे और इसीलिये उन्होंने यह संकल्प लिया हुआ था कि मर जायेंगे, मगर छंदबद्ध रचनाएं कभी नहीं लिखेंगे. मौहल्ले के अनेक लोगों को विद्वान् मानते हुए उन्होंने उनको अपना परमानेंट श्रोता बना रखा था. मुक्त छंद में रचनाएं लिखना उन्हें इसलिए भी सूट करता था कि छंद की बंदिशों पर उनका यक़ीन उठ चुका था. उनकी कविताओं के अनेक संग्रह उनकी बीवी रद्दी वालों को छपने से पहले ही समर्पित कर चुकी थी, इसलिए वे अब एक नया संग्रह अपनी मुक्त छंद कविताओं का छपवा रहे थे और जिसे किसी ऐसे काव्य-प्रेमी को समर्पित करना उनके कार्यक्रम में था, जो उसकी छपाई का पूरा खर्चा दे सके.

उनका कुर्ता-पायजामा उनके हिंदी-कवि होने का सबूत था और बेतरतीब ढंग से अपने आप बढ़ रहे बाल उनके छंदों की मुक्तता की गवाही के सुबूत देने के लिए पर्याप्त थे. जीवन में बंधनों को उन्होंने कभी स्वीकारा नहीं और इसी तर्क पर शादी करना तो उनकी साहित्यिक मज़बूरी थी, मगर नौकरी करने की कोई मज़बूरी इसलिए नहीं थी कि उनकी पत्नी वह काम कर रही थी. अखबारी समाचारों में जीवित रहने के लिहाज़ से साल में दस-बीस स्थानीय कवि-गोष्ठियों और दो-चार अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों में ही वे भाग लेते थे. उनका मानना था कि कवि-सम्मेलनों में अब वो वाली बात नहीं रही, जो कभी निराला जी और बच्चन जी के ज़माने में हुआ करती थी.

उनका आतंक मौहल्ले में इतना था कि घर से बाहर निकलने से पहले लोग अपने बच्चों को बाहर भेज कर दिखवा लेते थे कि ' कवि अंकल' बाहर टहल रहे हैं या नहीं. यह बात कन्फर्म होते ही कि वे अभी बाहर नहीं हैं, लोग जल्दी से अपने काम पर निकल लिया करते थे. कई मर्तबा ऐसा भी होता था कि इधर श्रोतानुमा आदमी अपने घर से बाहर निकला और वे गली के नुक्कड़ पर ही मिल गए और अपनी ताज़ातरीन कविता की उतनी पंक्तियां सुना दिया करते थे, जितनी सुनने के बाद श्रोता को कोई ऐतराज़ ना होता हो कि ऑफिस को देर हो जायेगी. उनके फालतू वक़्त में से बचा सारा वक़्त कविताओं के निर्माण में ही जाता था.
अपनी गली में टहलना उनका शौक ही नहीं था, उनकी ज़रूरत भी थी. अपनी कविताओं में सौन्दर्य लाने के लिए वे एक सौन्दर्य-प्रेमी भी बन गए थे और जिसके तहत गली से गुज़रती हर कन्या और महिला को वे तब तक ताकते रहते थे, जब तक वह अपने सौन्दर्य को समेटते हुए आंखों से ओझिल नहीं हो जाती थी. उनका सौन्दर्य-प्रेम अपूर्व था. घरों में चौका-बर्तन करने वालियों के प्रति भी वे उतने ही सह्रदय थे, जितने चौका-बर्तन करवाने वालियों के प्रति थे. वे पक्के समाजवादी बनने के तमाम गुणों से परिपूर्ण थे. उनके बच्चे, जो फालतू वक़्त होने की वजह से कुछ ज़्यादा ही हो गए थे, इस बात से अच्छी तरह वाक़िफ थे कि उनके पिताजी इन दिनों सौन्दर्य-शास्त्र पर कोई क़िताब लिख रहे हैं और जिसके लिए गली में घूमना निहायत ज़रूरी है. बस, यही एक बात थी, जो उनके बच्चों की होने के बावज़ूद, उन्हें बेहद पसंद थी और उन्हें एक महाकवि बनाने में किसी भी तरह से उनके आड़े नहीं आ रही थी.

1 Responses to व्यंग्य : होना एक भावी महाकवि का

  1. भारतीय नागरिक - Indian Citizen Says:
  2. अच्छे कवि हैं या थे...

     

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