मुहम्मद उमर कैरानवी
क़लम और ज़बान से धर्म की तो तलवार से देश के लिए अंग्रेजों से टक्कर लेने वाली शख्सियत, जिसे शिया, सुन्नी, बरेलवी और देवबंदी यहां तक कि इस्लाम से निकाले गए. अहमदी भी अपना मानते हैं कि बारे में जरूरी है जान लिया जाए, मेरी जानकारी में नये उलमा यानी गदर से अब तक ऐसी कोई आलिम शख्सित नहीं हुई जिसे दूसरे मसलकों वालों ने भी इतना प्यार दिया हो, साजिश के तहत इन से संबंधित बहुत कुछ मिटा दिया गया था, यही एक कारण है शायद इनके बारे में अधिकतर अनजान हैं.
योद्धा सृष्टा, इमामुल मनाजिरीन और बानीये दारूल उलूम हरम मदरसा सौलतिया मक्क़ा मुअज्जमा हज़रत मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी जमादीउल अव्वल 1233 हिजरी को कस्बा कैराना (जिला मुजफ़्फ़रनगर, यू.पी.) में पैदा हुये। आप के जद्दे आला (पूर्वज) शेख अब्दुर्रहमान गाजरोनी थे, जो सल्तनत महमूद के साथ हिन्दोस्तान आए और पानीपत में निवास कर लिया आप के जन्म से पूर्व माता ने सपना देखा कि तेरे यहां चांद समान पुत्र पैदा होगा और उसका प्रकाश समस्त संसार में फैलेगा! मौलाना रहमतुल्ला ने 12 वर्ष की आयु में कुरान मजीद स्मरण कर दीनियात और फारसी की प्राथमिक पुस्तकें अपने बड़ों से पढ़ी. तत्पश्चात शिक्षा ग्रहण हेतु देहली प्रस्थान किया और मौलाना मोहम्मद हयात साहब के मदरसे में प्रविष्ट हुए. मौलाना मोहम्मद हयात के मदरसे के विषय में सर सैयद ने लिखा है कि आप की शिक्षा के प्रसार से निम्न श्रेणी का शिक्षार्थी उस वक्त के विद्वानों से उच्च कोटि का माना जाता था। दूसरे महत्वपूर्ण शिक्षक मौलाना अब्दुर्रहमान चिश्ती थे जो उस्ताद शाहे वक्त हयात साहब के शिष्यों मे थे और सम्पूर्ण ज्ञान में दक्षता रखते थे। हकीम फैज मौहम्मद साहब जो कि अपने जमाने के प्रसिद्ध एवं योग्य चिकित्सक थे, उन से ज्ञानर्जन किया। आप का शजरा नसब (वंश लता) से ज्ञात होता है कि हर युग में इस वंश ने चिकित्सा सेवा की है मुगल बादशाह जहांगीर के वज़ीर नवाब मुकर्रब खां कैरानवी ने चिकित्सकीय सेवा के साथ साथ महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किये थे। लेखक लोकारनम से गणित की शिक्षा पाई. दूषित वातावरण और हिन्दोस्तान में ईसाईयत के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रोकने की चिंता ने आपको इस का अवसर न दिया कि आप अपनी शिक्षा को यथावत जारी रख सकें। दरबार कैराना की मस्जिद में मौलाना ने एक दीनी मदरसा स्थापित किया. इस मदरसे से लाभान्वित शिक्षार्थियों में मौलाना अब्दुस्समी, लेखक ‘हम्द बारी’ योग्य विद्यार्थी प्रसिद्ध हुए। मौलाना मरहूम की शादी 1256 हिजरी में अपनी खाला की लड़की से हुई. देहली में महाराजा हिन्दुराव के यहां अमीर मुंशी बनकर रहे कुछ घरेलू मजबूरियों के कारण मौलाना को कैराना वापस आना पड़ा. कैराना पहुंचकर पठन तथा पाठन के साथ रददे नसारा, ईसाईयत के विरोध में युद्ध पर महत्वपूर्ण पुस्तक, इजालतुल औहाम लिखनी शुरू की. इस पुस्तक की छपाई के दौरान ही मौलाना बहुत बीमार हो गए. एक रोज़ मौलाना फ़ज्र की नमाज़ के पश्चात रोने लगे. संबंधियों ने समझा कि आप जीवन से निराश हो गए हैं। आपने बताया कि बखुदा स्वस्थ होने का कोई लक्षण नहीं, परन्तु आराम होगा इंशा अल्लाह. रोने का कारण यह है कि सपने में हज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम तशरीफ लाए, हज़रत सददी के अकबर साथ हैं। हज़रत फ़रमाते हैं "ए जवान तेरे लिए रसूलुल्लाह की यह खुशखबरी है अगर तकलीफ़ ‘इजालतुल औहाम’ की वजह है तो वह आराम की वजह भी होगी, अल्हम्दु लिल्लाह वह स्वस्थ हो गए। इस पुस्तक में ईसाइयत के अकसर प्रश्नों के उत्तर हैं। इजालतुल औहाम के छपने से पहले ही देहली में काफ़ी प्रसिद्ध हो गई, जिस का विरोध भी प्रारंभ हो गया. इस कारण मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने उस समय के योग्य विद्वान मौलाना नूरूल हसन साहब कांधलवी को छपाई हेतु तैयार कागजात संशोधन के लिये भेजे थे, मौलाना रहमतुल्लाह साहब इजालतुल औहाम की छपाई के विषय में देहली आए तो उन की भेंट काक्टर वजीर खां से हुई, जो मौलाना रहमतुल्लाह के सच्चे सहायक मित्र सिद्ध हुए। डाक्टर साहब आगरे में अंग्रजी चिकित्सालय में प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित थे। अंग्रेजी की उच्च शिक्षा के कारण अंग्रेजी अवतरणों की व्याख्या करने में मौलाना के सहायक बन गए. मौलाना ने उनको कई स्थान पर रहमत के फरिशत जैसा बताया है। डाक्टर वज़ीर खां जब डाक्टरी की डिग्री लेने इंग्लैंड गए तो वहां से ईसाईयों की बहुत-सी धार्मिक पुस्तकें साथ लेते आए. उन पुस्तकों का अवलोकन आगरे के मुनाजिरे (तर्क वितर्क) में बहुत काम आया, डाक्टर साहब अंग्रेजी के अलावा इबरानी यहूदी भाषा भी जानते थे। आगरे में ईसाई पादरी, उलमा के मौनधारण से अनुचित लाभ उठाते थे और जनता में परोपेगन्डा करते फिरते थे कि हमारे धर्म की सत्यता का भय इतना है कि हिन्दोस्तानी विद्वान हमारे तर्क का उत्तर नहीं दे सकते और अपने धर्म इस्लाम की सत्यता सिद्ध नहीं कर सकते. इसी बीच मौलाना रहमतुल्लाह वजीर खां के निमंत्रण पर आगरे गए. आगरे में मौलाना के दो मुनाजरे हुए जो कि छोटा मुनाजरा, बड़ा मुनाजरा के नाम से प्रसिद्ध हैं। छोटा मुनाजरा दो तीन पादरी मौलाना रहमतुल्लाह और डाक्टर वज़ीर खां के बीच हुआ जिस में पादरियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा, लेकिन यह बात उन लोगों तक ही सीमित रही इस कारणवश मौलाना ने बड़े मुनाजरे की तैयारी की, ताकि दुनिया देखे और सुने। मौलाना की कोशिशों से पादरी फन्डर आम मुनाजरे के लिए तैयार हुआ. शर्त यह तय पाई कि जो हार जाएगा दूसरे का धर्म स्वीकार कर लेगा। मुनाजरा तीन दिन चलना था, मगर दो रोज की पराजय ने पादरियों को तीसरे दिन मुंह दिखाने के काबिल न छोड़ा और वह न आए। मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी और डाक्टर वजीर खां ने इन्जील, बाईबिल के जो नुस्खे जमा किए थे, उन्हें भरे मजमे में दिखाकर यह साबित किया कि किसी में कुछ हटा दिया गया किसी में कुछ बढा दिया गया, भरे मजमे में पादरियों के इन्जील में परिवर्तन स्वीकार करना पडा। मुनाजिरे (तर्क-वितर्क) से पादरियों की शिकस्त का लाभ यह हुआ कि पादरियों का जोर शोर घट गया और उन्होंने धर्म प्रचार व प्रसार की पुस्तकें जो अधिकतर बांटते थे. एकदम बांटना छोड़ दी, मौलाना और भी बड़ा मुनाजरा करना चाहते थे, मगर पादरी फान्डर हिन्दुस्तान ही से चला गया बाद में मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी साहब से कुस्तुनतुनिया में पादरी फान्डर टकराता के मौलाना की आगमन की खबर मिलते ही वह वहां से भी चला गया। ईसाईयत की रही सही कसर मौलाना के शागिर्दो ने तोड़ दी। मौलाना शरफुल हक़ वालिद इमदाद साबरी ने मौलाना रहमतुल्लाह से मुनाजरे की इइजाज़त लेकर इसाईयों से सैकडों मुनाजरे किये अल्हमदु लिल्लाह सबमें पादरियों को हार हुई। मौलाना रहमतुल्लाह साहब की पुस्तकें और मुनाजरे ईसाईयों के उत्तर में कलमी जिहाद था और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की भूमिका साबित हुई। मेरठ के धर्म योद्धाओं ने स्वतंत्रता का युद्ध प्रारम्भ कर दिया। अन्य यौद्धओं के साथ मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी ने भी स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और जंग में अपने मित्रा डा.वजीर खां और मौलवी फेज अहमद बदांयूनी के साथ स्वतंत्रता संग्राम मे सम्मिलित हुए। कस्बा कैराना में जमींदारी शेखों व गूजरों के हाथों में थी, जिनमें नैतिक गुण तथा उत्साह यौवन पर था। थाना भवन और कैराना का एक मोर्चा स्थापित किया गया योद्धा मुकाबला करते रहे। शामली की तहसील पर हमला किया गया। थाना भवन का मोर्चा हाजी इमदादुल्ला मुहाजिर मक्की तथा कैराना का मोर्चा मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी संभाले हुए थे। उस जमाने में शाम की नमाज के बाद धर्म योद्धाओं के संगठन व दीक्षा के लिए नक्कारे की आवाज पर एकत्रित किया जाता और ऐलान होताः ‘‘मुल्क खुदा का और हुक्म मौलवी रहमतुल्लाह का’’ शामली की तहसील तोड़ने में हाफिज जामिन साहब शहीद हुए, इन्हीं कारणवश मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी का वारन्ट जारी कर दिया गया, मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने पंजीठ में पनाह ली। अंग्रेज फौज ने गांव वालों को परेशान किया जिस पर मौलाना ने कहा इस से अच्छा हो कि मैं गिरफ़्तार हो जाऊं, इस पर गांव के चैधरी अज़ीम साहब ने कहा कि अगर पूरा गाँव भी गिरफ़्फतार हो जाए और उनको फाँसी पर लटका दिया जाए तो ऐसे वक्त भी आपको फौज के हवाले नहीं किया जाएगा, ऐसे बलिदानी थे मौलाना के मित्रगण, यहाँ यह तथ्य उल्लेखनिय है कि इन महान स्वतंत्रता सेनानियों की पाठय पुस्तकों के इतिहास में उपेक्षा की जा रही है इन्हीं दिनों में मौलाना रहमतुल्लाह अपना नाम मुसलिहुददीन रख कर दिल्ली रवाना हुए और जयपुर व जोधपुर के खतरनाक जंगलों को पैदल तय करते हुए सूरत बन्दरगाह पहुंचे, सूरत से हज के लिए रवाना हुए एक लम्बे और कठिनाइयों से परिपूर्ण यात्रा करके अल्लाह पर विश्वास करते हुए मक्का मुअज्जमा पहुंचे, ताकि अल्लाह के घर शान्त वातावरण में इस्लाम को फैला सकें।
1857 में शिक्षा जगत के नायक मौलाना मोहम्मद कासिम थे, जिन्होंने देवबन्द में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक छावनी स्थापित की. बाद में उसका नाम मदरसा देवबंद रखा गया। जिसे दारूल उलूम देवबंद के नाम से एतिहासिक प्रसिद्धी प्राप्त है। मौलाना मोहम्मद कासिम का दृष्टिकोण था ‘‘शिक्षा एक शक्ति है’’ मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने भी इसी दृष्टिकोण के अनुसार एक मदरसा स्थापित किया जिसका नाम मदरसा सौलतिया रखा गया। धार्मिक शिक्षा मक्का से चलकर हिन्दुस्तान आई और हिन्दुस्तानी विद्वान मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी का यह चमत्कार है कि उन्होंने इस ज्ञान को पुनः मक्का पहुंचा दिया. उनके समय के पश्चात ये शिक्षा केन्द ज्ञान की ज्योति तथा धर्म की सेवा निरन्तर कर रहा है। कैराना व आसपास के इलाके के हाजी जब मक्का जाते हैं तो इस मदरसे को देखकर गर्व महसूस करते हैं।
वर्तमान काल के लोकप्रिय कवि कलीम अहमद ‘आजिज’ मदरसा सौलतिया का परिचय अपनी रचना ‘यहां से मदीना, मदीना से काबा’ में यूं देते हैं ‘‘ये मदरसे का मदरसा है खानकाह की खानकाह है, दफ्तर का दफ्तर है, सराय की सराय है जो जिस कैफियत का इच्छुक हो वो मिलेगी। ये एक ऐसी संस्था है जो सदियों पहले हुआ करती थी यहां शिक्षा का अभिलाषी ज्ञानार्जन कर सकता है बुद्धि के इच्छुक को बुद्धि मिलेगी, जुनूं के दिवानों के जुनून प्राप्त होता है, मुहब्बत चाहिए तो जितनी चाहिए उससे ज़्यादा मिले रोटी, कपड़ा, मकान चाहिए तो बकदरे जर्फ वो भी मौजूद है फ़तवा चाहिए तो फ़तवा हाज़िर, अमानत रखनी हो तो आजाओ छोड जाओ ये घर तुम्हारा घर है, अमानत वापस लेनी चाहो तो वह पड़ी है उठा लो, साहित्य चाहिए तो सुबहान अल्लाह वो भी हाज़िर, संक्षिप्त ये कि मानवता का डिपार्टमेन्टल स्टोर है’’।
मौलाना रहमतुल्ला की कई रचनाएं बाजार में उपलब्ध नहीं वर्तमान में फ़रीद बुक डिपो,नई दिल्ली ने उर्दू में ‘‘मुजाहिद-ए-इस्लाम मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी’’ पुस्तक छापकर इस कमी को दूर किया है। मौजूदा अध्यक्ष मौलाना हशीम साहब ने एक बार टेलीफोन वार्ता में बताया कि मौलाना से मुताल्लिक पुस्तकें आदि पोस्ट बाक्स न. 114, मदरसा सौलतिया, मक्का से मुफ़्त मंगाई जा सकती हैं। मदरसे की वेसाईट http://www.alsawlatiyah.com/ जो अभी अरबी में है उसे जल्द ही उर्दू और इंडोनेशियन में भी कर दिया जाएगा। उपलब्ध पुस्तकें ‘इजालतुश्शुकूक’’ में ईसाइयों के 29 सवालों के जवाब हैं और उसमें मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्ल्म के नबी होने पर और इन्जील ईसाइयों की धार्मिक पुस्तक में रददो बदल साबित की गयी है। पुस्तक ऐजाज-ए-ईसवी में मौलाना ने इन्जील का अविश्वसनीय होना सिद्ध किया है।
पुस्तक 'इज़हार उल हक़' जो असल अरबी भाषा में है मौलाना की अन्तिम आयु की है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। अंग्रेजी संस्करण लंदन से छपा है जिसका विवरण कैराना वेबसाईट कैराना डोट नेट पर देख सकते हैं। इस पुस्तक की तैयारी में मौलाना ने अरबी,फारसी, उर्दू और दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का अवलोकन करने के पश्चात जब ईसाईयत पर अन्तिम बार कलम उठायी तो वो गौरवशाली रचना बन गयी जिसने ईसाई संसार में तहलका मचा दिया, लन्दन टाईम्स ने पुस्तक 'इज़हार उल हक़' पर टिप्पणी करते हुए लिखा है ‘अगर लोग इस पुस्तक को पढ़ते रहे तो मज़हबे-ईसा की तरक्क़ी बंद हो जाएगी’. इस्लामी विद्वानों की ओर से जितनी पुस्तकें ईसाईयत की रोकथाम में लिखी गईं. सब ''इज़हार उल हक़' की रोशनी में लिखी गईं।
मौलाना अशरफ अली थानवी बयानुल कुरआन में, मौलाना हिफजुर्रहमान ने किससुल कुरआन में, मौलाना मोहम्मद अली ने पैगाम-ए- मोहम्मदी में आपकी पुस्तकों की बहुत प्रशंसा की है।
कादनियत के मुकाबले में अल्लामा कश्मीरी मैदान में आये तो आपके अवलोकन में मौलाना रहमतुल्ल कैरानवी की रचनाएं रहा करतीं और प्रार्थना किया करते ‘ अल्लाह मौलाना रहमतुल्ला को जजाऐ खैर अता फ़रमाया कि उनकी पुस्तकें इस्लामी विचारधारा की सुरक्षा में अद्वितीय हैं. खुदा न करे वक़्त पड़ने पर हमारे धार्मिक विद्वानों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं। मौलाना का देहान्त रमजानुल मुबारक में 1308 हिजरी, 1861 ई0 में हुआ। आपकी कबर मक्का जन्नतुल मुअल्ला नामक कब्रिस्तान में है. आपके पहलू में हाजी इमदादुल्लाह महाजिर मक्की भी दफ़न हैं।
विशेष सूचना : हम दुनिया के सभी मज़हबों का समान रूप से सम्मान करते हैं. हम न किसी विशेष मज़हब का प्रचार कर रहे हैं और न ही विरोध... संपादक
विशेष सूचना : हम दुनिया के सभी मज़हबों का समान रूप से सम्मान करते हैं. हम न किसी विशेष मज़हब का प्रचार कर रहे हैं और न ही विरोध... संपादक
क्या यह मजहब के प्रचार के लिये है???
क्या यह धर्म प्रचार के मकसद से लिखा गया है???
इस लेख के दखने से पहले आज तक मुझे लगता था यह प्लेटफार्म भी इस्लाम दुश्मनों का ही, यह भ्रम आपका 'धर्म' का पेज देख के गलत भी नहीं था, यह धर्म प्रचार बिल्कुल नहीं है, बस एक अंग्रेज फौज से टक्कर लेने वाले का परिचय है, हम अहसान मन्द हैं इस शख्सियत के यह न होती तो शायद आज हिन्दुस्तान में कोई दूसरी कौम न होती,
आपका धन्यवाद कि स्टार ने अपने विवेक से स्वयं इस लेख को इतने बडे प्लेटफार्म पर रखा, दुख है कि समय रहते मुझे इसकी खबर न होसकी, मुझे बेहद खुशी है कि स्टार सब की बात रखता है